अनुभूय चिरं लक्ष्मी भूपतिर्भरतेश्वर।
आदित्ययशसं पुत्रमभिषिच्य भुवो विभु:।।१।।
दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीमुग्रामात्मपरिग्रहाम्।
दुर्निग्रहेन्द्रियग्राममृगनिग्रहवागुराम्।।२।।
पञ्चमुष्टिमिरुत्पाट्य त्रुट्यद्बन्धस्थिति: कचान्।
लोचानन्तरमेवापद् राजन् श्रेणिक! केवलम्।।३।।
द्वािंत्रशत्त्रिदशेन्द्रै: स कृतकेवलपूजन:।
दीपको मोक्षमार्गस्य विजहार चिरं महीम्।।४।।
पूर्वलक्षा: कुमारत्वे तस्यागु: सप्तसप्तति:।
साम्राज्ये षट् प्रभोरेका श्रामण्ये विश्वदृश्वन:।।५।।
शैलं वृषभसेनाद्यै: वैâलासमधिरुह्य स:।
शेषकर्मक्षयान्मोक्षमन्ते प्राप्त: सुरै: स्तुत:।।६।।
आदित्यशस: पुत्रो जात: स्मितयश:श्रुति:।
श्रियं तस्मै वितीर्यासौ तपसा प्राप निर्वृतिम्।।७।।
बलस्तस्मादभूत्पुत्र: सुबलोऽतो महाबल:।
ततोऽतिबलनामा च तस्यामृतबल: सुत:।।८।।
सुभद्र: सागरो भद्रो रवितेजा: शशी तत:।
प्रभूततेजास्तेजस्वी तमनोद्वन्य: प्रतापवान।।९।।
अतिवीर्य: सुवीर्योऽतस्तथोदितपराक्रम:।
महेन्द्रविक्रम: सूर्य इन्द्रद्युम्नो महेन्द्रजित्।।१०।।
प्रभुर्विभुरविघ्वंसो वीतभीर्वृषभध्वज:।
गरुडाज्रे मृगाज्रख्य इत्याद्या: पृथिवीभृत:।।११।।
आदित्यवंशसंभूता: क्रमेण पृथुकीर्त्तय:।
सुते न्यस्तभरा: प्रापुस्तपसा परिनिर्वृतिम्।।१२।।
मोक्षमिक्ष्वाकवो जग्मुर्भरताद्या निरन्तरा:।
ते चतुर्दशलक्षास्तु प्रापैकोऽग्रेऽहमिन्द्रताम्।।१३।।
तथा दशगुणाश्चाष्टौ परिपाट्या नरेश्वरा:।
मुक्तास्तदन्तरे प्रापदेवैâक: सुरनाथताम्।।१४।।
धीरा राज्यधुरां त्यक्त्वा धृत्वान्तेऽन्ये तपोधुराम्।
स्वर्गमेकेऽपवर्गं तु जग्मुरादित्यवंशजा:।।१५।।
योऽसौ बाहुबली तस्माज्जात: सोमयशा: सुत:।
सोमवंशस्य कर्तासौ तस्य सूनुर्महाबल:।।१६।।
ततोऽभूत्सुबल: सूनुरभूद् भुजबली तत:।
एवमाद्या: शिवं प्राप्ता: सोमवंशोद्भवा नृपा:।।१७।।
पञ्चाशत्कोटिलक्षाश्च सागराणां प्रमाणत:।
तीर्थे वृषभनाथस्य तदा वहति सन्तते।।१८।।
इक्ष्वाकवो द्विधादित्यसोमवंशोद्भवा नृपा:।
उग्राद्या कौरवाद्याश्च मोक्षं स्वर्गं च भेजिरे।।१९।।
अथान्तर षट्खण्ड पृथिवी के स्वामी महाराज भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर अर्ककीर्ति नामक पुत्र का अभिषेक किया और स्वयं अतिशय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एवं कठिनाई से निग्रह करने योग्य इन्द्रियरूपी मृग समूह को पकड़ने के लिये जाल के समान जिनदीक्षा धारण कर ली।।१-२।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक! महाराज भरत ने अपने समस्त केश पंचमुट्ठियों से उखाड़कर फेंक दिये तथा उनके कर्मबन्ध की स्थिति इतनी जल्दी क्षीण हुई कि उन्होंने केशलोंच के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।।३।। तदनन्तर बत्तीसों इन्द्रों ने आकर जिनके केवलज्ञान की पूजा की थी और जो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान थे, ऐसे भगवान् भरत ने चिरकाल तक पृथिवी पर विहार किया।।४।। सर्वदर्शी भगवान् भरत की आयु भी चौरासी लाख पूर्व की थी, उसमें से सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार काल में बीते, छह लाख पूर्व साम्राज्य पद में व्यतीत हुए और एक लाख पूर्व उन्होंने केवली पद में विहार किया।।५।। आयु के अन्त समय वे वृषभसेन आदि गणधरों के साथ वैâलाश पर्वत पर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मों का क्षय कर वहीं से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, देवों ने उनकी स्तुति, वन्दना की।।६।। राजा अर्ककीर्ति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ। अर्ककीर्ति उसे लक्ष्मी देकर तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ।।७।। स्मितयश के बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन के प्रतापवान्, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेन्द्रविक्रम, महेन्द्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इन्द्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्न के महेन्द्रजित्, महेन्द्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक आदि अनेक राजा क्रम से सूर्यवंश में उत्पन्न हुए। ये सब राजा विशाल यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौंप तप कर मोक्ष को प्राप्त हुए।।८-१२।। भरत को आदि लेकर चौदह लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गये। उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धि से अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये परन्तु उनके बीच में एक-एक राजा इन्द्रपद को प्राप्त होता रहा।।१३-१४।। सूर्यवंश में उत्पन्न हुए कितने ही धीर-वीर राजा अन्त में राज्य का भार छोड़ और तप का भार धारण कर स्वर्ग गये तथा कितने ही मोक्ष को प्राप्त हुए।।१५।। भगवान ऋषभदेव के जो बाहुबली पुत्र थे उनसे सोमयश नामक पुत्र हुआ। वही सोमयश सोमवंश (चन्द्रवंश) का कर्ता हुआ। सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और सुबल के भुजबली पुत्र हुआ। इन्हें आदि लेकर सोमवंश में उत्पन्न हुए अनेक राजा मोक्ष को प्राप्त हुए।।१६-१७।।इस प्रकार भगवान् वृषभदेव का तीर्थ पृथिवी पर पचास लाख करोड़ सागर तक अनवरत चलता रहा। इस तीर्थकाल में अपनी दो शाखाओं-सूर्यवंश और चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए इक्ष्वाकुवंशीय तथा कुरुवंशीय आदि अनेक राजा स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए।।१८-१९।।
विशेष—भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से सूर्यवंश चला है। एवं बाहुबली के पुत्र सोमयश से चंद्रवंश प्रसिद्ध हुआ है।