कियत्यपि गते काले षट्कर्मविनियोगत:।
यदा सौस्थित्यमायाता: प्रजा: क्षेमेण योजिता:।।१९१।।
तदास्याविरभूद् द्यावापृथिव्यो: प्राभवं महत्।
आधिराज्येऽभिषिक्तस्य सुरैरागत्य सत्वरम्।।१९२।।
सुरै: कृतादरैर्दिव्यै: सलिलैरादिवेधस:।
कृतोऽभिषेक इत्येव वर्णनास्तु किमन्यया।।१९३।।
तथाप्यनूद्यते िंकचित् तद्गतं वर्णनान्तरम्।
सुप्रतीतमपि प्रायो यन्नवैति पृथग्जन:।।१९४।।
तदा किल जगद्विश्वं बभूवानन्दनिर्भरम्।
दिवोऽवातारिषुर्देवा: पुरोधाय पुरंदरम्।।१९५।।
कृतोपशोभमभवत् पुरं साकेतसाह्वयम्।
हर्म्याग्रभूमिकाबद्धकेतुमालाकुलाम्बरम्।।१९६।।
तदानन्दमहाभेर्य: प्रणेदुर्नृपमन्दिरे।
मङ्गलानि जगुर्वारनार्यो नेटु: सुराङ्गना:।।१९७।।
सुरबैतालिका: पेटु रुत्साहान् सह मङ्गलै:।
प्रचक्रुरमरास्तोषाज्जय जीवेति घोषणाम्।।१९८।।
प्रथमं पृथिवीमध्ये मृत्स्नारचितवेदिके।
सुरशिल्पिसमारब्धपरार्द्ध्यानन्दमण्डपे ।।१९९।।
रत्नचूर्णचयन्यस्त रङ्गबल्युपचित्रिते।
प्रत्यग्रोद्भिन्नविक्षिप्तसुमन:प्रकराञ्चिते।।२००।।
मणिकुट्टिमसंक्रान्तबिम्बमौक्तिकलम्बने।
लसद्वितानकक्षौम च्छायाचित्रितरङ्गके।।२०१।।
धृतमङ्गलनाकस्त्रीरुद्धसंचारवर्तिनि (वर्त्मनि)।
पर्यन्तनिहितानल्पमङ्गलद्रव्यसंपदि।।२०२।।
सुरवारवधूहस्तविधूतचलचामरे ।
अन्योन्यहस्तसंक्रान्तनानास्नानपरिच्छदे।।२०३।।
सलीलपदविन्याससंचरन्नाककामिनी।
रणन्नूपुरझंकारमुखरीकृतदिङ्मुखे ।।२०४।।
नृपाङ्गणमहीरङ्गे वृतमङ्गलसंग्रहे।
निवेश्य प्राङ्मुखं देवमुचिते हरिविष्टरे।।२०५।।
गन्धर्वारब्धसंगीतमृदंगामन्द्रनि:स्वने ।
त्रिविष्टपकुटीक्रोडमाक्रामति सुदिक्तटम्।।२०६।।
नृत्यन्नाकाङ्गनापाठ्य निस्स्वनानुगतस्वरम्।
गायन्तीपु यशो जिण्णो: किन्नरीषु श्रवस्सुखम्।।२०७।।
ततोऽभिषेचनं भर्त्तु: कर्त्तुमारेभिरेऽमरा:।
शातकुम्भविनिर्माणै: कुम्भैस्तीर्थाम्बुसंभृतै:।।२०८।।
ततोऽभिषेचनं भर्त्तु: कर्त्तुमारेभिरेऽमरा:।
शातकुम्भविनिर्माणै: कुम्भैस्तीर्थाम्बुसंभृतै:।।२०९।।
यच्च गाङ्गं पय: स्वच्छं गङ्गाकुण्डात् समाहृतम्।
सिन्धुकुण्डादुपानीतं सिन्धोर्यत् कमपज्र्कम्।।२१०।।
शेषव्योमापगानां च सलिलं यदनाविलम्।
तत्तत्कुण्डतदापात समासादितजन्मकम्।।२११।।
श्रीदेवीभिर्यदानीतं पद्मादिसरसां पय: ।
हेमारविन्दकिञ्जल्कपुञ्जसंजातरञ्जकम्।।२१२।।
यद्वारि सारसं हारिकह्लारस्वादु सोत्पलम्।
यच्च तन्मौक्तिकोद्गारशारं लावणसैन्धवम्।।२१३।।
यास्ता नन्दीश्वरदीपे वाप्यो नन्दोत्तरादय:।
सुप्रसन्नोदकास्तासामापो याश्च विकल्मषा:।।२१४।।
यच्चाम्भ: संभृतं क्षीरसिन्धोर्नन्दीश्वरार्णवात्।
स्वयंभूरमणाब्धेश्च दिव्यै: कुम्भैर्हिरण्मयै:।।२१५।।
हत्याम्ना तैर्जलैरेभिरभिषिक्तो जगद्गुरु:।
स्वयंपूततमैरङ्गै रपुनात् तानि केवलम्।।२१६।।
सुरैरावर्जिता वारां धारा मूर्घ्नि विभोरभात्।
राजलक्ष्म्या निवेशोऽयमिति धारेव पातिता।।२१७।।
चराचरगुरोर्मर्घ्नि पतन्त्यो रेजुरप्छटा:।
जगत्तापच्छिद: स्वच्छा गुणानामिव संपद:।।२१८।।
सुरेन्द्रैरभिषिक्तस्य सलिलै: सौरसैन्धवै:।
निसर्गशुचिगात्रस्य पराशुद्धिरभूद् विभो:।।२१८।।
सुरेन्द्रैरभिषिक्तस्य सलिलै: सौरसैन्धवै:।
निसर्गशुचिगात्रस्य पराशुद्धिभूद् विभो:।।२१९।।
नाकीन्द्रा: क्षालयाञ्चक्रु र्विभोर्नाङ्गानि केवलम्।
प्रेक्षकाणां मनोवृिंत नेत्राण्यप घनान्यपि।।२२०।।
नृत्यत्सुराङ्गनापाङ्गशरास्तस्मिन् प्लवेऽम्भसाम्।
पायिता नु जलं तीव्रं यच्चेतांस्यभिदन् नृणाम्।।२२१।।
जलैरनाविलैर्भर्त्तुरङ्गसंगात् पवित्रितै:।
धराक्रान्ता ध्रुवं दिष्ट्या वर्द्धिता स्वामिसंपदा।।२२२।।
कृताभिषेको रुरुचे भगवान् सुरनायवैâ:।
हैमै: कुम्भैर्घनै: सान्ध्यै: यथा मन्दरभूधर:।।२२३।।
नृपा मूर्द्धाभिषिक्ता ये नाभिराजपुरस्सरा:।
राजवद्राजिंसहोयमभ्यषिच्यत तैस्समम्।।२२४।।
पौराश्च नलिनीपत्रपुटै: कुम्भैश्च मार्त्तिवैâ:।
सारवेणाम्बुना चक्रुर्भर्त्तु: पादभिषेचनम्।।२२५।।
मागधाद्याश्च वन्येन्द्रा स्त्रिज्ञानधरमर्चिचन्।
नाथोऽस्मद्विषयस्येति प्रीता: पुण्याभिषेचनै:।।२२६।।
पूतस्तीर्थाम्बुभि: स्नात: कषायसलिलै: पुन:।
धौतो गन्धाम्बुभिर्दिव्यै रस्नापि चरमं विभु:।।२२७।।
