-स्त्रग्धरा-
इत्यादिर्धर्म एष क्षितिपसुरसुखानर्घ्यमाणिक्यकोष: पायो दु:खानलानां परमपदलसत्सौधसोपानराजि:।
एतन्माहात्म्यमीश: कथयतिजगतांकेवलीसाध्वेधीति सर्वस्म्न्विाङ्मयेऽथस्मरति परमहोमादृशस्तस्यनाम।।१६४।।
अर्थ—ग्रन्थकार कहते हैं कि पूर्व में जो दया आदिक पाँच प्रकार का धर्म कहा है, वह धर्म बड़े—बड़े चक्रवर्ती आदिक राजाओं के तथा इंद्र अहमिन्द्र आदि के सुख का देने वाला है तथा समस्त दु:खों को मूल से नाश करने वाला है और वह धर्म निर्वाणरूपी महल के चढ़ने के लिये पैड़ी के समान है अर्थात् जो मनुष्य धर्म को धारण करता है, उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे उस धर्म के माहात्म्य को साक्षात्केवली अथवा समस्त द्वादशांग के पाठी गणधर ही वर्णन कर सकते हैं परन्तु मेरे समान मनुष्य तो केवल उसके नाम को ही स्मरण कर सकते हैं।
भावार्थ—धर्म ही महिमा का वर्णन सिवाय केवली अथवा गणधर देव के दूसरा कोई नहीं कर सकता।।१६४।।
धर्म ही धारण करने योग्य है, ऐसा उपदेश कहते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
शश्वज्जन्मजरान्तकालविलसद्दु:खौघसारीभवत् संसारोग्रमहारुजोऽपहृतयेऽनन्तप्रमोदाय वै।
एतद्धर्मरसायनं ननु बुधा: कर्तुं मतिश्चेत्तदा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिकर: क्रोधादि संत्यज्यताम्।।१६५।।
अर्थ—भो भव्यजीवों! यदि तुम निरन्तर जन्म-जरा-मरण आदिक समस्त दु:खों को देने वाले संसाररूपी भयंकर रोगों को दूर करने के लिये धर्मरूपी रसायन का आश्रय लेना चाहते हो तथा अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये भी धर्मरूपी रसायन का आश्रय करना चाहते हो, तो मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद तथा क्रोधादि कषायों का सर्वथा त्याग करो।
भावार्थ—जब तक क्रोधादि कषायों का आत्मा के साथ संबंध रहेगा तब तक न तुम नाना दु:खों के देने वाले संसाररूपी महारोग का शमन कर सकते हो और न तुम अविनाशी सुख की तरफ झाँक सकते हो इसलिये यदि तुम संसाररूपी महारोग के दूर करने की अभिलाषा करते हो तथा यदि तुम अविनाशी सुख को चाहते हो, तो मिथ्यात्व आदि की तरफ झाँक झाँक करके भी न देखो।।१६५।।
अब आचार्य धर्म का दुर्लभपना दिखाते हैं-
नष्टं रत्नमिवाम्बुधौ निधिरिव प्रभ्रष्टदृष्टेर्यथा योगो यूपशलाकयोश्च गतयो: पूर्वापरौ तोयधी।
संसारेऽत्र तथा नरत्वमसकृद्दु:खप्रदे दुर्लभं लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मति:।।१६६।।
अर्थ—जिस प्रकार अथाह समुद्र में यदि रत्न गिर पड़े फिर उसका मिलना बहुत कठिन है तथा जैसे अंधे को निधि मिलना अत्यंत दुर्लभ है और जिस प्रकार समुद्र में किसी स्थान पर दो काष्ठ खण्डों को छोड़ देना, उनमें एक को पूर्व दिशा की ओर बहा देना तथा दूसरे को पश्चिम दिशा की ओर को बहा देना फिर उनका उस ही स्थान पर मिलना दु:साध्य है उस ही प्रकार निरंतर नाना प्रकार के दु:खों के देने वाले इस संसार में मनुष्य जन्म का पाना बहुत कठिन है, यदि दैवयोग से मनुष्य जन्म भी मिल जावे तो फिर उत्तम कुल मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, यदि किसी समय में उत्तमकुल की भी प्राप्ति हो जावे तो फिर धर्म में श्रद्धा होना अत्यंत दु:साध्य है इसलिये भव्यजीवों को ऐसे अत्यन्त दुर्लभ धर्म की अवश्य उपासना करनी चाहिये।।१६६।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि अत्यंत दुर्लभ धर्म आदिक वस्तु खोटे उपदेश से प्राणियों के व्यर्थ चली जाती है-
न्यायादंधकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां प्राप्तं वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छ्रान्नरत्वं यदि।
मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीचान्वयप्रायै: प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति।।१६७।।
अर्थ—प्रथमतो मनुष्य जन्म पाना संसार में अत्यंत कठिन काम है, दैवयोग से अंधे के हाथ में बटेर के समान करोड़ों कल्पों के बाद यदि इस अत्यंत दु:साध्य मनुष्य जन्म की प्राप्ति भी हो जावे, तो वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा खोटे गुरुओं के उपदेश से निष्फल चला जाता है तथा विषयों में आसक्तता से तथा व्यसनादिक नीचकार्य करने से भी वह बात की बात में व्यर्थ चला जाता है।
