‘नमोऽस्तु शासन जयवंत हो’ कहाँ तक उचित है : एक अनुशीलन
(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से विशेष वार्ता)
प्रस्तुति-आर्यिका स्वर्णमती (संघस्थ)
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! वंदामि, आज एक महत्वपूर्ण विषय पर आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आजकल अनेक श्रावक आकर कहते हैं कि आज ‘‘जैन शासन’’ के स्थान पर ‘‘नमोऽस्तु शासन’’ का प्रचार-प्रसार हो रहा है, ‘जैनं जयतु शासनं’ को छोड़कर नमोऽस्तु शासन की जयकार एक आचार्य महाराज द्वारा बुलवायी जा रही है और आपके द्वारा अनुवादित मूलाचार ग्रंथ को इसका आधार बताया जा रहा है। इस संदर्भ में आपका क्या अभिमत है, कृपया बतायें।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-नमोऽस्तु शासन की जय बुलवाना हमें भी इष्ट नहीं है। हमनें एक लेख बनाकर उन आचार्य महाराज को भिजवाया भी था क्योंकि वास्तविकता यह है कि मूलाचार ग्रंथ में नमोऽस्तु शासन दिगम्बर जैन मुनियों को किये जाने वाले नमस्कार के शब्द की अपेक्षा से आया है, यद्यपि वहाँ (गाथा १५१) में नमोऽस्तु शब्द के टिप्पण में ‘सर्वज्ञ’ शब्द दिया है, इसलिए किन्हीं के द्वारा ‘सर्वज्ञ शासन’ शब्द भी प्रयुक्त हो सकता है, किन्तु ये सभी जैन शासन के अन्तर्गत हैं और जैन शासन जिनेन्द्र भगवान के शासन की अपेक्षा से जैनधर्म को बतलाता है, इसलिए ‘जैनं जयतु शासनम्’ का लोप करके अन्य किसी संज्ञा का प्रयोग उचित नहीं है।
‘जैनं जयतु शासनम्’ अथवा जैन शासन की जय ही बोलना चाहिए क्योंकि वर्तमान में नमोस्तु शब्द का प्रयोग अन्य मतावलंबियों में कात्यायनी आदि देवियों को नमस्कार करने हेतु भी किया जा रहा है, यथा-‘‘कात्यायनि! नमोऽस्तु ते।’’ इत्यादि, इसलिए ‘जैन शासन’ शब्द का लोप करके ‘नमोऽस्तु शासन’ का प्रयोग करना दूरगामी भविष्य हेतु घातक ही सिद्ध होगा।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! जैनागम में जैन शासन के लिए और कौन से नाम प्रयुक्त किये गये हैं ?
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-श्री जिनसेनाचार्य रचित जिनसहस्रनाम स्तोत्र में अनेक स्थानों पर शासन शब्द का प्रयोग हुआ है। यथा-
(१) सिद्ध शासन (अध्याय-१)
(२) पूत शासन (अध्याय-२)
(३) पुण्य शासन (अध्याय-४)
(४) व्यक्त शासन (अध्याय-५)
(५) क्षेम शासन (अध्याय-६)
(६) अमित शासन (अध्याय-७)
(७) सत्य शासन (अध्याय-७)
(८) गंभीर शासन (अध्याय-८)
(९) अमोघ शासन (अध्याय-८)
इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र कृत स्वयंभू स्तोत्र में भी अनेक स्थानों पर शासन शब्द का प्रयोग आया है, यथा-
(१) जितक्षुल्लक वादि शासन (श्री वृषभदेव स्तुति)
(२) अजित शासन (श्री अजितनाथ स्तुति)
(३) समन्त-दु:ख-क्षय शासन (श्री चन्द्रप्रभ स्तुति)
(४) निरुपमयुक्ति शासन (श्री अरनाथ स्तुति)
ये कतिपय नाम मैंने यहाँ बताये हैं, अन्य ग्रंथों एवं रचनाओं में भी ऐसे अन्य नाम दृष्टिगत होते हैं।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! तब तो ‘जैनं जयतु शासनम्’ के स्थान पर कोई ‘सिद्ध शासन की जय’, ‘पूत शासन की जय’ इत्यादि का भी प्रचार-प्रसार कर सकता है।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-यह बात ठीक है कि ये सभी भगवान जिनेन्द्र के १००८ नामों में से कतिपय पर्यायवाची नाम हैं, परन्तु ‘जयतु सिद्ध शासनं’, ‘जयतु पूत शासनं’ आदि को प्रयोग में लाकर ‘जैनं जयतु शासनम्’ को गौण कर देना किमपि भी उचित नहीं हैं। देखो, परम्परा से ये श्लोक पढ़े जाते हैं-