कृतावगाहनो भूयो हैमस्नानोदकुण्डके।
सुखौष्णै: सलिलैर्धाता सुखमज्जनमन्वभूत्।।२२८।।
स्नानान्तोज्झितविक्षिप्तमाल्यांशुकविभूषणै:।
भर्त्तु: प्राप्ताङ्गसंस्पृष्टि दायेवासीद्धराङ्गना।।२२९।।
सुस्नातमङ्गलान्युच्चै: पठत्सु सुरवन्दिषु।
राज्यलक्ष्मीसमुद्वाह स्नानं निर विशद् विभु:।।२३०।।
अथ निर्वर्त्तितस्नानं कृतनीराजनं विभुम्।
स्वर्भुवो भूषयामासुदिव्यै: स्रग्भूषणाम्बरै:।।२३१।।
नाभिराज: स्वहस्तेन मौलिमारोपयत् प्रभो:।
महामकुटबद्धानामधिराड् भगवानिति।।२३२।।
पट्टबन्धोर्जगद्बन्धोर्ललाटे विनिवेशित:।
बन्धनं राजलक्ष्म्या: स्विद्गत्वर्या: स्थैर्यसाधनम्।।२३३।।
स्रग्वी सदंशुक: कर्णद्वयोल्लसितकुण्डल:।
दधानो मुकुटं मूर्घ्ना लक्ष्म्या: क्रीडाचलायितम्।।२३४।।
कण्ठे सदंशुक: कर्णद्वयोल्लसितकुण्डल:।
दधानो मुकुटं मूर्घ्ना लक्ष्म्या: क्रीडाचलायितम्।।२३५।।
कटकाङ्गदकेयूरभूषितायतदोर्युग: ।
पर्युल्लसन्महाशाख: कल्पशाखीव जङ्गम:।।२३६।।
सनीलरत्ननिर्माणनूपुरावुद्वहत्क्रमौ ।
निलीनभृङ्गसंफुल्लरक्ततामरसश्रियौ ।।२३७।।
इति प्रत्यङ्ग संगिन्या बभौ भूषणसम्पदा।
भगवानादिमो ब्रह्मा भूषणाङ्ग इवाङ्घ्रिप:।।२३८।।
तत: सानन्दमानन्दनाटकं नाट्यवेदवित्।
प्रयुज्यास्थायिका रङ्ग प्रत्यगाद् गां सहस्रगु:।।२३९।।
व्रजन्तमनुजग्मुस्तं कृतकार्या सुरासुरा:।
भगवत्पादसंसेवानियुक्तस्वान्तवृत्तय:।।२४०।।
अथाधिराज्यमासाद्य नाभिराजस्य संनिधौ।
प्रजानां पालने यत्नमकरोदिति विश्वसृट्।।२४१।।
कृत्वादित: प्रजासर्गं तद् वृत्तिनियमं पुन:।
स्वधर्मानतिवृत्त्यैव नियच्छन्नन्वशात् प्रजा:।।२४२।।
स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रिया, नसृजद् विभु:।
क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।।२४३।।
ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्राक्षीद् वणिज: प्रभु:।
जलस्थलादियात्राभिस्तद् वृत्तिर्वार्त्तया यत:।।२४४।।
न्यग्वृत्तिनियतां शूद्रां पद्भ्यामेवासृजत् सुधी:।
वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तद्वृत्तिर्नैकधा स्मृता।।२४५।।
मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरत: स्रक्ष्यति द्विजान्।
अधीत्यध्यापने दानं प्रतिच्छेज्येति तत्क्रिया:।।२४६।।
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगम:।
वहेत् स्वां ते च राजन्य: स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ता:।२४७।।
स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।२४८।।
कृष्यादिकर्मषट्कं च स्रष्टा प्रागेव स्रष्टवान्।
कर्मभूमिरियं तस्मात् तदासीत्तद्व्यवस्थया।।२४९।।
स्रष्टेति ता: प्रजा: सृष्ट्वा तद्योगक्षेमसाधनम्।
प्रायुङ्क्त युक्तितो दण्डं हामाधिक्कारलक्षणम्।।२५०।।
दुष्टानां निग्रह: शिष्टप्रतिपालनमित्ययम्।
न पुरासीत्क्रमो यस्मात् प्रजा: सर्वा निरागस:।।२५१।।
प्रजा दण्डधराभावे मात्स्यं न्यायं श्रयन्त्यमू:।
ग्रस्यतेऽन्त:प्रदुष्टेन निर्बलो हि बलीयसा।।२५२।।
दण्डभीत्या हि लोकोऽयमपथं नानुधावति।
युक्तदण्ड धरस्तत्मात् पार्थिव: पृथिवीं जयेत्।।२५३।।
पयस्विन्या यथा क्षीरम द्रोहेणोपजीब्यते।
प्रजाप्येवं धनं दोह्या नातिपीडाकरै: करै:।।२५४।।
ततो दण्डधरानेता ननुमेने नृपान् प्रभु:।
तदावत्तं हि लोकस्य योगक्षेमानुचिन्तनम्।।२५५।।
समाहूय महाभागान् हर्यकम्पनकाश्यपान्।
सोमप्रभं च संमान्य सत्कृत्य च यथोचितम्।।२५६।।
कृताभिषेचनानेतान् महामण्डलिकान् नृपान्।
चतु:सहस्रभूनाथपरिवारान् व्यधाद् विभु:।।२५७।।
सोमप्रभ: प्रभोराप्तकुरुराजसमाह्वय:।
कुरूणामधिराजोऽभूत कुरुवंशशिखामणि:।।२५८।।
हरिश्च हरिकान्ताख्यां दधानस्तदनुज्ञया।
हरिवंशमलंचक्रे श्रीमान् हरिपराक्रम:।।२५९।।
अकम्पनोऽपि सृष्टीशात् प्राप्तश्रीधरनामक:।
नाथवंशस्य नेताभूत् प्रसन्ने भुवनेशिनि।।२६०।।
काश्यपोऽपि गुरो: प्राप्तमाधवाख्य: पतिर्विशाम्।
उग्रवंशस्य वंश्योऽभूत् किन्नाप्यं स्वामिसंपदा।।२६१।।
तदा कच्छमहाकच्छप्रमुखानपि भूभुज:।
सोऽधिराजपदे देव: स्थापयामास सत्कृतान्।।२६२।।
पुत्रानपि तथा योग्यं वस्तुवाहनसंपदा।
भगवान् संविधत्ते स्म तद्धि राज्योब्जने फलम्।।२६३।।