भावार्थ—बटेर एक जाति का अत्यंत चंचल पक्षी होता है, वह चतुर से चतुर भी नेत्रधारियों के हाथ में बड़ी कठिनता से आता है फिर अंधे के हाथ में आना तो उसका अत्यन्त ही कठिन है यदि दैवयोग से वह अंधे के हाथ में आ जावे तो जिस प्रकार उसका आना बहुत कठिन समझा जाता है, उस ही प्रकार यह मनुष्य जन्म है क्योंकि सबसे निकृष्ट निगोद राशि है, उसमें से निकलकर बड़े पुण्य के उदय से यह जीव एकेंद्री होता है, फिर दोइंद्री-तेइंद्री-चौइंद्री-पञ्चेंद्री होता है, फिर बड़े पुण्य के उदय से इस मनुष्य जन्म को धारण करता है किन्तु ऐसा भी कठिन वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा गुरू आदि के उपदेश आदि से व्यर्थ ही चला जाता है इसलिये भव्य जीवों को चाहिये कि ऐसे दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर वे खोटे देव की सेवा तथा खोटे गुरुओं के उपदेश का श्रवण न करें तथा विषयों में भी मग्न न रहें।।१६७।।
कुगुरु-कुदेवादि की सेवा आदि के त्याग से ही मनुष्य जन्म सफल होता है ऐसा, आचार्य वर्णन करते हैं-
-वसंततिलका-
लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्मन्यङ्गप्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम्।
प्राप्तं तु कामपि गतिं कुमते तिरश्चां कस्त्वां भविष्यति विबोधयितुं समर्थ:।।१६८।।
अर्थ — हे भव्यजीव! बड़े पुण्य कर्म के उदय से तुझे इस मनुष्य जन्म की प्राप्ति हुई है इसलिये शीघ्र ही कोई अपने हित का करने वाला काम कर, नहीं तो रे मूर्ख! जिस समय तिर्यंच आदि खोटी गति को प्राप्त हो जावेगा, तो वहां पर तुझे कोई समझा भी नहीं सकेगा।
भावार्थ — समझाने पर मनुष्य ही शीघ्र समझ सकता है, पशु में यह शक्ति नहीं है जो समझाने पर समझ जावे इसलिये भव्यजीवों को मनुष्य जन्म में ही ऐसा काम करना चाहिये जिससे वे तिर्यंच आदि खोटी गति को न प्राप्त होवें तथा वहाँ पर वे नाना प्रकार के दु:ख न भोगें।।१६८।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मते: पाटवं भक्तिं जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जिताच्छ्रेयस:।
संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्मं न ये कुर्वते हस्तप्राप्यमनर्घ्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धय:।।१६९।।
अर्थ —जो मनुष्य अत्यंत कठिन मनुष्य जन्म को पाकर तथा उत्तम कुल को पाकर तथा किसी प्रकार पूर्वकाल में उपार्जन किये हुवे पुण्य के उदय से जैनधर्म के भक्त भी होकर संसार-समुद्र से पार करने वाले तथा नाना प्रकार के सुख के देने वाले धर्म की सेवा नहीं करते हैं, वे मूर्ख हाथ में आये हुवे अमूल्य रत्न को छोड़ देते हैं।
भावार्थ — प्रथम तो रत्न की प्राप्ति ही अत्यन्त कठिन है, यदि प्राप्त भी हो जावे, तो उसको व्यर्थ फेंक देना सर्वथा मूर्खता है, उस ही प्रकार उत्तम कुलादि को प्राप्त कर धर्म का न करना भी मूर्खता है इसलिये भव्यजीवों को धर्म की अवश्य उपासना करना चाहिये।।१६९।।
जो मनुष्य अवसर पाकर भी धर्म नहीं करते हैं उनकी ग्रन्थकार निंदा करते हैं-
तिष्ठत्यायुरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गानि दूरं दृढान्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुधा।
आयत्यां निरवग्रहो गतवया धर्मं करिष्ये भरादित्येवं वत चिंतयन्नपि जडो यात्यंतकग्रासताम्।।१७०।।
अर्थ —अभी मेरी आयु बहुत है, हाथ-पैर-नाक-कान आदिक भी मजबूत हैं तथा लक्ष्मी मेरे विद्यमान हैं इसलिये व्यर्थ धर्मादि के लिये क्यों व्याकुल होना चाहिये ? किंतु इस समय तो आनंद से भोगों को भोगना चाहिये, भविष्यत् काल में जिस समय वृद्ध हो जाऊँगा, उस समय निश्चय कर अच्छी तरह धर्म का आराधन करूँगा, इस प्रकार विचार करता ही करता मूर्ख मर जाता है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे मृत्यु सदा सिर पर छाई हुई है, इस भय से निरंतर धर्म की आराधना करें।।१७०।।
-आर्य-
पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम्।
प्रतिदिनमितरस्य पुन: सह जरया वर्द्धते तृष्णा।।१७१।।
अर्थ —जो पुरूष ज्ञानी हैं, वे तो सफेद केश को देखते ही वैराग्य को प्राप्त होते हैं किंतु जो मनुष्य ज्ञानरहित हैं, उनको तो जैसा—जैसा सफेद केशों का दर्शन होता जाता है, वैसी-वैसी ही उनकी तृष्णा और भी बढ़ती चली जाती है और उनको वैराग्य की बात भी बुरी लगती है।।१७१।।
तथा वे अज्ञानी पुरुष तृष्णा को इस प्रकार कहते हैं-
-मन्दाक्रान्ता-
आजातेर्नस्त्वमसि दयिता नित्यमासन्नगासि प्रौढास्याशे किमथ बहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि।
अस्मत्केशग्रहणमकरोदग्रतस्ते जरेयं मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम्।।१७२।।
अर्थ—हे तृष्णे! आजन्म से तू हमारी प्रिया है और तू सदा हमारे पास रहने वाली है तथा तू प्रौढ़ा है और अधिक कहाँ तक कहा जाय, तू साक्षात् हमारी स्त्री ही है परंतु अरे दुष्ट! तेरे सामने भी इस जरा ने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू सहन करती है फिर भी तो हमारी प्यारी है, यह बड़े आश्चर्य की बात हैै!
