प्रस्तुति-आर्यिका चन्दनामती
जैन गजट १ अप्रैल २०१३ के अंक में पेज नं. ३ पर श्री एम.सी. जैन, चिकलठाणा (महाराष्ट्र) द्वारा लिखित ‘‘कुल देवताओं की उपासना मिथ्यात्व नहीं, आगम सम्मत है’’ लेख देखा। उस संदर्भ में दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार ध्यान देना है-
दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों में चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के साथ-साथ उनके शासन देव-देवियों की प्रतिमाएँ बनाने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
तिलोयपण्णत्ति में गाथा नं. ९३४ से ९३९ तक में श्री यतिवृषभाचार्य ने कहा है कि गोमुख आदि चौबीस यक्ष देव और चक्रेश्वरी आदि चौबीस यक्षी देवियाँ, चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के समीप में रहा करते हैं।प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ (श्री नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देव विरचित) में इन यक्ष-यक्षिणियों की पृथक्-पृथक् आराधना के अर्घ्य दिये हैं।
इन शासन देव-देवियों की प्रतिमा प्राय: दिगम्बर जैन मंदिरों में प्राचीन- काल से विराजमान देखी जाती हैं और उनकी यथायोग्य भक्ति-पूजा भी समाजों में प्रचलित है। दक्षिण भारत में भी हुम्मच पद्मावती, ज्वालामालिनी आदि के मंदिर हैं।
किन्तु कुलदेवता के रूप में इन ग्रंथों के अन्दर कहीं कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी इस संदर्भ में सदैव बताती हैं कि मैंने सन् १९५४-५५ में प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज के ३ बार दर्शन किए एवं उनकी सल्लेखना के समय १ महीना कुंथलगिरि में रहने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उस समय क्षुल्लिका श्री अजितमती अम्मा ने हमें बताया था कि आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने जो बैल गाड़ियों में भरकर देवी-देवताओं को नदी में विसर्जित करवाया है वे कुलदेवता के रूप में माने जाने वाले जिनागम से बाह्य देव-देवी ही थे। अर्थात् शासन देव-देवी (चक्रेश्वरी-पद्मावती-ज्वालामालिनी, क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र आदि) के अतिरिक्त जो कुल देवता की तरह से (अमन देवी आदि के नाम से) मानी जाती हैं उनकी पूजन जिनागम के विरुद्ध है अत: केवल शासन देव-देवी दिक्पाल-क्षेत्रपाल आदि का ही यथोचित पूजन-सम्मान आदि हमारी आर्ष परम्परा में मान्य है, इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि गृहस्थों के लिए कुछ भी पूज्य नहीं है, ऐसा मानना चाहिए।
शास्त्रों में चार प्रकार के देवताओं का वर्णन करते हुए कहा भी है-
देवाश्चतुर्विधा ज्ञेया: प्रथमा: सत्यदेवता:।
कुलदेवा: क्रियादेवाश्चतुर्धा वेश्मदेवता:।।१।।
सत्यदेवा: परे पञ्च जिनेन्द्रसिद्धसूरय:।
पाठकसाधुयोगीन्द्राश्चैते मोक्षस्य हेतव:।।२।।
देव चार प्रकार के होते हैं। एक सत्यदेव, दूसरे क्रियादेव, तीसरे कुलदेव, चौथे गृहदेव। मोक्ष के कारण अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पाँच सत्यदेव कहलाते हैं।।१-२।।
छत्रचक्राग्निभेदाच्च क्रियादेवास्रयो मता:।
सर्वविघ्नहरा: पूज्या हव्यपकान्नदीप:।।३।।
छत्र, चक्र और अग्नि इन भेदों से क्रियादेव तीन प्रकार के माने गये हैं, जो सम्पूर्ण विघ्नों को हरण करने वाले हैं और हव्य, पकवान, दीपक आदि के द्वारा पूजनीय हैं।।३।।
वंशे पुरातनैरिष्टा नित्यसौख्यविधायका:।
चक्रेश्वर्यम्बिकापद्मा इत्यादिकुलदेवता:।।४।।
अपने वंश में पुरातन पुरुषों के द्वारा माने हुए, निरन्तर सुख देने वाले चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती आदि कुलदेव कहे जाते हैं।।४।।
विश्वेश्वरीधराधीशश्रीदेवीधनदास्तथा।
गृहे लक्ष्मीकरा ज्ञेयाश्चतुर्धा वेश्मदेवता:।।५।।
विश्वेश्वरी, धरणेन्द्र, श्रीदेवी और कुबेर ये चार घर में सम्पत्ति बढ़ाने वाले गृहदेवता जानने।।५।।
साक्षात्पुण्यस्य हेत्वर्थं मुक्त्यर्थं मुक्तिदायका:।
पूज्या: पूज्यैश्च सम्पूज्या: सत्यदेवा जिनादय:।।६।।
जो साक्षात् पुण्य के कारणों के लिए हैं, मुक्ति के लिए हैं, पूज्य हैं और पूज्य पुरुषों के द्वारा पूजनीय हैं वे जिनादि देवता सत्यदेवता हैं।।६।।
सत्क्रियादेवता: पूज्या होमे शान्त्यर्थमीश्वरा:।
जनन्य: श्रीजिनेन्द्राणां विश्वेश्वर्य इति स्मृता:।।७।।
