मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्या:, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।१।।
—वंसततिलका छंद—
श्री शांतिसागर मुनीन्द्र! नमोऽस्तु तुभ्यं।
सूरिस्त्वमेव प्रथम: किल संप्रतीह।।
पट्टाधिप: प्रथम एव च य: प्रसिद्ध:।
तं वीरसागरगुरुं, प्रणमामि भक्त्या।।२।।
—अनुष्टुप छंद—
श्रीदेशभूषणाचार्यं, वंदे भक्त्या स्वसिद्धये।
अयोध्यातीर्थक्षेत्रे य:, सदा स्वर्णांकितोऽभवत्।।३।।
वंदेऽहं गणिनी ब्राह्मी, सुंदर्यादि-सुमातृका:।
त्रैकालिकार्यिकाश्चापि, मूलोत्तर-गुणाप्तये।।४।।
—दोहा—
ऋषभदेव को नित नमूँ, नमूँ अयोध्या तीर्थ।
हुये अनंतानंत ही, तीर्थंकर मुनिकीर्त्य।।१।।
ऋषभेश्वर अजितेश प्रभु, अभिनंदन भगवान।
सुमतिनाथ श्री अनंतजिन, नमते सौख्य निधान।।२।।
पाँच तीर्थंकर जन्मभू, वर्तमान में वंद्य।
नमूँ अनंतों बार मैं, ये त्रिभुवन अभिनंद्य।।३।।
ऋषभदेव सुत भरत से, ‘भारत’ नाम प्रसिद्ध।
जैन व वैदिक ग्रंथ में, सर्वमान्य जग सिद्ध।।४।।
ऋषभदेव के पुत्र सब, भरत आदि शत एक।
दीक्षा ले शिवपद लिया, नमूँ नमूँ शिर टेक।।५।।
भरतचक्रि के विवर्द्धनादि, सुत नव सौ तेईस।
दीक्षा ले मुक्ती गये, नमूँ नमूँ नत शीश।।६।।
ऋषभदेव इक्ष्वाकुवंशी, राजा चौदह लाख।
निज निज सुत को राज्य दे, प्राप्त किया शिवराज्य।।७।।
अविच्छिन्न इस वंश में, बत्तीस नाम प्रसिद्ध।
नमूँ नमूँ सब सिद्ध प्रभु, पाऊँ स्वातम निद्धि।।८।।
साठ हजार सुपुत्र सह, सगर चक्रि सम्राट्।
दीक्षा ले शिवपद लिया, नमत मिले सुख ठाठ।।९।।
गणिनी ब्राह्मी-सुन्दरी, आर्यिकायें जग वंद्य।
हुईं असंख्यों आर्यिका, नमत मिटे जगद्वंद।।१०।।
तीस चौबीसी के सभी, सात शतक औ बीस।
नमूँ सर्वजिनिंबब को, नमूँ नमाकर शीश।।११।।
यहाँ अयोध्या में बने, जिनमंदिर अभिराम।
जिनमंदिर जिनिंबब को, करूँ अनंत प्रणाम।।१२।।
तीर्थ अयोध्या वंदना, लघु रचना अभिनंद्य।
गणिनी ‘ज्ञानमती’ रचित, पढ़ों मिटे जगद्वंद।।१३।।