-अनुष्टुप् छंद:-
प्रभु: ऋषभदेवस्त्वं, जगत्सृष्टा जगद्गुरू:।
ऋषभदेवमानौमि, सर्वसिद्धिप्रदायकम्।।१।।
हत: ऋषभदेवेन, स्वकर्मनिचय: स्वयं।
नम: ऋषभदेवाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।२।।
तीर्थं ऋषभदेवाद् हि, स्वर्गमोक्षविधायकम्।
धर्म: ऋषभदेवस्य, साधुगृहि-द्विभेदत:।।३।।
भक्तिं ऋषभदेवेऽहं, करोमि सर्वसौख्यदाम्।
ऋषभदेव! मां रक्ष, निमज्जंतं भवाम्बुधौ।।४।।
श्रीमानजितनाथस्त्वं, द्वितीयस्तीर्थकृन्मत:।
श्रयाम्यजितनाथं त्वां, संसारोत्तरणेच्छया।।१।।
मार्गोऽप्यजितनाथेन, शिवस्योद्घाटितो गिरौ।
तुभ्यमजितनाथाय, नमो नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
तीर्थमजितनाथात् हि, सर्वेषां हितशासनं।
श्रीमतोऽजितनाथस्य, धर्म: प्राणिदयाकर:।।३।।
तीर्थेशेऽजितनाथे मे, प्रीति: नित्यं शिवप्रदा।
अजितनाथ! मां रक्ष, यावन्निर्वाणमाप्नुयाम्।।४।।
तीर्थकृत्-संभवस्वामी, त्वं भवांभोधितारक:।
संभवस्वामिनं नित्य-माश्रयन्ति सुखेप्सव:।।१।।
संभवस्वामिना लोके, मोक्षमार्ग: प्रदर्शित:।
संभवस्वामिने नित्यं, नमोऽस्तु कोटि-कोटिश:।।२।।
संभवस्वामिनो भव्या:, तरन्ति भवसागरम्।
संभवस्वामिनो धर्मो, जन्ममृत्युविनाशक:।।३।।
संभवस्वामिनि प्रीति:, भवे भवे भवेन्मम।
प्रभो! संभवस्वामिन्! त्वं, पाहि मां भवदु:खत:।।४।।
अभिनन्दननाथस्त्वं, भव्यानंदप्रदायक:।
अभिनंदननाथं त्वा-माश्रयन्ति जना मुदा।।१।।
अभिनंदननाथेन, प्रोक्ता सिद्धेर्विधिर्भुवि।
अभिनंदननाथाय, नमोऽस्तु त्रिविधं मम।।२।।
अभिनंदननाथाद् हि, स्वात्मानंदं वितन्वते।
अभिनंदननाथस्य, वाणी स्वात्मसुखाकरा।।३।।
अभिनन्दननाथेऽहं, कुर्वे भक्तिं शिवप्रदां।
अभिनंदननाथ! त्वं, ईप्सितं मम पूरय।।४।।
श्रीमान् सुमतिनाथस्त्वं, मोहध्वांतविनाशक:।
भव्या: सुमतिनाथं त्वां, भजंतीह सुबुद्धये।।१।।
श्रीमत्सुमतिनाथेन, हता: कर्मारय: स्वयं।
तस्मै सुमतिनाथाय, नम: स्वकर्महानये।।२।।
तीर्थं सुमतिनाथाद् यत्, तत् सर्वेषां सुखावहं।
श्रीमत् सुमतिनाथस्य, शरण्यं चरणद्वयं।।३।।
तस्मिन् सुमतिनाथे हि, मतिं स्थिरां करोम्यहं।
प्रभो! सुमतिनाथ! त्वं, देहि मे पंचमीं गतिं।।४।।
श्रीपद्मप्रभदेवस्त्वं, लक्ष्म्यंतर्बाह्यसंयुत:।
श्रीपद्मप्रभदेवं त्वां, श्रित्वा लक्ष्मीधरा जना:।।१।।
श्रीपद्मप्रभदेवेन, लब्धाऽर्हज्ज्ञानश्री: स्वयं।
