मूलगुण का लक्षण-मुनियों के प्रधान आचरण को मूलगुण कहते हैं। मूल शब्द के अनेक अर्थ होते हैं फिर भी यहाँ मूल का प्रधान या मुख्य ऐसा अर्थ लेना चाहिये। गुण शब्द से भी यहाँ पर आचरण विशेष अर्थ लेना है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हितकर हैं। इस लोक में सर्वजन मान्यता, गुरुपना, सर्वजनों के साथ मैत्री भाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकर पद, चक्रवर्ती पद आदि प्राप्त होते है।
मूलगुण अट्ठाईस होते हैं— पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इंद्रियनिरोध, षट् आवश्यक क्रिया तथा लोच, आचेलक्य, स्नान का त्याग, क्षितिशयन, दंतधावनत्याग, स्थिति भोजन और एक भक्त। मूलगुणों को वृद्धि करने वाले उत्तर गुण कहलाते हैं। ये उत्तर गुण चौंतीस हैं— बारह तप और बाईस परीषहजय।
आर्यिका की सभी चर्या मुनि के सदृश ही है—
एसो अज्जाणं पि य सामाचारो जहक्खिओ पुव्वं।
सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जहाजोग्गं१।।१८७।।
‘‘मूलगुणों के अनुरूप आचरण को सामाचार कहते हैं। अर्थात् मुनि के सामाचार का इससे पूर्व में जैसा वर्णन किया है वैसा ही आर्यिका के सामाचार का भी वर्णन समझना चाहिए। अर्थात् दिवस और रात्रि संबंधी सभी क्रियायें मुनियों के सदृश ही हैं। अंतर इतना ही है कि वृक्षमूल योग, आतापन योग, अभ्रावकाश योग २ऐसे योगादिक तीन आचरण का आर्यिकाओं के लिये निषेध हैं, क्योंकि वह उनकी आत्मशक्ति के बाहर है।’’
आचारसार में भी कहा है—
लज्जाविनय—वैराग्य—सदाचारादि—विभूषिते।
आर्याव्राते सामाचार: संयतेष्विव किन्त्विह।।८१।।
(आचारसार पृ० ४२)।
‘‘जिस प्रकार यह सामाचार नीति मुनियों के लिये बताई गई है , उसी प्रकार लज्जादि गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त सामाचार नीतियों का पालन करना चाहिये।’’
प्रायश्चित ग्रंथ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित्त का विधान है तथा क्षुल्लकादि को उनसे आधा इत्यादि रूप से है। जैसे—
साधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च।
दिनस्थानत्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते।।११४।। (प्राय०)
‘‘जैसा प्रायश्चित साधुओं के लिये कहा गया है वैसा ही आर्यिकाओं के लिये कहा गया है विशेष इतना है कि दिन प्रतिमा (दिन में खड़े होकर ध्यान करना), त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रन्थांतरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद), मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिये नहीं हैं।’’
आर्यिकाओं के लिये दीक्षा विधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं।
विशेष इनकी चर्या क्या है वह भी स्पष्ट करते हैं—
अण्णोणणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमाया- सलज्जम-ज्जादकिरियाओ।।१८८।।
अज्झयणे परियट्टे सवणे कहणे तहाणुपेहाए।
तव—विणय—संजमेसु य अविरहिदुव-ओगजोगजुत्ताओ।।१८९।।
अविकार—वत्थ—वेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुल—कित्तिदिक्खापडिरूव—विसुद्ध—चरियाओ।।१९०।।
रोदणण्हावण—भोयण—पयणं सुत्तं च छब्बिहारंभे।
विरदाण पादमक्खण—धोवण—गेयं च ण य कुज्जा१।।१९३।।
आर्यिकायें वसतिका में परस्पर में अनुकूल मत्सरभाव रहित, परस्पर में रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर, रोष, वैर, माया जैसे विकारों से रहित , लोकापवाद और निंदा से डरती हुई, उभयकुल के अनुरूप, लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से अपने चारित्र की रक्षा करती हुई एक साथ रहती हैं। अध्ययन, पुनरावृत्ति, श्रवण, कथन, अनुप्रेक्षाओं के चिंतन, तप, विनय, संयम तथा ज्ञानाभ्यास में सतत तत्पर रहती हुई मन—वचन—काय से शुभाचरण करती हैं।
निर्विकार वस्त्र तथा वेश धारण करती हुई, साज शृंगार से रहित, जल्ल और मल से युक्त रहती हैं। धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुरूप निर्मल आचरण करती हैं। रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन कराना, रसोई बनाना, वस्त्र सीना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरम्भ आदि कार्य नहीं करती हैं। मुनियों के पैरों में तेल लगाना, धोना, गीत गाना आदि कार्य भी वे नहीं करती हैं।
वसतिका स्थान—
अगिहत्थमिस्सणिलये असण्णिवाए विसुद्धसंचारे।
दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्थंति।।१९१।।
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ।
थेरीहिं सहांतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा।।१९४।।
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे।
गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज१।।१९२।।
