श्री पूज्यपाद स्वामी का एवं गुणभद्रसूरि आदि अनेक आचार्यों के पंचामृत अभिषेक पाठ संस्कृत में छपे हुए हैं—
श्री पूज्यपाद स्वामी नंदिसंघ की पट्टावली में श्रीकुंदकुंद, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश:कीर्ति, यशोनंदी इनके बाद देवनन्दि (पूज्यपादस्वामी) को लिया है। एवं विक्रम संवत् २५८ से ३०८ तक, इन्हें आचार्य पट्ट पर माना है। कोई-कोई विद्वान् इन्हें विक्रम संवत् ५५३ में मानते हैं।
काष्ठा संघ की स्थापना—
श्री वीरसेनाचार्य के शिष्य जिनसेन, उनके शिष्य गुणभद्रसूरि हुये हैं। इन्होंने विनयसेन मुनि को सिद्धान्त का अध्ययन कराया है। इनके शिष्य कुमारसेन हुये हैं। इन्होंने विक्रम संवत् ७५३ में काष्ठासंघ की स्थापना की है।
विशेष—कुछ साधु एवं विद्वान पंचामृत अभिषेक पाठ को काष्ठासंघ की परम्परा का कह देते हैं अत: यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा है।
तेरह पंथ—बनारसीदास के अर्धकथानक के अनुसार तेरहपंथ की स्थापना विक्रम संवत् १६८३ में हुई है।
इन्होंने पंचामृत अभिषेक को नहीं माना है। तेरह नियम बना दिये हैं इसलिये ये तेरहपंथी कहलाते हैं। ये हरे फल, फूल चढ़ाना, स्त्रियों द्वारा भगवान का अभिषेक कराना आदि नहीं मानते हैं …………..।वर्तमान में दिगम्बर जैन परम्परा में उत्तर प्रदेश में कहीं-कहीं तीर्थों पर एवं शहर, गाँव आदि के मंदिरों में तेरह पंथ की परम्परा पायी जाती है। प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी, उनके प्रथम पट्टाचार्य आचार्य श्री वीरसागर जी आदि आचार्यों का यह आदेश है कि-जहाँ पर, तीर्थों पर या मंदिरों में जो आम्नाय परम्परा चली आ रही है उसमें बाधा न पहुँचाते हुये सभी अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार अभिषेक—पूजा करें, आपस में संगठन व प्रेम बनाये रखें। चूँकि जैन समाज बहुत ही अल्प है। पंथ परम्परा में पड़कर समाज में विघटन करना कथमपि उचित नहीं है।
मैंने सदैव दिल्ली आदि शहरों में यही आदेश दिया है और समय-समय लोगों की इच्छानुसार प्रकरण प्रस्तुत किये हैं।यही बात शासन देव-देवी, क्षेत्रपाल आदि की आराधना के विषय में हैं। देखे-मेरे द्वारा संकलित ‘आगम दर्पण’ पुस्तक अवश्य पढ़ें। वर्तमान में श्रवण—बेलगोल आदि में सदा ही श्री भगवान बाहुबली स्वामी का महामस्तकाभिषेक कार्यक्रम बीसपंथ परम्परा के सबल प्रमाण है।तथा श्री बाहुबली के सामने मुख्यद्वार के पास ‘गुल्लिकायिज्जी’ की प्रतिमा हाथ में अभिषेक की कलशी लिये खड़ी हैं। हजारों वर्ष पूर्व से यह मूर्ति स्त्रियों द्वारा भगवान के अभिषेक का प्रमाण प्रदर्शित कर रही हैं।इससे अधिक बीसपंथ के और प्रमाण क्या चाहिये अत: आगम के आलोक में और प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी आदि की परम्परा के आलोक में िंचतन करना चाहिये, दुरागृही नहीं बनना चाहिये।यही मोक्षमार्ग है।