श्रीपद्मप्रभदेवाय, दत्ता भक्ति: सुमाञ्जलि:।।२।।
श्रीपद्मप्रभदेवाद् हि, मुक्तिश्रीवश्यमाप्नुते।
श्रीपद्मप्रभदेवस्यानंतानंता गुणा मता:।।३।।
श्रीपद्मप्रभदेवे हि, भक्ति: स्थिरा भवेन्मम।
हे पद्मप्रभदेव! त्वं, यच्छ स्वात्म-श्रियं मम।।४।।
श्रीसुपार्श्वजिनो भव्यान्, स्वात्मपार्श्वं नयत्यमून्।
श्रीसुपार्श्वजिनं नित्यं, स्तुवन्ति गणनायका:।।१।।
श्रीसुपार्श्वजिनेनात्र, कर्मपाशच्छिद: स्वयं।
श्रीसुपार्श्वजिनायाद्य, कोटिशो मे नमो नम:।।२।।
श्रीसुपार्श्वजिनाद् भव्या:, कुदृक्पार्श्वात् विदूरगा:।
श्रीसुपार्श्वजिनस्य द्वौ, मार्गौ सन्मुक्तिपार्श्वगौ।।३।।
श्रीसुपार्श्वजिने पार्श्वे, मुनीन्द्रा नृसुरा: स्थिता:।
श्रीसुपार्श्वजिन! त्वं मे, मतिं स्वपार्श्वगां दिश।।४।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवस्त्वं, चंद्रकांतिसमप्रभ:।
श्रीचन्द्रप्रभदेवं त्वां, नमन्ति स्वसुखाप्तये।।१।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवेन, मोहध्वांतमपाकृतं।
श्रीचन्द्रप्रभदेवाय, नम: स्वात्मगुणाप्तये।।२।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवात् हि, ज्ञानदीधितय: स्फुटा:।
श्रीचन्द्र्रप्रभदेवस्य, भासंते भाक्तिका: भुवि।।३।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवेऽहं, दधे नित्यं स्वमानसं।
श्रीचन्द्रप्रभदेव! त्वं, मह्यं देहि स्वसंपदं।।४।।
श्रीपुष्पदंततीर्थेश:, भव्यपंकजभास्कर:।
श्रीपुष्पदंततीर्थेशं, भक्त्या नमन्ति खेचरा:।।१।।
श्रीपुष्पदंतनाथेन, धर्मतीर्थं प्रवर्तितं।
श्रीपुष्पदंतनाथाय, नम: कुर्वन्ति साधव:।।२।।
श्रीपुष्पदंततीर्थेशात्, क्षेमं सर्वत्र जायते।
श्रीपुष्पदंतनाथस्य, विश्वस्मिन् वैरिणो न हि।।३।।
श्री पुष्पदंततीर्थेशे, मतिं धृत्वा सुखी भव।
श्री पुष्पदंततीर्थेश! त्वं मां रक्ष जगद्गुरो!।।४।।
श्रीमान् शीतलनाथस्त्वं, स्वात्मसौख्यप्रदायक:।
शीतलनाथतीर्थेशं, श्रित्वानंदं श्रयन्त्यपि।।१।।
श्रीमत् शीतलनाथेन, शीती भूता जना इह।
श्रीमत् शीतलनाथाय, नमोऽस्तु कोटिशो मम।।२।।
तीर्थं शीतलनाथाद् स्यात्, चंदनादपि शीतलं।
श्रीमत् शीतलनाथस्य वाणीह्यमृतवत् भुवि।।३।।
विभौ शीतलनाथे हि, चित्तं स्थिरं करोम्यहं।
