-गीता छंद-
हे आदिब्रह्मा! युगपुरुष! पुरुदेव! युगस्रष्टा तुम्हीं।
युग आदि में इस कर्मभूमी, के प्रभो! कर्ता तुम्हीं।।
तुम ही प्रजापतिनाथ! मुक्ती के विधाता हो तुम्हीं।
मैं भक्ति से वंदन करूं, मन वचन तन से नित यहीं।।१।।
-शंभु छंद-
श्री वृषभसेन आदिक चौरासी, गणधर मुनि चौरासि सहस।
ब्राह्मी गणिनी त्रय लाख पचास, हजार आर्यिका व्रतसंयुत।।
त्रय लाख सुश्रावक पाँच लाख, श्राविका प्रभू का चउ संघ था।
आयू चौरासी लाख पूर्व, वत्सर व पाँच सौ धनु तनु था।।२।।
-अनंगशेखर छंद-
जयो जिनेन्द्र! आपके महान दिव्य ज्ञान में,
त्रिलोक और त्रिकाल एक साथ भासते रहे।
जयो जिनेन्द्र! आपका अपूर्व तेज देखके,
असंख्य सूर्य और चंद्रमा भि लाजते रहे।।
जयो जिनेन्द्र! आपकी ध्वनी अनच्छरी खिरे,
तथापि संख्य भाषियों को बोध है करा रही।
जयो जिनेन्द्र! आपका अचिन्त्य ये महात्म्य देख,
सुभक्ति से प्रजा समस्त आप आप आ रही।।३।।
जिनेश! आपकी सभा असंख्य जीव से भरी,
अनंत वैभवों समेत भव्य चित्त मोहती।
जिनेश! आपके समीप साधु वृंद औ गणीन्द्र,
केवली मुनीन्द्र और आर्यिकायें शोभतीं।।
सुरेन्द्र देवियों की टोलियाँ असंख्य आ रही,
खगेश्वरों की पंक्तियाँ अनेक गीत गा रहीं।
सुभूमि गोचरी मनुष्य नारियाँ तमाम हैं,
पशू तथैव पक्षियों कि टोलियाँ भी आ रहीं।।४।।
सुबारहों सभा स्वकीय ही स्वकीय में रहें,
असंख्य भव्य बैठ के जिनेश देशना सुनें।
सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और,
द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुनें।।
निजात्म तत्त्व को संभाल तीन रत्न से निहाल,
बार-बार भक्ति से मुनीश हाथ जोड़ते।
अनंत सौख्य में निमित्त आपको विचार के,
अनंत दु:ख हेतु जान कर्मबंध तोड़ते।।५।।
स्वमोह बेल को उखाड़ मृत्युमल्ल को पछाड़,
मुक्ति अंगना निमित्त लोक शीश जा बसें।
प्रसाद से हि आपके अनंत भव्य जीव राशि,
आपके समान होय आप पास आ लसें।।
असंख्य जीव मात्र दृष्टि समीचीन पायके,
अनंतकाल रूप पंच परावर्त मेटते।
सुभक्ति के प्रभाव से असंख्य कर्म निर्जरा,
करें अनंत शुद्धि से निजात्म सौख्य सेवते।।६।।
-दोहा-
तीर्थंकर गुण रत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।७।।
वृषभ चिह्न स्वर्णिम तनू, प्रथम तीर्थकर आप।
‘ज्ञानमती’ सुख शांति दे, करो हमें निष्पाप।।८।।
-गीताछंद-
इस प्रथम जम्बूद्वीप में, है भरतक्षेत्र सुहावना।
इस मध्य आरजखंड में, जब काल चौथा शोभना।।
साकेतपुर में इन्द्र वंदित, तीर्थकर जन्में जभी।
उन अजितनाथ जिनेश को, मैं भक्ति से वंदूं अभी।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, जय समवसरण लक्ष्मी भर्ता।
जय जय अनंत दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय के धर्ता।।
इन्द्रिय विषयों को जीत ‘‘अजित’’ प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
इक्ष्वाकुवंश के भास्कर हो, फिर भी त्रिभुवन के सूर्य तुम्हीं।।२।।
अठरह सौ हाथ देह स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयू।
घर में भी देवों के लाये, भोजन वसनादि भोग्य वस्तू।।
तुमने न यहाँ के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर में।
नित सुर बालक खेलें तुम संग, अरु इंद्र सदा ही भक्ती में।।३।।
गृह त्याग तपश्चर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, चउ कर्मवनी को दग्ध किये।।
प्रभु समवसरण में बारह गण, तिष्ठे दिव्य ध्वनि सुनते थे।
सम्यग्दर्शन निधि को पाकर, परमानंदामृत चखते थे।।४।।
श्रीसिंहसेन गणधर प्रधान, सब नब्बे गणधर वहाँ रहें।
मुनिराज तपस्वी एक लाख, जो सात भेद में कहे गये।।
त्रय सहस सात सौ पचास मुनि, चौदह पूर्वों के धारी थे।
इक्कीस सहस छह सौ शिक्षक, मुनि शिक्षा के अधिकारी थे।।५।।
नौ सहस चार सौ अवधिज्ञानि, विंशति हजार केवलज्ञानी।
मुनि बीस हजार चार सौ विक्रिय-ऋद्धीधर थे निजज्ञानी।।
बारह हजार अरु चार शतक, पच्चास मन:पर्ययज्ञानी।
मुनि बारह सहस चार सौ मान्य, अनुत्तरवादी शुभ ध्यानी।।६।।
आर्यिका प्रकुब्जा गणिनी सह, त्रय लाख विंशति सहस मात।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख चतु:संघ सहित नाथ।।
सब देव देवियाँ असंख्यात, नरगण पशु भी वहाँ बैठे थे।
सब जात विरोधी वैर छोड़, प्रभु से धर्मामृत पीते थे।।७।।
गजचिन्ह से तुमको जग जाने, सब रोग शोक दु:ख दूर करो।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, मुझको शिव सौख्य प्रदान करो।।
हे नाथ! तुम्हें शत शत वंदन, हे अजित! अजय पद को दीजे।
मुझ ‘ज्ञानमती’ केवल करके, भगवन्! जिनगुण संपति दीजे।।८।।
-दोहा-
मैं वंदूं श्रद्धा सहित, अजितनाथ चरणाब्ज।
चतुर्गति दु:ख दूर हो, मिले स्वात्म साम्राज्य।।९।।
-रोला छंद-
जय जय संभवनाथ, गणधर गुरु तुम वंदें।
जय जय संभवनाथ, सुरपति गण अभिनंदें।।
जय तीर्थंकर देव, धर्मतीर्थ के कर्ता।
तुम पद पंकज सेव, करते भव्य अनंता।।१।।
घातिकर्म को नाश, केवल सूर्य उगायो।
लोकालोक प्रकाश, सौख्य अतीन्द्रिय पायो।।
द्वादश सभा समूह, हाथ जोड़कर बैठे।
पीते वचन पियूष, स्वात्म निधी को लेते।।२।।
चारुषेण गुरुदेव, गणधर प्रमुख कहाये।
सब गणपति गुरुदेव, इक सौ पाँच कहाये।।
सब मुनिवर दो लाख, नग्न दिगम्बर गुरु हैं।
आकिंचन मुनिनाथ, फिर भी रत्नत्रयधर हैं।।३।।
धर्मार्या वरनाम, गणिनीप्रमुख कहायीं।
आर्यिकाएँ त्रय लाख, बीस हजार बतायीं।।
श्रावक हैं त्रय लाख, धर्म क्रिया में तत्पर।
श्राविकाएं पण लाख, सम्यग्दर्शन निधिधर।।४।।
संभवनाथ जिनेन्द्र, समवसरण में राजें।
करें धर्म उपदेश, भविजन कमल विकासें।।
जो जन करते भक्ति, नरक तिर्यग्गति नाशें।
देव आयु को बांध, भवसंतती विनाशें।।५।।
सोलह शत कर तुंग, प्रभु का तनु स्वर्णिम है।
साठ लाख पूर्वायु, वर्ष प्रमित थिति शुभ है।।
अश्वचिन्ह से नाथ, सभी आप को जाने।
तीर्थंकर जगवंद्य, त्रिभुवन ईश बखाने।।६।।
भरें सौख्य भंडार, जो जन स्तवन उचरते।
पावें नवनिधि सार, जो प्रभु वंदन करते।।
रोग शोक आतंक, मानस व्याधि नशावें।
पावें परमानंद, जो प्रभु के गुण गावें।।७।।
नमूँ नमूँ नत शीश, संभवजिन के चरणा।
मिले स्वात्म नवनीत, लिया आपकी शरणा।।