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी,
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं।।
सर्वमंगल मांगल्यं, सर्व कल्याणकारकम्,
प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयतु शासनम्।। एवं
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं।
जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम्।।
(ईर्यापथ शुद्धि स्तोत्र से)
ऐसे कितने ही श्लोक प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध हैं, जहाँ जैनशासन एवं जिनशासन संज्ञाएँ ही प्रयुक्त हुई हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्रणीत मूलाचार ग्रंथ का स्वाध्याय उनके उत्तरवर्ती आचार्यों यथा-आचार्य अमृतचंद्रसूरि, आचार्य जयसेन, आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आदि अनेक पूर्वाचार्यों एवं वर्तमान आचार्यों-चारित्रचक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी, आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज आदि ने किया, परन्तु किन्हीं ने ‘नमोऽस्तु शासन’ को प्रचारित-प्रसारित न करके जैन शासन अथवा जिनशासन को ही प्रमुखता दी, सुधीजनों को इस तथ्य पर भी अवश्य विचार करना चाहिए। महान प्रज्ञावान पूर्वाचार्य यदि अलग-अलग संज्ञाओं को प्रयुक्त करते तो जैन शासन की अखण्डता में भेद पड़ गया होता। इसलिए ‘जैन’ शब्द की प्रमुखता ही हमें रखनी चाहिए तथा वही आगामी पीढ़ियों को भी प्रदान करना चाहिए।
समयसार उत्तरार्ध (दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित) में अंतिम स्याद्वाद अधिकार में पृष्ठ ६०० पर संस्कृत टीका में देखें-
जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिणसासणं सुइरं।।२।।
अर्थात्, जिनका आश्रय लेकर भव्य लोग अनंत संसार सागर को पार कर जाते हैं, वह सब जीवों के लिए शरणभूत होकर रहने वाला जिनशासन चिरकाल तक जयवंत रहे।
यहाँ भी ‘‘जिणसासणं’’ अर्थात् ‘जिनशासन’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है। ऐसे कितने ही उदाहरण जैनागम में विद्यमान हैं।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! यदि भगवान महावीर को प्रतिबिम्बित वâरने वाले ‘वीर शासन’ शब्द को प्रयुक्त करें, तो क्या आपत्ति है ?
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-‘वीर शासन’ कहने से भगवान महावीर का शासन तो स्पष्ट होता है, परन्तु उनसे पूर्ववर्ती २३ तीर्थंकर भगवन्तों की गौणता हो जाती है, ये भी कम उचित है।देखो! भगवान महावीर जयंती एवं निर्वाण दिवस (दीपावली पर्व) की प्रमुखता होने से देश की पाठ्य पुस्तकों में भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक लिखा जाने लगा और उसको परिवर्तित कराने में जैन समाज के कितने ही प्रयासों के बाद भी पाठ्य पुस्तकों में पूरा सुधार नहीं हो पा रहा है।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! आपसे प्राप्त इन तथ्यों के आधार पर तो ये मानना होगा कि हम ‘जैन शासन’ तथा ‘जिनशासन’ जैसी संज्ञाओं का ही प्रयोग करें एवं इन्हीं की जय बुलवायें क्योंकि प्राचीनतम काल से इन्हीं शब्दों से अपने धर्म की पहचान होती आयी है और भविष्य में भी होती रहेगी।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ! यही बात है। षट्दर्शन के नामों में जैन एक दर्शन माना है। यथा-
