-वसंततिलका-
जीयाज्जिनो जगति नाभिनरेन्द्रसूनु: श्रेयो नृपश्च कुरुगोत्रगृहप्रदीप:।
याभ्यां बभूवतुरिह व्रतदानतीर्थे सारक्रमे परमधर्मरथस्य चक्रे।।१।।
अर्थ — श्री नाभिराजा के पुत्र श्री वृषभ भगवान् सदा इस लोक में जयवंत रहें तथा कुरु गोत्ररूपी घर के प्रकाश करने वाले श्री श्रेयान् राजा भी इस लोक में सदा जयवंत रहें, जिन दोनों महात्माओं की कृपा से उत्कृष्ट धर्मरूपी रथ के चक्रस्वरूप ‘‘अर्थात् परमधर्मरूपी रथ के चलाने वाले’’ तथा सार क्रमकर सहित व्रततीर्थ तथा दानतीर्थ की उत्पत्ति हुई है।
भावार्थ — चतुर्थ काल के आदि में सबसे पहले व्रततीर्थ की प्रवृत्ति श्रीऋषभदेव ने की थी इसलिये व्रततीर्थ के प्रकट करने में सबसे मुख्य श्री ऋषभ भगवान हैं तथा सबसे पहले चतुर्थकाल में दान की प्रवृत्ति करने वाले श्री श्रेयान् नामक राजा हैं क्योंकि सबसे पहले उन्होंने ही श्री ऋषभदेव भगवान को इक्षु आहार (दान) दिया था इसलिये दान के अधिकार में इन दोनों महात्माओं के नाम का स्मरण किया गया है।।१।।
श्रेयोऽभिधस्य नृपते: शरदभ्रशुभ्रभ्राम्यद्यशोभृतजगत्त्रितयस्य तस्य।
किंवर्णयामि ननु सद्मनि यस्य भुक्तं त्रैलोक्यवंदितपदेन जिनेश्वरेण।।२।।
अर्थ —शरदकाल के मेघ के समान जो उज्जवल भ्रमण करता हुआ यश, उससे जिसने तीनों जगत को पूर्ण कर दिया है अर्थात् जिनका उज्जवल यश तीनों लोक में पैâला हुआ है, ऐसे श्रीश्रेयांस नामक राजाकी (ग्रन्थकार कहते हैं कि) हम क्या प्रशंसा करें, जिन श्रेयान् राजा के घर में तीन लोक के पूजनीक श्रीऋषभदेव भगवान ने आहार लिया था।।२।।
आचार्य और भी श्रेयांस राजा की प्रशंसा करते हैं—
श्रेयान् नृपो जयति यस्य गृहे तदा खादेकाद्यवन्द्यमुनिपुंगवपारणायाम्।
सा रत्नवृष्टिरभवज्जगदेकचित्रहेतुर्यया वसुमतित्वमिता धरित्री।।३।।
अर्थ —वह श्रेयांस नामक राजा सदा जयवंत रहे, जिस श्रेयांस राजा के घर में तीन लोक के वंदनीक श्री ऋषभदेव की पारणा के समय वह तीन लोक के आश्चर्य करने वाली रत्नों की वर्षा होती हुई कि जिस वर्षा से यह पृथ्वी साक्षात् वसुमती नाम को धारण करती हुई।
भावार्थ — वसु का अर्थ द्रव्य होता है तथा जो वसु को धारण करने वाली होवे, उसको वसुमती कहते हैं सो पहले तो इस पृथ्वी का नाम नाममात्र वसुमती था परन्तु श्रेयांस राजा के घर में श्रीऋषभदेव की पारणा के समय से साक्षात् इसका नाम वसुमती हुआ है, ऐसे अनुपम पुण्यसहित श्री श्रेयांस राजा सदा जयवंत रहें।।३।।
अब आचार्य दान के उपदेश की इच्छा करते हुए कहते हैं—
प्राप्तेऽपि दुर्लभतरेऽपि मनुष्यभावे स्वप्नेन्द्रजालसदृशेऽपि हि जीवितादौ।
ये लोभकूपकुहरे पतिता: प्रवक्ष्ये कारुण्यत: खलु तदुद्धरणाय किञ्चित्।।४।।
अर्थ —अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर तथा स्वप्न के समान और इन्द्रजाल के समान जीवन-यौवन आदि के होने पर भी जो मनुष्य लोभरूपी कूवे में गिरे हुवे हैं, उनके उद्धार के लिये आचार्य कहते हैं कि मैं दयाभाव से कुछ कहूँगा ।।४।।
अब आचार्य दान का उपदेश देते हैं—
-वसंततिलका-
कान्तात्मजद्रविणमुख्यपदार्थसार्थप्रोत्थातिघोरघनमोहमहासमुद्रे।
पोतायते गृहिणि सर्वगुणाधिकत्वाद्दानं परं परमसात्विक भावयुक्तम् ।।५।।
अर्थ —स्त्री-पुत्र-धन आदिक जो मुख्य पदार्थों का समूह उससे उठा हुवा जो अत्यंत घोर तथा प्रचुर मोह, उसके विशाल समुद्रस्वरूप इस गृहस्थाश्रम से पार होने के लिये परम सात्विक भाव से दिया हुवा तथा सर्वगुणों में अधिक ऐसा उत्कृष्ट दान ही जहाजस्वरूप है।
भावार्थ — गृहस्थावस्था में धन-कुटुम्बादिक से अधिक मोह रहता है इसलिये गृहस्थपना केवल संसार में डुबाने वाला है परन्तु उस गृहस्थपने में दान दिया जावे, तो वह दिया हुआ दान मनुष्यों को संसाररूपी समुद्र में नहीं डूबने देता है इसलिये भव्यजीवों को सर्वगुणों में उत्कृष्ट दान देकर गृहस्थाश्रम को अवश्य सफल करना चाहिये।।५।।