क्षायिकलब्धि महान्, पाऊँ भव दु:ख नाशूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ जगमान्य, मिलें स्वयं को भासूँ।।८।।
-दोहा-
संभव जिनवर आपने, किया ज्ञान को पूर्ण।
नमूँ नमूँ प्रभु आपको, करो हमें सुखपूर्ण।।९।।
-दोहा-
गणपति नरपति सुरपती, खगपति रुचि मन धार।
अभिनंदन प्रभु आपके, गाते गुण अविकार।।१।।
-शेर छंद-
जय जय जिनेन्द्र आपने जब जन्म था लिया।
इन्द्रों के भी आसन कंपे आश्चर्य हो गया।।
सुरपति स्वयं आसन से उतर सात पग चले।
मस्तक झुका के नाथ चरण वंदना करें।।२।।
प्रभु आपका जन्माभिषेक इन्द्र ने किया।
सुरगण असंख्य भक्ति से आनंदरस लिया।।
तब इन्द्र ने ‘‘अभिनंदन’’ यह नाम रख दिया।
त्रिभुवन में भी आनंद ही आनंद छा गया।।३।।
प्रभु गर्भ में भी तीन ज्ञान थे तुम्हारे ही।
दीक्षा लिया तत्क्षण भी मन:पर्यज्ञान भी।।
छद्मस्थ में अठरा बरस ही मौन से रहे।
हो केवली फिर सर्व को उपदेश दे रहे।।४।।
गणधर प्रभू थे वङ्कानाभि समवसरण में।
सब इक सौ तीन गणधर सब ऋद्धियाँ उनमें।।
थे तीन लाख मुनिवर ये सात भेद युत।
ये तीन रत्न धारी, निर्ग्रंथ वेष युत।।५।।
गणिनी श्री मेरुषेणा आर्या शिरोमणी।
त्रय लाख तीस सहस छह सौ आर्यिका भणी।।
थे तीन लाख श्रावक, पण लक्ष श्राविका।
चतुसंघ ने था पा लिया भव सिंधु की नौका।।६।।
सब देव देवियाँ असंख्य थे वहाँ तभी।
तिर्यंच भी संख्यात थे सम्यक्त्व युक्त भी।।
सबने जिनेन्द्र वच पियूष पान किया था।
संसार जलधि तिरने को सीख लिया था।।७।।
इक्ष्वाकुवंश भास्कर कपि चिन्ह को धरें।
प्रभु तीन सौ पचास धनु तुंग तन धरें।।
पचास लाख पूर्व वर्ष आयु आपकी।
कांचनद्युती जिनराज थे सुंदर अपूर्व ही।।८।।
तन भी पवित्र आपका सुद्रव्य कहाया।
शुभ ही सभी परमाणुओं से प्रकृति बनाया।।
तुम देह के आकार वर्ण गंध आदि की।
भक्ती करें वे धन्य मनुज जन्म धरें भी।।९।।
प्रभु देह रहित आप निराकार कहाये।
वर्णादि रहित नाथ! ज्ञानदेह धराये।।
परिपूर्ण शुद्ध बुद्ध सिद्ध परम आत्मा।
हो ‘ज्ञानमती’ शुद्ध बनूँ शुद्ध आतमा।।१०।।
-दोहा-
तीर्थंकर चौथे कहे, अभिनंदन जिनराज।
सकल दु:ख दारिद हरूँ, नमूँ स्वात्म हित काज।।११।।
पुण्य राशि औ पुण्य फल, तीर्थंकर भगवान्।
स्वातम पावन हेतु मैं, नमूँ नमूँ सुखदान।।१२।।
-गीता छंद-
श्रीसुमति तीर्थंकर जगत में, शुद्धमति दाता कहे।
निज आतमा को शुद्ध करके, लोक मस्तक पर रहें।।
मुनि चार ज्ञानी भी सतत, वंदन करें संस्तवन करें।
हम भक्ति से नितप्रति यहाँ, प्रभु पद कमल वंदन करें।।१।।
-नाराचछंद-
नमो नमो जिनेन्द्रदेव! आपको सुभक्ति से।
मुनीन्द्रवृंद आप ध्याय कर्मशत्रु से छुटें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।२।।
अनंतदर्श ज्ञान वीर्य सौख्य से सनाथ हो।
अनादि हो अनंत हो जिनेश सिद्धिनाथ हो।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।३।।
अनादिमोह वृक्ष मूल को उखाड़ आपने।
प्रधान राग द्वेष शत्रु को हना सु आपने।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।४।।
महान रोग शोक कष्ट हेतु औषधी कहे।
अनिष्ट योग इष्ट का वियोग दु:ख को दहे।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।५।।
अपूर्व चालिसे हि लाख पूर्व वर्ष आयु है।
सुतीन सौ धनुष प्रमाण तुंग देह आप हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।६।।
सुचक्रवाक चिन्ह देह स्वर्ण के समान है।
तनू विहीन ज्ञानदेह सिद्ध शक्तिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।७।।
शतेन्द्र वृंद आपको सदैव शीश नावते।
गणीन्द्र वृंद आप को निजात्मा में ध्यावते।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।८।।
गणेश ‘अमर’ आदि एक सौ सुसोलहों सभी।
समस्त ऋद्धियों समेत आप भक्ति लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।९।।
समस्त साधु तीन लाख बीस सहस संयमी।
निजात्म सौख्य हेतु नित्य स्वात्मध्यान लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१०।।
प्रधान आर्यिका अनंतमत्ति नाम धारती।
सुतीन लाख तीस सहस आर्यिका महाव्रती।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।११।।
जिनेश भक्त तीन लाख श्रावकों कि भीड़ है।
सुपाँच लाख श्राविका मिथ्यात्व से विहीन हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१२।।
असंख्य देव देवियाँ जिनेन्द्र अर्चना करें।
वहाँ तिर्यंच संख्य सर्व वैरभाव को हरें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१३।।
सुनी सुकीर्ति आपकी अतेव संस्तुती करूँ।
अनंत जन्म के अनंत पापपुंज को हरूँ।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१४।।
जिनेन्द्र आप भक्ति से सदैव साम्य भावना।
सदैव स्वात्म ब्रह्म तत्त्व की करूँ उपासना।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।१५।।
-दोहा-
सुमतिनाथ! तुम भक्ति से, मिले निजातम शक्ति।
रत्नत्रय युक्ती मिले, पुन: ज्ञानमति मुक्ति।।१६।।
-दोहा-
श्रीपद्मप्रभु गुणजलधि, परमानंद निधान।
मन वच तन युत भक्ति से, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
-चामरछंद-
देवदेव आपके पदारिंवद में नमूँ।
मोह शत्रु नाश के समस्त दोष को वमूँ।।
नाथ! आप भक्ति ही अपूर्व कामधेनु है।
दु:खवार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य देन है।।२।।
जीव तत्त्व तीन भेद रूप जग प्रसिद्ध है।
बाह्य अंतरातमा व परम आत्म सिद्ध हैं।।
मैं सुखी दु:खी अनाथ नाथ निर्धनी धनी।
इष्ट मित्र हीन दीन आधि व्याधियाँ घनी।।३।।
जन्म मरण रोग शोक आदि कष्ट देह में।
देह आत्म एक है अतेव दु:ख हैं घने।।
आतमा अनादि से स्वयं अशुद्ध कर्म से।
पुत्र पुत्रियाँ कुटुंब हैं समस्त आत्म के।।४।।
मोह बुद्धि से स्वयं बहीरात्मा कहा।
अंतरातमा बने जिनेन्द्र भक्ति से अहा।।
मैं सदैव शुद्ध सिद्ध एक चित्स्वरूप हूँ।
शुद्ध नय से मैं अनंत ज्ञान दर्श रूप हूँ।।५।।
आप भक्ति के प्रसाद शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो।
आप भक्ति के प्रसाद दर्श मोह नाश हो।।
आप भक्ति के प्रसाद से चरित्र धार के।
जन्मवार्धि से तिरूँ प्रभो! सुभक्तिनाव से।।६।।
दो शतक पचास धनुष तुंग आप देह है।
तीस लाख वर्ष पूर्व आयु थी जिनेश हे!।।
