(श्री गौतमगणधर स्वामी कृत पाक्षिक प्रतिक्रमण से उद्धृत)
सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा१ महदि-महावीरेण महा-कस्सवेण सव्वण्हुणा सव्वलोगदरिसिणा सदेवासुर-माणुसस्स लोयस्स आगदि-गदि-चवणो-ववादं बंधं मोक्खं इिंड्ढ ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं मणो-माणसियं भूतं३ कयं पडिसेवियं आदिकम्मं अरुह-कम्मं४ सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहव्वदाणि राइभोयणवेरमण-छट्ठाणि सभावणाणि समाउग-पदाणि सउत्तर-पदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि।
हे आयुष्मन्तों! वीरप्रभू की ध्वनि से मैंने सुना यहीं।
वे महाश्रमण भगवान महति, महावीर महाकाश्यपगोत्री।।
सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, युगपत् सबको जानते हुए।
सब देव असुर मानवयुत इस तिहुं जग को भी देखते हुए।।
सबकी आगति गति च्यवन५ जन्म, अरु बंध मोक्ष ऋद्धी६ स्थिति७।
द्युति८ अनुभाग९ अरु तर्कशास्त्र, सब कला१० मनो अरु मानसीक११।।
अनुभूत भूत१२ कृत१३ प्रतिसेवित१४, कृषि आदिकर्म१५ अकृतिमकर्म१६।
सम्पूर्ण लोक सब जीव सर्व भावों को भी युगपत् जानन् ।।
वे श्रीविहार करते भगवन् जब समवसरण में राजे हैं।
मुनियों के लिए धर्म सम्यक् उसको उनने उपदेशा है।।
वह पांच महाव्रत रात्रीभोजन विरति अणुव्रत छट्ठा है।
पच्चीस भावना आठ मातृकापद उत्तरपद संयुत है।।