भावार्थ—स्त्री का यह स्वभाव होता है कि यदि वह अपने पति के साथ किसी दूसरी स्त्री को क्रीड़ा करती तथा रमण करती देख लेवे, तो उससे बड़ी भारी ईर्षा करती है तथा तत्काल ही उसका पति के साथ संबंध छुड़ाने की चेष्टा करती है, यदि संबंध न छूट सके तो प्रीति तो अवश्य ही छुड़ा देती है अतएव अज्ञानी पुरुष इस प्रकार तृष्णा को संबोधते हैं कि अतिप्रिये तृष्णे! इस जरा ने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू कुछ नहीं कहती है अर्थात् तुझे इसका हमारे साथ संबंध छुटा देना चाहिये।।१७२।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं-
-वसंततिलका-
रज्रयते परिवृढोऽपि दृढोऽपि मृत्युमभ्येति दैववशत: क्षणतोऽत्र लोके।
तत्क: करोति मदमम्बुजपत्रवारिविन्दूपमैर्धनकलेवरजीविताद्यै:।।१७३।।
अर्थ —जो मनुष्य इस संसार में धनी है, वह क्षणभर में रंक हो जाता है और जो रंक है, वह पलभर में धनी हो जाता है तथा जो बलवान् दीखता है, वह दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इसलिये ऐसा कौन बुद्धिमान है जो ‘‘धन-शरीर-जीवन आदि को’’ कमल के पत्ते पर जल की बूंद के समान विनाशीक जानकर भी मद करे अर्थात् कोई भी मद नहीं कर सकता।।१७३।।
आगे आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि स्त्री-पुत्र आदिक यद्यपि विनाशीक हैं, तो भी मोह से मालूम होते विपरीत ही हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
प्रातर्दर्भदलाग्रकोटिघटितावश्यायविन्दूत्करप्राया: प्राणधनांगजप्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम्।
अक्षाणां सुखमेतदुग्रविषवद्धर्मं विहाय स्फुटं सर्वं भङ्गुरमत्रदु:खदमहो मोह: करोत्यन्यथा।।१७४।।
अर्थ —संसार में प्राणियों के प्राण हाथी, स्त्री,मित्र,पुत्र आदिक प्रात: काल में दर्भ के पत्ते के अग्रभाग पर लगे हुवे ओस के बूंद के समान चंचल हैं और इंद्रियों से उत्पन्न हुवे सुख भयंकर जहर के समान हैं तथा एक धर्म तो अविनाशीक तथा सुख का देने वाला है किन्तु धर्म से भिन्न समस्त वस्तु क्षणभर में विनाशीक हैं तथा दु:ख देने वाली हैं परन्तु मोह अन्यथा ही करता है अर्थात् जो वस्तु नित्य तथा सुख की देने वाली हैं वे म्ाोह के उदय से अनित्य तथा दु:ख के देने वाली मालूम पड़ती हैं और जो वस्तु अनित्य तथा दु:ख के देने वाली हैं, वे मोह के कारण नित्य तथा सुख की देने वाली जान पड़ती हैं।।१७४।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जब तक काल सम्मुख नहीं आता, तब तक समस्त पुरुषार्थ चलता है,
इसलिये काल रोकने का उपाय करना चाहिये।
तावद्वल्गति वैरिणां प्रति चमूस्तावत्परं पौरुषं तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ दृढतरौ तावच्च कोपोद्गम:।
भूपस्यापि यमो न यावददय: क्षुत्पीडित: सम्मुखं धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्रोधको मृग्यते।।१७५।।
अर्थ —जब तक क्षुधाकर पीड़ित यह निर्दयीकाल राजा के भी सामने नहीं पड़ता, तब तक उस राजा की सेना भी जहाँ-तहाँ उछलती फिरती है तथा उत्कृष्ट पौरुष भी मालूम पड़ता है तथा तब तक तलवार खूब शत्रुओं के नाश करने के लिये पैनी बनी रहती है तथा भुजा भी बलवान रहती है और कोप का भी उदय रहता है परन्तु जिस समय वह कालबली सामने पड़ जाता है, तब ऊपर लिखी हुई बातों में से एक भी बात नहीं होती ऐसा भलीभांति विचार कर विद्वान् पुरुष उस काल के रोकने वाले को ढूंँढते हैं।
भावार्थ—इस कालबली को रोकने वाला मात्र एक जिनेन्द्र का धर्म ही है क्योंकि धर्मात्माओं का काल कुछ नहीं कर सकता इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे धर्म की आराधना करेंं ।।१७५।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं—
-मालिनी-
रतिजलरममाणो मृत्युवैâवर्तहस्तप्रसृतघनजरोरुप्रोल्लसज्जालमध्ये।
विकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं भवसरसि वराको लोकमीनौघ एष:।।१७६।।
अर्थ — जिस प्रकार मल्लाकर बिछाये हुवे जाल में रहकर भी मछलियों का समूह जल में क्रीड़ा करता रहता है किंतु मारे जायेंगे, इस प्रकार आई हुई आपत्ति पर कुछ भी ध्यान नहीं देता, उस ही प्रकार यह लोकरूपी मीनों का समूह मृत्युरूपी मल्लाकर बिछाये हुवे प्रबल जरारूपी जाल में रहकर इंद्रियों के विषय में प्रीतिरूपी जो जल, उसमें निरन्तर क्रीड़ा ही करता रहता है किन्तु आने वाली नरकादि आपत्तियों पर कुछ भी विचार नहीं करता।।१७६।।
धर्म से ही मृत्यु जीती जाती है, इस बात को दिखाते हैं—
क्षुद्भुक्तेस्तृडपीह शीतलजलाद् भूतादिका मन्त्रत: सामादेरहितो गदाद्गदगण: शांतिं नृभिर्नीयते।
नो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि मृते मित्रेऽपि पुत्रेऽपि वा शोको न क्रियते बुधै: परमहो धर्मस्ततस्तज्जय:।।१७७।।