पद्मरागमणि समान देह दीप्तमान है।
लालकमल चिन्ह से हि आपकी पिछान है।।७।।
वङ्काचामरादि एक सौ दशे गणाधिपा।
तीन लाख तीस सहस साधु भक्ति में सदा।।
चार लाख बीस सहस आयिकाएँ शोभतीं।
रतिषेणा गणिनी सभी तीनरत्न धारतीं।।८।।
तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका कहे।
जैनधर्म प्रीति से असंख्य कर्म को दहें।।
एकदेश संयमी हो देव आयु बांधते।
सम्यक्त्व रत्न से हि वो अनंत भव निवारते।।९।।
धन्य आज की घड़ी जिनेन्द्र वंदना करूँ।
पद्मप्रभ की भक्ति से यमारि खंडना करूँ।।
राग द्वेष शत्रु की स्वयं हि वंचना करूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ ज्योति से अपूर्व संपदा भरूँ।।१०।।
दोहा- धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर।
मेरे कलिमल धोय के, भर दीजे सुखपूर।।११।।
-शेर छंद-
देवाधिदेव श्रीजिनेंंद्र देव हो तुम्हीं।
जिनवर सुपार्श्व त्ाीर्थनाथ सिद्ध हो तुम्हीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१।।
रस गंध स्पर्श वर्ण से मैं शून्य ही रहा।
इस मोह कर्म से मेरा संबंध ना रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।२।।
ये द्रव्य कर्म आत्मा से बद्ध नहीं हैं।
ये भावकर्म तो मुझे छूते भी नहीं हैं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।३।।
मैं एक हूँ विशुद्ध ज्ञान दर्श स्वरूपी।
चैतन्य चमत्कार ज्योति पुंज अरूपी।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।४।।
परमार्थनय से मैं तो सदा शुद्ध कहाता।
ये भावना ही एक सर्वसिद्धि प्रदाता।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।५।।
व्यवहारनय से यद्यपी अशुद्ध हो रहा।
संसार पारावार में ही डूबता रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।६।।
फिर भी तो मुझे आज मिले आप खिवैया।
निज हाथ का अवलंब दे भवपार करैया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।७।।
प्रभु आठ वर्ष में ही स्वयं देशव्रती थे।
नहिं आपका कोई गुरू हो सकता सत्य ये।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।८।।
स्वयमेव सिद्धसाक्षि से दीक्षा प्रभू लिया।
तप करके घाति घात के वैâवल प्रगट किया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।९।।
पंचानवे बलदेव आदि गणधरा कहे।
त्रय लाख मुनी समवसरण में सदा रहे।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१०।।
मीनार्या गणिनी प्रधान आर्यिका कहीं।
त्रय लाख तीस सहस आर्यिकाएँ भी रहीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।११।।
थे तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका।
ये जैन धर्म तत्पर अणुव्रत के धारका।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१२।।
तनु तुंग आठ शतक हाथ हरित वर्ण की।
आयू प्रभू की बीस लाख पूर्व वर्ष थी।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१३।।
हे नाथ! आप तीन लोक के गुरू कहे।
भक्तों को इच्छा के बिना सब सौख्य दे रहे।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१४।।
मैं आप कीर्ति सुनके आप पास में आया।
अब शीघ्र हरो जन्म व्याधि इससे सताया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१५।।
हे दीनबंधु शीघ्र ही निज पास लीजिए।
बस ‘‘ज्ञानमती’’ को प्रभू वैâवल्य कीजिए।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१६।।
-दोहा-
चरण कमल में जो नमें, स्वस्तिक चिन्ह सुपार्श्व।
पावे जिनगुण संपदा, दुःख दारिद्र विनाश ।।१७।।
-दोहा-
परम हंस परमात्मा, परमानंद स्वरूप।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, अजर अमर पद रूप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय श्री चन्द्रप्रभो जिनवर, जय जय तीर्थंकर शिव भर्ता।
जय जय अष्टम तीर्थेश्वर तुम, जय जय क्षेमंकर सुख कर्ता।।
काशी में चन्द्रपुरी सुंदर, रत्नों की वृष्टी खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, त्रिभुवन में हर्ष की वृद्धि हुई।।२।।
प्रभु जन्म लिया जब धरती पर, इन्द्रों के आसन कंप हुए।
प्रभु के पुण्योदय का प्रभाव, तत्क्षण सुर के शिर नमित हुए।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कुसुम खिले लहिये।।३।।
सब जात विरोधी गरुड़, सर्प, मृग, सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।
दश लाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ कर तुंग देह माना।
चिंतित फल दाता चिंतामणि, अरु कल्पतरू भी सुखदाना।।४।।
श्रीदत्त आदि त्रयानवे गणधर, मनपर्यय ज्ञानी माने थे।
मुनि ढाई लाख आत्मज्ञानी, परिग्रह विरहित शिवगामी थे।।
वरुणा गणिनी सह आर्यिकाएँ, त्रय लाख सहस अस्सी मानीं।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख भक्तिरस शुभध्यानी।।५।।
भव वन में घूम रहा अब तक, िंकचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब जग के त्राता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
गणपति सुरपति नरपति नमते, तुम गुणमणि की बहु भक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।६।।
दोहा- हे चन्द्रप्रभ! आपके, हुए पंच कल्याण।
मैं भी माँगूं आपसे, बस एकहि कल्याण।।७।।
तीर्थंकर प्रकृति कही, महापुण्य फलराशि।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ सहित, मिले सर्वसुखराशि।।८।।
-गीता छंद-
श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्र त्रिभुवन, अग्र पर तिष्ठें सदा।
तीर्थेश नवमें सिद्ध हैं, शतइन्द्र वंदे सर्वदा।।
चउज्ञानधारी गणपती, प्रभु आपके गुण गावते।
हम सभी यहाँ वंदन करें, प्रभु भक्ति से शिर नावते।।१।।
-रोला छंद-
अहो! जिनेश्वर देव! सोलह भावन भाया।
प्रकृती अतिशय पुण्य, तीर्थंकर उपजाया।।
पंचकल्याणक ईश, हो असंख्य जन तारे।
त्रिभुवन पति नत शीश, कर्म कलंक निवारें।।२।।
नाममंत्र भी आप, सर्वमनोरथ पूरे।
जो नित करते जाप, सर्व विघ्न को चूरें।।
तुम वंदत तत्काल, रोग समूल हरे हैं।
पूजन करके भव्य, शोक निमूल करे हैं।।३।।
इन्द्रिय बल उच्छ्वास, आयू प्राण कहाते।
ये पुद्गल परसंग, इनको जीव धराते।।
ये व्यवहारिक प्राण, इन बिन मरण कहावे।