प्रभो! शीतलनाथ! त्वं, कृपां कृत्वा पुनीहि मां।।४।।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रस्त्वं, श्रेयोमार्गविधायक:।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रं त्वां, श्रित्वा मिथ्यात्वदूरगा:।।१।।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रेण, स्वरागाद्या: स्वयं हता:।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्राय, नमो नमोऽस्तु श्रद्धया।।२।।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्राद् हि-लब्धं रत्नत्रयं जनै:।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रस्य, वाक्सुधा शिवदायिनी।।३।।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रेऽस्मिन्, बहिरंत:-श्रिय: स्थिता:।
श्रीश्रेयांसजिनेन्द्र! त्वं, यच्छ श्रेयस्करीं मतिम्।।४।।
वासुपूज्यजिनेन्द्रस्त्वं, सुरासुरगणैर्नुत:।
वासुपूज्यजिनेन्द्रं त्वां, श्रित्वा भव्या: पुनन्ति स्वं।।१।।
वासुपूज्यजिनेन्द्रेण, पंचकल्याणका: श्रिता:।
वासुपूज्यजिनेन्द्राय, कोटिशो मे नमो नम:।।२।।
वासुपूज्यजिनेन्द्रात् स्यात्, धर्मस्य महिमा भुवि।
वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य, भाक्तिका: इह विश्रुता:।।३।।
वासुपूज्यजिनेन्द्रेऽद्य, भक्त्या दधे स्वमानसं।
वासुपूज्यजिनेन्द्र! त्वं, यच्छ मे गुणसंपदम्।।४।।
श्रीमान् विमलनाथस्त्वं, शून्य: कर्ममलादिभि:।
श्रीमद्विमलनाथं त्वां, नमंति त्रिदशाधिपा:।।१।।
श्रीमद् विमलनाथेन, स्वस्यात्मा विमलीकृत:।
तस्मै विमलनाथाय, नमोऽस्तु परमात्मने।।२।।
श्रीमद्विमलनाथाद् हि, नास्ति कश्चिद् हितंकर:।
श्रीमद्विमलनाथस्य, श्रयामि चरणद्वयम्।।३।।
श्रीमद्विमलनाथे मे, सर्वकालं रुचिर्भवेत्।
प्रभो! विमलनाथ! त्वं, मह्यं यच्छाचलं पदम्।।४।।
श्रीमाननंतनाथस्त्वं, अंतकांतकविश्रुत:।
श्रीमदनंतनाथं त्वां, नमन्ति नृसुरासुरा:।।१।।
श्रीमतानंतनाथेना-नंतजीवदया कृता।
श्रीमतेऽनंतनाथाय, मम नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
श्रीमतोऽनंतनाथात् हि, तीर्थमनंतसौख्यकृत्।
श्रीमतोऽनंतनाथस्य, भक्तिर्भवान्तकारिणी।।३।।
श्रीमदनंतनाथे हि, नतिं भक्तिं सदा दधे।
श्रीमन्ननंतनाथ! त्वं, देह्यनन्तचतुष्टयम्।।४।।
तीर्थकृद्धर्मनाथस्त्वं, धर्मसृष्टेर्विधायक:।
तीर्थकृद्धर्मनाथं त्वां, नमामि धर्मवृद्धये।।१।।
तीर्थकृद्धर्मनाथेन, दयाधर्मो निरूपित:।
तीर्थकृद्धर्मनाथाय, नम: कुर्वन्ति साधव:।।२।।
तीर्थकृद्धर्मनाथाद् हि, जातं तीर्थ-मनुत्तरं।
