-गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी
एक जिनचैत्यालय में सन् १९७२ में मैंने सरस्वती और लक्ष्मी की मूर्तियाँ देखीं, उनके मस्तक पर भगवान की प्रतिमा थीं। मुझे बहुत ही अच्छा लगा और मैंने ब्र. मोतीचंद से कहा-
इनके छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनवाओ, इनके मस्तक पर भगवान हैं अत: ये जैन की प्रतीक रहेंगी, इनका प्रचार-प्रसार करो, मंदिरों में, घर-घर में व दुकानों पर, ऑफिस आदि स्थानों में जैन-श्रावक विराजमान करें, इससे उनके यहाँ सद्बुद्धि व धन की वृद्धि-समृद्धि होगी।
आजकल अनेक श्रावकों के यहाँ चांदी के या मिट्टी के भी गणेश-लक्ष्मी रखने लगे हैं। दक्षिण में या कहीं-कहीं कुलदेवता की मूर्तियाँ रख लेते हैं यह परम्परा स्वस्थ नहीं है अत: इन सरस्वती-लक्ष्मी के प्रचार से बहुत लाभ होगा।
तभी से आज तक मैं देख रही हूँ जिस घर में सरस्वती-लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। बालक स्कूल जाते समय नमस्कार करके फल चढ़ाकर जाते हैं, परीक्षा में आगे आते हैं, ऐसा महिलाएं आकर बताती रहती हैं।
मेरी प्रेरणा से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर तीनमूर्ति मंदिर में एवं तेरहद्वीप मंदिर में भी इनकी मूर्तियाँ विराजमान हैं।
दीपावली पर सायंकाल में अनेक श्रावक इनकी पूजा करके दीपमालिका सजाते हैं। चूँकि प्रात: कार्तिक कृ. अमावस्या को भगवान के मोक्षकल्याणक के अवसर पर निर्वाणलाडू चढ़ाते हैं और सायंकाल में श्री गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, अत: मेरी प्रेरणा से अनेक श्रावकगण सायंकाल में गणधरदेव की मूर्ति व सरस्वती-लक्ष्मी की मूर्तियों का अभिषेक करके श्री महावीर स्वामी की, श्री गौतम स्वामी की व सरस्वती-लक्ष्मी की पूजा करके दीपमालिका जलाते हैं और दीपकों की रोशनी से मंदिर को एवं घर को जगमगाते हैं।
वर्तमान में कुछ प्रबुद्धजन प्रश्न कर देते हैं कि इन सरस्वती व लक्ष्मी के मूर्तिरूप में-देवियों के रूप में हमें प्रमाण चाहिए। उन्हीं के लिए मैंने यह संकलन किया है।
सरस्वती-लक्ष्मी की मूर्तियों के प्रमाण
प्रतिष्ठातिलक में लिखा है-
सरस्वती देवी पद्मा-लक्ष्मी के साथ भगवान के श्रीविहार में चलती हैं-
प्रतिष्ठतामग्रत: परिचारकामरपरिवारपरिवृता परीत्य परमेष्ठिनं पद्महस्त्या सह पद्मया देवी सरस्वती।
(प्रतिष्ठातिलक पृ. २६९)
अर्थ-इन्द्र कहते हैं हे सरस्वती देवी! कमल को हाथ में लिए ऐसी लक्ष्मी देवी के साथ तथा परिचारक देव परिवारों से घिरी हुईं आप भगवान की प्रदक्षिणा देकर आगे-आगे रहो।
हरिवंशपुराण में लिखा है-
मानस्तंभों में पालिकाओं में लक्ष्मी देवी के अभिषेक की शोभा दिखाई गई है। वहीं समवसरण में मूर्तिमती श्रुतदेवता विद्यमान हैं-
द्विसहस्राश्रयो नानारत्नरश्मिविमिश्रिता:।
चतुर्दिक्षूर्ध्वसिद्धार्चा: रत्नभूतोरूपालिका:।।१६।।
पालिका मुखपद्मस्थतपनीयस्फुरद्घटा:।
घटास्याबद्धफलका: श्रीभामाभिषवश्रिय:।।१७।।
(हरिवंशपुराण पु. सर्ग ५७, श्लोक १६-१७)