सब संसारी जीव, इनसे जन्म धरावें।।४।।
निश्चयनय से एक, प्राण चेतना जाना।
इनका मरण न होय, यह निश्चय मन ठाना।।
यही प्राण मुझ पास, शाश्वत काल रहेगा।
शुद्ध चेतना प्राण, सर्व शरीर दहेगा।।५।।
कब ऐसी गति होय, पुद्गल प्राण नशाऊँ।
ज्ञानदर्शमय शुद्ध, प्राण चेतना पाऊँ।।
ज्ञान चेतना पूर्ण, कर तन्मय हो जाऊँ।
दश प्राणों को नाश, ज्ञानमती बन जाऊँ।।६।।
गुण अनंत भगवंत, तब हों प्रगट हमारे।
जब हो तनु का अंत, यह जिनवचन उचारें।।
समवसरण में आप, दिव्यध्वनी से जन को।
करते हैं निष्पाप, नमूँ नमूँ नित तुम को।।७।।
श्रीविदर्भमुनि आदि, अट्ठासी गणधर थे।
दोय लाख मुनि नाथ, नग्न दिगम्बर गुरु थे।।
घोषार्या सुप्रधान, आर्यिकाओं की गणिनी।
त्रय लख अस्सी सहस, आर्यिकाएँ गुणश्रमणी।।८।।
दोय लाख जिनभक्त, श्रावक अणुव्रती थे।
पाँच लाख सम्यक्त्व, सहित श्राविका तिष्ठे।।
जिन भक्ती वर तीर्थ, उसमें स्नान किया था।
भव अनंत के पाप, धो मन शुद्ध किया था।।९।।
चार शतक कर तुंग, चंद्र सदृश तनु सुंदर।
दोय लाख पूर्वायु, वर्ष आयु थी मनहर।।
चिन्ह मगर से नाथ, सब भविजन पहचाने।
नमूँ नमूँ नत माथ, गुरुओं के गुरु माने।।१०।।
दोहा- ध्यानामृत पीकर भये, मृत्युंजय प्रभु आप।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, नमत मिटे भव ताप।।११।।
-दोहा-
अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम ध्वनि सुन भविवृंद नित, हरें सकल संताप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय शीतल जिन का वैभव, अंतर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्शज्ञान सुख वीर्यरूप, आनन्त्य चतुष्टय गुणमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
गुरु गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
सीढ़ी से ऊपर अधर भूमि, यह तीस कोश की गोल दिखे।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
यह बीस हजार हाथ ऊँचा, शुभ समवसरण अतिशय शोभे।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभें।।४।।
अंधे पंगू रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महा वीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तंभ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
जिनवर से बारह गुणे तुंग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएँ राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर, लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये दूर-दूर तक गाँवों में, अपना प्रकाश फ़ैलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जलपूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अतिसुंदर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
प्रभु समवसरण में इक्यासी, ‘अनगार’ प्रमुख गणधर गुरु हैं।
सब एक लाख मुनिराज वहाँ, मूलोत्तर गुण से मंडित हैं।।
गणिनी धरणाश्री तीन लाख, अस्सी हजार आर्यिका कहीं।
श्रावक दो लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख भक्ति में लीन रहीं।।८।।
नब्बे धनु तुंग देह स्वर्णिम, इक लाख पूर्व वर्षायू थी।
है कल्पवृक्ष का चिन्ह प्रभो! दशवें तीर्थंकर शीतल जी।।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, वांछित फलदाता कल्पतरू।
मैं वंदूँ ध्याऊँ गुण गाऊँ, निज आत्म सुधा का पान करूँ।।९।।
हे नाथ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित सुस्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मम वच तुम गुण गावें।।१०।।
-दोहा-
प्रभू आप गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु ही, नमूँ नमूँ शत बार।।११।।
-अडिल्लछंद-
श्री श्रेयांस जिन मुक्ति रमा के नाथ हैं।
त्रिभुवन पति से वंद्य त्रिजग के नाथ हैं।।
गणधर गुरु भी नमें नमाकर शीश को।
मैं भी रुचि से नमूँ नमाऊँ शीश को।।१।।
-नरेंद्र छंद-
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन, चिच्चैतन्य सुधाकर।
जय जय चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतितप्रद रत्नाकर।।
आप अलौकिक कल्पवृक्ष प्रभु, मुंह मांगा फल देते।
आप भक्त चक्री सुरपति, तीर्थंकर पद पा लेते।।२।।
जो तुम चरण सरोरुह पूजें, जग में पूजा पावें।
जो जन तुमको चित में ध्याते, सब जन उनको ध्यावें।।
जो तुम वचन सुधारस पीते, सब उनके वच पालें।
जो तुम आज्ञा पालें भविजन, उन आज्ञा नहिं टालें।।३।।
जो तुम सन्मुख भक्ति भाव से, नृत्य करें हर्षित हों।
तांडव नृत्य करें उन आगे, सुरपति भी प्रमुदित हों।।
जो तुम गुण को नित्य उचरते, भवि उनके गुण गाते।
जो तुम सुयश सदा विस्तारें, वे जग में यश पाते।।४।।
मन से भक्ति करें जो भविजन, वे मन निर्मल करते।
वचनों से स्तुति को पढ़कर, वचन सिद्धि को वरते।।
काया से अंजलि प्रणमन कर, तन का रोग नशाते।
त्रिकरण शुचि से वंदन करके, कर्म कलंक नशाते।।५।।
कुंथु आदि गण ईश सतत्तर, सात ऋद्धि के धारी।
मुनि निर्ग्रंथ सहस चौरासी, सातभेद गुणधारी।।
प्रमुख धारणा आदि आर्यिका, बीस सहस इक लक्षा।
दोय लाख श्रावक व श्राविका, चार लाख गुणदक्षा।।६।।
आयु चुरासी लाख वर्ष की, अस्सी धनुष तनू है।
तप्त स्वर्ण छवि तनु अतिसुंदर, गेंडा चिन्ह सहित हैं।।
प्रभु श्रेयांस विश्व श्रेयस्कर, त्रिभुवन मंगलकारी।
प्रभु तुम नाम मंत्र ही जग में, सकल अमंगलहारी।।७।।
बहु विध तुम यश आगम वर्णे, श्रवण किया मैं जब से।
तुम चरणों में प्रीति लगी है, शरण लिया मैं तब से।।
प्रभु श्रेयांस! कृपा ऐसी अब, मुझ पर तुरतहिं कीजे।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ लक्ष्मी को, देकर निजसम कीजे।।८।।
-दोहा-
परमश्रेष्ठ श्रेयांस जिन, पंचकल्याणक ईश।
नमूँ नमूँ तुमको सदा, श्रद्धा से नत शीश।।९।।
-गीता छंद-
श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र वासव-गणों से पूजित सदा।
इक्ष्वाकुवंश दिनेश काश्यप-गोत्र पुंगव शर्मदा।।
सप्तर्द्धिभूषित गणधरों से, पूज्य त्रिभुवन वंद्य हैं।
मैं भी करूं वंदन यहाँ, मिट जायेगा भव फंद है।।१।।
-शेरछंद-
प्रभु दर्शमोहनीय को निर्मूल किया है।
सम्यक्त्व क्षायिकाख्य को परिपूर्ण किया है।।