और भी आचार्य दान की महिमा को दिखाते हैं—
नानाजनाश्रितपरिग्रहसम्भृताया: सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्थताया:।
हेतु: पर: शुभगतेर्विषमे भवेऽस्मिन्नाव: समुद्र इव कर्मठकर्णधार:।।६।।
अर्थ —जिसका खेवटिया चतुर है, ऐसी अथाह समुद्र में पड़ी हुई भी नाव जिस प्रकार मनुष्य को तत्काल में पार कर देती है, उस ही प्रकार इस भयंकर संसार में स्त्री-पुत्र आदि नानाजनों के आधीन जो परिग्रह, उस करके सहित इस गृहस्थपने में रहे हुवे मनुष्य के लिये श्रेष्ठपात्र में दी हुई दान विधि ही शुभगति को देने वाली होती है इसलिये भव्यजीवों को गृहस्थाश्रम में रहकर अवश्य दान देना चाहिये।।६।।
पाया हुवा धन दान करने से ही सफल होता है, ऐसा आचार्य उपदेश देते हैं-
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम्।
वित्तस्य तस्य सुगति: खलु दानमेकमन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्त:।।७।।
अर्थ —नानाप्रकार के दु:खों से जो धन पैदा किया गया है तथा जो पुत्रों से तथा अपने जीवन से भी मनुष्यों को प्यारा है, उस धन की यदि अच्छी गति है तो केवल दान ही है अर्थात् वह धन दान से ही सफल होता है किन्तु दान के अतिरिक्त दिया हुवा वह धन विपत्ति का ही कारण है, ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं इसलिये भव्यजीवों को अपना कमाया हुवा धन दान में ही खर्च करना चाहिये।।७।।
-वसंततिलका-
भुक्त्यादिभि: प्रतिदिनं गृहिणो न सम्यङ्नष्टा रमापि पुनरेति कदाचिदत्र।
सत्पात्रदानविधिना तु गताप्युदेति क्षेत्रस्य बीजमिव कोटिगुणं वटस्य।।८।।
अर्थ — गृहस्थ के जिस लक्ष्मी का भोगादि से नाश होता है, वह लक्ष्मी कदापि लौटकर नहीं आती परंतु जो लक्ष्मी मुनि आदिक उत्तमपात्रों के दान देने में खर्च होती है, वह लक्ष्मी भूमि में स्थित वटवृक्ष के बीज के समान कोटि गुणी होती है अर्थात् जो मनुष्य लक्ष्मी पाकर निरभिमान होकर दान देते हैं, वे इन्द्रादि संपदाओं का भोग करते हैं इसलिये यदि मनुष्य को लक्ष्मी की वृद्धि की आकांक्षा है तो उसको अवश्य मुनि आदि पात्रों को दान देना चाहिये।।।८।।
अब आचार्य गृहस्थ की महिमा का वर्णन करते हैं—
यो दत्तवानिह मुमुक्षुजनाय भुक्तिं भक्त्याश्रित: शिवपथेन धृत: स एव ।
आत्मापि तेन विदधत्सुरसद्म नूनमुच्चै: पदं व्रजति तत्सहितोऽपि शिल्पी।।९।।
अर्थ — जिस प्रकार कारीगर जैसा—जैसा ऊँचा मकान बनाता जाता है, उतना —उतना आप भी ऊँचा होता चला जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य को भक्तिपूर्वक आहारदान देता हैै, वह उस मुनि को ही मुक्ति को नहीं पहुँचाता किंतु स्वयं भी जाता है इसलिये ऐसा स्वपरहितकारी दान मनुष्यों को अवश्य देना चाहिये।।९।।
और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं।
य: शाकपिण्डमपि भक्तिरसानुविद्धबुद्धि: प्रयच्छति जनो मुनिपुंगवाय।
स: स्यादनन्तफलभागथ बीजमुप्तं क्षेत्रे न किं भवति भूरिकृषीवलस्य।।१०।।
अर्थ — उस ही प्रकार जो श्रावक भक्तिपूर्वक मुनि को शाकपिण्ड का भी आहार देता है, वह अनन्त सुखों का भोक्ता होता है जिस प्रकार किसान थोड़ा बीज बोता है, उसके बीज की अपेक्षा धान्य अधिक पैदा होता है इसलिये थोड़े से बहुत की इच्छा करने वाले श्रावकों को खूब दान देना चाहिये।।१०।।
और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं-
साक्षान्मनोवचनकायविशुद्धिशुद्ध: पात्राय यच्छति जनो ननु भुक्तिमात्रम्।
यस्तस्य संसृतिसमुत्तरैणकबीजे पुण्ये हरिर्भवति सोऽपि कृताभिलाष:।।११।।
अर्थ —जो मनुष्य भलीभांति मन-वचन-काय को शुद्धकर उत्तमपात्र के लिये आहारदान देता है, उस मनुष्य के संसार से पार करने में कारणभूत पुण्य की नाना प्रकार की संपत्ति का भोग करने वाला इन्द्र भी अभिलाषा करता है इसलिये गृहस्थाश्रम में सिवाय दान के दूसरा कोई कल्याण करने वाला नहीं अत: श्रावकों को दान की ओर अवश्य लक्ष्य देना चाहिये।।११।।