आकानाच्च तदेक्षूणां रससंग्रहणे नृणाम्।
इक्ष्वाकुरित्यभूद् देवो जगतामभिसंमत:।।२६४।।
गौ: स्वर्ग: स प्रकृष्टात्मा गौतमोऽभिमत: सताम्।
स तस्मादागतो देवो गौतमश्रुतिमन्वभूत्।।२६५।।
काश्यमित्युच्यते तेज: काश्यपस्तस्य पालनात्।
जीवनोपायमननान् मनु: कुलधरोऽप्यसौ।।२६६।।
विधाता विश्वकर्मा च स्रष्टा चेत्यादिनामभि:।
प्रजास्तं व्याहरन्ति स्म जगतां पतिमच्युतम्।।२६७।।
त्रिषष्टिलक्षा: पूर्वाणां राज्यकालोऽस्य संमित:।
स तस्य पुत्रपौत्रादिवृतस्याविदितोऽगमत्।।२६८।।
स िंसहासनमायोध्यमध्यासीनो महाद्युति:।
सुखादुपनतां पुण्यै: साम्राज्यश्रियमन्वभूत्।।२६९।।
-वसन्ततिलका छन्द-
इत्थं सुरासुरगुरुर्गुरु पुण्ययोगाद्।
भोगान् वितन्वति तदा सुरलोकनाथे।
सौख्यैरगाद् धृति मचिन्त्य धृति: स धीर:।
पुण्यार्जने कुरुत यत्नमतो बुधेन्द्रा:।।२७०।।
पुण्यात् सुखं न सुखमस्ति विनेह पुण्याद्।
बीजाद्विना न हि भवेयुरिह प्ररोहा:।।
पुण्यं च दानदम संयम सत्य शौच-
त्यागक्षमादिशुभचेष्टितमूल-मिष्टम्।।२७१।।
पुण्यात् सुरासुरनरोरगभोगसारा:
श्रीरायुप्रमितरूपसमृद्धयो धी:।
साम्राज्य मैन्द्र: मपुनर्भवभावनिष्ठम्।
आर्हन्त्यमन्त्यरहिता खिलसौख्यमग्यूम्।।२७२।।
तस्माद् बुधा: कुरुत धर्ममवाप्तुकामा:
स्वर्गापवर्गसुखमग्प्रमचिन्त्य सारम् ।
प्रापच्य सोऽभ्युदयभोगमनन्तसौख्य-
मानन्त्यमापयति धर्मफलं हि शर्म।।२७३।।
दानं प्रदत्त मुदिता मुनिपुङ्गवेभ्य:
पूजां कुरुध्वमुपनम्य च तीर्थकृद्भ्य:।
शीलानि पालयत पर्वदिनोपवासान्
विष्मार्ष्ट मा स्म सुधिय: सुखमीप्सवश्चेत्।।२७४।।
शार्दूलविक्रीडितम्
स श्रीमानिति नित्यभोगनिरत: पुत्रैश्च पौत्रैर्निजै-
रारूढप्रणयैरूपाहितधृति: िंसहासनाध्यासित:।
शक्रार्क्वेâन्दुपुरस्सरै: सुरवरैर्व्यूढोल्लसच्छासन:
शास्ति स्माप्रतिशासनो भुवमिमामासिन्धुसीमां जिन:।।२७५।।
इस प्रकार जब षट्कर्म की रचना करके भगवान वृषभदेव का कितना ही समय व्यतीत हो गया। उन छह कर्मों की प्रवृत्ति से जब प्रजा की स्थिति अच्छी हो गई, सब प्रजा शांतता से रहने लगी, तब भगवान वृषभदेव को सम्राट् पद पर स्थापन करने के लिये देवों ने आकर शीघ्रता के साथ उनका राज्याभिषेक किया। उस समय भगवान की प्रभुता स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक में खूब ही पैâल गई थी।।१९१-१९२।। यद्यपि उस समय के राज्याभिषेक के विशेष वर्णन करने से कुछ लाभ नहीं है केवल इतना ही कह देना बहुत है कि उस समय देवों ने आकर बड़े आदर के साथ आदिब्रह्मा भगवान वृषभदेव का अभिषेक किया था। तथापि उस राज्याभिषेक का थोड़ा सा वर्णन कर दिया जाता है क्योंकि बहुत प्रसिद्ध बात को भी प्रायः साधारण लोग नहीं जानते हैं।१९९-१९४। भगवान के इस राज्याभिषेक के समय यह समस्त संसार आनंद से भर गया था। देव लोग इन्द्र को आगे करके स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आये थे।१९५। उस समय अयोध्या नगर की शोभा खूब बढ़ाई गई थी। मकानों की छत पर अनेक ध्वजायें फहराईं गई थीं जिनसे आकाश खूब भर गया था।१९६। उस समय राजमहल में बड़ी-बड़ी आनंदभेरी बज रहीं थीं, वारांगनायें मंगलगीत गा रहीं थीं और देवांगनायें नृत्य कर रहीं थीं।१९७। देवों के वैतालिक अर्थात् बंदीजन लोग मंगलों के साथ-साथ भगवान के पराक्रम पढ़ रहे थे और देवलोग बड़े संतुष्ट होकर जय जीव इत्यादि शुभ शब्द करते थे।१९८। उस राज्याभिषेक के समय प्रथम ही पृथ्वी के मध्यभाग में मिट्टी की वेदी बनाई गई थी उस वेदी पर एक बहुमूल्य आनंद मंडप बनाया गया था, उस आनंद मंडप के बनाने में देवलोगों ने कारीगरी का काम किया था।१९९। रत्नों के पूर्ण समूह से चौक पूरे गये थे जिनसे वह मंडप बहुत ही सुन्दर जान पड़ता था। उस मंडप में नवीन खिले हुये पुष्प बिखेरे गये थे जिनसे वह पूज्य हो रहा था।२००। उसकी पृथ्वी स्वच्छ मणियों की बनी हुई थी जिसमें ऊपर लटकते हुये तोरणों का प्रतिबिंब पड़ रहा था। उसमें रेशमी कपड़े का चंदोवा तन रहा था जिससे उस पृथ्वी पर बड़ी ही चित्र-विचित्र की तरंगे पैâल रहीं थीं।