चारित्र मोहनीय का विनाश जब किया।
क्षायिक चरित्र नाम यथाख्यात को लिया।।२।।
संपूर्ण ज्ञानावर्ण का जब आप क्षय किया।
वैâवल्य ज्ञान से त्रिलोक जान सब लिया।।
प्रभु दर्शनावरण के क्षय से दर्श अनंता।
सब लोक औ अलोक देखते हो तुरंता।।३।।
दानांतराय नाश के अनंत प्राणि को।
देते अभय उपदेश तुम शिवपथ का दान जो।।
लाभान्तराय का समस्त नाश जब किया।
क्षायिक अनंतलाभ का तब लाभ प्रभु लिया।।४।।
जिससे परमशुभ सूक्ष्म दिव्य नंत वर्गणा।
पुद्गलमयी प्रत्येक समय पावते घना।।
जिससे न कवलाहार हो फिर भी तनू रहे।
शिवप्राप्त होने तक शरीर भी टिका रहे।।५।।
भोगांतराय नाश के अतिशय सुभोग हैं।
सुरपुष्पवृष्टि गंध उदकवृष्टि शोभ हैं।।
पग के तले वरपद्म रचें देवगण सदा।
सौगंध्य शीतपवन आदि सौख्य शर्मदा।।६।।
उपभोग अन्तराय का क्षय हो गया जभी।
प्रभु सातिशय उपभोग को भी पा लिया तभी।।
सिंहासनादि छत्र चंवर तरु अशोक हैं।
सुर दुुंदुभी भाचक्र दिव्यध्वनि मनोज्ञ हैं।।७।।
वीर्यान्तराय नाश से आनंत्य वीर्य है।
होते न कभी श्रांत आप धीर वीर हैं।।
प्रभु चार घाति नाश के नव लब्धि पा लिया।
आनन्त्य ज्ञान आदि चतुष्टय प्रमुख किया।।८।।
श्रीधर्म आदि छ्यासठ गणधर गुरू रहें।
मुनिराज बाहत्तर हजार ध्यानरत कहें।।
इक लाख छह सहस वरसेनादि आर्यिका।
दो लाख कहें श्रावक चउलाख श्राविका।।९।।
सत्तर धनुष उत्तुंग देह महिष चिह्न है।
आयू बहत्तर लाख वर्ष लाल वर्ण है।।
फिर भी तो निराकार वर्ण आदि शून्य हो।
आनन्त्य काल तक तो सिद्ध क्षेत्र में रहो।।१०।।
प्रभु आप सर्व शक्तिमान कीर्ति को सुना।
इस हेतु से ही आज यहाँ मैं दिया धरना।।
अब तारिये न तारिये यह आपकी मरजी।
बस ‘‘ज्ञानमती’’ पूरिये यदि मानिये अरजी।।११।।
-दोहा-
वासुपूज्य भगवंत तुम, गुण अनंत अविकार।
नमते ही भव अंत हो, मिले आत्म गुण सार।।१२।।
-दोहा-
पूरब भव में आपने, सोलहकारण भाय।
तीर्थंकर पद पाय के, तीर्थ चलाया आय।।१।।
-रोला छंद-
दर्श विशुद्धि प्रधान, नित्यप्रती प्रभु ध्याके।
अष्ट अंग से शुद्ध, दोष पच्चीस हटाके।।
मन वच काय समेत, विनय भावना भायी।
मुक्ति महल का द्वार, भविजन को सुखदायी।।२।।
व्रतशीलों में आप, नहिं अतिचार लगाया।
संतत ज्ञानाभ्यास, करके कर्म खपाया।।
भवतन भोग विरक्त, मन संवेग बढ़ाया।
शक्ती के अनुसार, चउविध दान रचाया।।३।।
बारहविध तपधार, आतम शक्ति बढ़ाई।
धर्मशुक्ल से सिद्ध, साधु समाधि कराई।।
दशविध मुनि की नित्य, वैयावृत्य किया था।
सर्व शक्ति से पूर्ण, बहु उपकार किया था।।४।।
श्री अर्हंत जिनेन्द्र, भक्ति हृदय में धरके।
सूरि परम परमेश, गुण संस्तवन उचरके।।
उपाध्याय गुरु देव, शिवपथ के उपदेष्टा।
प्रवचन भक्ति समेत, गुणगण भजा हमेशा।।५।।
षट् आवश्यक नित्य, करके दोष नशाया।
हानिरहित परिपूर्ण, निज कर्तव्य निभाया।।
मार्ग प्रभावन पाय, धर्म महत्त्व बढ़ाया।
प्रवचन में वात्सल्य, कर निज गुण प्रगटाया।।६।।
सोलहकारण भाय, पंचकल्याणक पाया।
दिव्यध्वनी से नित्य, धर्म सुतीर्थ चलाया।।
भव्य अनंतानंत, जग से पार किया है।
सौ इन्द्रोें से वंद्य, निज सुख सार लिया है।।७।।
मंदर आदि गणीश, पचपन समवसरण में।
अड़सठ सहस मुनीश, गुणमणियुत तुम प्रणमें।।
गणिनी पद्मा आदि, तीन सहस इक लक्षा।
श्रमणी महाव्रतादि, गुणमणि भूषित दक्षा।।८।।
श्रावक थे दो लाख, धर्मध्यान में तत्पर।
कही श्राविका चार, लाख भक्ति में तत्पर।।
साठ धनुष तनु तुंग, साठ लाख वर्षायू।
घृष्टी१ चिन्ह सुवर्ण, वर्ण देह गुण गाऊँ।।९।।
चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय ज्योति जलाऊँ।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ रूप, परम ज्योति प्रगटाऊँ।।
तुम प्रसाद जिन विमल! पूरी हो मम आशा।
इसीलिए पदकमल, नमूँ नमूँ धर आशा।।१०।।
-नरेन्द्र छंद-
श्री अनंत जिनराज आपने, भव का अंत किया है।
दर्शन ज्ञान सौख्य वीरजगुण, को आनन्त्य किया है।।
अंतक का भी अंत करें हम, इसीलिए मुनि ध्याते।
मन वच तन से भक्तिभाव से, प्रभु तुम गुण हम गाते।।१।।
-बसंततिलका छंद-
देवाधिदेव तुम लोक शिखामणी हो।
त्रैलोक्य भव्यजन कंज विभामणी हो।।
सौ इन्द्र आप पद पंकज में नमे हैं।
साधू समूह गुण वर्णन में रमे हैं।।२।।
जो भक्त नित्य तुम पूजन को रचावें।
आनंद कंद गुणवृंद सदैव ध्यावें।।
वे शीघ्र दर्शनविशुद्धि निधान पावें।
पच्चीस दोष मल वर्जित स्वात्म ध्यावें।।३।।
नि:शंकितादि गुण आठ मिले उन्हीं को।
जो स्वप्न में भि हैं संस्मरते तुम्हीं को।।
शंका कभी नहिं करें जिनवाक्य में वो।
कांक्षें न ऐहिक सुखादिक को कभी वो।।४।।
ग्लानी मुनी तनु मलीन विषे नहीं है।
नाना चमत्कृति विलोक न मूढ़ता है।।
सम्यक्चरित्र व्रत से डिगते जनों को।
सुस्थिर करें पुनरपी उसमें उन्हीं को।।५।।
अज्ञान आदि वश दोष हुए किसी के।
अच्छी तरह ढक रहें न कहें किसी से।।
वात्सल्य भाव रखते जिनधर्मियों में।
सद्धर्म द्योतित करें रुचि से सभी में।।६।।
वे द्वादशांग श्रुत सम्यग्ज्ञान पावें।
चारित्रपूर्ण धर मनपर्यय उपावें।।
वे भक्त अंत बस केवलज्ञान पावें।
मुक्त्यंगना सह रमें शिवलोक जावें।।७।।
गणधर जयादिक पचास समोसृती में।
छ्यासठ हजार मुनि संयमलीन भी थे।।
थी सर्वश्री प्रमुख संयतिका वहाँ पे।
जो एक लाख अरु आठ हजार प्रमिते।।८।।
दो लाख श्रावक चतुर्लख श्राविकाएँ।
संख्यात तिर्यक् सुरादि असंख्य गायें।।
उत्तुंग देह पच्चास धनू बताया।
है तीस लाख वर्षायु मुनीश गाया।।९।।
‘‘सेही’’ सुचिन्ह तनु स्वर्णिम कांति धारें।
वंदूँ अनंत जिन को बहु भक्ति धारें।।
मैं नित नमूँ सतत ध्यान धरूँ तुम्हारा।
संपूर्ण दु:ख हरिये भगवन्! हमारा।।१०।।
हे नाथ! कीर्ति सुन के तुम पास आया।
पूरो मनोरथ सभी जो साथ लाया।।
सम्यक्त्व क्षायिक करो सुचरित्र पूरो।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ दे, यम पाश चूरो।।११।।
-दोहा-
लोकोत्तर फलप्रद तुम्हीं, कल्पवृक्ष जिनदेव।
धर्मनाथ तुमको नमूँ, करूँ भक्ति भर सेव।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर धर्म तीर्थेश्वर जगत विख्यात हो।
जय जय अखिल संपत्ति के, भर्ता भविकजन नाथ हो।।
लोकांत में जा राजते, त्रैलोक्य के चूड़ामणी।