आचार्य दाता की महिमा का वर्णन करते हैं—
मोक्षस्य कारणमभीष्टुतमत्र लोके तद्धार्यते मुनिभिरङ्गवलात्तदन्नात्।
तद्दीयते च गृहिणा गुरुभक्तिभाजा तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्तिमार्ग:।।१२।।
अर्थ —इस संसार में मोक्ष का कारण रत्नत्रय है तथा उस रत्नत्रय को शरीर में शक्ति होने पर मुनिगण पालते हैं और मुनियों के शरीर में शक्ति अन्न से होती है तथा मुनियों के लिये उस अन्न को श्रावक भक्तिपूर्वक देते हैं इसलिये वास्तविक रीति से गृहस्थ ने ही मोक्षमार्ग को धारण किया है, ऐसा समझना चाहिये।।१२।।
गृहस्थाश्रम में व्रत की अपेक्षा दान ही अधिक फल का देने वाला है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
नानागृहव्यतिकरार्जितपापपुञ्जै: खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि।
उच्चै: फलं विदधतीह यथैकदापि प्रीत्यादिशुद्धमनसाकृतपात्रदानम्।।१३।।
अर्थ —गृहसंबंधी नाना प्रकार के आरंभों से उपार्जन किये हुवे जो पाप, उनसे असमर्थ किये हुवे ऐसे व्रत गृहस्थों को कुछ भी ऊँचे फल को नहीं दे सकते, जैसा कि प्रीतिपूर्वक तथा शुद्ध मन से उत्तमादि पात्रों के लिये एक समय भी दिया हुवा दान उत्तम फल को देता है इसलिये ऊँचे फल के अभिलाषियों को सदा उत्तमादि पात्रों को दान देना चाहिये।।१३।।
आचार्य और भी दान की महिमा का वर्णन करते हैं-
मूले तनुस्तदनु धावति वर्धमाना यावच्छिवं सरिदिवानिशमासमुद्रम् ।
लक्ष्मी: सदृष्टिपुरुषस्य यतीन्द्रदानपुण्यात्पुर:सह यशोभिरतीद्धफेनै:।।१४।।
अर्थ —जिस पहाड़ से नदी निकलती है, वहाँ पर यद्यपि नदी का फांट थोड़ा होता है परन्तु समुद्रपर्यंत जिस प्रकार फेन सहित वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जाती है उस ही प्रकार यद्यपि सम्यग्दृष्टि के पहिले लक्ष्मी थोड़ी होती है परंतु मुनीश्वरों के लिये दिये हुवे दान के प्रभाव से कीर्ति के साथ मोक्षपर्यन्त वह इन्द्र-अहमिन्द्र-चक्रवर्ती-तीर्थंकरादिरूपकर दिन-दिन बढ़ती ही चली जाती है इसलिये सम्यग्दृष्टि को अवश्य दान देना चाहिये।।१४।।
और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं—
प्राय: कुतो गृहगते परमात्मबोध: शुद्धात्मनो भुवि यत: पुरुषार्थसिद्धि:।
दानात्पुनर्ननु चतुर्विधत: करस्था सा लीलयैव कृतपात्रजनानुषङ्गात्।।१५।।
अर्थ —जिस परमात्मा के ज्ञान से धर्म-अर्थ-काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थों की सिद्धि होती है‘‘ उस परमात्मा का ज्ञान सम्यग्दृष्टि को घर में रहकर कदापि नहीं हो सकता’’ परन्तु उन पुरुषार्थों की सिद्धि उत्तम आदि पात्रों को आहार, औषध, अभय, शास्त्र रूप चार प्रकार के दान के देने से पलभर में हो जाती है इसलिये धर्म-अर्थ आदि पुरुषार्थों के अभिलाषी सम्यग्दृष्टियों को उत्तम आदि पात्रों में अवश्य दान देना चाहिये।
नामापि य: स्मरति मोक्षपथस्थसाधोराशु क्षयं व्रजति तद्दुरितं समस्तम्।
यो भुक्तभेषजमठादिकृतोपकार: संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्रम्।।१६।।
अर्थ —जो मनुष्य मोक्षार्थी साधु का नाममात्र भी स्मरण करता है, उसके समस्त पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं किन्तु जो भोजन, औषधि, मठ आदि बनवाकर मुनियों का उपकार करता है, वह संसार से पार हो जाता है! इसमें आश्चर्य ही क्या है अर्थात् ऐसे उपकारी को तो मोक्ष होना ही चाहिये।।१६।।
जिन घरों में तथा जिन गृहस्थों के दान नहीं, वे दोनों ही असार हैं, इस बात को आचार्य दिखाते हैं—
किं ते गृहा: किमिह ते गृहिणो नु येषामन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति।
साक्षादथ स्मृतिवशाच्चरणोदकेन नित्यं पवित्रितधराग्रशिर: प्रदेशा:।।१७।।