२०१। उसके दरवाजों पर देवांगनायें मंगलद्रव्य लेकर खड़ी हुई थीं जिससे आने-जाने का रास्ता भी रुक गया था, मंडप के चारों ओर दही, दूध आदि बहुत से मंगलद्रव्य शोभायमान हो रहे थे।२०२। देवों की अनेक अप्सरायें अपने हाथों से चंचल चंवर ढुला रहीं थीं। सुगंधित जल, पुष्पमंजरी, पल्लव आदि स्नान करने की सामग्री को लोग एक दूसरे के हाथ में दे रहे थे।२०३। तथा जो देवांगनायें बड़ी लीला के साथ पैर रखती हुई इधर-उधर फिर रहीं थीं और उनके पैर के नूपुरों से (पायलों से) जो रुणझुण शब्द हो रहा था उससे सब दिशायें शब्दायमान हो रहीं थीं।२०४। और जिसमें अनेक मंगलद्रव्यों का संग्रह हो रहा है ऐसे उस महाराज नाभिराज के आंगनरूप रंगभूमि में यथायोग्य मनोहर सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान श्रीवृषभदेव को बिठाया था।२०५। उस समय गंधर्वदेव संगीत (गाना) प्रारंभ कर रहे थे। मृदंगों के गंभीर शब्द हो रहे थे और वे गंभीर शब्द तीनों लोकों में तथा सब दिशाओं के अंत तक खूब भर गये थे।२०६। उसी समय जो देवांगनायें नृत्य कर रही थीं, गद्यपद्यमय पाठ पढ़ रही थीं, उनके अनुसार ही किन्नरी जाति की देवांगनाएँ कानों को सुख देनेवाला भगवान का यश गा रही थीं।२०७। ऐसे समय में ऊपर लिखे उत्सव के साथ-साथ देवों ने तीर्थ के जल से भरे हुये सुवर्ण के कलशों से भगवान वृषभदेव का राज्याभिषेक करना प्रारंभ किया था।२०८। उस राज्याभिषेक करने के लिये गंगा और सिंधु इन दोनों महानदियों का ऐसा स्वच्छ जल लाया गया था जो हिमवानपर्वत की शिखर से धारारूप में नीचे पड़ रहा था तथा जिसने पृथ्वीतल छूआ तक नहीं था।२०९। इसके सिवाय गंगाकुंड से गंगानदी का स्वच्छ जल लाया गया था और सिंधु कुंड से सिंधु नदी का निर्मल जल लाया गया था।२१०। इसी तरह ऊपर पर्वतों से पड़ती हुई सब नदियों का निर्मल जल लाया गया था तथा जिन-जिन कुंडों में वे नदियां पड़ती थीं उनका भी जल लाया गया था।२११। श्री, ह्री आदि देवियां भी पद्म-महापद्म आदि सरोवरों का जल लाई थीं जो कि सुवर्ण वर्ण के कमलों की केसर के समूह से कुछ-कुछ पीला हो रहा था।२१२। सायंकाल में खिलने वाले कमलों की सुगंध से सुगंधित, अतिशय मनोहर और खिले हुये कमलों सहित ऐसा सरोवरों का मधुर जल लाया गया था तथा जिनकी तरंगों के द्वारा मोतियों का समूह बाहर फेंका जा रहा है ऐसा-लवण समुद्र का जल लाया गया।।२१३।। नंदीश्वरद्वीप में जो अत्यंत स्वच्छ जल से भरी हुई और अतिशय निर्मल ऐसी नंदोत्तरा, नंदिषेणा आदि बावड़ीं थीं उनका भी जल लाया गया था।२१४। इसके सिवाय क्षीरसागर, नंदीश्वरसमुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र का जल सुवर्ण के बने हुये दिव्य कलशों में भरकर लाया गया था।२१५। इस प्रकार ऊपर कहे हुये जल से जगत्गुरु भगवान वृषभदेव का राज्याभिषेक किया गया था। भगवान का शरीर तो स्वयं पवित्र था तथापि उन्होंने केवल उस जल को अवश्य ही पवित्र कर दिया था।२१६। उस समय भगवान के मस्तक पर देवों के द्वारा छोड़ी हुई जल की धारा जो पड़ रही थी, वह ऐसी सुशोभित होती थी मानों वह उस मस्तक को राज्यलक्ष्मी का आश्रय समझकर ही पड़ रही हो।२१७।
त्रस, स्थावर आदि सब जीवों के गुरु भगवान वृषभदेव के मस्तक पर पड़ती हई जल की छटायें ऐसी सुशोभित होती थीं मानों संसार का संताप नाश करनेवाली और अतिशय निर्मल ऐसी गुणों की संपदायें ही हों।२१८। यद्यपि भगवान का शरीर स्वभाव से ही पवित्र था तथापि इन्द्र ने गंगानदी के जल से उसका अभिषेक किया था इसलिये वह और भी बहुत शुद्ध हो गया था।२१९। उस समय इन्द्रों ने केवल भगवान के शरीर का ही प्रक्षालन नहीं किया था किंतु देखनेवाले लोगों के नेत्र, उनकी मनोवृत्ति और उनके शरीर का प्रक्षालन कर डाला था। भावार्थ-देखने वाले लोगों के चित्त की वृत्ति तथा उनके नेत्र और शरीर आदि सब पवित्र हो गये थे।२२०। उस समय जो देवांगनायें नृत्य कर रहांr थीं उनके कटाक्षरूपी बाण उस जल के प्रवाह में घुस गये थे इसलिये वह जल लोगों के चित्त को भेदन करता था। भावार्थ-उन देवांगनाओं के कटाक्षों से लोगों के चित्त भिद जाते थे।