गीता छंद
वर पूर्वधातकि द्वीप में, है क्षेत्र ऐरावत कहा।
उसमें भविष्यत् तीर्थकर, चौबीस होंगे दुखदहा।।
मैं नित्य उनको भक्ति से, शत-शत यहाँ प्रणमन करूँ।
सम्यक्त्व क्षायिक प्राप्त हेतू, नाथ पद वंदन करूँ।।१।।
-दोहा-
धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर।
भविजन कलिमल धोवते, करो हमें सुखपूर।।२।।
–सखीछंद-
श्री ‘प्रवरवीर प्रभु’ देवा, शत इंद्र करें तुम सेवा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१।।
श्री ‘विजयप्रभ’ जिन सुनिये, त्रय शल्य दोष को हनिये।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२।।
तीर्थंकर ‘सत्पद स्वामी’, बारह गण के प्रभु ईश्वर।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।३।।
जिन श्री ‘महामृगेन्द्र’ प्रभुवर हैं, पीयूष सदृश तुम वच हैं।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।४।।
‘चिन्तामणि प्रभु’ चिद्रूपा, चिंतित फल देय अनूपा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।५।।
जिन ‘अशोकिनाथ’ जगत में, सब शोक हरें इक क्षण में।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।६।।
‘द्विमृगेंद्रनाथ’ यम नाशा, निज में परमात्म प्रकाशा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।७।।
‘उपवासिक देव’ तुम्हीं हो, भविजन भववैद्य तुम्हीं हो।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।८।।
श्री ‘पद्मचंद्र’ को ध्यावें, जन चित्तकमल विकसावें।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।९।।
श्री ‘बोधकेन्दु’ जिनस्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१०।।
‘चिंताहिम प्रभु’ पद ध्याते, मुनिगण मनकमल खिलाते।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।११।।
‘उत्साहिकनाथ’ भुवन में, अतिशय गुण पूर्ण सबन में।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१२।।
‘अपाशिवनाथ’ को ध्याऊँ, मनवांछित फल को पाऊँ।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१३।।
श्री ‘देवजलनाथ’ सुज्ञानी। सब भूत भविष्यत् जानी।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१४।।
जिन ‘नारिकदेव’ अतुल हैं, कर्मारिजयी निजतुल हैं।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१५।।
जिनराज ‘अनघस्वामी’ हैं, वंदत ही हरते अघ हैं।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१६।।
‘नागेंद्रनाथ’ जिन जग में, अद्भुत गुणिंसधु प्रगट में।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१७।।
‘नीलोत्पल प्रभु’ पदपद्मा, वंदत ही हो सुख सद्मा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१८।।
‘अप्रकंपनाथ’ भवविजयी, सुरनर वंदें नित नत ही।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।१९।।
श्री ‘पुरोहितनाथ’ सुनामा, तुम भक्ति करें शिवकामा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२०।।
जिन ‘भिंदकनाथ’ नमें जो, भववारिधि शीघ्र तरे वो।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२१।।
श्री ‘पार्श्वनाथ’ दुखहर्ता, जो नाम जपे सुख भर्ता।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२२।।
‘निर्वाचनाथ’ गुण गाऊँ, नहिं फेर जगत में आऊँ।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२३।।
जिनदेव ‘विरोषिकनाथा’, योगींद्र नमें नत माथा।
मैं वंदूँ मन वच तन से, प्रभु छूटूँ घन भव वन से।।२४।।
-शंभु छंद-
भावी तीर्थंकर जो मानें, वे आगे शिव लक्ष्मी लभते।
पर निज भक्तों को पहले भी, सचमुच शिव राज्य दिला सकते।।
मैं निज समता रस का इच्छुक, अतएव शरण में आया हूँ।
वंदूँ ‘सज्ज्ञानमती’ करके, गुण पूरण करने आया हूँ।।२५।।