जय जय सकल जग में तुम्हीं, हो ख्यात प्रभु चिंतामणी।।२।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में, नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी, से प्रभो! भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव, औ भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अनंतानंत काल बिता दिये।।३।।
बहुजन्म संचित पुण्य से, दुर्लभ मनुज योनी मिली।
तब बालपन में जड़ सदृश, सज्ज्ञान कलिका ना खिली।।
बहुपुण्य के संयोग से, प्रभु आपका दर्शन मिला।
बहिरातमा औ अंतरात्मा, का स्वयं परिचय मिला।।४।।
तुम सकल परमात्मा बने, जब घातिया आहत हुए।
उत्तम अतीन्द्रिय सौख्य पा, प्रत्यक्ष ज्ञानी तब हुए।।
फिर शेष कर्म विनाश करके, निकल परमात्मा बने।
कल-देहवर्जित निकल अकल, स्वरूप शुद्धात्मा बने।।५।।
हे नाथ! बहिरात्मा दशा को, छोड़ अंतर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें, हो जाऊँ मैं परमात्मा।।
संसार का संसरण तज, त्रिभुवन शिखर पे जा बसूँ।
निज के अनंतानंत गुणमणि, पाय निज में ही बसूँ।।६।।
प्रभु के अरिष्टसेन आदिक, तेतालीस गणीश हैं।
व्रत संयमादिक धरें चौंसठ, सहस श्रेष्ठ मुनीश हैं।।
सुव्रता आदिक आर्यिका, बासठ सहस चउ सौ कहीं।
दो लाख श्रावक श्राविका, चउलाख जिनगुणभक्त ही।।७।।
इक शतक अस्सी हाथ तनु, दश लाख वर्षायू कही।
प्रभु वङ्कादंड सुचिन्ह है, स्वर्णिम तनू दीप्ती मही।।
मैं भक्ति से वंदन करूँ, प्रणमन करूँ शत-शत नमूँ।
निज ‘‘ज्ञानमति’’ वैâवल्य हो, इस हेतु ही नितप्रति नमूँ।।८।।
-दोहा-
तुम प्रसाद से भक्तगण, हो जाते भगवान।
अतिशय जिनगुण पायके, हो जाते धनवान।।९।।
-दोहा-
हस्तिनागपुर में हुये, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्ष थल, गाऊँ प्रभु गुणगान।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ शांति तीर्थेश को।
नाथ मेरे हरो सर्व भवक्लेश को।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।२।।
विश्वसेन पिता मात ऐरावती।
वर्ष इक लाख आयू कनक वर्ण ही।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।३।।
देह चालीस धनु चिन्ह मृग ख्यात है।
जन्म भू हस्तिनापूरि विख्यात है।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।४।।
नाथ के समवसृति में सभा मध्य ये।
साधु बासठ सहस मूलगुणधारि थे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।५।।
‘चक्रायुध’ प्रमुख गणपती श्रेष्ठ थे।
ऋद्धि संयुक्त छत्तीस मुनि ज्येष्ठ थे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।६।।
आर्यिका हरीषेणा प्रधाना तथा।
साठ हज्जार त्रय सौ सभी आर्यिका।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।७।।
दोय लक्षा सुश्रावक प्रभू भाक्तिका।
चार लक्षा कही श्राविका सद्व्रता।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।८।।
सौख्य हेतू भटकता फिरा विश्व में।
किंतु पाई न साता कहीं रंच मैं।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।९।।
नाथ ऐसी कृपा कीजिए भक्त पे।
शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होवे अबे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१०।।
स्वात्म पर का मुझे भेद विज्ञान हो।
पूर्ण चारित्र धारूँ जो निष्काम हो।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।११।।
पूर्ण शांती जहाँ पे वहीं वास हो।
भक्त ये आपका आपके पास हो।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१२।।
-दोहा-
तीर्थंकर चक्री मदन, तीनों पद के ईश।
पूर्ण ‘‘ज्ञानमति’’ हेतु मैं, नमूँ नमूँ नतशीश।।१३।।
-दोहा-
हस्तिनागपुर में हुए, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, नमूँ कुंथु भगवान।।१।।
-त्रिभंगी छंद-
पैंतिस गणधर स्वयंभू आदिक, मुनि साठ हजार सुगुणगणयुत।
गणिनी भाविता व साठ सहस त्रयशत पचास संयतिका सब।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।२।।
-शिखरिणी छंद-
जयो कुंथूदेवा, नमन करता हूँ चरण में।
करें भक्ती सेवा, सुरपति सभी भक्तिवश तें।।
तुम्हीं हो हे स्वामिन्! सकल जग के त्राणकर्ता।
तुम्हीं हो हे स्वामिन्! सकल जग के एक भर्ता।।३।।
घुमाता मोहारी, चतुर्गति में सर्व जन को।
रुलाता ये बैरी, भुवनत्रय में एक सबको।।
तुम्हारे बिन स्वामिन्! शरण नहिं कोई जगत में।
अत: कीजै रक्षा, सकल दुख से नाथ! क्षण में।।४।।
प्रभो! मैं एकाकी, स्वजन नहिं कोई भुवन में।
स्वयं हूँ शुद्धात्मा, अमल अविकारी अकल मैं।।
सदा निश्चयनय से, करमरज से शून्य रहता।
नहीं पाके निज को, स्वयं भव के दु:ख सहता।।५।।
प्रभो! ऐसी शक्ती, मिले मुझको भक्ति वश से।
निजात्मा को कर लूँ, प्रगट जिनकी युक्तिवश से।।
मिले निज की संपत, रत्नत्रयमय नाथ मुझको।
यही है अभिलाषा, कृपा करके पूर्ण कर दो।।६।।
-दोहा-
कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेश।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।७।।
सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
नमें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।८।।
-दोहा-
हस्तिनागपुर में हुये, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, वंदूं अर भगवान।।१।।
-त्रिभंगी छंद-
पितु नृपति सुदर्शन सोमवंशवर, प्रसू मित्रसेना सुत थे।
आयू चौरासी सहस वर्ष धनु, तीस तनू स्वर्णिम छवि थे।।
श्री कुंभार्य तीस गणधर, मुनि सहस, पचास यक्षिलार्या साठ सहस।
श्रावक इक लाख व साठ सहस, श्राविका लाख त्रय धर्मनिरत।।२।।
-पंचचामर छंद-
जयो जिनेश! आप तीर्थनाथ तीर्थरूप हो।
जयो जिनेश! आप मुक्तिनाथ मुक्तिरूप हो।।
जयो जिनेश! आप तीन लोक के अधीश हो।
जयो जिनेश! आप सर्व आश्रितों के मीत हो।।३।।
सभी सुरेन्द्र भक्ति से सदैव वंदना करें।
सभी नरेन्द्र आपकी सदैव अर्चना करें।।
सभी खगेन्द्र हर्ष से जिनेन्द्र कीर्ति गावते।
सभी मुनीन्द्र चित्त में तुम्हीं को एक ध्यावते।।४।।
अपूर्व तेज आप देख कोटि सूर्य लज्जते।
अपूर्व सौम्य मूर्ति देख कोटि चन्द्र लज्जते।।
अपूर्व शांति देख क्रूर जीव वैर छोड़ते।
सुमंद मंद हास्य देख शुद्ध चित्त होवते।।५।।
अनेक भव्य आपके पदाब्ज पूजते सदा।