अर्थ —जिन मुनियों के चरण-कमल के जल के स्पर्श से जिन घरों की भूमि पवित्र हो जाती है तथा जिन गृहस्थों के मस्तक भी पवित्र हो जाते हैं, उन उत्तम मुनियों का जिन घरों में संचार नहीं है तथा जिन गृहस्थों के मन में भीतर भी जिन मुनियों का प्रवेश नहीं है, वे घर तथा गृहस्थ दोनों ही बिना प्रयोजन के हैं, इसलिये गृहस्थों को उत्तम आदि पात्रों को अवश्य दान देना चाहिये जिससे मुनियों के आगमन से उनके घर पवित्र बने रहें तथा उनका गृहस्थपना भी कार्यकारी गिना जावे।।१७।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि दान के बिना संपदा किसी काम की नहीं—
देव: स किं भवति यत्र विकारभावो धर्म: स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्या:।
तत्किं तपो गुरुरथास्ति न यस्य बोध: सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ।।१८।।
अर्थ —वह देव वैâसा ? जिसके स्त्री आदि को देखकर विकार है तथा वह धर्म किस काम का ? जिसमें दया मुख्य नहीं गिनी गई है, जिससे आत्मा आदि का ज्ञान नहीं होता, वह तप तथा वह गुरू किस काम का ? तथा वह संपदा भी किस काम की ? जिसके होते सन्ते उत्तम आदि पात्रों को दान न दिया जावे।।१८।।
आचार्य दानव्रतादि से पैदा हुए धर्म की महिमा को दिखाते हैं—
किं ते गुणा: किमिह तत्सुखमस्तिलोके सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति।
दानव्रतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मो जगत्त्रयवशीकरणैकमन्त्र:।।१९।।
अर्थ —जिस मनुष्य के पास तीनों जगत को वश करने में मंत्रस्वरूप तथा दान-व्रत आदि से उत्पन्न हुआ धर्म मौजूद है, उस मनुष्य के उत्तमोत्तमगुण तथा उत्तमोत्तम सुख और उत्तमोत्तम ऐश्वर्य सब अपने आप आकर वश में हो जाते हैं इसलिये उत्तमोत्तमगुण के अभिलाषियों को दान-व्रत आदि को अवश्य करना चाहिये।।१९।।
सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशिरेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मी:।
आद्यात्परस्तदपि दुर्गत एव यस्मादागामिकालफलदायि न तस्य किञ्चित्।।२०।।
अर्थ —एक मनुष्य तो उत्तमपात्र दान से पैदा हुए श्रेष्ठ पुण्य का संचय करता है और दूसरा राज्यलक्ष्मी का अच्छी तरह भोग करता है परन्तु उन दोनों में दूसरा राज्यलक्ष्मी का भोग करने वाला ही पुरुष दरिद्री है क्योंकि आगमी काल में उसको किसी प्रकार की संपत्ति आदि का फल नहीं मिल सकता किन्तु पात्र दान करने वाले को तो आगमी काल में उत्तम संपदारूपी फलों की प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवों को खूब दान देकर खूब ही पुण्य का संचय करना चाहिये।।२०।।
दानाय यस्य न धनं न वपुर्व्रताय नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम् ।
तज्जन्म केवलमलं मरणाय भूरि संसारदु:खमृतिजातिनिबन्धनाय।।२१।।
अर्थ —जिस मनुष्य का धन तो दान के लिये नहीं है तथा शरीर व्रत के लिये नहीं है और उत्तम शांति के पैदा करने के लिये शास्त्र नहीं है, उस मनुष्य का जन्म संसार के जन्म—मरण आदि अनेक दु:खों के भोगने का कारण जो मरण, उसके लिये है।
भावार्थ—धन पाकर उत्तमपात्र आदि के लिये दान देना चाहिये तथा उत्तम शरीर पाकर अच्छी तरह व्रत-उपवास आदि करना चाहिये तथा शास्त्र का अभ्यास कर क्रोधादि कषायों का उपशम करना चाहिये किंतु जो मनुष्य ऐसा नहीं करता है, उसको केवल नानाप्रकार की खोटी गतियों में भ्रमण करना पड़ता है तथा जन्म-मरण आदि नाना प्रकार के दु:खों का भोग करना पड़ता है इसलिये भव्यजीवों को धन आदि का कही हुई रीति के अनुसार ही उपयोग करना चाहिये।।२१।।
धर्मात्मा पुरुष इस बात का विचार करता है—
प्राप्ते नृजन्मनि तप: परमस्तु जन्तो: संसार – सागरसमुत्तरणैकसेतु:।
मा भूद्विभूतिरिह बंधनहेतुरेव देवे गुरौ शमिनि पूजनदानहीन:।।२२।।