२२१। भगवान के हाथ, पैर आदि शरीर के संसर्ग से अतिशय पवित्र हुआ वह निर्मल जल समस्त पृथ्वी पर पैâल गया था और उससे वह पृथ्वी ऐसी सुशोभित होती थी मानों अपने स्वामी श्रीवृषभदेव की राज्यसंपत्ति देखकर और उससे संतुष्ट होकर वृद्धि को ही प्राप्त हुई हो।२२२। जिस प्रकार सायंकाल के समय के बादलों से सुमेरु पर्वत सुशोभित होता है उसी प्रकार जिस समय इन्द्र ने सुवर्णमय कलशों से भगवान का अभिषेक किया था उस समय वे भगवान सुशोभित हो रहे थे।२२३। नाभिराज को आदि लेकर जो बड़े बड़े क्षत्रिय राजा थे, उन्होंने सब राजाओं में श्रेष्ठ ऐसे भगवान वृषभदेव को राजा के योग्य मानकर एक साथ अभिषेक किया था।२२४। उस समय नगरनिवासी लोगों ने भी, किसी ने कमल के पत्ते से, किसी ने घड़े से और किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणकमल का अभिषेक किया था।२२५। मागध, बरतनु और प्रभास आदि व्यंतर जाति के इन्द्रों ने भी मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान को धारण करनेवाले भगवान वृषभदेव को अपने देश का स्वामी मानकर बड़े प्रेम से पवित्र जल से अभिषेक किया था।२२६। प्रथम ही ऊपर कहे हुये पवित्र तीर्थों के जल से भगवान का अभिषेक किया गया था फिर कुंकुम-कपूर-अगुरु-चंदन आदि सुगंधित पदार्थों के मिले हुये कषाय जल से अभिषेक किया गया। तदनंतर पानी में पुष्पों का सार निकालकर उससे अभिषेक किया गया और फिर अंत में रत्न आदि द्रव्यों से अभिषेक किया गया था।२२७। इस प्रकार अभिषेक हो जाने पर आदिब्रह्मा भगवान वृषभदेव ने थोड़े-थोड़े गरम जल से भरे हुये स्नान करने योग्य सुवर्ण के कुंड में डूबकर स्नान करने का सुख अनुभव किया था।२२८। भगवान ने स्नान करने के बाद जो माला, वस्त्र और आभूषण आदि पृथ्वी पर डाल दिये थे उससे वह पृथ्वी ऐसी सुशोभित होती थी मानों अपने स्वामी भगवान वृषभदेव के शरीर का स्पर्श करने के बदले में उसे दाय अर्थात् विवाहोत्सव में देने योग्य द्रव्य ही मिला हो।२२९। इस प्रकार जिस समय देव लोगों के बंदीजन बड़े जोर से शुभस्नान सूचक मंगलपाठ पढ़ रहे थे, उस समय राज्यलक्ष्मी के साथ विवाह करने का वह भगवान का अभिषेक समाप्त हुआ।२३०। तदनंतर स्नान और आरती समाप्त हो जाने पर देव लोगों ने दिव्य माला, दिव्य आभूषण और दिव्य वस्त्रों से भगवान का अलंकार किया था।२३१। उस समय महाराज नाभिराज ने सबके सामने ‘समस्त महा मुकुटबद्ध राजाओं के पालन करनेवाले भी भगवान वृषभदेव हैं, यह कहकर अपने हाथ से पहनाया भगवान के मस्तक पर मुकुट धारण किया था।२३२। तथा जगत मात्र के बंधु भगवान वृषभदेव के ललाट पर पट्टबंध स्थापन किया था मानों इधर उधर भागने वाली राजलक्ष्मी के स्थिर करनेवाला एक बंधन ही बांधा हो।२३३। इसके सिवाय भगवान ने माला पहिनी थी, सुन्दर वस्त्र पहने थे, दोनों कानों में दैदीप्यमान कुंडल पहने थे, मस्तक पर लक्ष्मी के क्रीड़ा करने योग्य पर्वत के समान मुकुट धारण किया था, कंठ में हारलता पहनी थी, कटिभाग पर (कमर पर) करधनी पहनी थी, तथा जिस प्रकार हिमवान् पर्वत पर गंगानदी का प्रवाह बहता है उसी प्रकार भगवान ने अपने शरीर पर यज्ञोपवीत धारण किया था। जिस प्रकार आभूषण सहित बड़ी-बड़ी शाखाओं से चलता हुआ कल्पवृक्ष अच्छा लगता है उसी प्रकार कड़े, बाजूबंध और अनंत आदि आभूषणों से सुशोभित लंबी-लंबी भुजाओं से भगवान सुशोभित हो रहे थे और जिस प्रकार भ्रमरों से सुशोभित खिला हुआ लाल कमल सुशोभित होता है उसी प्रकार नीलमणि रत्नों के बने हुये नूपुरों से भगवान के दोनों चरण कमल सुशोभित हो रहे थे।२३४-२३५-२३६-२३७। इस प्रकार प्रत्येक अंग-उपांग में पहने हुये आभूषण- रूप संपदाओं से आदिब्रह्मा भगवान वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष ही हों।२३८। तदनंतर नाट्यशास्त्र को जाननेवाले इन्द्र ने उस सभारूपी रंगभूमि में बड़े आनंद के साथ आनंद नाम का नाटक किया और फिर उसके बाद वह अपने स्वर्ग को चला गया।२३९। जिनके चित्त की वृत्ति भगवान के चरण कमलों की सेवा में लगी हुई है ऐसे समस्त वैमानिक देव तथा भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क आदि असुर जाति के देव अपना-अपना कार्य समाप्त कर इन्द्र के साथ ही साथ अपनी-अपनी जगह पर चले गये।२४०।