अनेक जन्म पाप भी क्षणेक में नशें तदा।।
अनेक जीव भक्ति बिन अनंत जन्म धारते।
अनेक जीव भक्ति से अनंत सौख्य पावते।।६।।
अनंत ज्ञानरूप हो अनंत ज्ञानकार हो।
अनंत दर्शरूप हो अनंत दर्शकार हो।।
अनंत सौख्यरूप हो अनंत सौख्यकार हो।
अनंत वीर्यरूप हो अनंत शक्तिकार हो।।७।।
-दोहा-
कामदेव चक्रीश प्रभु, अठारवें तीर्थेश।
‘‘ज्ञानमती’’ कैवल्य हित, नमूँ नमूँ परमेश।।८।।
अरतीर्थंकर जगप्रथित, मीन चिन्ह से नाथ!।
पावें अविचल कीर्ति को, जो वंदे नत माथ।।९।।
-नरेन्द्र छंद-
तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ ने, निज पद प्राप्त किया है।
काम मोह यम मल्ल जीतकर, सार्थक नाम किया है।।
कर्म मल्ल विजिगीषु मुनीश्वर, प्रभु को मन में ध्याते।
हम वंदे नित भक्ति भाव से, सब दु:ख दोष नशाते।।१।।
-शेरछंद-
जय जय श्री जिनदेव देव देव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समोसरण के सर्वस्व आप हो।।२।।
मुनिवर विशाख आदि अट्ठाईस गणधरा।
चालिस हजार साधु थे व्रतशील गुणधरा।।
श्रीबंधुषेणा गणिनी आर्या प्रधान थीं।
पचपन हजार आर्यिकाएँ गुण निधान थीं।।३।।
श्रावक थे एक लाख तीन लाख श्राविका।
तिर्यंच थे संख्यात देव थे असंख्यका।।
तनु धनु पचीस आयू पचपन सहस बरस।
है चिन्ह कलश देह वर्ण स्वर्ण के सदृश।।४।।
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरो रोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आप को निरखें।
उन मोतिबिन्दु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।५।।
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुती करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।६।।
जो कंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त कंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वास नासिकादि रोग उनके विनशते।।७।।
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करे हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरे हैं।।
जो नाभिकमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जातंी उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।८।।
जो पैर से जिनगृह में आके नृत्य करे हैं।
वे घुटने पैर रोग सर्व नष्ट करे हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।९।।
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो! तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।१०।।
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन-सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।११।।
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊँगा मैंने परण किया।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यहँ पे धरण दिया।।१२।।
-दोहा-
जो नमते नित भक्ति से, मल्लिनाथ जिनराज।
अनुक्रम से शिव संपदा, लहें स्वात्म साम्राज।।१३।।
-दोहा-
अखिल अमंगल को हरें, श्रीमुनिसुव्रत देव।
मेरे कर्मांजन हरें, नित्य करूँ मैं सेव।।१।।
-सखी छंद-
जय जय जिनदेव हमारे, जय जय भविजन बहुतारे।
जय समवसरण के देवा, शत इन्द्र करें तुम सेवा।।२।।
जय मल्लि प्रमुख गणधरजी, सब अठरह गणधर गुरु जी।
जय तीस हजार मुनीश्वर, रत्नत्रय भूषित ऋषिवर।।३।।
जय गणिनी सुपुष्पदंता, पच्चास सहस संयतिका।
श्रावक इक लाख वहाँ पर, त्रय लाख श्राविका शुभ कर।।४।।
तनु अस्सी हाथ कहाओ, प्रभु तीस सहस वर्षायू।
कच्छप है चिह्न प्रभू का, तनु नीलवर्ण सुंदर था।।५।।
मुनिवृंद तुम्हें चित धारें, भविवृंद सुयश विस्तारें।
सुरनर किन्नर गुण गावें, किन्नरियाँ बीन बजावें।।६।।
भक्तीवश नृत्य करे हैं, गुण गाकर पाप हरे हैं।
विद्याधर गण बहु आवें, दर्शन कर पुण्य कमावें।।७।।
भव भव के त्रास मिटावें, यम का अस्तित्व हटावें।
जो जिनगुण में मन पागें, तिन देख मोहरिपु भागें।।८।।
जो प्रभु की पूज रचावें, इस जग में पूजा पावें।
जो प्रभु का ध्यान धरे हैं, उनका सब ध्यान करे हैं।।९।।
जो करते भक्ति तुम्हारी, वे भव भव में सुखियारी।
इस हेतु प्रभो! तुम पासे, मन के उद्गार निकासे।।१०।।
जब तक मुझ मुक्ति न होवे, तब तक सम्यक्त्व न खोवे।
तब तक जिनगुण उच्चारूँ, तब तक मैं संयम धारूँ।।११।।
तब तक हो श्रेष्ठ समाधी, नाशे जन्मादिक व्याधी।
तब तक रत्नत्रय पाऊँ, तब तक निज ध्यान लगाऊँ।।१२।।
तब तक तुमही मुझ स्वामी, भव भव में हो निष्कामी।
ये भाव हमारे पूरो, मुझ मोह शत्रु को चूरो।।१३।।
-दोहा-
मुनिगण व्रतिगण से नमित,मुनिसुव्रत जिनराज।
नमत ‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो, मिले स्वात्म साम्राज।।१४।।
-दोहा-
अतुल गुणों के तुम धनी, तीर्थंकर नमिनाथ।
मन वच तन से भक्तियुत, नमूँ नमाकर माथ।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।२।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।
उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आसपास के कुंड नीर में, पग धोती जनता है।।३।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।
वनभूमी के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अतिमहिमा।।४।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएँ, लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।
श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।५।।
सुप्रभमुनि आदिक गुरु गणधर, सत्रह समवसरण में।
मुनिगण बीस हजार वहाँ पे, मगन हुए जिनगुण में।।
गणिनी वहाँ मंगिनी माता, पिच्छी कमण्डलु धारी।
पैंतालीस हजार आर्यिका, श्वेत शाटिकाधारी।।६।।
एक लाख श्रावक व श्राविका, तीन लाख भक्तीरत।
असंख्यात थे देव देवियाँ, सिंहादिक बहु तिर्यक्।।
साठ हाथ तनु दश हजार, वर्षायु देह स्वर्णिम था।
नीलकमल नमिचिन्ह कहाया, भक्ति भवोदधि नौका।।७।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदु:ख हानें।।८।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
‘‘ज्ञानमती’’ सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।९।।
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
त्रिभुवन की अविचल निधी, दे मुझ करो महान।।१०।।
(तर्ज-चंदन सा बदन…….)