अर्थ-हर एक मानस्तंभ दो-दो हजार कोणों से सहित हैं-दो-दो हजार पहल के हैं, नाना रत्नों की किरणों से मिले हुए हैं, उनकी चारों दिशाओं में ऊपर सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं।।१६।।
पालिकाओं के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन पर सुवर्ण के देदीप्यमान घट हैं, उन घटों के अग्रभाग से लगी हुई सीढ़ियाँ हैं तथा उन सीढ़ियों पर लक्ष्मीदेवी के अभिषेक की शोभा दिखलाई गई है।।१७।।
तत: स्तम्भसहस्रस्थो मण्डपोऽस्ति महोदय:।
नाम्ना मूर्तिमती यत्र वर्तते श्रुतदेवता।।८६।।
तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरैर्बहुश्रुतैर्वृत:।
श्रुतं व्याकुरुते यन्न श्रायसं श्रुतकेवली।।८७।।
(हरिवंशपुराण सर्ग ५७, श्लोक ८६-८७)
अर्थ-उसके आगे एक हजार खंभों पर खड़ा हुआ महोदय नाम का मण्डप है, जिसमें मूर्तिमती श्रुतदेवता विद्यमान रहती हैं।।८६।।
उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके, बहुश्रुत के धारक अनेक धीर-वीर मुनियों से घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुत का व्याख्यान करते हैं।।८७।।
अकृत्रिम जिनमंदिरों में सरस्वती-लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। देखिए त्रिलोकसार ग्रंथ के प्रमाण-
जिणभवणे अट्ठसया गब्भगिहा रयणथंभवं तत्थ।
देवच्छंदो हेमो दुगअडचउवासदीहुदओ।।९८४।।
जिनभवनेषु अष्टशतानि गर्र्भगृहाणि रत्नस्तम्भवान् तत्र।
देवच्छंदो हैम: द्विकाष्टचतुर्व्यासदीर्घोदयः।।९८४।।
जिण। तेषु जिनभवनेष्यष्टोत्तरशतप्रमितानि गर्भगृहाणि सन्ति। तत्र जिनभवनमध्ये रत्नस्तम्भवान् हेममयद्विकाष्ट-चतुर्योजनव्यासदीर्घोदयो देवच्छन्दोऽस्ति।।९८४।।
िंसहासणादिसहिया विणीलकुंतल सुवञ्जमयदंता।
विद्दुमअहरा किसलयसोहायरहत्थपायतला।।९८५।।
दसतालमाणलक्खणभरिया पेक्खंत इव वदंता वा।
पुरुजिणतुंगा पडिगा रयणमया अट्ठअहियसया।।९८६।।
िंसहासनादिसहिता विनीलकुन्तलाः सुवङ्कामयदन्ता:।
विद्रुमाधरा: किसलयशोभाकरहस्तपादतला:।।९८५।।
दशतालमानलक्षणभरिता: प्रेक्ष्यमाणा इव वदंत इव।
पुरुजिनतुङ्गा: प्रतिमा: रत्नमय्य: अष्टाधिकशता:।।९८६।।
िंसहासणादि। िंसहासनादिसहिता विनीलकुन्तला: सुवङ्कामयदन्ता: विद्रुमाधरा: किसलयशोभाकरहस्तपाद-तला:।।९८५।।
दस। दशतालमानलक्षण भरिता: प्रेक्षमाणा इव वदंत इव पुरुषजिनतुङ्गा: ५०० रत्नमय्य: अष्टाधिकशतप्रमिता: जिनप्रतिमास्तेषु गर्भगृहेष्वेकेका: सन्ति।।९८६।।
गाथार्थ—उन समस्त जिनभवनों में प्रत्येक में एक सौ आठ गर्भगृह हैं तथा जिनभवनों के मध्य में रत्नों के स्तम्भों से युक्त स्वर्णमय एक-एक मण्डप है, जिसकी लम्बाई ८ याेजन, चौड़ाई दो योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाण है।।९८४।।
गाथार्थ—उन गर्भगृहों के मध्य में िंसहासनादि से सहित तथा विशेष नीले केश, सुन्दर वङ्कामय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हैं हाथ और पैर के तलभाग जिनके दश ताल प्रमाण लक्षणों से भरी हुईं, देख रही हों मानों, बोल ही रहीं हों मानों और आदिनाथ भगवान् के बराबर है (५०० धनुष) ऊँचाई जिनकी ऐसी रत्नमय एक सौ आठ प्रतिमाएँ हैं।।९८५-९८६।।
