(पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से एक विशेष वार्ता)
प्रस्तुति-आर्यिका स्वर्णमती (संघस्थ)
आ. स्वर्णमती-वंदामि माताजी! मैं आज आपसे कतिपय बिन्दुओं पर उचित मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहती हूँ, ताकि वर्तमान विद्वत् वर्ग को भी आगमोक्त जानकारी प्राप्त हो सके।
पूज्य ज्ञानमती माताजी-पूछो! क्या पूछना चाहती हो?
आ. स्वर्णमती-पूज्य माताजी! क्या जन्म लेते ही ‘तीर्थंकर’ को भगवान शब्द से सम्बोधित किया जा सकता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत महापुराण आदि ग्रंथों में जन्म से ही तीर्थंकर बालक को ‘भगवान’ कहा है, चूँकि उनका जन्म साधारण बालक जैसा नहीं होता है। तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने से ६ माह पहले से माता के आँगन में रत्नों की वृष्टि हुआ करती है जो उनके जन्म लेने तक अर्थात् १५ माह तक चलती रहती है, जन्म से ही तीर्थंकर शिशु मति, श्रुत, अवधि तीन ज्ञान के धारी रहते हैं, जन्मजात बालक का सुमेरु पर्वत पर सौधर्म इन्द्र १००८ कलशों से जन्माभिषेक करते हैं इत्यादि सभी अद्भुत बातें तीर्थंकर भगवान के साथ ही सम्बंधित हैं, साधारण बालक के साथ नहीं, अत: जन्म से ही तीर्थंकर बालक को ‘भगवान’ कहना सर्वथा उचित ही है।
आ. स्वर्णमती-पूज्य माताजी! पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् तीर्थंकर को आदिकुमार, शांतिकुमार इत्यादि नाम दे देते हैं पर मैं देखती हूँ कि आप इससे सहमत नहीं रहती हैं, इसका क्या कारण है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-मेरा कहना रहता है कि तीर्थंकर शिशु को जो नाम इन्द्र रखते हैं, वही नाम प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों को भी रखना चाहिए, उदाहरण के लिए—आदिनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ आदि क्योंकि तीर्थंकर असाधारण महापुरुष हैं और उनके साथ साधारण व्यवहार शोभायमान नहीं हो सकता।
आचार्य जिनसेन स्वामी कृत आदिपुराण (अन्तर्गत महापुराण) आप देखें, आपको कितने ही उदाहरण मिल जायेंगे। जैसे—आदिपुराण (भाग-१) में पृष्ठ २९० पर श्लोक ८२ में तीर्थंकर के जन्माभिषेक के समय ‘जिननाथ’ शब्द प्रयोग किया गया है—
तस्य प्रागुत्तराशायां महती पाण्डुकाह्वया।
शिलास्ति जिननाथानामभिषेकं बिभत्ति या।।८२।।
अर्थात् उस मेरु पर्वत के पाण्डुक वन में पूर्व और उत्तर दिशा के बीच अर्थात् ऐशान दिशा में एक बड़ी भारी पाण्डुक नाम की शिला है जो तीर्थंकर भगवान के जन्माभिषेक को धारण करती है अर्थात् जिस पर तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ करता है।।८२।।
इसके अतिरिक्त पृष्ठ ३०१ पर श्लोक २०६ एवं २०८ में भी जन्मजात तीर्थंकर शिशु को ‘भगवान्’ शब्द से सम्बोधित किया है-
सज्योतिर्भगवान् मेरो: कुलशैलायिता: सुरा:।
क्षीरमेघायिता: कुम्भा: सुरनार्योऽप्सरायिता:।।२०६।।
अर्थात् उस समय भगवान ऋषभदेव मेरु के समान जान पड़ते थे, देव कुलाचलों के समान मालूम होते थे, कलश दूध के मेघों के समान प्रतिभासित होते थे और देवियाँ जल से भरे हुए सरोवरों के समान आचरण करती थीं।।२०६।।
एवं, इति श्लाघ्यतमे मेरौ निवृत्त: स्नपनोत्सव:।
स यस्य भगवान् पूयात् पूतात्मा वृषभो जगत्।।२०८।।
अर्थात् जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र था, मेरु पर्वत स्नान करने का सिंहासन था, देवियाँ नृत्य करने वाली थीं, देव किंकर थे और क्षीरसमुद्र स्नान करने का कटाह (टब) था। इस प्रकार अतिशय प्रशंसनीय मेरु पर्वत पर जिनका स्नपन महोत्सव समाप्त हुआ था, वे पवित्र आत्मा वाले भगवान् समस्त जगत् को पवित्र करें।।२०७-२०८।।
आ. स्वर्णमती-पूज्य माताजी! जब भगवान का राज्याभिषेक होता है, तब आदि महाराज या आदिकुमार महाराज शब्द प्रयुक्त किया जाता है, उसके विषय में आपका क्या कहना है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-आगम के परिप्रेक्ष्य में तो उस समय भी उन्हें महाराजाधिराज आदिनाथ भगवान ही कहना चाहिए।