अर्थ — मनुष्य क्षुधा को भोजन से, प्यास को शीतल जल के पीने से तथा भूतादिकों को मंत्र से तथा वैरी को साम-दाम-दण्डादिक से और रोग को औषधि आदि से शान्त कर लेते हैं परन्तु मृत्यु को देवादिक भी शान्त नहीं कर सकते इसलिये विद्वान् पुरुष मित्र तथा पुत्र के मर जाने पर भी शोक नहीं करते किन्तु वे उत्तम धर्म का ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि उत्तम धर्म से ही मृत्यु का जय होता है।
भावार्थ — इस संसार में समस्त रोगादि की शान्ति के उपाय मौजूद हैं परन्तु मृत्यु की शान्ति का सिवाय धर्म के दूसरा कोई उपाय नहीं, इसलिये विद्वानों को यदि मृत्यु से बचना है तो उनको अवश्य ही धर्म की आराधना करनी चाहिये।।१७७।।
आचार्य धर्म की ही महिमा का वर्णन करते हैं—
-मंदाक्रांता-
त्यक्त्वा दूरं विधुरपयसो दुर्गतिक्लिष्टकृच्छ्रातृ लब्धानंदं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते।
इत्येतस्या नृपपदसरस्यक्षयं धर्मपक्षा यान्त्येतस्मादपि शिवपदं मानसं भव्यहंसा:।।१७८।।
अर्थ —जिस प्रकार हंस नामक पक्षी खराब जल के भरे हुवे तालाब को छोड़कर निर्मल जल के भरे हुवे सरोवर में अपने पंखों के बल से चला जाता है तथा वहाँ पर चिरकाल तक आनंद से क्रीड़ा करता है तथा अपने पंखों के ही बल से उस सरोवर को छोड़कर दूसरे सरोवर को चला जाता है इस ही प्रकार क्रमश: नाना उत्तम सरोवरों के आनंद को भोगता—भोगता वही हंस मानस सरोवर को प्राप्त हो जाता है तथा वह वहाँ पर चिरकाल तक नाना प्रकार के आनन्दों का भोग करता है, उस ही प्रकार ये भव्यरूपी हंस भी धर्मरूपी पंख के बल से दु:खरूपी जल से भरे हुए दुर्गतिरूप तालाब को छोड़कर देवलोकसंबंधी जो लक्ष्मीरूपी सरोवरी उसमें, आनंद के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते हैं तथा उसको भी छोड़कर धर्म के बल से ही वे नाना प्रकार के चक्रवर्ती आदि राजाओं के पदरूपी सरोवर में क्रीड़ा करते हैं ‘‘अर्थात् चक्रवर्ती आदि पद का भोग करते है’’ पीछे उससे विमुख होकर धर्म के बल से वे भव्यरूपी हंस मोक्षपदरूपी मानस सरोवर को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे ऐसे माहात्म्य सहित धर्म का सदा आराधन करें।।१७८।।
और भी धर्म के माहात्म्य को दिखाते हैं—
-शार्दूलविक्रीडित-
जायन्ते जिनचक्रवर्तिबलभृद् भोगीन्द्रकृष्णादयो धर्मादेव दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशश्चन्दना:।
तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दु:खं सहन्ते ध्रुवं पापेनेति विजानता किमिति नो धर्म: सता सेव्यते।।१७९।।
अर्थ —जो मनुष्य धर्मात्मा हैं, वे मनुष्य धर्म के बल से ही तीर्थंकर-चक्रवर्ती-बलभद्र-धरणेन्द्र-नारायण-प्रतिनारायण आदि पद के धारी हो जाते हैं तथा उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक पैâल जाती है और जो धर्म से रहित हैं, वे तो निश्चयकर नरकादि योनियों में नाना प्रकार के दु:खों को ही सहते हैं, ऐसा जानते हुवे भी आचार्य कहते हैं कि विद्वान् मनुष्य धर्म की क्यों नहीं आराधना करते ? अर्थात् उनको अवश्य धर्म की आराधना करनी चाहिये।।१७९।।
धर्म की ही महिमा और दिखाते हैं—
स स्वर्ग: सुखरामणीयकपदं ते ते प्रदेशा: परा: सारा सा च विमानराजिरतुलप्रेंखत्पताकापटा:।
ते देवाश्चपदातय: परिलसत्तन्नंदनं तास्त्रिय: शक्रत्वं पदनिंद्यमेतदखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम्।।१८०।।
अर्थ — सुख तथा सुंदरता का अद्वितीय स्थान तो वह स्वर्ग तथा वे महामनोहर स्वर्गों के प्रदेश तथा जिनके ऊपर अनुपम पताका उड़ रही है, ऐसे वे विमानों की पंक्ति और प्यादेस्वरूप वे देवता तथा वह मनोहर नन्दनवन और वे मनोहर देवांगना तथा वह अत्यन्त निर्मल इंद्रपना इत्यादि समस्त विभूति धर्म के ही माहात्म्य से मिलती है इसलिये ऐसे पवित्र धर्म का आराधन भव्यजीवों को अवश्य करना चाहिये।१८०।।
और भी धर्म की महिमा ही का वर्णन करते हैं—
यत् षट्खण्डमही नवोरुनिधयो द्वि:सप्त रत्नानि यत्तुङ्गा यद्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत्।
यच्चाष्टादश कोटयश्च तुरगा योषित्सहस्त्राणि यत् षट्युक्ता नवतिर्यदेकविभुता तद्धाम धर्मप्रभो:।।१८१।।
अर्थ —वह तो छह खंड की पृथ्वी और वे बड़ी—बड़ी नौ निधि तथा वे समस्तसिद्धि के करने वाले चौदहरत्न और वे चौरासी लाख बड़े—बड़े हाथी तथा विमान के समान चौरासी लाख बड़े—बड़े रथ और वे अठारह करोड़ पवन के समान चंचल घोड़े तथा वे देवांगना के समान छ्यानवे हजार स्त्रियाँ तथा वह इन समस्त विभूतियों का चक्रवर्तिपना इत्यादि समस्तविभूति धर्म के प्रताप से ही मिलती है इसलिये भव्यजीवों को ऐसे धर्म की आराधना अवश्य करनी चाहिये।।१८१।।