विशेषार्थ—उन १०८ गर्भगृहों के मध्य में िंसहासनादि से सहित रत्नमय १०८, १०८ प्रतिमाएँ हैं। जिनके विशेष नीले केश, सुन्दर वङ्कामय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हाथ पैर के तल भाग हैं। जो दश ताल प्रमाण लक्षण से भरी हुई हैं। जो देखती हुई के सदृश, बोलती हुई के सदृश एवं आदिनाथ भगवान के सदृश ५०० धनुष ऊँची हैं।
ता: कथम्भूता:—
चमरकरणागजक्खगबत्तीसंमिहुणगेहि पुह जुत्ता।
सरिसीए पंतीए गब्भगिहे सुट्ठु सोहंति।।९८७।।
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदि।।९८८।।
िंभगारकलसदप्पणवीयणधयचामरादवत्तमहा।
सुवइट्ठ मंगलाणि य अट्ठहियसयाणि पत्तेयं।।९८९।।
चमरकरनागयक्षगद्वािंत्रशन्मिथुनै: पृथक युक्ता:।
सदृश्या पंक्त्या गर्भगृहे सुष्ठु शोभन्ते।।९८७।।
श्रीदेवी श्रुतदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां।
रूपाणि च जिनपार्श्वे मङ्गलमष्टविधमषि भवति।।९८८।।
भृङ्गारकलशदर्पणवीजनध्वजचामरातपत्रमथ।
सुप्रतिष्ठं मङ्गलानि च अष्टाधिकशतानि प्रत्येकम् ।।९८९।।
चमर। चमरकरनागयक्षगतद्वात्रिशन्मिथुनै: पृथक -पृथक गर्भगृहे सदृश्या पंक्त्या युक्ताः सुष्ठु शोभन्ते।।९८७।।
सिरि। तज्जिनप्रतिमापार्श्वे श्रीदेवी श्रुतदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां रूपाणि अष्टविधानि मङ्गलानि च भवन्ति।।९८८।।
िंभगार। भृङ्गारकलशदर्पणवीजनध्वजचामरातपत्रसु-प्रतिष्ठान्यष्टमङ्गलानि। तानि मङ्गलानि पुनः प्रत्येकमष्टाधिक-शतप्रमितानि भवन्ति।।९८९।।
वे प्रतिमाएँ वैâसी हैं ?
गाथार्थ—वे जिनप्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और यक्षों के बत्तीस युगलों सहित, पृथक –पृथक एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन जिन प्रतिमाओं के पार्श्व भाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाण्ह यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएँ हैं तथा अष्टमङ्गल द्रव्य भी होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मंगलद्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगलद्रव्य १०८, १०८ प्रमाण होते हैं।।९८७-९८८-९८९।।
विशेषार्थ—वे जिनप्रतिमाएँ चौंसठ चमरों से वीज्यमान हैं। अर्थात् हाथों में हैं चमर जिनके ऐसे नागकुमार के ३२ युगलों और यक्षों के ३२ युगलों से सहित हैं। पृथव्â-पृथव्â एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन प्रतिमाओं के पार्श्वभाग में श्री (लक्ष्मी) देवी, श्रुत (सरस्वती) देवी, सर्वाह्व यक्ष और सानत्कुमार यक्ष की प्रतिमाएँ तथा अष्ट मंगलद्रव्य हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मङ्गल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ प्रमाण होते हैं।
इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में भी कहा है :—
सिरिसुददेवीणतहासव्वाण्हसणक्कुमार जक्खाणं।
रुवाणिं पत्तेक्कं पडि वररयणाइरइदाणिं।।१८८१।।
(चतुर्थ अधिकार)
अर्थ—प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।।१८८१।।