-शंभु छंद-
ये भरत और ऐरावत हैं, बस ढाई द्वीप तक पंच पंच।
इन मध्य आर्यखण्डों में ही, षट्काल परावर्तन प्रपंच।।
चौथे युग में चौबिस चौबिस, तीर्थंकर होते रहते हैं।
चौबीसी तीस भूत, संप्रति, भावी से मुनिवर कहते हैं।।१।।
ऐसे अनंत चौबीसी भी, हो गईं अतीतकाल में जो।
होंगी अनंत चौबीसी भी, आगे के भाविकाल में जो।।
तीसों चौबीसी का स्तोत्र, करके उनको शत वंदन है।
संपूर्ण अनंतानंत रूप, चौबीसी को भी वंदन है।।२।।
संपूर्ण विदेहों में जितने, तीर्थेश हुए औ होवेंगे।
हैं वर्तमान में भी जितने, निजकर्मकालिमा धोवेंगे।।
जो पंचकल्याणकयुत अथवा, दो तीन कल्याणक पाते हैं।
उन सब तीर्थंकर को नितप्रति, हम झुक-झुक शीश नमाते हैं।।३।।
जो भव्य तीस चौबीसी को, हर्षित हो वंदन करते हैं।
वे सर्व असाता को हरके, निजसुखमय साता भरते हैं।।
बहुविध सुख अनुभव कर इनकी, कोटी में भी आ सकते हैं।
फिर शाश्वत सुख को पाकर के, अपने में ही नित रमते हैं।।४।।
-दोहा-
भूत भविष्यत् संप्रती, तीर्थंकर भगवान।
नमो भव्यजन भक्ति से, ‘ज्ञानमती’ सुखदान।।५।।