-गीता छंद-
पुष्कर अपर में उत्तरी दिश, क्षेत्र ऐरावत कहा।
उस मध्य आरजखंड में, षट्काल परिवर्तन कहा।।
तीर्थेश चक्री आदि चौथे-काल में होते वहाँ।
चौबीस जिनवर वर्तमानिक, को सदा वंदूँ यहाँ।।१।।
-दोहा-
समवसरण प्रभु आपका, दिव्यसभा का रूप।
मध्य कमल आसन उपरि, राजें तिहुँजग भूप।।२।।
-रोला छंद-
श्री ‘गांगेयकनाथ’, सोलहकारण भाके।
तीर्थंकर पद पाय, बसे मोक्ष में जाके।।
मैं वंदूँ धर प्रीति, कर्म कलंक नशाऊँ।
पंचम गति को पाय, फेर न भव में आवूँ।।१।।
‘नल्लवासवनाथ’, वासव शत तुम वंदें।
अनुपम सुख की आश, धरके तुम अभिनंदें।।मैं.।।२।।
‘भीमनाथ’ जिनेन्द्र, भवभयभीत जनों को।
आप एक आधार, अत: नमें जन तुमको।।मैं.।।३।।
आप ‘दयाधिकनाथ’, कर्म हनें निर्दय हो।
भक्तों के प्रति आप, पूरणसदय हृदय हो।।मैं.।।४।।
‘सुभद्रनाथ’ जिनराज, भद्रजीव तुम वंदें।
करें आत्म कल्याण, ऐसी युक्ती सूझे।।मैं.।।५।।
‘स्वामीनाथ’ का नित्य, जो जन आश्रय लेते।
पाते शिवपथ शुद्ध, भवजल को जल देते।।मैं.।।६।।
‘हनिकनाथ’ ने घाति, कर्म हने शांती से।
किया भुवन परकाश, अनुपम निजकांती से।।मैं.।।७।।
श्री ‘नंदिघोषनाथ’, धर्म जगत में व्यापा।
भविजन हर्षित चित्त, वंदत हों निष्पापा।।मैं.।।८।।
श्री ‘रूपबीजनाथ’, वचनामृत जो पीते।
नष्ट करें भवबीज, मृत्युमल्ल भी जीते।।मैं.।।९।।
‘वङ्कानाभ’ जिनदेव, तुम पद की भक्ती से।
पाऊँ ऐसी युक्ति, मुक्ति वरूँ शक्ती से।।मैं.।।१०।।
‘संतोषनाथ’ जिनेश, तृष्णा नदी सुखाते।
अतिशय निस्पृह चित्त, फिर भी मार्ग दिखाते।।मैं.।।११।।
‘सुधर्मनाथ’ महान, धर्मामृत की वर्षा।
करते करुणावान, भवि को हर्षा-हर्षा।।
मैं वंदूँ धर प्रीति, कर्म कलंक नशाऊँ।
पंचम गति को पाय, फेर न भव में आवूँ।।१२।।
आप ‘फणीश्वरनाथ’, मोह सर्प विष हरते।
जो वंदें तुम पाद, सब सुख संपत्ति भरते।।मैं.।।१३।।
‘वीरचंद्रनाथ’, कर्म अरी के जेता।
जो तुम आश्रय लेय, वे होते दु:ख भेत्ता।।मैं.।।१४।।
श्री ‘मेधानिकनाथ’, इंद्रिय सुख सब त्यागा।
निज आतम में वास, करके शिवसुख साधा।।मैं.।।१५।।
‘स्वच्छनाथ’ जिनराज, पूर्ण विशुद्ध हुए हो।
त्रिविध करम मल धोय, अनुपम शुद्ध हुए हो।।मैं.।।१६।।
आप ‘कोपक्षयनाथ ’, क्रोधादिक क्षय करके।
फिर भी जीता आप, कर्म अरी शमदम से।।मैं.।।१७।।
‘अकामनाथ’ जिन आप, चरण कमल जो ध्यावें।
कामदेवमद नाश, निज समरस सुख पावें।।मैं.।।१८।।
‘धर्मधाम’ जिन नाम, जो नित मुख से बोलें।
निज में लें विश्राम, वे संसार न डोलें।।मैं.।।१९।।
श्री ‘सूक्तिसेननाथ’, द्वादशगण संबोधें।
निज-निज भाषा माहिं, सब जनमन प्रतिबोधें।।मैं.।।२०।।
‘क्षेमंकर’ जिननाथ, सब जग क्षेम करे हैं।
सब जन वंदें आप, सर्व अनिष्ट हरे हैं।।मैं.।।२१।।
‘दयानाथ’ जिनदेव, अगणित गुणगण धारें।
सुरनर मुनिगण आय, भक्ति स्तवन उचारें।।मैं.।।२२।।
‘कीर्तिपनाथ’ प्रभु आप, कीर्ति लता जग व्यापी।
जो गुण गावें नित्य, पावें यश अविनाशी।।मैं.।।२३।।
आप ‘शुभंकरनाथ’, सर्व अशुभ परिहारी।
करके शुभ तत्काल, हरो अमंगल भारी।।
मैं वंदूँ धर प्रीति, कर्म कलंक नशाऊँ।
पंचम गति को पाय, फेर न भव में आवूँ।।२४।।
-दोहा-
वंदूँ शीश नमाय के, प्रभु तुम हो निर्दोष।
नमत ‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो, बनूँ पूर्ण निर्दोष।।२५।।