धर्म की महिमा को ही और कहते हैं—
धर्मो रक्षति रक्षतो ननु हतो हन्ति ध्रुवं देहिनां हन्तव्यो न तत: स एव शरणं संसारिणां सर्वथा।
धर्म: प्रापयतीह तत्पदमपिध्यायन्ति यद्योगिनो धर्मात्सत्सुहृदस्ति नैव च सुखी नो पण्डिता धार्मिकात्।।१८२।।
अर्थ —धर्म की रक्षा होने पर तो धर्म प्राणियों की रक्षा करता है परन्तु नाश होने पर वह प्राणियों का भी नाश कर देता है इसलिये भव्यजीवों को कदापि धर्म का नाश नहीं करना चाहिये क्योंकि समस्त प्राणियों का सहायक धर्म ही है तथा जिस (मोक्ष) पद को योगीश्वर सदा ध्यान करते रहते हैं उस पद को भी देने वाला है इसलिये धर्म से बढ़कर कोई भी सच्चा मित्र नहीं है और धर्मात्मा पुरुष से अधिक कोई भी सुखी नहीं है।
भावार्थ—समस्त सुख तथा समस्त गुणों का कारण एक रक्षा किया हुवा धर्म ही है इसलिये जो पुरुष सुख के अभिलाषी हैं तथा गुणी बनना चाहते हैं, उनको सबसे पहले धर्म की रक्षा करनी चाहिये।।१८२।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं—
नानायोनिजलौघलङ्घितदिशि क्लेशोर्मिजालाकुले प्रोद्भूताद्भुतभूरिकर्ममकरग्रासीकृतप्राणिनि।
दुष्पर्यन्तगंभीरभीषणतरे जन्माम्बुधौ मज्जतां नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं बुध:।।१८३।।
अर्थ —अनेक प्रकार की जो नरकादि योनि, वे ही हुवा जल, उससे जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्तकर लिया है तथा नाना प्रकार के दु:खरूपी तरंगें जिसमें मौजूद हैं और उत्पन्न हुवे जो नाना प्रकार के शुभाशुभकर्म, वे ही हुवे मगर, उनके द्वारा जिसमें जीव खाये जा रहे हैं और न जिसका अंत है तथा जो गंभीर तथा भयंकर है ऐसे संसाररूपी समुद्र में डूबते हुवे जीवों को पार करने वाला एक धर्म ही है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे सदा धर्म के करने में ही प्रयत्न करें।
भावार्थ — जिस प्रकार जिस समुद्र का जल चारों दिशाओं में पैâला हुवा है और जिसमें बड़ी—बड़ी लहरें उठ रही हैं तथा भयंकर नाके जिसमें दीन प्राणियों को खा रहे हैं और जिसका अंत नहीं है तथा गंभीर और भयंकर है, ऐसे समुद्र के बीच में पड़ा हुवा मनुष्य बिना किसी जहाज आदि के नहीं तर सकता, उस ही प्रकार इस संसाररूपी समुद्र में डूबे प्राणी भी बिना धर्म के सहारे किसी प्रकार नहीं तर सकते क्योंकि यह संसाररूपी समुद्र भी नाना प्रकार की योनिरूपी जल से समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला है तथा इसमें भी नाना प्रकार के दु:खरूपी तरंगें मौजूद हैं और कर्मरूपी मगरों से सदा इसमें भी जीव खाये जाते हैं तथा इस संसाररूपी समुद्र का अंत भी नहीं है तथा गंभीर और भयंकर भी है इसलिये विद्वानों को सदा धर्म में ही यत्न करना चाहिये।।१८३।।
और भी आचार्य धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—
जन्मोच्चै: कुल एव सम्पदधिके लावण्यवारां निधिर्नीरोगं वपुरायुरादि सकलं धर्माद्ध्रुवं जायते।
सा न श्रीरथवा जगत्सु न सुखं तत्तेन शुभ्रा गुणायैरुत्कण्ठितमानसैरिव नरो नाश्रीयते धार्मिक:।।१८४।।
अर्थ —संपदाकर अधिक उत्तमकुल में जन्म तथा लावण्य और निरोग शरीर तथा आयु आदि समस्त बात निश्चय से धर्म के प्रताप से ही मिलती हैं और वह कोई लक्ष्मी नहीं है जो एकदम आकर धर्मात्मा पुरुष का आश्रय न ले तथा वह उत्तम सुुख तथा वे निर्मल गुण भी संसार के भीतर कोई नहीं हैं जो धर्मात्मा पुरुष को स्वयमेव आकर आश्रय न करें।
भावार्थ—धर्मात्मा पुरुष को उत्तम से उत्तम लक्ष्मी तथा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ सुख और समस्त निर्मल गुणों की प्राप्ति होती है इसलिये जो पुरुष इन बातों को चाहते हैं, उनको भलीभांति धर्म का आराधन करना चाहिये।।१८४।।
और भी धर्म की महिमा ही का वर्णन किया जाता है-
भृङ्गा पुष्पितकेतकीमिव मृगा वन्यामिव स्वस्थलीं नद्य: सिन्धुमिवाम्बुजाकरमिव श्वेतच्छदा: पक्षिण:।
शौर्यत्यागविवेकविक्रमयश: सम्पत्सहायादय: सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्मं बिना किञ्चन।।१८५।।
अर्थ —जिस प्रकार भौंरा स्व्ायमेव आकर फूली हुई केतकी का आश्रय कर लेता है तथा जिस प्रकार मृग वन में अपने रहने के स्थान को स्वयमेव जाकर आश्रय कर लेते हैं तथा जिस प्रकार नदी स्वयमेव समुद्र को प्राप्त हो जाती है और जिस प्रकार हंस नामक पक्षी मानसरोवर को स्वयमेव प्राप्त कर लेते हैं उस ही प्रकार वीरत्व-दान-विवेक-विक्रम-कीर्ति-सम्पत्ति-सहाय आदिक वस्तु स्वयमेव धर्मात्मा को आकर आश्रय कर लेते हैं किन्तु धर्म के बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती इसलिये जो मनुष्य वीरत्वादि वस्तुओं को चाहते हैं उनको चाहिये कि वे निरंतर धर्म करें जिससे उनको बिना परिश्रम से वे वस्तु मिल जावें।।१८४।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं—
सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीयसि प्रासादीयसि चेत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि।
यद्वानन्तसुखामृताम्बुधिपरस्थानीयसीह ध्रुवं निर्धूताखिलदु:खदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्।।१८६।।
अर्थ —जो तुम सौभाग्य की इच्छा करते हो और कामिनी की अभिलाषा करते हो तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्त करने की इच्छा करते हो और जो यदि तुम्हारे उत्तम लक्ष्मी के प्राप्त करने की इच्छा है वा उत्तम मकान पाने की इच्छा है अथवा यदि तुम सुख चाहते हो तथा उत्तम रूप के मिलने की इच्छा करते हो और समस्त जगत के प्रिय बनना चाहते हो अथवा जहाँ पर सदा अविनाशी सुख की राशि मौजूद है ऐसे उत्तम मोक्षरूपी स्थान को चाहते हो तो तुम नाना प्रकार के दु:खों को देने वाले, आपत्तियों के दूर करने वाले जिन भगवान के बताये हुवे धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो (धर्म का ही आराधन करो)।
भावार्थ — सर्व संपदा तथा सुख का देने वाला तथा समस्त आपदा तथा दु:खों को दूर करने वाला एक सच्चा धर्म ही है इसलिये भव्यजीवों को दृढ़ता से इसी को धारण करना चाहिये।।१८६।।
और भी आचार्य धर्म की महिमा को दिखाते हैं—
संछन्नं कमलैर्मरावपि सर: सौधं वनेप्युन्नतं कामिन्यो गिरिमस्तकेऽपि सरसा: साराणि रत्नानि च।
जायन्तेऽपिचलेपकाष्टघटिता: सिद्धिप्रदा देवता: धर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां किंकिं न सम्पद्यते।।१८७।।
अर्थ —यद्यपि मरुदेश निर्जल कहा जाता है परन्तु धर्म के प्रभाव से मारवाड़ में भी मनोहर कमलों कर सहित तालाब हो जाते हैं और वन में मकानादि कुछ भी नहीं होते परन्तु धर्म के प्रताप से वहाँ पर भी विशाल घर बन जाते हैं उस ही प्रकार यद्यपि निर्जन पहाड़ में किसी भी मनोज्ञवस्तु की प्राति नहीं होती तो भी धर्मात्मा पुरुषों को धर्म की कृपा से वहाँ पर भी मन को हरण करने वाली स्त्रियों की तथा उत्तम-उत्तम रत्नों की प्राप्ति हो जाती है और यद्यपि चित्राम के साथ काठ के बनाये हुए देवता कुछ भी नहीं दे सकते, तो भी धर्म के माहात्म्य से वे भी वांछित पदार्थों को देने वाले हो जाते हैं विशेष कहाँ तक कहा जाये ? यदि संसार में धर्म हो तो जीवों को कठिन से कठिन वस्तु की प्राप्ति भी बात की बात में हो जाती है, इसलिए भव्य जीवों को सदा धर्म का ही आराधन करना चाहिए।।१८७।।
और भी आचार्य पुण्य की महिमा को दिखाते हैं-
-वसंततिलका-
दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात्पुण्याद्बिना करतलस्थमपि प्रयाति।
अन्यत् परं प्रभवतीह निमित्तमात्रं पात्रं बुधा: भवत निर्मलपुण्यराशे:।।१८८।।
अर्थ —पुण्य के उदय से दूर रही हुई भी वस्तु अपने आप आकर प्राप्त हो जाती है किंतु जब पुण्य का उदय नहीं रहता, तब हाथ में रक्खी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है यदि पुण्य-पाप से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ सुख-दु:ख का देने वाला है तो एक निमित्तमात्र है अर्थात् पुण्य—पाप ही सुख—दु:ख का देने वाला है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि भव्यजीवों को चाहिये कि वे निर्मल पुण्य के पात्र बनें।
भावार्थ — संसार में यह बात बहुधा सुनने में आती है कि वह मनुष्य तथा वह देव मुझे सुख का देने वाला है तथा मेरा भला करने वाला है और वह मनुष्य मुझे दु:ख का देने वाला है तथा मेरा बुरा करने वाला है तो आचार्य कहते हैं कि यह सब कहना व्यर्थ ही है क्योंकि सुख तथा दु:ख का देने वाला अथवा भला—बुरा करने वाला एक पुण्य तथा पाप ही है इसलिये यदि तुम सुख की इच्छा करते हो अथवा अपना भला चाहते हो तो तुमको विशेषरीति से पुण्य का आराधन करना चाहिये।।१८८।।
और भी पुण्य की महिमा का वर्णन करते हैं—
-शार्दूलविक्रीडित-
कोप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान् निष्प्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्यापुष्यते मन्मथ :।
उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिङ्ग्यते च श्रिया पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत यद्दुर्घटम्।।१८९।।
