-गीता छंद-
पश्चिम सुपुष्कर द्वीप के, उत्तर दिशा में जानिये।
शुभ क्षेत्र ऐरावत वहाँ पर, कर्मभूमी मानिये।।
होंगे वहाँ तीर्थेश भावी, आज उनकी वंदना।
मैं करूँ श्रद्धा भक्ति धरके, मोह की कर वंचना।।१।।
-दोहा-
कोटि सूर्य शशि से अधिक, तुम प्रभु ज्योतिर्मान।
शीश नमाकर मैं नमूँ, करिये द्योतित ज्ञान।।२।।
-नरेन्द्र छंद-
‘अदोषिकनाथ’ क्षुधा तृषादिक, अठरह दोष नशाते।
उनके वचनामृत जो पीते, अजर अमर हो जाते।।
तीर्थंकर के चरण कमल में, जो भवि शीश नमाते।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, आनंद मंगल पाते।।१।।
‘वृषभदेव’ के वचन सुधारस, भव की दाह मिटाते।
जो उनको शिर पर धर लेते, त्रिभुवन तिलक कहाते।।
तीर्थंकर के चरण कमल में, जो भवि शीश नमाते।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, आनंद मंगल पाते।।२।।
‘विनयानंदनाथ’ निश्चित ही, सबके हित उपदेष्टा।
भविजन को कृतकृत्य बनाके, करते त्रिभुवन वेत्ता।।ती.।।३।।
श्री ‘मुनिभारतनाथ’ गुणों से, पूर्ण दोष विरहित हो।
इसीलिये शत इंद्रों वंदित, प्रभु त्रैलोक्य महित हो।।ती.।।४।।
‘इंद्रकनाथ’ जिन आप कथा भी, जन को पावन करती।
बोधि समाधी की खानी है, पुण्य तिजोरी भरती।।ती.।।५।।
‘चंद्रकेतु’ प्रभु सब त्रिभुवन में, ज्ञान उजेला करते।
जो तुम भक्ती से विहीन हैं, वे दुख झेला करते।।ती.।।६।।
श्री ‘ध्वजादित्यनाथ’ विश्व में, नित्य उदित ही रहते।
राहुग्रह तुमको नहिं ग्रसता, मेघ नहीं ढक सकते।।ती.।।७।।
‘वसुबोधनाथ’ मेघ लोकोत्तर, अमृत जल बरसाते।
जो उसमें अवगाहन करते, पूर्ण तृप्त हो जाते।।ती.।।८।।
आप ‘मुक्तिगतनाथ’ नित्य ही, मुक्तिरमा के प्यारे।
अवधि मन:पर्ययज्ञानी भी, तुम गुण वरणत हारे।।ती.।।९।।
‘धर्मबोध प्रभु’ ज्ञान आपका, क्रम इंद्रिय से विरहित।
युगपत त्रिभुवन की सब वस्तू, जाने नित्य अपरिमित।।ती.।।१०।।
‘देवांगनाथ’ सुमेरु सदृश ही, अचल आप अपने में।
सुरललनाएँ तुम्हें चलित नहिं, कर सकतीं सपने में।।ती.।।११।।
‘मारीचिकनाथ’ तीर्थंकर की, भक्ती गंगा में ही।
नित स्नान किया करते जो, निर्मल होते वे ही।।ती.।।१२।।
‘सुजीवननाथ’ के वचनामृत, जो कानों से पीते।
गर्भ अवस्था की दुरवस्था, के दुख को भी जीतें।।ती.।।१३।।
‘यशोधरनाथ’ के गुण गाकर, उसमें ही रम जाते।
इस जग में वे नित्य महोत्सव, आनंदित सुख पाते।।
तीर्थंकर के चरण कमल में, जो भवि शीश नमाते।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, आनंद मंगल पाते।।१४।।
‘गौतमनाथ’ जिनराज आपका, नाम मात्र जो पाते।
नित्य निगोद इतर निगोद के, दु:खों से छुट जाते।।ती.।।१५।।
श्री ‘मुनिशुद्धिनाथ’ की भक्ती, भव भव दुखहरणी है।
भवसागर से तरने हेतू, वही एक तरणी है।।ती.।।१६।।
‘प्रबोधिकनाथ’ तुम प्रभाव से, मुनी ज्ञान धन धरते।
द्वादशांगमय द्रव्य-भावश्रुत, का अवगाहन करते।।ती.।।१७।।
श्री ‘सदानीकनाथ’ मोह की, सेना मार भगाई।
नाम मंत्र भी प्रभो आपका, भविजन को सुखदाई।।ती.।।१८।।
श्री ‘चारित्रनाथ’ पद पंकज, का जो आश्रय लेते।
पंचम यथाख्यात चारित को, वे निश्चित पा लेते।।ती.।।१९।।
‘शतानंदनाथ’ वंदत ही, सज्जाती को पाते।
सद्गृहस्थ बन देशचरित धर, क्रमश: शिवपद पाते।।ती.।।२०।।
श्री ‘वेदार्थनाथ’ जिन प्रभु की, जो आराधन करते।
दीक्षा जैनेश्वरी प्राप्त कर, सुरपति का पद धरते।।ती.।।२१।।
‘सुधानीकनाथ’ प्रभु तुम भक्ती, चक्रवर्ति पद देती।
छह खंडों की प्रभुता देकर, सुख संपति भर देती।।ती.।।२२।।
श्री ‘ज्योतिर्मुखनाथ’ ज्योति का, कण भी यदि मिल जावे।
तो निश्चित ही तुम भाक्तिकजन, अर्हत्पदवी पावें।।ती.।।२३।।
श्री ‘सुरार्धनाथ’ चरण रज, जो मस्तक पर धरते।
वे निर्वाण परम लक्ष्मी पा, मोक्षमहल पग धरते।।ती.।।२४।।
-त्रिभंगी छंद-
तुम भक्ति अकेली, मुक्ति सहेली, समसुखमेली जो करते।
निज कर्मबंध अघ, खंड खंड तब, पुण्य पुंज सब वे भरते।।
भक्तिभाव से, शीश नमाके, तुम गुण गाके मैं ध्याऊँ।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’, आत्मिक संगति, त्रिभुवन वंदित मैं पाऊँ।।२५।।
-दोहा-
सर्व सात सौ बीस जिन, पंचकल्याणक ईश।
हो कल्याणक कल्पतरु, नमूँ नमूँ नत शीश।।२६।।