अयोध्या में हमेशा चैत्र कृ. नवमी को श्री ऋषभदेव की जयंती का कार्यक्रम, रथयात्रा महोत्सव आदि होते रहे हैं। अयोध्या के निकट टिवैâतनगर में मेरा जन्म होने से यहाँ अयोध्या में प्रत्येक जन्मजयंती में हम सभी का आना होता रहा है।
आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज की प्रेरणा से अयोध्या में ईसवी सन् १९५२ में कटरा मंदिर में ज्येष्ठ कृ. सप्तमी को भगवान ऋषभदेव, भरत, बाहुबली की प्रतिष्ठा एवं सन् १९६५ में रायगंज मंदिर में ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की वैशाख शु. १३ को प्रतिष्ठा आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में ही सम्पन्न हुई हैं।
ईसवी सन् १९५२ में ज्येष्ठ मास में भगवान ऋषभदेव-भरत-बाहुबली की प्रतिष्ठा के समय मुझे श्री देवी बनने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
पुन: सन् १९५२ में ही शरद् पूर्णिमा के दिन ही मैंने गृहत्याग करके त्याग मार्ग में कदम बढ़ाया। चैत्र कृ. एकम् को सन् १९५३ में मेरी क्षुल्लिका दीक्षा महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर हुई एवं सन् १९५६ में वैशाख कृ० दूज को मैं आर्यिका ‘ज्ञानमती’ बनी हूँ।
वीर नि. संवत् २५१८, सन् १९९२ को २३ अक्टूबर को, धनतेरस को प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में हस्तिनापुर में रत्नत्रय निलय में सुमेरु पर्वत का ध्यान करते हुये अकस्मात् मुझे अयोध्या के भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दर्शन हो गये। तभी मेरे मन में अयोध्या के लिये विहार की भावना जाग्रत हो गई।
अकस्मात् ६ दिसम्बर को राममंदिर व बाबरी मस्जिद की समस्या आ जाने से अनेकों श्रावकों के रोकने पर भी मैंने दृढ़ता से एवं भगवान ऋषभदेव की असीम भक्ति से फाल्गुन कृ. पंचमी, १० फरवरी १९९३ को हस्तिनापुर से विहार कर दिया।
क्रमश: आषाढ़ कृ. एकादशी, १६ जून को मैं आर्यिका संघ सहित अयोध्या आ गई।
यहाँ मेरी भावना एवं प्रेरणा के अनुसार त्रिकाल चौबीसी मंदिर का निर्माण होकर माघ शु. ३ से १३ तक (सन् १९९४ में) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक कार्यक्रम आदि सम्पन्न हुये।
माघ शु. ९ (२० फरवरी १९९४) को ‘मुलायम सिंह (उ.प्र. मुख्यमंत्री) के आगमन पर मेरी भावना के अनुसार उनसे घोषणाएँ करायी गईं।
१. अवध विश्वविद्यालय में श्री ऋषभदेव शोधपीठ की स्थापना।
२. सरयू नदी के निकट उद्यान का ‘ऋषभदेव उद्यान’ नाम एवं मूर्ति स्थापना।
३. ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय।
४. श्री ऋषभदेव पॉलीटेक्निक कॉलेज। ये सभी कार्य यहाँ पूर्ण हो चुके हैं।
तभी अवध विश्वविद्यालय के कुलपति ने मुझे ‘डी.लिट्.’ की मानद् उपाधि से भी सम्मानित किया था।
इसी मध्य श्रीऋषभदेव समवसरण रचना बनकर पूर्ण हुई। उनके जिनिंबबों की फाल्गुन कृ. पंचमी (१९९५ में) मेरे सानिध्य में ही प्रतिष्ठा संपन्न हुई है।
अनंतर पुन: तिथि फाल्गुन शु. ७ को-१७ मार्च २००५ को प्रभु ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या में मंगल प्रवेश हुआ। चैत्र कृ. ७ से ९,
१ अप्रैल से ३ अप्रैल तक भगवान ऋषभदेव का महाकुंभ महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ।यहाँ अयोध्या में अनेक संतों-महंतों ने भी प्रभावना में भाग लिया तथा अपने-अपने आश्रमों में मेरे प्रवचन कराये व सम्मान किया।
इस महामस्तकाभिषेक का सीधा प्रसारण आस्था चैनल से कराया गया। इसी समय मैंने घोषणा की कि-
यहाँ अयोध्या तीर्थ में ‘पांचों भगवन्तों के जन्मस्थल पर बने टोकों पर मंदिरों के निर्माण हों व जिनप्रतिमाएं विराजमान करायीं जावें। इससे पूर्व यहाँ टोकों पर प्राचीन चरण विराजमान थे, जिनका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा है। ये टोंक व उनमें चरण चतुर्थ काल से ही यहाँ रहे हैं। समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार होता रहा है।
सन् १९९४ में त्रिकाल चौबीसी के ७२ भगवन्तों की माघ शु. द्वादशी को प्रतिष्ठा एवं सन् १९९५ में श्री ऋषभदेव के समवसरण के जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा फाल्गुन कृ. एकम् से पंचमी तक मेरे ससंघ सान्निय में सम्पन्न हुई हैं।
श्री ऋषभदेव की प्रथम टोंक पर सन् २०११ में भव्य मंदिर का निर्माण होकर पद्मासन श्री ऋषभदेव भगवान फाल्गुन कृ. ३ को प्रतिष्ठित होकर विराजमान हुए हैं।
ईसवी सन् २०१३ में सरयू नदी के तट पर श्री अनंतनाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर में १० फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा का पंचकल्याणक हुआ है।
ईसवी सन् २०१४ में श्री अजितनाथ की टोंक पर भव्य मंदिर में पद्मासन श्री अजितनाथ का पंचकल्याणक हुआ।
सन् २०१४ में ही मगसिर शु. १०, सन् २०१४ में श्री अभिनंदननाथ की टोंक पर मंदिर बना व श्री अभिनंदननाथ की प्रतिमा विराजमान हुई है।
सन् २०१३ में ही भरत-बाहुबली मंदिर बनकर उनकी टोंक पर भरत-बाहुबली की प्रतिमाएं विराजमान हुई हैं।
अभी सन् २०१९ में भगवान सुमतिनाथ की टोंक पर जिनमंदिर बनकर धातु की सुंदर सवा तीन फुट पद्मासन प्रतिमा विराजमान हुई हैं। जिनकी प्रतिष्ठा अभी मेरे सान्निध्य में सम्पन्न हुई है।
इस अवसर पर भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक महोत्सव, जुलूस (अभूतपूर्व) रथयात्रा आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुए हैं।