-नरेन्द्र छंद-
पूरब पुष्करार्ध में दक्षिण, दिश में क्षेत्र सुहाता।
षट्खंडों युत षट्कालों युत, ‘भरत’ नाम को पाता।।
आर्यखंड में चौथे युग के, जो तीर्र्थेश हुए हैं।
उनको हम मन-वच-तन करके, वंदे भक्ति लिये हैं।।१।।
-गीता छंद-
‘दमनेन्द्र’ तीर्थंकर जगत में, सर्वसंपति हेतु हैं।
शतइंद्र से वंदित निरंतर, भवोदधि के सेतु हैं।।
मन-वचन-तन से भक्तिपूर्वक, मैं करूँ नित वंदना।
निज आत्म परमानंद चाहूँ, जहाँ पर दुख रंच ना।।१।।
श्री ‘मूर्तस्वामी’ मूर्त तनु, विरहित अतनु ही शोभते।
जो वंदते उनको सतत, वे सर्वसुख को भोगते।।
मन-वचन-तन से भक्तिपूर्वक, मैं करूँ नित वंदना।
निज आत्म परमानंद चाहूँ, जहाँ पर दुख रंच ना।।२।।
’विराग स्वामी’ विराग संपति, से त्रिलोकपती हुए।
उनके चरण अरविंद को, नमकर भविक जगनुत हुए।।मन.।।३।।
‘प्रलंबनाथ’ सुबाहु लंबित, किये ध्यानारूढ़ जब।
सब जंतुगण मन की कलुषता, धो रहे तुम पास तब।।मन.।।४।।
तीर्थेश ‘पृथ्वीपति’ त्रिजगपति, सुरगणों से वंद्य हैं।
जो नित्य उनको वंदते, वे ही जगत में धन्य हैं।।मन.।।५।।
‘चारित्रनिधि’ तीर्थाधिपति, चारित्र का वितरण करें।
चारित्र पंचम प्राप्ति हेतू, साधु तुम चरणन परें।।मन.।।६।।
जिनराज ‘अपराजित’ पराजित, कर दिया यमराज को।
अतएव गणधर गण तुम्हें, ध्याके हरें भवत्रास को।।मन.।।७।।
श्री ‘सुबोधकनाथ’ भवि मन, पंकज सदा विकसावते।
जो वंदते वे बोधि रत्नत्रय-मयी निज पावते।।मन.।।८।।
तीर्थेश श्री ‘बुद्धीश’ के, चरणारविंदों को नमें।
वे भव्यजन स्वयमेव निश्चय, रत्नत्रयमय परिणमें।।मन.।।९।।
जिन ‘वैतालिकनाथ’ परमपद, में सदा सुस्थित रहें।
जो वंदते वे स्वयं ही, धनधान्य सुख संपति लहें।।मन.।।१०।।
जिनवर ‘त्रिमुष्टिनाथ’ निज में, राजते परमातमा।
जो करें उनकी भक्ति संतत, बनें अंतर आतमा।।मन.।।११।।
मुनिनाथ श्री ‘मुनिबोधनाथ’, तीन जग को जानते।
उन ज्ञान में अणुवत् सकल जग, एक साथ विभासते।।मन.।।१२।।
श्री ‘तीर्थस्वामी’ को नमन नित, इंद्रगण भी कर रहे।
उन भक्ति नौका जो चढ़ें, वे भवजलधि से तिर रहें।।मन.।।१३।।
श्री ‘धर्मधीश’ जिनेश पंचमगति लिया अति चाव से।
उन भक्तगण भी पंचमीगति, को लहें निज भाव से।।
मन-वचन-तन से भक्तिपूर्वक, मैं करूँ नित वंदना।
निज आत्म परमानंद चाहूँ, जहाँ पर दुख रंच ना।।१४।।
‘धरणेश’ धर्म जिनेश तुमको, जो हृदय में धारते।
सचमुच उन्हें संसार वारिधि, से तुम्हीं तो तारते।।मन.।।१५।।
श्री ‘प्रभवदेव’ जिनेन्द्र को, जो भक्ति वंदन नित करें।
वे पाप पुंज समस्त का, शुभभाव से खंडन करें।।मन.।।१६।।
जिनवर ‘अनादीदेव’ आदी, अंत से तुम शून्य हो।
जो वंदते तुमको सदा, वे भी दुखों से शून्य हों।।मन.।।१७।।
जिनवर ‘अनादिप्रभु’ त्रिजग, अधिपति तुम्हें वंदें सदा।
सब रोग शोक वियोग संकट, शीघ्र हों उनसे विदा।।मन.।।१८।।
हे ‘सर्वतीर्थनाथ’ तुमको, बार बार प्रणाम है।
जो हृदय में तुमको धरें, वे स्वयं भुवन ललाम हैं।।मन.।।१९।।
जिननाथ ‘निरुपमदेव’ सबके, देवदेव प्रधान हो।
सौ इन्द्र मिलकर आपको नित, वंदते जगमान्य हो।।मन.।।२०।।
श्रीमान् ‘कौमारिकनाथ’, वैâवल्यलक्ष्मीपति कहें।
जो वंदतें वे सहज दर्शन-ज्ञान सुख वीरज लहें।।मन.।।२१।।
तीर्थेश ‘विहारगृहनाथ’, जहं जहं चरण अंबुज धरें।
देवेन्द्र गण वहं वहां स्वर्णिम, सुरभिते अंबुज करें।।मन.।।२२।।
तीर्थेश ‘धरणीश्वर’ जगत में, सर्वजन को मान्य हैं।
जो उन्हें चित में धारते, वे भूमि पर गुणवान हैं।।मन.।।२३।।
जिनराज आप ‘विकासदेव’, सुकीर्ति चहुँदिश में भ्रमें।
सुर टोलियाँ बहु भक्ति से, गुणगान कर चरणों नमें।।मन.।।२४।।
-दोहा-
पुष्करार्ध पूरबदिशी, भरतक्षेत्र जिननाथ।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हितु, नित्य नमाऊँ माथ।।२५।।