अथानंतर—कर्मभूमि की रचना करनेवाले भगवान वृषभदेव ने अपने पिता महाराज नाभिराज के सामने साम्राज्य पाकर नीचे लिखे अनुसार प्रजा के पालन करने का प्रयत्न किया।।२४१।। प्रथम ही भगवान ने को बुलाया तदनंतर प्रजा के आजीविका के नियम बनाये और फिर प्रजा के लिये अपनी-अपनी मर्यादा के उल्लंघन न करने का नियम बनाया, इस प्रकार वे अपनी प्रजा का शासन करने लगे।।२४२।। उस समय भगवान ने अपने दोनों हाथों में शस्त्र धारणकर क्षत्रियों की रचना की अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या सिखलाई, सो ठीक ही है क्योंकि जो हाथ में शस्त्र लेकर दूसरे सबल वा शत्रु के प्रहार से जीवों की रक्षा करे उन्हें ही क्षत्रिय कहते हैं।।२४३।। तदनंतर भगवान ने अपने ऊरुओं से यात्रा करना अर्थात् परदेश जाना दिखलाकर वैश्यों की व्यवस्था बनायी, सो भी ठीक ही है क्योंकि समुद्र आदि जल प्रदेशों में तथा स्थल प्रदेशों में यात्रा करके व्यापार करना वैश्यों की मुख्य आजीविका है।।२४४।। सदा सेवा कार्यों में तत्पर रहनेवाले शूद्रों की व्यवस्था भगवान ने अपने बनायी सो ठीक ही है क्योंकि क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णों के हर तरह से उनकी सेवा- सुश्रुषा करना, उनकी आज्ञा पालन करना आदि शूद्रों की आजीविका अनेक प्रकार की कही गई है।।२४५।। इस प्रकार तीन वर्णों की सृष्टि तो प्रथम ही हो चुकी थी उसके बाद भगवान वृषभदेव के पुत्र महाराज भरत अपने मुख से शास्त्रों का अध्ययन (पाठ) कराते हुये ब्राह्मणों की रचना करेंगे और पढ़ना, पढ़ाना, दान देना, दान लेना, पूजा करना, कराना आदि उनकी आजीविका के उपाय होंगे।।२४६।। शूद्र को शूद्र की वृत्ति (आजीविका) का पालन करना चाहिये, अन्य कार्य नहीं करना चाहिये। नैगम अर्थात् वैश्य को वाणिज्य-व्यापारादिरूप वृत्ति करना चाहिए, क्वचित् सुश्रुषारूप वृत्ति भी कर सकता है राजन्य अर्थात् क्षत्रियवर्ण को शस्त्रधारी हो प्रजा का संरक्षण करना चाहिए क्वचित् व्यापार अथवा सेवावृत्ति भी कर सकता है ब्राह्मणों को अध्ययन, अध्यापनादि कार्य करना चाहिये।।२४७।। इस प्रकार वर्णित अपनी वृत्ति अर्थात् आजीविका के क्रम का उल्लंघन कर जो अन्य प्रकार की वृत्ति को अपनायेगा वह राजाओं के द्वारा दण्डनीय होगा। ऐसा न होने पर वर्णसंकीर्णता होगी।२४८। भगवान वृषभदेव ने ही असि, मसि, कृषि आदि छह कर्मों की रचना कर दी थी और उस समय से लोग अपने कर्म करने लग गये थे इसलिये उन कर्मों के करने से इस भारतवर्ष में कर्मभूमि प्रगट हो गई थी।
भावार्थ—अब तक भोगभूमि थी, इसके बाद असि, मसि आदि कर्मकर जीविका होने से कर्मभूमि कही जाती थी।।१४९।। इस प्रकार भगवान वृषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजा की रचना की अर्थात् उन-उनकी योग्यता के अनुसार व्यवस्था बनाई। और उसका योग अर्थात् जो वस्तु नहीं है उसे उत्पन्न करना और क्षेम अर्थात् जो वस्तु विद्यमान है उसकी रक्षा करना इन दोनों को अच्छी तरह चलाने के लिये बड़ी युक्ति से हा, मा और धिक्कार, ये तीनों प्रकार के दंड स्थापन किये थे।।२५०।। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना अर्थात् उन्हें दंड देना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह क्रम कर्मभूमि से पहिले अर्थात् भोगभूमि में नहीं थी, क्योंकि भोगभूमि में प्रजा के सब लोग निरपराध होते थे, कोई भी कुछ अपराध नहीं करता था।।२५१।। यदि कर्मभूमि में दंड देनेवाला राजा न होगा तो फिर संसार में मात्स्य न्याय की प्रवृत्ति हो जायगी अर्थात् जिस प्रकार बड़ी-बड़ी मछलियां छोटी-छोटी मछलियों को खा जाती हैं उसी प्रकार की रीति यहां भी प्रचलित हो जायगी, क्योंकि यह प्रसिद्ध ही है कि जो अंतरंग का दुष्ट और बलवान होता है वह निर्बल को खा जाता है अर्थात् उसे पीड़ा देता है।।२५२।। यदि अपराधी लोगों को दंड दिया जायगा तो फिर वे दंड के डर से कुमार्ग की ओर नहीं दौडेगा, इसलिये अपराधी लोगों को दंड देने वाला राजा अवश्य होना चाहिये और ऐसा राजा ही पृथ्वी को जीत सकता है।।