विश्वेश्वर्य: परा: पूज्या: कुलस्त्रीभिर्निकेतने।
अवन्ध्या जायन्ते तासां पूजनात्तु कुलस्त्रिय:।।८।।
वे प्रशंसनीय क्रियादेव होम के समय शान्ति के अर्थ अवश्य पूजने योग्य हैं, क्योंकि ये क्रियादेव इस कार्य के मुख्य स्वामी हैं। श्री जिनेन्द्रदेव की माताओं को विश्वेश्वरी कहते हैं। कुलीन स्त्रियों को चाहिए कि वे इन विश्वेश्वरी देवताओं की अपने घर में अवश्य पूजा किया करें। इनके पूजने से वे कुलीन स्त्रियाँ अपने बन्ध्यापन को छोड़कर अच्छे-अच्छे पुत्र प्रसव करने वाली हो जाती हैं।।७-८।।
एम.सी. जैन अपने आलेख में स्वयं चक्रेश्वरी, पद्मावती देवी को कुल देवता लिख रहे हैं और गृहदेवता के रूप में विश्वेश्वरी, धरणेन्द्र, श्रीदेवी, कुबेर की पूजा का उल्लेख कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त राजस्थान के अमलोदा ग्राम में पाटनी परिवार की कुलदेवता अमनदेवी का मंदिर कहते हैं उनके विषय में तो जैन शास्त्रों में कोई उल्लेख मिलता नहीं है।
इसी प्रकार से एक पोस्टर देवपुरी (गुजरात) का देखने में आया। जिसमें बिलेश्वरी देवी, मूलेश्वरी देवी, राखी देवी, तोतला देवी, जोगेश्वरी देवी, खेमानामा देवी, पंका देवी, मौनिका देवी आदि देवियों के नाम विभिन्न कुल-गोत्र के साथ सचित्र प्रदर्शित किये गये हैं। इन सबके नाम भी अपने जैन शासन में नहीं आते हैं और न ही कुलदेवता के नाम से इनकी पूजा करने का कहीं विधान है।हमें एक जैन दम्पत्ति के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि राजस्थान में रेंवासा नामक गाँव में एक ‘जिनमाता’ का मंदिर है वह बाकलीवाल और कासलीवाल की कुलदेवी मानी जाती हैं। जिनमाता शब्द से भगवान जिनेन्द्र की माता होना चाहिए। यदि तीर्थंकर भगवान की माता की कुलदेवी के रूप में पूजा की जावे, तो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रतिष्ठा ग्रंथों में तो चौबीसों तीर्थंकर की माताओं की पूजन करने का विधान आता है।
अभी कुछ दिन पूर्व ही (८ अप्रैल २०१३ को) हमें सौ. त्रिशला राजेन्द्र कुमार जैन पाटनी-नासिक (महा.) ने बताया कि कन्नड़-महाराष्ट्र मेरे पीहर परिवार में (घासीलाल मूलचंद गंगवाल परिवार में) लगभग ६५-७० वर्ष पूर्व जाम्बवा नाम की देवी कुलदेवता के रूप में पूजी जाती थीं। घर में उनकी दो किलो चाँदी की मूर्ति थी। वहाँ आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर महाराज (चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के शिष्य) आए और उन्होंने कुलदेवता का पूर्ण विरोध किया, तब उनकी प्रेरणा से उस घर के श्रावक ने मूर्ति को गलवा दिया।चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्द महाराज, आचार्य श्री अनेकांतसागर महाराज, आचार्य श्री अभिनंदनसागर महाराज कुलदेवताओं को नहीं मानते थे एवं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी आदि कोई भी साधु इन कुलदेवताओं का अस्तित्व नहीं मानते हैं। समाधिस्थ गणिनी श्री सुपार्श्वमती माताजी भी शासन देवी-देवता आदि के अतिरिक्त कुलदेवताओं को अलग से नहीं मानती थीं।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की ओर से सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज एवं विद्वत् वर्ग के लिए प्रेरणा है कि आप सभी चौबीसों भगवान, पंचपरमेष्ठी भगवान एवं जिनागम में वर्णित शासन देव-देवी जिनेन्द्र भगवान की माता, दिक्पाल-क्षेत्रपाल आदि की ही यथोचित पूजा, आदर-सम्मान आदि करें, जिनका कि दिगम्बर जैन ग्रंथों में उल्लेख है। शेष मिथ्यात्ववर्धिनी क्रियाओं को नहीं करना चाहिए अर्थात् उपर्युक्त नाम वाली (अमन आदि) कुलदेवता की पूजन करना मिथ्यात्व है अत: इनके मंदिर भी नहीं बनाना चाहिए।क्योंकि दक्षिण भारत में आज भी पद्मावती, ज्वालामालिनी आदि देवियों के मंदिर हैं और किन्हीं कुलदेवी आदि के मंदिर सुनने में नहीं आये हैं।अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद ने जनवरी २०१३ में अपनी बैठक में जो प्रस्ताव पारित किया है वह भी मात्र एकपक्षीय निर्णय होने से हमें मान्य नहीं है, क्योंकि उसमें शासन देव-देवी की मान्यता का कोई उल्लेख नहीं किया है। जबकि आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा विरचित पंचामृत अभिषेक पाठ में शासन देव-देवी, दिक्पाल-क्षेत्रपाल आदि के अर्घ्य का विधान है।