भगवान ऋषभदेव जब गर्भ में आने को थे, महाराजा नाभिराय एवं महारानी मरुदेवी के आंगन में छह महीने पहले से ही रत्नों की वर्षा शुरू हो गई थी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा करता था। आषाढ़ कृ. २ को भगवान का गर्भावतरण हुआ। इंद्रों ने असंख्य देवों के साथ अयोध्या आकर महामहोत्सव मनाया। चैत्र कृ. नवमी को भगवान का जन्म होते ही इंद्रों ने आकर असंख्य देवों-देवियों के साथ अयोध्या नगरी की तीन प्रदक्षिणा दी पुन: शिशु को ले जाकर सुमेरु पर्वत की पांडुकशिला पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाया और ऋषभदेव नाम रखा।युवावस्था में ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनंदा कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। यशस्वती रानी ने भरत आदि सौ पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री को तथा सुनंदा रानी ने बाहुबली पुत्र व सुंदरी पुत्री को जन्म दिया।प्रभु ने पहले दोनों पुत्रियों को विद्याध्ययन कराया, जिनमें बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अक्षर-अ-आ आदि विद्या एवं सुंदरी को १, २ आदि अंकविद्या पढ़ाकर विद्याओं को प्रगट किया पुन: एक सौ एक पुत्र व दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं-कलाओं में निपुण किया।प्रभु ने कर्मभूमि के प्रारंभ में प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य ऐसी षट्क्रियाओं का उपदेश दिया। प्रभु की आज्ञा से इन्द्र ने उस समय काशी, कुरुजांगल आदि ५२ देशों की रचना एवं वाराणसी, हस्तिनापुर आदि नगरियों की रचना करके प्रजा को यथास्थान बसाया था।महापुराण आदि जैन शास्त्रों के अनुसार अयोध्या अनादिनिधन शाश्वत तीर्थ है एवं षट्काल परिवर्तन से चतुर्थकाल में जब कर्मभूमि प्रारंभ होती है तब पुन: उसी स्थान पर अयोध्या नगरी बनाई जाती है।इस बार कर्मभूमि के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर यहाँ जन्मे हैं। पुन: द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ, चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ, पंचम श्री सुमतिनाथ एवं चौदहवें श्री अनंतनाथ भगवान यहीं जन्मे हैं। शेष १९ तीर्थंकरों के जन्म श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, हस्तिनापुर आदि नगरियों में हुए हैं।तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़१ रत्नों की वर्षा शुरू हो जाती है। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर रत्नों की वर्षा करता है। भगवान का जन्म होते ही सौधर्मेन्द्र असंख्य देव-देवियों के साथ आकर पहले नगरी की तीन प्रदक्षिणा देते हैं पुन: पिता के घर में प्रवेश कर इंद्राणी को प्रसूतिगृह में भेजकर तीर्थंकर शिशु को प्राप्त कर वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर तीर्थंकर शिशु को बिठाकर १००८ कलशों से जन्माभिषेक करते हैं।
ऐसे रत्नों की वर्षा अयोध्या में पाँच बार पाँच तीर्थंकरों के समय पंद्रह-पंद्रह महीने तक हुई है। आज भी जो कुबेर टीला कहलाता है, ‘‘जनश्रुति रही है कि यहाँ पर कुबेर देव रत्नवृष्टि करते रहे हैं’’ इसलिए इसे कुबेर टीला कहते हैं। अयोध्या तीर्थ की प्रदक्षिणा पाँचों तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सवों में इंद्रों ने की है। भगवान ऋषभदेव के व उनके पुत्र भरत के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष (५००²४·२००० हाथ) थी। उनका सर्वतोभद्र महल ८१ मंजिल का था। आप स्वयं चिंतन करें कि महल की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई कितनी रही होगी ?उसी अयोध्या में भरत चक्रवर्ती का वैभव, ९६ हजार रानियाँ, सभी के पुत्र-पुत्रियाँ, पौत्र आदि के निवास, कितने रहे होंगे। १८ करोड़ घोड़े, ८४ लाख हाथी आदि चक्रवर्ती का वैभव कितना बड़ा रहता है। आदि……….।अत: उस समय अयोध्या कितनी विशाल थी, अर्थात् बहुत ही विशाल थी। श्रीरामचंद्र ये आठवें बलभद्र हुए हैं। आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व का इतिहास है। अयोध्या में श्रीराम ने हजारों जिनमंदिर२ बनवाये थे व बहुत से विद्यालय-महाविद्यालय३ बनवाये थे। उस समय अयोध्या की आबादी सत्तर करोड़४ की थी। अर्थात् श्रीरामचंद्र के समय भी अयोध्या बहुत ही विशाल नगरी-राजधानी रही है, ऐसा पद्मपुराण-जैन रामायण में वर्णन है। आज से लगभग डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष पूर्व अयोध्या में सौ जैनमंदिर थे, ऐसा इतिहासकारों ने लिखा है।अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अयोध्या में अनेक जैन मंदिर थे। महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुखयक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विद्यमान थे।