नेमी भगवन्! शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
कर जोड़ प्रभो! तव चरण पड़े, हम शीश झुकाते चरणों में।।टेक.।।
यौवन में राजमती को वरने, चले बरात सजा करके।
पशुओं को बांधे देख प्रभो! रथ मोड़ लिया उल्टे चल के।।
लौकांतिक सुर संस्तव करके, पुष्पांजलि की तव चरणों में।।नेमी.।।१।।
प्रभु नग्न दिगंबर मुनि बने, ध्यानामृत पी आनंद लिया।
वैâवल्य सूर्य उगते धनपति ने, समवसरण भी अधर किया।।
तब राजमती आर्यिका बनी, चतुसंघ नमें तव चरणों में।।नेमी.।।२।।
वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, अठरह हजार मुनिराज वहाँ।
राजीमति गणिनी आदिक, चालिस हजार संयतिकाएँ वहाँ।।
इक लाख सुश्रावक तीन लाख, श्राविका झुकीं तव चरणों में।।नेमी.।।३।।
सर्वाण्ह यक्ष अरु कूष्मांडिनि, यक्षी प्रभु शंख चिन्ह माना।
आयू इक सहस वर्ष चालिस, कर सहस देह उत्तम जाना।।
द्वादशगण से सब भव्य वहाँ, शत-शत वंदें तव चरणों में।।नेमी.।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउ दिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्म कहें।।
सौ इन्द्र मिले पूजा करते, नित नमन करें तव चरणों में।।नेमी.।।५।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहुकोशों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।
तनु नीलवर्ण सुंदर प्रभु को, सब वंदन करते चरणों में।।नेमी.।।६।।
तरुवर अशोक था शोकरहित, सिंहासन रत्न खचित सुंदर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
निज सात भवों को देख भव्य, प्रणमन करते तव चरणों में।। नेमी.।।७।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चंवर।
सुरपुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, अतिभक्ति लीन तव चरणों में।।नेमी.।।८।।
हे नेमिनाथ! तुम बाह्य और अभ्यंतर लक्ष्मी के पति हो।
दो मुझे अनंत चतुष्टयश्री, जो ज्ञानमती सिद्धिप्रिय हो।।
इसलिए अनंतों बार नमें, हम शीश झुकाते चरणों में।।नेमी.।।९।।
(शंभु छंद-तर्ज-चंदन सा वदन……….)
जय पार्श्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।
जय जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।टेक.।।
नाना महिपाल तपस्वी बन, पंचाग्नी तप कर रहा जभी।
प्रभु पार्श्वनाथ को देख क्रोधवश, लकड़ी फरसे से काटी।।
तब सर्प युगल उपदेश सुना, मर कर सुर पद को पाये हैं।।जय.।।१।।
यह सर्प सर्पिणी धरणीपति, पद्मावति यक्षी हुए अहो।
नाना मर शंबर ज्योतिष सुर, समकित बिन ऐसी गती अहो।।
नहिं ब्याह किया प्रभु दीक्षा ली, सुर नर पशु भी हर्षाये हैं।।जय.।।२।।
प्रभु अश्वबाग में ध्यान लीन, कमठासुर शंबर आ पहुँचा।
क्रोधित हो सात दिनों तक बहु, उपसर्ग किया पत्थर वर्षा।।
प्रभु स्वात्म ध्यान में अविचल थे, आसन कंपते सुर आये हैं।।जय.।।३।।
धरणेंद्र व पद्मावति ने फण पर, लेकर प्रभु की भक्ती की।
रवि केवलज्ञान उगा तत्क्षण, सुर समवसरण की रचना की।।
अहिच्छत्र नाम से तीर्थ बना, अगणित सुरगण हर्षाए हैं।।जय.।।४।।
यह देख कमठचर शत्रू भी, सम्यक्त्वी बन प्रभु भक्त बने।
मुनिनाथ स्वयंभू आदिक दश, गणधर थे ऋद्धीवंत घने।।
सोलह हजार मुनिराज प्रभू के, चरणों में शिर नाये हैं।।जय.।।५।।
गणिनी सुलोचना प्रमुख आर्यिका, छत्तिस सहस धर्मरत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकायें, त्रय लाख वहाँ जिन भाक्तिक थीं।।
प्रभु सर्प चिन्ह तनु हरित वर्ण, लखकर रवि शशि शर्माये हैं।।जय.।।६।।
नव हाथ तुंग सौ वर्ष आयु, प्रभु उग्र वंश के भास्कर हो।
उपसर्ग जयी संकट मोचन, भक्तों के हित करुणाकर हो।।
प्रभु महा सहिष्णू क्षमासिंधु, हम भक्ती करने आये हैं।।जय.।।७।।
चौंतिस अतिशय के स्वामी हो, वर प्रातिहार्य हैं आठ कहे।
आनन्त्य चतुष्टय गुण छ्यालिस, फिर भी सब गुण आनन्त्य कहे।।
बस केवल ‘ज्ञानमती’ हेतू, प्रभु तुम गुण गाने आये हैं।।
जय पार्श्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।।जय.।।८।।
-दोहा-
मैं वंदूं नित भक्ति से, पार्श्वनाथ पदपद्म।
शक्ति मिले सर्वंसहा, होवे परमानंद।।९।।
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार।
मैं वंदूं नित भक्ति से, सुखसंपति साकार।।१।।
(चाल-श्रीपति जिनवर करुणा……)
जय जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो!
जय जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो।
जय जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।।२।।
जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी।
सब ऋतु के फूल खिलें सुन्दर, सब फूल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें।
सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।।३।।
चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं।
सब ऋतु के फल फल रहे मधुर, सब जन मन हर्ष अपार सही।।
कंचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होती।
सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।।४।।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह, गणधर सातों ऋद्धीयुत थे।
चौदह हजार मुनि अवधिज्ञानी, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
गणिनी चंदना छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनरनुत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।।५।।
प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयू बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके।
तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति श्रावक धर्म बता करके।।६।।
मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे।
निज आत्म सुधारस पान करा, सम्यक्त्व निधी पूर्णा कीजे।।
रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ निर्वाणश्री, साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।।७।।
-गीताछंद-
महावीर प्रभु को जो भविक जन, वंदते शुचि भाव से।
निर्वाण लक्ष्मीपति जिनेश्वर, को नमें अति चाव से।।
वे भव्य नर सुर के अतुल, संपत्ति सुख पाते घने।
फिर अन्त में शुचि ‘‘ज्ञानमति’’, निर्वाण लक्ष्मीपति बने।।८।।