जो स्थान साधुओं के निवास स्थान से दूर हो, गृहस्थों के स्थान से न अति दूर हो न अति पास हो, जहाँ व्यसनी, चोर आदि का प्रवेश न हो, जिसमें मलोत्सर्ग के योग्य प्रदेश भी हो । ऐसे स्थान में दो, तीन या बहुत सी—तीस—चालीस तक भी आर्यिकायें रहती हैं, क्योंकि आर्यिकाओं को अकेली कभी नहीं रहना चाहिये। कम से कम दो अवश्य होना चाहिए। तीन, पाँच या सात मिलकर आपस में एक दूसरे की रक्षा करते हुए वृद्ध आर्यिकाओं के साथ—साथ निकल कर आहार के लिए श्रावक के यहाँ प्रवेश करती हैं। गृहस्थों के घर में कभी नहीं जाती हैं केवल आहार के समय ही जाती हैं। कभी कोई विशेष धर्म कार्य होने पर अथवा किसी की सल्लेखना आदि कराने के लिए साध्वी गृहस्थ के घर जा सकती हैं अन्यथा नहीं। उसमें भी गणिनी को पूछकर दो—तीन आदि मिलकर ही जाना चाहिए।
प्रश्न—जब आर्यिकाओं के सभी व्रत मुनियों के सदृश हैं पुन: वे वस्त्र वैâसे रखती हैं ? इस पर आचार्यों ने ऐसा कहा है कि—
‘‘आर्यिकाओं को अपने पहनने के लिये दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित होता है।२’’
इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी (लगभग १६—१६ हाथ की) रखती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है दूसरी को धोकर सुखा देती हैं जो कि द्वितीय दिवस बदल जाती है।
विशेष—आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का एक मूलगुण कम नहीं होता है किंतु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है, हाँ ! तृतीय साड़ी रखने से अवश्य ही मूलगुण में दोष आता है। मुनिराज खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है । यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। इसलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं के महाव्रतों को उपचार संज्ञा दी गई है। यथा—
देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यंते बुधैस्तत:।
महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारत:।।८९।।
(आचारसार)
‘‘गणधर आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है। परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है।’’
ये उपचार से महाव्रती हैं अतएव एक साड़ी धारण करते हुए भी लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य हैं। यथा—
श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में से अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं—
क्षुल्लक और ऐलक। क्षुल्लक के पास लंगोटी और चद्दर ये दो वस्त्र रहते हैं किन्तु ऐलक के पास लंगोटी मात्र रहती है।
कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतं।
अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्यिकार्हति।।३६।।
(सागार धर्मामृत पृ० ५१८)
‘‘अहो आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकते हैं, किंतु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने से उपचार से महाव्रतिनी कहलाती है।’’ अर्थात् ऐलक लंगोटी त्याग कर सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किये हैं किंतु आर्यिका तो साड़ी का त्याग करने में समर्थ नहीं है।
आर्यिकाओं की यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए। अर्थात् सिले हुये वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है।
निष्कर्ष यह निकला कि ये आर्यिकायें एक श्वेत साड़ी पहनती हैं, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच के लिये काठ या नारियल का कमंडलु रहता है। ज्ञान साधन के लिए शास्त्र को रखती हैं। सोने या बैठने में बिछाने के लिये घास, पाटा या चटाई भी रख सकती हैं, बाकी कुछ भी परिग्रह उनके पास नहीं रहता है।
पठन—पाठन में या ग्रन्थ के लिखने के लिये कलम, स्याही, कागज आदि भी रख सकती हैं१। मुनियों की अपेक्षा मूलगुणों के पालन में दो ही बातों का अंतर है— एक तो एक साड़ी पहनना और दूसरा बैठकर आहार करना।
यद्यपि आर्यिकाएँ पंचमगुणस्थान वाली हैं, फिर भी ये ग्यारहवीं प्रतिमाधारी क्षुल्लक, ऐलक की अपेक्षा उत्कृष्ट हैं, क्योंकि ये उपचार से महाव्रती संयतिका कहलाती हैं। मुनि के समान सर्व मूलगुणों को और सामाचार क्रियाओं को पालन करती हैं। ग्यारह अंग तक श्रुत का अध्ययन करने का भी इनको अधिकार है।
पुराण ग्रंथ में भी सुना जाता है। उसे ही कहते हैं-
‘‘एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।।’’
‘‘वह सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई।’’
आर्यिकाओं की नवधाभक्ति आगमोक्त है—
चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओं का समूह अनादिकाल से चला आ रहा है। स्वतन्त्ररूप में भी जैसे मुनियों के संघ रहते हैं वैसे गणिनी आर्यिकाओं के नेतृत्व में आर्यिकाओं के संघ भी रहते हैं। दोनों व्यवस्थायें चतुर्थकाल में भी थीं और आज पंचमकाल में भी आचार्यसंघों में भी आर्यिकायें रहती हैं तथा स्वतन्त्र भी आर्यिकाओं के संघ विद्यमान हैं। यह चतुर्विध संघ पंचमकाल के अन्त तक रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिये आज की आर्यिकायें भी पूज्य हैं और नवधाभक्ति की पात्र हैं ऐसा आगमसम्मत मानकर उनकी भक्ति, पूजा करना चाहिये और उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान देना चाहिये।