तीर्थकृद्धर्मनाथस्य, भाक्तिका: त्रिदशाधिपा:।।३।।
तीर्थकृद्धर्मनाथे हि, धर्मा: सर्वे सदा स्थिता:।
तीर्थेश! धर्मनाथ! त्वं, संसारात् मां समुद्धर।।४।।
तीर्थकृत्-शांतिनाथस्त्वं, भव्यानां शांतिकारक:।
शान्तिनाथमहं प्रीत्या-राधयामि भजाम्यपि।।१।।
शांतिनाथेन चक्रित्वं, मदनत्वं पदं श्रितं।
शान्तिनाथाय मे नित्यं, नमो नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
शान्तिनाथाद् महत्तीर्थं-विश्वशांतिप्रदायकं।
शान्तिनाथस्य तीर्थस्याविच्छिन्नाभूत् परम्परा।।३।।
शान्तिनाथे मतिं तावत्, यावन्न स्यात् शिवो मम।
भो: शांतिनाथ! मे यच्छ, शांतिमात्यन्तिकीं त्वरम्।।४।।
भगवान् कुंथुनाथस्त्वं, सर्वप्राणिहितंकर:।
भगवत्कुंथुनाथं त्वां, नमन्ति नृसुरासुरा:।।१।।
भगवत्कुंथुनाथेन, दयाधर्म: प्रदर्शित:।
भगवत्कुंथुनाथाय, नमोऽस्तु कोटिशो मम।।२।।
भगवत्कुंथुनाथाद् हि, सार्वभौमो वृषो भुवि।
भगवत्कुंथुनाथस्य, पादपद्मं श्रयाम्यहं।।३।।
भगवत्कुंथुनाथेऽत्र, रतिं कुर्वन्ति साधव:।
भगवन्! कुंथुनाथ! त्वं, पूर्णं ज्ञानं प्रयच्छ मे।।४।।
अरनाथो भगवांस्त्वं, मोहारीन् घातक: स्वयं।
त्वामरनाथतीर्थेशं, श्रित्वा भव्या जयन्त्यरीन्।।१।।
अरनाथेन संप्रोक्तो, धर्म: सर्वहितंकर:।
अरनाथाय मे भक्त्या, नमोऽस्तु जन्महानये।।२।।
अरनाथाद् हि संभूता, वाणी सर्वत्र क्षेमदा।
अरनाथस्य षट्खंडं, साम्राज्यं धर्म संस्कृतं।।३।।
अरनाथे स्थिरा भक्ति:, यावत् तावत् न मे शिवं।
भो अरनाथ! मे यच्छ, ध्यानं स्वात्मैकचिन्तनं।।४।।
मल्लिनाथो जिनेन्द्रस्त्वं, कर्ममल्लप्रहारक:।
मल्लिनाथं शरण्यं त्वां, शरणमागतोऽस्म्यहं।।१।।
मल्लिनाथेन त्रैरत्नं, श्रित्वा त्रैलोक्यनायक:।
मल्लिनाथाय नित्यं ते, नमोस्त्वनंतशो मम।।२।।
मल्लिनाथात् जगत्प्राणी, यममल्लं जयत्यपि।
मल्लिनाथस्य वाणीयं, त्रयमल्लस्य घातिनी।।३।।
मल्लिनाथे गुणा नान्ता:, त्रैलोक्यनाथज्ञायका:।
भो मल्लिनाथ! मां पाहि, निमज्जंतं भवाम्बुधौ।।४।।
मुनिसुव्रतनाथस्त्वं, महाव्रतप्रदायक:।
मुनिसुव्रतनाथं त्वां, श्रयन्ति भव्यपुंगवा:।।१।।
मुनिसुव्रतनाथेन, दु:खी प्राणी समुद्धृत:।
मुनिसुव्रतनाथाय, कोटिशो मे नमो नम:।।२।।
मुनिसुव्रतनाथाद् हि, सार्वो धर्म: प्रवर्तित:।
मुनिसुव्रतनाथस्य, भाक्तिका नृसुरासुरा:।।३।।
मुनिसुव्रतनाथेऽहं, सद्भक्तिं स्थायिनीं दधे।