अर्थ —अत्यंत दुर्लभ इस मनुष्य भव के प्राप्त होने पर मनुष्य को संसार-समुद्र से पार करने के लिये पुल के समान श्रेष्ठ तप का मिलना उत्तम है परन्तु इस लोक में अर्हन्त तथा गुरू के पूजन तथा दान के उपयोग में न आने वाली तथा केवल कर्मबन्ध की ही कारण ऐसी विभूति की कोई आवश्यकता नहीं।
भावार्थ — मिली हुई विभूति का उपयोग यदि अर्हन्तदेव के पूजन में तथा गुरुओं को दान में होवे, तो वह विभूति बंध की कारण नहीं कही जाती परन्तु देव तथा गुरुओं के पूजन में यदि उस विभूति का उपयोग न होवे, तो वह केवल बंध की कारण होती है इसलिये विभूति को पाकर भव्यजीवों को उसका उपयोग देव तथा गुरुओं की पूजा और दान में ही करना चाहिये अन्यथा उसकी अपेक्षा उत्तम तप ही मिलना श्रेष्ठ है।।२२।।
-वसंततिलका-
भिक्षावरा परिहृताखिलपापकारिकार्यानुबंधविधुराश्रितचित्तवृत्ति :।
सत्पात्रदानरहिता विततोग्रदु:खदुर्लंघ्यदुर्गतिकरीनपुनर्विभूति:।।२३।।
अर्थ —जिस भिक्षा के होते संते चित्त की वृत्ति समस्त प्रकार के पाप को पैदा करने वाले कार्यों के संबंध से दु:खित नहीं होती (अर्थात् पाप के करने वाले कार्यों की ओर झाँकती भी नहीं) ऐसी भिक्षा तो उत्तम है किन्तु विस्तीर्ण नाना प्रकार के दु:खों से नहीं पार करने योग्य ऐसी दुर्गति की देने वाली तथा उत्तम आदि पात्रों के दान के उपयोग कर रहित विभूति की कोई आव्ाश्यकता नहीं।
भावार्थ — यदि मिली हुई विभूति का उपयोग उत्तमादिपात्रों के दान के लिये होवे, तो वह विभूति दुर्गति की देने वाली नहीं कही जाती किन्तु यदि विपरीत में उसका उपयोग खोटे कामों में किया जावे तो वह अवश्य दुर्गति की ही देने वाली होती है तथा सत्पात्र दान रहित तथा दुर्गति की देने वाली उस विभूति की अपेक्षा भिक्षा ही उत्तम है क्योंकि भिक्षा में मनुष्य को किसी प्रकार का आरंभ आदि नहीं करना पड़ता इसलिये चित्त को किसी प्रकार का संक्लेश भी नहीं होता।।२३।।
पूजा न चेज्जिनपते: पदपज्र्जेषु दानं न संयतजनाय च भक्तिपूर्वम् ।
नो दीयते किमु तत: सदवस्थताया: शीघ्रं जलाञ्जलिरगाधजले प्रविश्य।।२४।।
अर्थ —जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों की पूजा नहीं है तथा भक्तिभाव से संयमीजनों के लिये दान भी नहीं दिया जाता, आचार्य कहते हैं कि अत्यंत गहरे जल में प्रवेश करके उस गृहस्थाश्रम के लिये जल की अंजलि दे देनी चाहिये।
भावार्थ — बिना दान-पूजन के गृहस्थाश्रम किसी काम का नहीं इसलिये गृहस्थाश्रम में रहकर भव्यजीवों को अवश्य दान देना चाहिये।।२४।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं—
कार्यं तप: परमिह भ्रमता भवाब्धौ मानुष्यजन्मनि चिरादतिदु:खलब्धे।
सम्पद्यते न तदणुव्रतिनापि भाव्यं जायेत चेदहरह: किल पात्रदानम्।।२५।।
अर्थ —चिरकाल से इस संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करते हुवे प्राणियों को कष्ट से इस मनुष्य भव की प्राप्ति हुई है इसलिये इस मनुष्य जन्म में अवश्य तप करना चाहिये, यदि तप न हो सके तो अणुव्रत अवश्य ही धारण करना चाहिये जिससे प्रतिदिन निश्चय से उत्तम आदि पात्रों का दान हुवा करे।।२५।।
जिस प्रकार वटोही को टोसा सुख देता है, उस ही प्रकार परलोक को जाने वाले मनुष्य को दान सुख देता है।
ग्रामान्तरं व्रजति य: स्वगृहाद् गृहीत्वा पाथेयमुन्नततरं स सुखी मनुष्य:।
जन्मान्तरं प्रविशतोऽस्य तथा व्रतेन दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम्।।२६।।
अर्थ — जो मनुष्य अपने घर से अच्छी तरह पाथेय (टोसा) लेकर दूसरे गाँव को जाता है, वह मनुष्य जिस प्रकार सुखी रहता है उसी प्रकार जो मनुष्य परलोक को गमन करता है, उस मनुष्य के व्रत तथा दान से पैदा किया हुवा एक पुण्य ही सुख का कारण है इसलिये जो मनुष्य परलोक में सुख के अभिलाषी हैं, उनको व्रतों को धारणकर तथा दान देकर खूब पुण्य का संचय करना चाहिये।।२६।।
और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं—
यत्न: कृतोऽपि मदनार्थयशोनिमित्तं दैवादिह व्रजति निष्फलतां कदाचित्।
