-गीता छंद-
वर पूर्वधातकि द्वीप में, शुभ क्षेत्र ऐरावत कहा।
तीर्थेश संप्रतिकाल के, मैं भी नमूँ नितप्रति यहाँ।।
समतारसिक योगीशगण, नित वंदना उनकी करें।
मन वचन तन से ही सतत, हम संस्तवन उनका करें।।१।।
-दोहा-
ज्ञान दरश सुखवीर्यमय, गुण अनंत विलसंत।
भक्तिभाव से मैं नमूँ, हरूँ सकल जगफंद।।२।।
-दोहा-
श्री ‘अपश्चिमनाथ’ को, जो वंदे धर प्रीत।
परमानंद स्वरूप को, लहें बने शिवमीत।।१।।
जिनवर ‘पुष्पदंतनाथ’ का, अद्भुत रूप प्रसिद्ध।
इंद्र सहस दृग कर निरख, तृप्ति न पावे नित्त।।२।।
‘अर्हनाथ’ जिन आपने, किया मोह अरी अंत।
पहुँचे झट शिवधाम में, मैं वंदूँ भगवंत।।३।।
रत्नत्रय को पूर्ण कर, ‘चरित्रनाथ’ जिनराज।
मुक्तिरमा के पति हुये, नमत लहूँ शिवराज।।४।।
श्री ‘सिद्धानंदनाथ’ को, वंदे त्रिभुवन भव्य।
नमूँ सिद्धि के हेतु मैं, पूरें मुझ कर्त्तव्य।।५।।
सप्त परमस्थान को, पाया ‘नंदगदेव’।
परमानंद प्रकाश हित, करूँ आप पद सेव।।६।।
‘पद्मकूप’ जिनदेव हैं, पद्मालिंगित देह।
जो जन वंदें भक्ति से, होते शीघ्र विदेह।।७।।
श्री ‘उदयनाभि’ प्रभू, जीव समास समस्त।
बतलाकर रक्षा करी, वंदूँ उन्हें प्रशस्त।।८।।
श्री ‘रुक्मेंदुनाथ’ हैं, षट् पर्याप्ति विहीन।
चिन्मूरति विनमूर्ति को, नमूँ करें दुख क्षीण।।९।।
‘कृपालुनाथ’ तीर्थेश का, तीर्थ तीर्थ उनहार।
जो नितप्रति वंदन करें, उतरें भवदधि पार।।१०।।
‘प्रौष्ठिलनाथ’ जिनेन्द्र ने, प्रबल कर्म अरि घात।
भविजन को संबोधिया, नमत भरूँ सुख सात।।११।।
श्री ‘सिद्धेश्वरनाथ’ भवि, सिद्धी में सुनिमित्त।
शीश नमाकर मैं नमूँ, लहूँ स्वात्मसुख नित्त।।१२।।
‘अमृतेंदु प्रभु’ आपके, वचनामृत सुखकार।
परमौषधि हैं जन्मरुज, हरें नमूँ पद सार।।१३।।
‘स्वामिनाथ’ तीर्थेश की, भक्ति कल्पतरु सिद्ध।
मैं वंदूँ नित भाव से, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१४।।
‘भुवनलिंग’ स्वामी तुम्हें, वंदे त्रिभुवन भव्य।
त्रिभुवन मस्तक पर पहुँच, हो जाते कृतकृत्य।।१५।।
तीर्थंकर श्री ‘सर्वरथनाथ’ मोक्ष सुख देत।
श्रद्धा से मैं नित नमूँ, सर्वसिद्ध सुख हेत।।१६।।
‘मेघनंद स्वामी’ यहाँ, परमामृत के मेघ।
मैं वंदूँ नित चाव से, अजर अमर पद हेत।।१७।।
‘नंदिकेश स्वामी’ तुम्हीं, गणधर गण सुख हेत।
मैं वंदूँ आनंद से, अनुपम आनंद हेत।।१८।।
तीर्थंकर ‘हरिनाथ’ के, गुण अनंत श्रुतमान्य।
वंदूँ मैं निज सौख्य हित, सकल विश्व सन्मान्य।।१९।।
श्री ‘अधिष्ठ प्रभु’ आप का, केवलज्ञान महान।
दर्पणवत् उसमें सतत, झलके सकल जहान।।२०।।
‘शांतिकदेव’ जिनेन्द्र ने, किये स्वदोष प्रशांत।
पूर्ण शांति के हेतु मैं, नमूँ मुक्ति के कांत।।२१।।
‘नंदीस्वामिन’! जो तुम्हें, नित वंदें धर प्रीत।
अनुपम निज आनंदमय, पावें धाम पुनीत।।२२।।
श्री ‘कुंदपार्श्वनाथ’ ने, पूर्ण सुयश विस्तार।
भविजन को शिवपथ कहा, नमूँ सार में सार।।२३।।
‘विरोचन प्रभू’ विश्व में, पूजित परम जिनेश।
मैं वंदूँ शुद्धात्म हित, त्रिकरण शुद्धि समेत।।२४।।
-दोहा-
सप्तपरमस्थान प्रद, चौबीसों जिनराज।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, नमत पूर्ण साम्राज।।२५।।