आ. स्वर्णमती-दीक्षा के बाद तीर्थंकर को महामुनि आदिसागर, महामुनि शांतिसागर आदि शब्दों से सम्बोधित करना क्या उचित माना जाये?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-नहीं! इसे भी उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि वह प्रत्येक स्थिति में आदिनाथ स्वामी या अजितनाथ स्वामी ही रहेंगे। सामान्य मुनियों के समान उनके लिए आदिसागर या शांतिसागर आदि शब्दों का प्रयोग न करके महामुनि आदिनाथ भगवान इत्यादि ही प्रयुक्त करना चाहिए। क्योंकि जब जन्मजात तीर्थंकर शिशु के लिए ही ‘भगवान्’ संज्ञा दी गई है तो बाद में तो वे भगवान रहेंगे ही।
आ. स्वर्णमती-पूज्य माताजी! कृपया मुझे बतायें कि क्या आचार्य, मुनि, आर्यिकाएँ आदि जन्माभिषेक के जुलूस में जा सकते हैं एवं जन्माभिषेक देख सकते हैं?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-निश्चित ही मुनि महाराज एवं आर्यिका माताएँ जुलूस में भी जा सकते हैं एवं जन्माभिषेक भी देख सकते हैं। आचार्य शिवसागर जी महाराज एवं आचार्य धर्मसागर जी महाराज को जन्माभिषेक के जुलूस में जाते हुए एवं जन्माभिषेक देखते हुए मैंने स्वयं देखा है एवं मैं भी उनके साथ गई हूँ।
आदिपुराण पृ. ३०३ पर श्लोक २१६ में आचार्य जिनसेन स्वामी ने कहा है-
सानन्दं त्रिदशेश्वरै: सचकितं देवीभिरुत्पुष्करै:
सन्नासं सुरवारणै:, प्रणिहितैरात्तादरं चारणै:।
साशज्र्ं गगनेचरै: किमिदमित्यालोकितो य: स्फुरन्
मेरोर्मूद्र्ध्नि स नोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ: प्लव:।।२१६।।
अर्थात् मेरु पर्वत के मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक का वह जल-प्रवाह हम सबकी रक्षा करे, जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनंद से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूँड़ ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘यह क्या है’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।।२१६।।स्पष्ट है कि जब चारणऋद्धिधारी मुनिराज बड़े आदर से तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक देखते हैं, तब सामान्य मुनियों को जन्माभिषेक देखने में क्या बाधा है?
आ. स्वर्णमती-पूज्य माताजी! एक बात मन में सहज ही आती है कि वस्त्रालंकार सहित होने पर भी ‘भगवान्’ संज्ञा वैâसे दी जाये?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-देखो! जब भगवान ने अपनी ब्राह्मी-सुंदरी पुत्रियों को विद्याध्ययन कराया, तब वे अपनी राजसभा में विराजमान थे, उस समय भी भगवज्जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण पृष्ठ ३५२, श्लोक ७२ में उनके लिए ‘भगवान्’ संज्ञा ही प्रयुक्त की है-
अथैकदा सुखासीनो भगवान् हरिविष्टरे।
मनो व्यापारयामास कलाविद्योपदेशने।।७२।।
अर्थात् अथानन्तर किसी एक समय भगवान वृषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में व्यापृत किया अर्थात् लगाया।।७२।।
इसी प्रकार असि, मसि आदि षट् क्रियाओं के उपदेश देने के समय भी आदिपुराण पृ. ३६२, श्लोक १८० में ‘भगवान्’ शब्द का ही प्रयोग है-
तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात्।
उपादिक्षत् सरागो हि स तदासीज्जगद्गुरु:।।८०।।
भगवान वृषभदेव ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों (असि, मसि आदि) द्वारा वृत्ति (आजीविका) करने का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान सरागी ही थे वीतरागी नहीं थे।इसीलिए मेरा तो यही कहना है कि प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों को जन्मजात शिशु अवस्था, कुमारावस्था, राज्यावस्था एवं दीक्षा के बाद सभी अवस्थाओं में तीर्थंकर स्वामी के लिए ‘भगवान्’ शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे-महाराजा भगवान आदिनाथ, महाराजा भगवान शांतिनाथ, महामुनि भगवान ऋषभदेव आदि। आदिपुराण में सर्वत्र भगवान् जगद्गुरु, प्रभु, विभु आदि संज्ञाओं का ही प्रयोग आदिनाथ स्वामी के लिए किया गया है, भले ही वह जीवन की किसी भी अवस्था में हों।