संकल्पमात्रमपि दानविधौ तु पुण्यं कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोदात् ।।२७।।
अर्थ — संसार में कामभोग के लिये तथा धन के लिये अथवा यश के लिये किया हुवा प्रयत्न यद्यपि दैवयोग से किसी समय निष्फल हो जाता है परन्तु उत्तम आदि पात्रों के नहीं होते भी हर्षपूर्वक दान देवेंगे, ऐसा दान का संकल्प ही पुण्य का करने वाला होता है इसलिये ऐसे उत्तम दान का मनुष्यों को अवश्य ध्यान रखना चाहिये।।२७।।
सद्मागते किल विपक्षजनेऽपि सन्त: कुर्वन्ति मानमतुलं वचनाशनाद्यै:।
यत्तत्र चारुगुणरत्ननिधानभूते पात्रे मुदा महति किं क्रियते न शिष्टै:।।२८।।
अर्थ —वैरी भी यदि अपने घर आवे, तो सज्जन मनुष्य मधुर-मधुर वचनों से तथा भोजन आदि से उसका बड़ा भारी सन्मान करते हैं तो जो उत्तम सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के धारी हैं तथा पूज्य हैं, ऐसे पात्र में सज्जन हर्षपूर्वक क्या नहीं करेंगे ? अर्थात् उसको अवश्य ही नवधाभक्ति से आहार देवेंगे।।२८।।
सूनोर्मृतेरपि दिनं न सतस्तथा स्याद्बाधाकरं वत यथा मुनिदानशून्यम्।
दुर्वारदुष्टविधिना न कृते ह्यकार्ये पुंसां कृते तु मनुते मतिमाननिष्टम् ।।२९।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि सज्जन पुरुष को पुत्र के मरने का दिन भी उतना दु:ख का देने वाला नहीं होता, जितना कि मुनि के दान रहित दिन दु:ख का देने वाला होता है क्योंकि विद्वान पुरुष दुर्दैव से किये हुवे कार्य को उतना अनिष्ट नहीं मानता, जितना अपने द्वारा किये हुवे कार्य को अनिष्ट मानता है इसलिये विद्वानों को अपने करने योग्य दानरूपी कार्य अवश्य करना चाहिये।।२९।।
और भी दान की दृढ़ता के लिये आचार्य कहते हैं—
ये धर्मकारणसमुल्लसिता विकल्पास्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्या:।
स्पष्टा: शशाज्र्किरणैरमृतं क्षरन्तश्चन्द्रोपला: किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम् ।।३०।।
अर्थ —जिस प्रकार किसी मकान में चन्द्रकान्तमणि लगी हुई है, जब तक उनके साथ चन्द्रमा की किरणों का स्पर्श नहीं होता, तब तक उनसे पानी नहीं झर सकता इसलिये उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं करता किंतु जिस समय चन्द्रमा के स्पर्श होने से उनसे पानी निकलता है, उस समय उनकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा होती है उसी प्रकार धनी पुरुष के चित्त में जो जिन—मंदिर बनवाना, तीर्थयात्रा करना आदि धर्म के कारण उत्पन्न होते हैं, वे बिना पात्रदान के सत्यभूत नहीं समझे जाते किन्तु पात्रदान से ही वे सच समझे जाते हैं इसलिये गृहस्थियों को पात्रदान अवश्य देना चाहिये क्योंकि यह सबों में मुख्य हैं।।३०।।
मन्दायते य इह दानविधौ धनेऽपि सत्यात्मनो वदति धार्मिकताञ्च यत्तत् ।
माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु।।३१।।
अर्थ —जो मनुष्य धन के होते भी दान देने में आलस करता है तथा अपने को धर्मात्मा कहता है, वह मनुष्य मायाचारी है अर्थात् उस मनुष्य के हृदय में कपट भरा हुवा है तथा उसका वह कपट दूसरे भव में उसके समस्त सुखों का नाश करने वाला है।
भावार्थ — जो मनुष्य धर्मात्मापने के कारण दान आदि नहीं देते हैं तथा अपने को माया से धर्मात्मा कहते हैं उन मनुष्यों को तिर्यञ्चगति में जाना पड़ता है तथा वहाँ पर उनको नाना प्रकार के भूख—प्यास संबंधी दु:ख भोगने पड़ते हैं इसलिये मनुष्य को कदापि मायाचारी नहीं करनी चाहिये।।३१।।
ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि सन्ततमणुव्रतिना यथर्द्धि:।
इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतु:।।३२।।
अर्थ —गृहस्थियों को अपने धन के अनुसार एक ग्रास अथवा आधा ग्रास वा चौथाई ग्रास अवश्य ही दान देना चाहिये क्योंकि इस संसार में उत्तम पात्रदान का कारण इच्छानुसार द्रव्य कब किसके होगा ?