मुनिसुव्रतनाथ! त्वं, भवक्लेशात् सुरक्ष मां।।४।।
श्री नमिनाथतीर्थेश:, त्वं भगवान् जगद्हित:।
नमिनाथं नमन्तीह, भूर्भुव: स्व: सुरेश्वरा:।।१।।
नमिनाथेन धर्मोऽत्र, सर्वमान्य: प्रदर्शित:।
नमिनाथाय मे नित्यं, नमोऽस्तु भवहानये।।२।।
नमिनाथाद् जगत्पूज्यं, तीर्थं जातं मुनीहितं।
नमिनाथस्य भक्त्यात्र, गुणान् गृण्हन्ति साधव:।।३।।
नमिनाथे यतीन्द्राश्च, स्थापयन्ति मनो मुदा।
हे नमिनाथ! मच्चित्तं, पुनातु मोहपंकत:।।४।।
नेमिनाथो जिनेन्द्रस्त्वं, दीक्षालक्ष्मी: समाश्रित:।
नेमिनाथं नमामि त्वां, यमनियमप्राप्तये।।१।।
नेमिनाथेन लोकेऽस्मिन्, जीवदया प्रदर्शिता।
नेमिनाथाय भक्त्या मे, नमोऽस्तु कोटिकोटिश:।।२।।
नेमिनाथाद् महातीर्थं, ऊर्जयन्तं भुवि श्रुतं।
नेमिनाथस्य भक्ता हि, कृष्णहलभृदादय:।।३।।
नेमिनाथे मनो बद्धं, वरदत्तगणीश्वर:।
हे नेमिनाथ! मां पाहि, यथाख्यातं प्रयच्छ मे।।४।।
श्री पार्श्वनाथतीर्थेश, उपसर्गजयी महान्।
पार्श्वनाथं नमन्तीह, भक्ता: कष्टप्रहाणये।।१।।
पार्श्वनाथेन सद्भक्ता:, भवन्तीह सहिष्णव:।
पार्श्वनाथाय सद्भक्त्या-ऽनन्तानंता नमोऽस्तु मे।।२।।
पार्श्वनाथाद् क्षमाभावै:, भक्तोऽभूत् कमठो रिपु:।
पार्श्वनाथस्य भक्त्या मे, शक्ति: सर्वंसहा सदा।।३।।
पार्श्वनाथे मतिर्मे स्यात्, यावत् सिद्धिर्न मे भवेत्।
भो: पार्श्वनाथ! मां रक्ष, शरण्य एक एव त्वं।।४।।
त्रैलोक्याधिपतिर्वीर:, महावीरोंऽतिमो जिन:।
महावीरमहं भक्त्या, श्रयामि भवभीरुत:।।१।।
महावीरेण सद्दृष्टि:, बभूव गौतमो गणी।
महावीराय सत्प्रीत्या, नमो नमोऽस्तु संततम्।।२।।
महावीरान्महान् धर्म:, अहिंसा परमो भुवि।
महावीरस्य सत्कीर्ति:, विश्वऽस्मिन् वर्ततेऽधुना।।३।।
महावीरे गुणा: सर्वे-ऽनन्तानंता: स्वयं स्थिता:।
महावीर! कृपां कृत्वा, पूर्णां ज्ञानमतीं कुरू।।४।।
मृत्युंजयिपदप्राप्त्यै, केवलं त्वद्पदद्वयं।
आश्रयामि स्मरामि च, संततं भक्तिभावत:।।५।।
दिग्दिक्वाणद्विवीराब्दे१, पूर्णायामाश्विने सिते।
ऋषभदेवपुराख्ये, तीर्थंकरस्तुति: कृति:।।१।।
पूर्यते भक्तिभावेन, स्वात्मस्वस्थप्रदायिका।
भवे भवे जिने भक्ति-र्यावत् सिद्धपदं भवेत्।।२।।
सर्वोच्चप्रतिमा यावत्, पर्वतोपरि राजते।
अहिंसा परमो धर्म:, ऋषभदेवशासनम्।।३।।
सप्तविभक्तियुक्ता हि, रचनैषातिशायिनी।।
अर्हज्ज्ञानमतीं कुर्यात्, प्रदद्यात् न: स्तुत्यं फलम्।।४।।