-दोहा-
इस युग के अंतिम प्रभू, महावीर भगवान।
वर्तमान में चल रहा, जिनका शासनकाल।।१।।
उनके ही गुणगान में, यह चालीसा पाठ।
पढ़ने से सुख प्राप्त हो, यही हृदय में भाव।।२।।
-चौपाई-
वीरप्रभू चौबिसवें जिनवर, सर्वशान्तिकर सर्वहितंकर।।१।।
वर्तमान की चौबीसी के, अन्तिम तीर्थंकर बन जन्मे।।२।।
कुण्डलपुर में जन्म लिया था, पुण्य खिला पितु सिद्धारथ का।।३।।
माता त्रिशला पुण्यशालिनी, बन गईं तीर्थंकर की जननी।।४।।
प्रभु ने यौवन में दीक्षा ली, केवल तीस वर्ष की वय थी।।५।।
नहीं किया था ब्याह इन्होंने, प्रभु जी पंचम बालयती थे।।६।।
केवलज्ञान प्राप्त कर प्रभु ने, दिव्यदेशना दी जग भर में।।७।।
गौतम स्वामी मुख्य थे वक्ता, राजा श्रेणिक प्रमुख थे श्रोता।।८।।
साठ हजार प्रश्न कर-करके, किया पुण्य राजा श्रेणिक ने।।९।।
एक बार श्रीविपुलाचल पर, आया प्रभु का समवसरण जब।।१०।।
राजा श्रेणिक गज पर बैठे, चले प्रभू के दर्शन करने।।११।।
हाथी अपनी मस्तचाल में, चला जा रहा बीच मार्ग में।।१२।।
तभी एक मेंढक भी मुख में, कमल पांखुडी को ले करके।।१३।।
महावीर प्रभु के दर्शन को, चला बहुत ही भक्तिभाव से।।१४।।
लेकिन मारग में ही वह तो, दब गया हाथी के पैरों से।।१५।।
पहुँच नहीं पाया वह मेंढक, प्रभु के समवसरण के अंदर।।१६।।
पर भावों की महिमा देखो! चमत्कार क्या हुआ बंधुओं!।।१७।।
शुभ भावों से मरकर मेंढक, पहुँचा स्वर्गलोक में तत्क्षण।।१८।।
वहँ अन्तर्मुहूर्त के भीतर, बना देव वह बहुत ही सुन्दर।।१९।।
अवधिज्ञान से जान गया वो, आया किस पर्याय से हूँ मैं।।२०।।
अब मैं जाऊँ समवसरण में, प्रभु दर्शन को देवरूप में।।२१।।
उसने अपने मुकुट में भैया!, चिन्ह बनाया था मेंढक का।।२२।।
अर्धनिमिष में देवराज वे, पहुँच गए प्रभु समवसरण में।।२३।।
खूब खुशी में नाच रहे थे, वे तो अतिशय रोमांचित थे।।२४।।
राजा श्रेणिक भी वहिं पर थे, उनने पूछा प्रश्न प्रभू से।।२५।।
भगवन्! मेरी इक शंका है, उसका समाधान करना है।।२६।।
क्यों यह देव बहुत ही खुश है! क्यों इस मुकुट में मेंढक चिन्ह है ?।।२७।।
दिव्यध्वनि से जाना उनने, यह मेंढक था पूरब भव में।।२८।।
सारी बातें जान प्रभू से, बहुत प्रसन्न हुए श्रेणिक थे।।२९।।
इस घटना को सुनकर भव्यों!, एक नियम करना है सबको।।३०।।
हम प्रतिदिन मंदिर जाएँगे, खाली हाथ नहीं जाएँगे।।३१।।
श्री गौतम स्वामी ने प्रभु की, स्तुति की है वीरभक्ति में।।३२।।
वीरप्रभू की मधुरिम वाणी, जन-जन के हित है कल्याणी।।३३।।
पंचकल्याणक के स्वामी वे, पावापुर से मोक्ष पधारे।।३४।।
आयु बहत्तर वर्ष आपकी, सात हाथ ऊँचाई तन की।।३५।।
देहवर्ण सोने के जैसा, सिंह आपका चिन्ह शोभता।।३६।।
जो नित वीरप्रभू को नमते, उनका ही जीवन सुखमय है।।३७।।
जियो और जीने दो सबको, यह संदेश मिला हम सबको।।३८।।
हे सन्मति! हे वर्धमान प्रभु! महावीर! अतिवीर! वीरप्रभु!।।३९।।
तव मंगलमय नाम जपें सब, करो ‘‘सारिका’’ सबका मंगल ।।४०।।
-गीता छंद-
जो नित्यप्रति श्री वीरप्रभु की, भक्ति करते भव्यजन।
वे संकटों से दूर रहकर, करते निज जीवन सफल।।
प्रभु भक्ति करने के लिए, यह पाठ भी आधार है।
चालीस दिन तक पढ़ने से, मिल जाए सुख-साम्राज्य है।।१।।