अर्थ —पुण्य के उदय से अंधा भी सुलोचन कहलाता है तथा पुण्य के ही उदय से रोगी भी रूपवान कहलाता है और निर्बल भी पुण्य के उदय से सिंह के समान पराक्रमी कहा जाता है तथा पुण्य के ही उदय से बदसूरत भी कामदेव के समान सुन्दर कहा जाता है तथा पुण्य के ही उदय से आलसी को भी लक्ष्मी अपने आप आकर वर लेती है, विशेष कहाँ तक कहा जाय! जो उत्तम से उत्तम वस्तु संसार में दुर्लभ कही जाती हैं, वे भी पुण्य के ही उदय से सब सुलभ हो जाती हैं अर्थात् वे बिना परिश्रम के ही प्राप्त हो जाती हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा पुण्य का ही आराधन करना चाहिये।।१८९।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो मनुष्य पुण्यरहित हैं, उनको पाप के उदय से क्या—क्या दु:ख भोगने पड़ते हैं —
वंधस्कन्धसमाश्रितं सृणिभ्िादामारोहकाणामरपृष्टे भारसमर्पणं कृतवतां संचालनं ताडनम्।
दुर्वाचं वदतामपि प्रतिदिनं सर्वं सहन्ते गजा निर्धाम्नां वलिनोऽपि यत्तदखिलं दुष्टो विधिश्चेष्टते।।१९०।।
अर्थ —यद्यपि महावत की अपेक्षा हाथी बलवान होते हैं तो भी महावत उनको बांधते हैं तथा उनके ऊपर चढ़ते हैं और उनमें अंकुश भी मारते हैं तथा उनकी पीठ पर बोझा भी लादते हैं और उनको अपनी इच्छानुसार चलाते हैं तथा और भी ताड़ना करते हैं और प्रतिदिन उनको गाली भी देते है और उन हाथियों को ये सब बातें सहन भी करनी पड़ती हैं इस ही प्रकार उत्तम पुरुषों पर नीच पुरुष भी अपना प्रभाव डालते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि ये समस्त चेष्टायें दुष्ट कर्म की हैं अर्थात् पाप के द्वारा ही ये सब बातें होती हैं इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे सदा पुण्य का ही उपार्जन करें तथा पाप का नाश करें।।१९०।।
आचार्य और भी धर्म का महिमा का वर्णन करते हैं—
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपु:।
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनस: किंंं वा बहु ब्रूमहे धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नै: परैर्वर्षति।।१९१।।
अर्थ —जो मनुष्य धर्मात्मा हैं, उनके धर्म के प्रभाव से भयंकर सर्प भी मनोहर हार बन जाते हैं तथा पैनी तलवार भी उत्तम फूलों की माला बन जाती है और धर्म के प्रभाव से ही प्राणघातक विष भी उत्तम रसायन बन जाता है तथा धर्म के ही माहात्म्य से वैरी भी प्रीति करने लग जाता है और प्रसन्नचित्त होकर देव धर्मात्मा पुरुष के आधीन हो जाते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि विशेष कहाँ तक कहा जाय ? जिस मनुष्य के हृदय में धर्म है अर्थात् जो मनुष्य धर्मात्मा है उनके धर्म के प्रभाव से आकाश से भी उत्तम रत्नों की वर्षा होती है इसलिये भव्यजीवों को धर्म से कदापि विमुख नहीं होना चाहिये।।१९१।।
धर्म की महिमा का और भी वर्णन किया जाता है—
उग्रग्रीष्मरविप्रतापदहनज्वालाभितप्तश्चलन् य: पित्तप्रकृतिर्मरौ मृदुतर: पान्थो यथा पीडित:।
तद्राग्लब्धहिमाद्रिकुञ्जरचितप्रोद्दामयन्त्रोल्लसद्धारावेश्मसमो हि संसृतिपथे धर्म्मो भवेद्देहिनाम्।।१९२।।
अर्थ —जो वटोही ग्रीष्मकाल में भयंकर सूर्य की संतापरूपी अग्नि की ज्वालाओं से अत्यंत तप्तायमान है और पित्त प्रकृतिवाला है तथा कोमल शरीर का धारी है और मारवाड़ की भूमि में गमन करने वाला है अतएव जो अत्यन्त दु:खित है यदि वह दैवयोग से हिमालय पर्वत की गुफा में बने हुवे फुव्वारों सहित मनोहर धारागृह (फव्वारों सहित घर) को पा लेवे तो वह परमसुखी होता है उस ही प्रकार जो जीव अनादिकाल से इस संसार में जन्म-मरण आदि दु:खों को सहता है तथा निरंतर नरकादि योनियों में भ्रमता है यदि वह भी धारागृह के समान इस धर्म को संसार में पा लेवे तो सुखी हो जाता है अर्थात् शान्ति का अनुभव करने लग जाता है इसलिये जो मनुष्य शान्ति को चाहने वाले हैं, उनको अवश्य धर्म का ही आराधन करना चाहिये।।१९२।।
आचार्य और भी धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—
संहारोग्रसमीरसंहतिहतप्रोद्भूतनीरोल्लसत्तुङ्गोर्मिभ्रमितोरुनक्रमकरग्राहादिभिर्भीषणे।
अम्भोधौ विवुधोग्रवाडवशिखिज्वालाकराले पतञ्जन्तो:खेऽपिविमानमाशु कुरुते धर्म: समालम्बनम्।।१९३।।
अर्थ—जो समुद्र प्रलयकाल में उठा हुवा जो भयंकर पवन का समूह, उससे उछलता हुवा जो जल, उसकी जो ऊँची—ऊँची तरङ्गें, उनमें भ्रमण करते हुवे जो नाके मगरमच्छ आदि जलजीव, उनसे भयंकर हो रहा है तथा जो तीक्ष्ण बड़वानल की ज्वाला से भी भयंकर है, ऐसे समुद्र में गिरते हुवे प्राणी को धर्म नहीं गिरने देता है तथा आकाश में भी विमान रचकर शीघ्र ही अवलंबन देता है।
भावार्थ—मनुष्य पर वैâसी भी विपत्ति क्यों न आई होवे, यदि वह धर्मात्मा है, तो उसकी धर्म के प्रभाव से सब विपत्ति पल भर में दूर हो जाती है इसलिये जो मनुष्य दु:खों से छूटना चाहते हैं, उनको सदा धर्म का आराधन करना चाहिये।।१९३।।
और भी धर्म की महिमा को कहते हैं—
-स्त्रग्धरा-
उह्यन्ते ते शिरोभि: सुरपतिभिरपि स्तूयमाना: सुरौघैर्गीयन्ते किन्नरीभिर्ललितपदलसद्गीतिभिर्भक्तिरागात्।
