-नरेन्द्र छंद-
पूरब पुष्कर ऐरावत के, वर्तमान तीर्थंकर।
चिच्चैतन्य सुधारस प्यासे, भविजन को क्षेमंकर।।
उनको नितप्रति शीश नमाके, प्रणमूँ मन-वच-तन से।
आतम अनुभव अमृत हेतु, वंदूँ अंजलि करके।।१।।
-दोहा-
निज में ही रमते सदा, सिद्धिवधू भरतार।
इसी हेतु भविजन नमें, भुक्ति मुक्ति करतार।।२।।
-दोहा-
‘शंकरनाथ’ जिनेंद्रजी, जग में शं करतार।
शीश नमाकर मैं नमूँ, होवें निज पद सार।।१।।
‘अक्षवास’ जिनराज को, मिला सौख्य निर्वाण।
हृदय कर्णिका में सदा, मुनिजन करते ध्यान।।२।।
श्री ‘नग्नाधिपनाथ’ तुम, बहिरंतर निर्ग्रंथ।
नग्न दिगम्बर रूप तुम, सत्य मोक्ष का पंथ।।३।।
‘नग्नाधिपतिनाथ’ हो, नमन करें सुरवृंद।
मैं वंदूँ नित भक्ति से, हरो सकल दुख द्वंद।।४।।
नाथ ‘नष्टपाखंड’ को, विश्व नमाता माथ।
मैं भी शीश नमाय के, फिर ना होऊँ अनाथ।।५।।
श्री ‘स्वप्नदेव’ नाथ को, नमूँ-नमूँ नत शीश।
हरो अमंगल विश्व के, भरो सकल सुख ईश।।६।।
‘तपोधननाथ’ आत्मधन, पाकर भये सुतृप्त।
वंदूँ भक्ति बढ़ाय के, पाऊँ सौख्य प्रशस्त।।७।।
‘पुष्पकेतुनाथ’ जिन हैं, मुक्तिरमा भरतार।
वंदूँ भक्ति बढ़ाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।८।।
‘धार्मिकनाथ’ जिनराज का, धर्मचक्र हितकार।
जो भविजन शरणा गहें, नाशें निज संसार।।९।।
श्री ‘चंद्रकेतुनाथ’ को, नमते नाग नरेश।
स्याद्वाद अम्भोधि के, वर्धन हेतु महेश।।१०।।
‘अनुरक्तज्योतिनाथ’ को, नमन करूँ शत बार।
तुम में जो अनुरक्त जन, वे उतरें भव पार।।११।।
श्री ‘वीतरागनाथ’, चरण कमल का ध्यान।
जो जन करते भाव से, पावें सौख्य निधान।।१२।।
श्री ‘उद्योतनाथ’ तुम, ज्ञान भानु तमहार।
वंदूँ सकल विभाव तज, लहूँ ज्ञान भंडार।।१३।।
श्री ‘तमोपेक्षनाथ’ के, गुणगण अपरंपार।
गणधर भी नहिं गा सकें, मैं वंदूँ सुखसार।।१४।।
श्री ‘मधुनादनाथ’ को नमें, सुरनर खगपति आय।
वंदूँ भक्ति बढ़ाय के, मैं नितप्रति हरषाय।।१५।।
श्री ‘मरुदेवनाथ’ हो, अद्भुत तुम माहात्म्य।
मैं वंदूँ नित भक्ति से, होऊँ सब जन मान्य।।१६।।
श्री ‘दमनाथ’ जिनेश को, नमें जितेन्द्रिय साधु।
मैं भी वंदूँ भक्ति से, हरूँ सकल दुख बाध।।१७।।
‘वृषभस्वामि’ आनंदघन, चिन्मय ज्योति स्वरूप।
जो वंदें श्रद्धान धर, पावें सौख्य अनूप।।१८।।
अहो ‘शिलातननाथ’ तुम, व्रतगुणशील निधान।
तुम्हें नमें जो भक्ति से, करें अमंगल हान।।१९।।
‘विश्वनाथ’ के ज्ञान में, झलके विश्व समस्त।
त्रैकालिक पर्याययुत, सकल वस्तु प्रत्यक्ष।।२०।।
‘महेन्द्रनाथ’ भगवान हैं, त्रिभुवनपति महनीय।
मैं वंदूँ नित आप मुझ, हरो दशा दयनीय।।२१।।
‘नंदनाथ’ जिन जगत प्रभो, परमानंद निमग्न।
तुमको वंदें जो मुदित, वे नर सदा प्रसन्न।।२२।।
सकल ‘तमोहरनाथ’ हैं, भविजन कमल दिनेश।
जो वंदें तुम प्रीति धर, हरें सकल दुख क्लेश।।२३।।
‘ब्रह्मजनाथ’ जिनेश को, वंदूँ बारंबार।
हरूँ मोक्षपथ विघ्न सब, लहॅूँ सकल सुखकार।।२४।।
-गीता छंद-
जो आप में ही आप रत हो, आपको ही पा लिया।
उन चरण में शत इंद्र ने भी, आय शीश झुका दिया।।
वंदत मिले ‘सज्ज्ञानमति’, वे सौख्य के भण्डार हैं।
वे काम मोह व मृत्यु तीनों, मल्ल के हंतार हैं।।२५।।