भावार्थ — इच्छानुसार द्रव्य संसार में किसी को नहीं मिल सकता क्योंकि शताधिपति हजारपति होना चाहता है तथा हजारपति लक्षाधिपति, लक्षाधिपति करोड़पति इत्यादि रीति से इच्छा की कहीं भी समाप्ति नहीं होती इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि मैं हजारपति हूँगा, तभी दान दूँगा अथवा मैं लखपति हूँगा तभी दान दूँगा किन्तु जितना धन पास में होवे, उसी के अनुसार ग्रास दो ग्रास अवश्य दान देना चाहिये।।३२।।
आचार्य दान का फल दिखाते हैं—
मिथ्यादृशोऽपि रुचिरेव मुनीन्द्रदाने दद्यात्पशोरपि हि जन्म सुभोगभूमौ।
कल्पाङ्घ्रिपा ददति यत्र सदेप्सितानि सर्वाणि तत्र विदधाति न किं सुदृष्टे:।।३३।।
अर्थ —मुनि आदि उत्तम पात्रदान में मिथ्यादृष्टि पशु की केवल की हुई रुचि (अनुमोदना) ही जब उसको उत्तम भोगभूमि आदि के सुखों को देने वाली होती है, तब साक्षात् दान को देने वाले सम्यग्दृष्टि के तो वह दान क्या-क्या इष्ट दान तथा उत्तम चीजों को न देगा अर्थात् अवश्य स्वर्ग-मोक्ष आदि के सुख को देगा।
भावार्थ — दान के प्रभाव से ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो न मिल सके क्योंकि सबसे दुर्लभ मोक्ष की भी प्राप्ति जब दान से हो जाती है, तब इससे भी दु:साध्य क्या वस्तु रही इसलिये ऐसे इष्ट पदार्थों का देने वाला दान भव्यजीवों को शक्त्यनुसार अवश्य करना चाहिये।।३३।।
दानाय यस्य न समुत्सहते मनीषा तद्योग्यसम्पदि गृहाभिमुखे च पात्रे ।
प्राप्तं खनावपि महार्घ्यतरं विहाय रत्नं करोति विमतिस्तलभूमिभेदम् ।।३४।।
अर्थ —योग्य संपदा के होने पर भी तथा मुनि के घर आने पर भी जिस मनुष्य की बुद्धि दान देने में उत्साह नहीं करती अर्थात् जो दान देना नहीं चाहता, वह मूर्ख पुरुष खानि में मिले हुवे अमूल्यरत्न को छोड़कर व्यर्थ पाताल की भूमि को खोदता है।
भावार्थ — कोई मनुष्य रत्न के लिये जमीन खोदे तथा उस मिले हुवे रत्न को छोड़कर और भी गहरी यदि जमीन खोदता जावे तो जिस प्रकार उसका नीचे जमीन खोदना व्यर्थ जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य योग्य संपदा को पाकर दान नहीं देता, उस मनुष्य की भी मिली हुई संपदा किसी काम की नहीं, इसलिये भव्यजीवों को द्रव्यानुसार दान देने में कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये।।३४।।
नष्टा मणीरिव चिराज्जलधौ भवेस्मिन्नासाद्य चारुनरतार्थजिनेश्वराज्ञा:।
दानं न यस्य स जड: प्रविशेत्समुद्रं सच्छिद्रनावमधिरुह्य गृहीतरत्न:।।३५।।
अर्थ —चिरकाल से समुद्र में पड़ी हुई मणि के समान इस संसार में उत्तम मनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा को प्राप्त कर जो मनुष्य उत्तम आदि पात्रों में दान नहीं देता, वह मूर्ख मनुष्य टूटी—फूटी नाव पर चढ़कर तथा बहुत से रत्नों को साथ में लेकर दूसरे द्वीप में जाने के लिये समुद्र में प्रवेश करता है, ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थ — जो मनुष्य टूटी—फूटी नाव पर चढ़कर तथा रत्नों को साथ लेकर समुद्र की यात्रा करेगा, वह अवश्य ही रत्नों के साथ समुद्र में डूबेगा उसी प्रकार जो मनुष्य उत्तम मनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्र की आज्ञा को पाकर दान नहीं करेगा, वह अवश्य ही संसार में चक्कर खावेगा तथा उसका वह मनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्र की आज्ञा आदिक समस्त बातें व्यर्थ चली जावेंगी इसलिये जिस प्रकार समुद्र में गिरी हुई मणि की प्राप्ति होना दुर्लभ है उसी प्रकार यह मनुष्यत्व आदिक भी दुर्लभ है, ऐसा जानकर खूब अच्छी तरह दान देना चाहिये जिससे मनुष्यत्व आदिक व्यर्थ न जावे तथा संसार में अधिक न घूमना पड़े।।३५।।