२५३।। जिस प्रकार बिना किसी तरह की पीड़ा दिये दूध देनेवाली गाय से दूध निकालने में गाय सुखी रहती है और उसका दूध बढ़ता है उसी प्रकार राजा को प्रजा से भी धन वसूल करना चाहिये, उस पर अधिक पीड़ा देने वाला कर नहीं लगाना चाहिये, ऐसा करने से ही प्रजा सुखी रहती है।।२५४।। यही समझकर भगवान वृषभदेव ने नीचे लिखे हुये पुरुषों को प्रजा को दंड आदि देने वाला राजा बनाया सो ठीक ही है, क्योंकि प्रजा का योग अर्थात् जो वस्तु नहीं है उसे उत्पन्न करना और क्षेम अर्थात् जो वस्तु है उसकी रक्षा का उपाय करना, इन दोनों का विचार करना राजा के ही आधीन है।।२५५।। भगवान ने प्रथम ही हरि, अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ इन चारों महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाया और सबका यथायोग्य सन्मान और आदर सत्कार किया। तदनंतर उन चारों का राज्याभिषेक कर उन्हें महामांडलिक राजा बनाया। प्रत्येक महामांडलिक राजा के आधीन एक-एक हजार राजा होते हैं, सो भगवान ने भी चार हजार छोटे-छोटे राजा बनाकर उन चारों महामांडलिक राजाओं के आधीन किये।।२५६-२५७।। भगवान ने राज्याभिषेक के अनंतर उन चारों क्षत्रियों में से सोमप्रभ का नाम कुरुराज रक्खा और उसे कुरुवंश का शिखामणि बनाकर कुरुदेव का राजा बना दिया।।२५८।। भगवान की आज्ञा से हरि ने भी अपना नाम हरिकांत रक्खा तथा वह श्रीमान् हरि पराक्रमी अर्थात् इन्द्र के समान पराक्रमी था इसलिये वह हरिवंश को सुशोभित करनेवाला अर्थात् हरिवंश का नायक हुआ।२५९। राज्याभिषेक के अनंतर भगवान ने अकंपन का नाम भी श्रीधर रक्खा और भगवान की प्रसन्नता होने से वह नाथवंश का नायक हुआ।२६०। काश्यप भी भगवान की आज्ञा से अपना नाम मघवा रखकर उग्रवंश का मुख्य राजा हुआ सो ठीक ही है स्वामी की संपत्ति में से सेवक को क्या-क्या नहीं मिलता है अर्थात् सब कुछ मिलता ही है।२६१। भगवान वृषभदेव ने जिस प्रकार सोमप्रभ आदि क्षत्रियों को महामांडलिक राजा बनाया था, उसी प्रकार कच्छ-महाकच्छ आदि अनेक राजाओं का राज्याभिषेक कर तथा योग्य सत्कार कर उन्हें अधिराज पद पर स्थापन किया था।२६२। इसी प्रकार भगवान ने अपने पुत्रों के लिये भी वस्तु, सवारी आदि बहुत सी संपत्ति दी थी, सो ठीक ही है, अपने पुत्रों के लिये यथायोग्य संपत्ति का बाँट देना ही राज्य प्राप्त करने का मुख्य फल है।२६३। जिस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे उस समय भगवान ने मनुष्यों के लिये प्रथम ही इक्षु अर्थात् ईख का रस संग्रह करने का उपदेश दिया था, इसलिये ही संसार के लोग भगवान को इक्ष्वाकु कहते थे। इक्षून् आकयति कथयतीति इक्ष्वाकुः अर्थात् जो इक्षु अर्थात् ईख लाने का उपदेश दे उसे इक्ष्वाकुः कहते हैं।२६४। अथवा गो शब्द का अर्थ स्वर्ग है जो उत्तम स्वर्ग हो उसे सज्जन लोग ‘‘गोतम’’ कहते हैं। भगवान वृषभदेव स्वर्गों में सबसे उत्तम ऐसे सर्वार्थसिद्धि विमान से आये थे इसलिये लोग उन्हें गौतम भी कहते थे।२६५। अथवा काश्य शब्द का अर्थ तेज है जो काश्य अर्थात् तेज की रक्षा करे उसे काश्यप कहते हैं भगवान वृषभदेव ने उस तेज की रक्षा की थी, पूर्ण रीति से उसका पालन किया था, इसलिये लोग उन्हें काश्यप भी कहते थे। भगवान ने लोगों की आजीविका के उपायों का भी विचार किया था, इसलिये वे मनु कहलाते थे और कुलधर अथवा कुलकर भी कहलाते थे।२६६। इन नामों के सिवाय तीनों लोकों के स्वामी और अच्युत (अविनाशीक) भगवान वृषभदेव को उस समय की प्रजा विधाता, विश्वकर्मा, स्रष्टा आदि कई नामों से पुकारती थी।२६७। भगवान वृषभदेव का राज्यकाल तिरेसठ लाख पूर्व का नियमित था, सो वह उनका इतना लंबा काल भी पुत्र, पौत्र आदि का सुख अनुभव करते हुये सहज ही व्यतीत हो गया था अर्थात् बीतते हुये मालूम भी नहीं हुआ था।२६८। अतिशय दैदीप्यमान भगवान वृषभदेव ने इतने लंबे समय तक अयोध्या नगर के सिंहासन पर विराजमान होकर अपने पुण्योदय से सुखपूर्वक मिली हुई राज्यसंपदा का अनुभव किया था।