नमोस्तु गुरुवन्दनायां सिद्धभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं।
(९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य)
तवसिद्धे णयसिद्धे, संजमसिद्ध चरित्तसिद्धे य।
णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि।।
इच्छामि भंते! सिद्धभत्ति-काओसग्गो कओ तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचारित्तजुत्ताणं, अट्ठविहकम्मविप्पमुक्काणं, अट्ठगुणसंपण्णाणं, उड्ढलोयमत्थयम्मि पयिट्टियाणं, तवसिद्धाणं, णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं, चरित्तसिद्धाणं, अतीताणागद वट्टमाण-कालत्तयसिद्धाणं, सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं।
नमोस्तु गुरुवन्दनायां श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(९ बार णमोकारमंत्र का जाप्य)
श्रुतमपि जिनवरविहितं, गणधररचितं द्वयनेकभेदस्थम्।
अंगांग-बाह्यभावित, मनन्तविषयं नमस्यामि।।
इच्छामि भंते! सुदभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंग-पइण्णए पाहुडय-परियम्म-सुत्त-पढमाणि-ओग-पुव्वगए-चूलिया चेव सुत्तत्थय-थुइधम्म कहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं।
नमोस्तु गुरुवन्दनायां आचार्यभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं।
(९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य)
गुरुभक्त्या वयं सार्ध-द्वीपद्वितयवर्तिन:।
वंदामहे त्रिसंख्योन-नवकोटि-मुनीश्वरान्।।
इच्छामि भंते! आइरियभत्तिकाउस्सग्गोकओ तस्सलोचेउं सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचारित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं, आयारादि-सुदणाणो-वदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं।
नमो वृषभसेनादि गौतमान्त्यगणेशिने।
मूलोत्तरगुणाढ्याय, सर्वस्मै मुनये नम:।।१।।
श्रीशान्तिसागर मुनीन्द्र! नमोस्तु तुभ्यं,
सूरिस्त्वमेव प्रथम: किल संप्रतीह।
पट्टाधिप: प्रथम एव च य: प्रसिद्ध:,
तं वीरसागरगुरुं प्रणमामि भक्त्या।।२।।
वंदेऽहं गणिनी ब्राह्मी-सुन्दर्यादि सुमातृका:।
त्रैकालिकार्यिकाश्चापि, मूलोत्तरगुणाप्तये।।३।।
तुभ्यं नमोऽस्तु श्री ज्ञानमति: सुमात:!
तुभ्यं नमोऽस्तु गणिनीप्रमुखा सुमात:!
तुभ्यं नमोऽस्तु चिरसंयतिका सुमात:!
हे दिव्यशक्तिसहिताश्च नमोऽस्तु तुभ्यं।।४।।
स्वात्मैकतत्त्वनिरता विरताऽव्रतेभ्य:।
सम्यक्त्वबोधनिपुणा प्रवणा सुवृत्ते।।
अन्वर्थनाम किल ‘‘रत्नमतीं’’ दधासि।
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूर्ध्ना।।५।।
भारत गौरव हे वात्सल्यप्रभाकर! ज्ञानमती माता।
दिव्यशक्ति अमृतनिर्झरिणी बालब्रह्मचारिणि माता।।
शांतिसिन्धु की परम्परा में चिरदीक्षित शारद माता।
मेरा शत वंदन स्वीकारो गणिनीप्रमुख हे श्रुतमाता।।६।।
जब तक नभ में दिनकर चमके, लहराए भूपर सागर।
संयम साधित गौरव की नित, भरी रहे जीवन गागर।।
जन जन तारक जग हितकारक, युग का तुमको शत वन्दन।
धन्य धन्य हे रत्नमती माँ, तव चरणों में कोटि नमन।।७।।