वंभ्रम्यन्ते च तेषां दिशिदिशिविशदा: कीर्तय: कानवास्याल्लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजा ये सदा धर्ममेकम्।।१९४।।
अर्थ —जो मनुष्य सदा एक धर्म को ही धारण करते हैं अर्थात् जो धर्मात्मा हैं, उनको इन्द्र भी मस्तक पर धारण करते हैं तथा बड़े—बड़े देव उनकी स्तुति करते हैं और उन धर्मात्मा पुरुषों के गुण बड़ी शांति से किन्नरीजाति की देवी गाती है, तथा उन धर्मात्मापुरुषों की कीर्ति समस्त दिशाओं में पैâल जाती है और उन धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम से उत्तम लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवों को ऐसा महिमायुक्त धर्म अवश्य धारण करने योग्य है।।१९४।।
आचार्य और भी धर्म की महिमा दिखाते हैं—
-शार्दूलविक्रीडित-
धर्म: श्रीवशमन्त्र एष परमो धर्मश्चकल्पद्रुमो धर्म: कामगवीप्सितप्रदमणिर्धर्म: परं दैवतम्।
धर्म: सौख्यपरं परामृतनदीसम्भूतिसत्पर्वतो धर्मो भ्रातरुपास्यतां किमपरै: क्षुद्रैरसत्कल्पनै:।।१९५।।
अर्थ —समस्त प्रकार की लक्ष्मी को देने वाला होने के कारण यह धर्म लक्ष्मी के वश करने को मंत्र के समान है तथा यह धर्म वांछित चीजों का देने वाला कल्पवृक्ष है और धर्म ही कामधेनु है तथा धर्म ही समस्त चिन्ताओं को पूर्ण करने वाला चिंतामणि रत्न है और धर्म ही उत्कृष्ट देवता है और धर्म ही उत्कृष्ट सुखों की राशिरूपी जो अमृत नदी, उसके उत्पन्न कराने में पर्वत के समान है अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पहाड़ों से नदियाँ उत्पन्न होती हैं, उस ही प्रकार धर्म से भी सुखों की परंपरारूप नदी की उत्पत्ति होती है (सुख मिलता है) इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे भाइयों! व्यर्थ नीच कल्पनाएँ करके क्या ? केवल धर्म ही का सेवन करो जिससे तुम्हारे सर्वकार्य सिद्ध हो जावें।।१९५।।
और भी आचार्य धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—
आस्तामस्यविधानत: पथि गतिर्धर्मस्य वार्तापि यै: श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न का: सम्पद:।
दूरे सज्जलपानमज्जनसुखं शीतै: सरोमारुतै: प्राप्तं पद्मरज: सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत्।।१९६।।
अर्थ —धर्म के मार्ग में विधिपूर्वक गमन करना तो दूर रहो किंतु जो धर्म की बातों के प्रेमी मनुष्य केवल उसको सुनकर धारण कर लेते हैं उनके भी तीन लोक में समस्त संपदाओं की प्राप्ति होती है जिस प्रकार शीतल जल के पीने का सुख तथा स्नान करने का सुख तो दूर ही रहो अर्थात् उससे तो शांति होती ही है किंतु जो तालाब की वायु कमलों की रजकर सुगन्धित हो रही है तथा शीतल है, उससे उत्पन्न हुवा जो सुख, वह भी थके हुवे मनुष्य को शान्त कर देता है इसलिये भव्यजीवों को सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये।।१९६।।
अब आचार्य अंत मंगल में अपने गुरू का स्मरण करते हैं—
-वसंततिलका-
यत्पादपज्र्जरजोभिरपि प्रणामाल्लग्नै: शिरस्यमलबोधकलावतार:।
भव्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं स श्री गुरुर्दिशतु मे मुनि ‘‘वीरनन्दी‘‘।।१९७।।
अर्थ —जिन वीरनंदी गुरु के प्रणामपूर्वक मस्तक में लगाये हुवे चरण-कमलों के रजों से ही भव्यजीवों को बात की बात में निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है, वे श्री वीरनन्दी मुनि मेरे गुरू मुझे मोक्ष देवो।
भावार्थ — उत्तम गुरु ही मोक्ष दे सकते हैं इसीलिये ग्रंथकार ने वीरनन्दी मुनि से ही मोक्ष की याचना की है।।१९७।।
अधिकार को समाप्त करते हुवे आचार्य और भी उपदेश देते हैं—
दत्तानन्दमपारसंसृतिपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत् प्रायो दुर्लभमत्रकर्णपुटवैâर्भव्यात्मभि: पीयताम्।
निर्यातं मुनिपद्मनन्दिवदनप्रालेयरश्मे: परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम्।।१९८।।
अर्थ —जो धर्मोपदेशरूपी अमृत पीने पर उत्तम आनंद का देने वाला है और जो संसाररूपी जो अपार मार्ग, उसमें थके हुवे जो प्राणी, उनकी थकावट को दूर करने वाला है तथा जो पुण्यहीन पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ है और जो पद्मनन्दि मुनि के मुखचन्द्रमा से निकला हुवा है ‘‘ अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत निकलता है, उस ही प्रकार पद्मनन्दी मुनि के मुखचन्द्र से भी धर्मोपदेशरूपी अमृत निकला है’’ यद्यपि वह धर्मोपदेशामृत शब्दों से थोड़ा वर्णन किया गया है तो भी सार से अधिक है, ऐसा वह धर्मोपदेशामृत भव्यों को अवश्य पीना चाहिये।।१९८।।
इस प्रकार पद्मनन्दी आचार्यकृत पद्मनन्दिपंचविंशतिका
नामकग्रन्थ में धर्मोपदेशामृत नामक
प्रथम अधिकार समाप्त हुवा।