२६९। इस प्रकार वैमानिक देव तथा भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क जाति के देवों के गुरु, अचिंत्य धैर्य को धारण करनेवाले और धीर-वीर भगवान वृषभदेव को उस समय उनके अतिशय पुण्यकर्म के उदय से देवों के स्वामी इन्द्र सदा भोगोपभोग की सामग्री पहुँचाता रहता था जिससे वे भगवान सुखपूर्वक बड़े ही संतुष्ट होते थे। इसलिये पंडित जनों को उचित है कि वे पुण्योपार्जन करने में सदा प्रयत्न करते रहें।२७०। इस संसार में पुण्य से ही सुख की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार बिना बीज के वृक्ष की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार बिना पुण्य के सुख की प्राप्ति भी कभी नहीं हो सकती है। दान देना, इन्द्रियों को वश करना, संयम अर्थात् व्रतों का धारण करना, समितियों का पालन करना, कषायों का निग्रह, अनर्थदंडों का त्याग और इन्द्रियों का विजय आदि, सत्यभाषण करना, लोभ का त्याग रूप शौच का पालन करना, बाह्य, आभ्यंतर परिग्रह का त्याग करना, क्षमा अर्थात् दुष्ट पुरुषों के गाली देने, मारने, ताड़ना करने, निंदा, हंसी करने पर भी कलुषित परिणाम नहीं करना, आदि शब्द से अहिंसा का पालन करना, शांत परिणाम रखना इत्यादि शुभाचरणों से पुण्य कर्मों का बंध होता है।२७१। सुर, असुर, मनुष्य, नागकुमार आदिकों के उत्तम- उत्तम भोगोें की प्राप्ति पुण्यकर्मों के उदय से ही होती है, लक्ष्मी, दीर्घायु, अत्यंतसुन्दर रूप, अनेक ऋद्धियाँ भी पुण्य से ही मिलती हैं, वाणी की शुद्धता भी पुण्य से ही होती है, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इन्द्रपद, साक्षात् मोक्ष का कारण ऐसा अरहंतपद और विनाश रहित अनंत सुख देने वाला तथा सबसे श्रेष्ठ ऐसा निर्वाणस्थान अर्थात् मोक्ष भी पुण्य से ही प्राप्त होता है।२७२। इसलिये हे पंडितजन! जिसका अचिंत्य महात्म्य है और जो सबसे श्रेष्ठ है ऐसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्त करना चाहते हो, तो धर्म का सेवन करो, यह धर्म ही इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुख देकर अंत में विनाश रहित और अनंत सुख स्वरूप ऐसे मोक्ष सुख की प्राप्ति कराता है। क्योंकि शर्म अर्थात् कल्याण वा सुख की प्राप्ति होना धर्म का ही फल है।।२७३।। हे भव्यजन! प्रसन्न होकर उत्तम मुनियों के लिये दान दो, तीर्थंकर भगवान को नमस्कार कर उनकी पूजा करो, शीलव्रतों का पालन करो और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में उपवास करो। हे बुद्धिमान जन यदि आप लोग सुख चाहते हो तो ऊपर लिखे हुये शुभाचररणों को कभी मत भूलो।२७४। इस प्रकार जो वृषभदेव अत्युत्तम लक्ष्मी के स्वामी थे, सदा ऊपर कहे हुये सुखों का अनुभव करते थे, अत्यंत स्नेह करने वाले अपने पुत्र-पौत्रों के साथ सन्तोष धारण करते थे, इन्द्र, सूर्य, चंद्रमा आदि सब उत्तम-उत्तम देव जिनकी Dााज्ञा अपने मस्तक पर धारण करते थे और जिन पर किसी की भी आज्ञा नहीं चल सकती थी ऐसे वे भगवान वृषभदेव राज्य सिंहासन पर विराजमान होकर समुद्रपर्यंत इस समस्त पृथ्वी पर शासन करते थे अर्थात् सबका पालन करते थे।२७५।
किसी समय राज्यसभा में स्वर्गों से आकर इंद्रगण नीलांजना अप्सरा का नृत्य प्रारंभ कराके प्रभु ऋषभदेव की भक्ति कर रहे थे।
अकस्मात् नीलांजना की आयु समाप्त होते ही उसका विलय हो गया। तत्क्षण ही इंद्र ने दूसरी अप्सरा उपस्थित कर दी। अत: नृत्य में व्यवधान नहीं हुआ, किन्तु श्री ऋषभदेव अपने दिव्य अवधिज्ञान से यह समझ गये और तत्क्षण ही विरक्तमना हुये ही थे, कि लौकांतिक देवों का आगमन हो गया। वे सभी देवगण भगवान के वैराग्य का गुणानुवाद करने लगे।
सौधर्मेंद्र आदि ने भी आकर निष्क्रमण—दीक्षा कल्याणक के समय प्रभु का क्षीरसागर आदि से जल लाकर महाभिषेक किया।
ततोऽभिषिच्य साम्राज्ये, भरतं सूनुमग्रिमम्।
भगवान् भारतं वर्षं, तत्सनाथं व्यधादिदम्१।।७६।।
उसी समय प्रभु ऋषभदेव ने साम्राज्य पद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया था।
विशेष :—भगवान ऋषभदेव के गर्भ-जन्म दो कल्याणक अयोध्या में हुये हैं। दीक्षा एवं केवलज्ञान ये दो कल्याणक प्रयाग में हुये हैं। एवं निर्वाण- कल्याणक वैâलाशपर्वत पर हुआ है।