जैना मीमांसका बौद्धा: शैवा वैशेषिका अपि।
नैयायिकाश्च मुख्यानि, दर्शनानीह सन्ति षट्।।
जैन, मीमांसक, बौद्ध, शैव, वैशेषिक और नैयायिक ये छह प्रमुख दर्शन इस देश में हैं।
यदि जैन शासन शब्द के स्थान पर नमोऽस्तु शासन प्रचारित किया जावेगा तो एक दर्शन ही नहीं रहेगा। हम जैनों का अस्तित्त्व खतरे में पड़ जायेगा। इसलिये जैनधर्म व जैन धर्मानुयायियों की रक्षा के लिये ‘जैन शासन’ की जय बोलना, प्रचार—प्रसार करना अति आवश्यक है।
दूसरे मूलाचार ग्रंथ में यह नहंी लिखा है कि ‘‘जैनं जयतु शासनम्’’ को छोड़कर ‘नमोऽस्तु शासनम्’ की जय बुलवाना या प्रचारित करना।
तीसरी बात यह है कि जैन मुनियों के लिये समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में ‘श्रमण’ शब्द आया है। तथा आर्यिकाओं को ‘श्रमणी’ कहा व लिखा जाने लगा था। किन्तु आज श्वेताम्बर परम्परा में ब्रह्मचारी—ब्रह्मचारिणी वेष में रहने वालों के लिये ‘श्रमण, श्रमणी’ शब्द का प्रयोग हो गया है। अत: हम आर्यिकाओं को ‘श्रमणी’ शब्द का प्रयोग न करके ‘जैन साध्वी’ ‘आर्यिका’ शब्द का प्रयोग ही उचित हो गया है।
चौथी बात यह है कि—धनंजय नाममाला में आया है—
ऋषि—र्यति—र्मुनि—र्भिक्षु—स्तापस: संयतो व्रती।
तपस्वी संयमी योगी, वर्णी साधुश्च पातु व:।।१३।।
यहाँ मुनि, भिक्षु, तापस व वर्णी शब्द भी मुनि के पर्यायवाची हैं किन्तु वर्तमान में भिक्षु शब्द का प्रयोग बौद्ध साधुओं के लिये प्रचलित है। ‘तापस’ शब्द का प्रयोग हिन्दू तापसी साधुओं के लिये प्रसिद्ध है व ‘वर्णी’ शब्द का प्रयोग अपनी ही दिगम्बर जैन परम्परा में ‘क्षुल्लक’ के लिये ‘‘श्री गणेशप्रसाद वर्णी’ ‘श्री मनोहरलाल वर्णी’ के प्रयोग में प्रसिद्ध रहा है। अत: वर्तमान में दिगम्बर मुनि, आचार्य या उपाध्याय महाराज के लिये भिक्षु, तापस और वर्णी शब्दों के प्रयोग नहीं किये जाते हैं।मुनिराज के आहार के बाद कोई भी श्रावक नहीं कहता है कि हमारे यहाँ आज तापस का आहार हुआ, भिक्षु का आहार हुआ, वर्णी का आहार हुआ, वरन् यही कहते हैं कि हमारे यहाँ आज मुनि महाराज का आहार हुआ। इसलिए कुछ प्रकरण आगम सम्मत होते हुए भी लोक व्यवहार में गौण किये जाते हैं।इन्हीं अनेक विचारणीय बिन्दुओं से स्पष्ट है कि भले ही मूलाचार ग्रंथ में ‘नमोऽस्तु शासनं’ शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु जैनधर्म की विशिष्ट व पृथक् पहचान के लिये ‘‘जैनशासन’’ का प्रयोग ही उचित है न कि नमोऽस्तु शासन का प्रयोग। क्योंकि ‘‘जैन शासन’’ व्यापक है और यह नमोऽस्तु शासन उसी के अंतर्गत है।
आर्यिका स्वर्णमती-पूूज्य माताजी! आज आपके मुखारविंद से ‘जैनं जयतु शासनम्’ के विषय में इतनी महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करके अत्यन्त प्रसन्नता हुई, भविष्य में भी आपसे इसी प्रकार के सम्यक् दिशा-निर्देश प्राप्त होते रहें, यही मंगल भावना है। आपको बारम्बार वंदामि।