यस्यास्ति नो धनवत: किल पात्रदानमस्मिन्परत्र च भवे यशसे सुखाय।
अन्येन केनचिदनूनसुपुण्यभाजा क्षिप्त: स सेवकनरो धनरक्षणाय।।३६।।
अर्थ —जो धनी मनुष्य इस भव में कीर्ति के लिये तथा परभव में सुख के लिये उत्तम आदि पात्रों में दान नहीं देता है तो समझना चाहिये कि वह उस धन का मालिक नहीं है किन्तु किसी अत्यन्त पुण्यवान पुरुष ने उस मनुष्य को उस धन की रक्षा के लिये नियुक्त किया है।
भावार्थ — जो धन का अधिकारी होता है, वह निर्भय रीति से उत्तम आदि पात्रों में धन का व्यय कर सकता है किन्तु जो मालिक न होकर रक्षक होता है वह किसी रीति से धन का व्यय नहीं करता इसलिये आचार्य कहते हैं कि जो धनी होकर दान न देवे, तो उसे मालिक नहीं समझना चाहिये किन्तु जो उसकी मृत्यु के पीछे उस धन का मालिक होगा, उस पुण्यवान का उसको धन की रक्षा करने वाला दास समझना चाहिये इसलिये विद्वानों को धन के मिलने पर उस धन के अनुसार अवश्य ही दान देना चाहिये।।३६।।
चैत्यालये च जिनसूरिबुधार्चने च दाने च संयतजनस्य सुदु:खिते च।
यच्चात्मनि स्वमुपयोगि तदेव नूनमात्मीयमन्यदिह कस्यचिदन्यपुंस:।।३७।।
अर्थ —जो धन जिनमन्दिर के काम में लगाया जाता है तथा जिसका उपयोग जिनेन्द्र भगवान की पूजा में तथा आचार्यों की पूजा में वा अन्य विद्वानों की पूजा में होता है तथा जो संयमीजनों के दान में खर्च किया जाता है तथा जो धन दु:खितों को दिया जाता है और जो धन अपने उपयोग में आता है, वह धन तो अपना समझना चाहिये किन्तु जिस धन का ऊपर कहे हुवे कामों में उपयोग न होवे, उस धन को किसी और मनुष्य का धन समझना चाहिये।
भावार्थ—जो धन दान आदि कार्यों में व्यय होने के कारण तथा अपने काम में व्यय होने के कारण इस भव में तथा परभव में कीर्ति तथा सुख का देने वाला हो, वह धन तो अपना समझना चाहिये किन्तु जो इससे भिन्न होवे, उसको दूसरे का ही समझना चाहिये।।३७।।
आचार्य और भी उपदेश देते हैं—
पुण्यक्षयात्क्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरत: कुरुत संततपात्रदानम् ।
कूपेन पश्यत जलं गृहिण: समन्तादाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ।।३८।।
अर्थ —हे गृहस्थों! कूवा से सदा चारों तरफ से निकला हुवा भी जल जिस प्रकार निरन्तर बढ़ता ही रहता है घटता नहीं है उसी प्रकार संयमी पात्रों के दान में व्यय की हुई लक्ष्मी सदा बढ़ती ही जाती है, घटती नहीं किन्तु पुण्य के क्षय होने पर ही वह घटती है, इसलिये मनुष्य को सदा संयमी पात्रों में दान देना चाहिये।।३८।।
जो मनुष्य लोभ से दान नहीं देते, उनके दोष आचार्य दिखाते हैं —
सर्वान्गुणानिह परत्र च हन्ति लोभ: सर्वस्य पूज्यजनपूजनहानिहेतु: ।
अन्यत्र तत्र विहितोऽपि हि दोषमात्रमेकत्र जन्मनि परं प्रथयन्ति लोका:।।३९।।
अर्थ —जो लोभ, पूज्यजन जो अर्हन्त आदिक, उनकी पूजा आदि में हानि का पहुँचाने वाला है, वह लोभ इस भव में तथा परभव में समस्त मनुष्यों के सम्यग्दर्शन आदि गुणों को घातता है किन्तु जो लोभ लौकिक विवाह आदि कार्यों में किया जाता है, उस लोभ को तो इस जन्म में मनुष्य केवल दोष ही कहते हैं इसलिये मनुष्य को दान-पूजन आदि में कदापि लोभ नहीं करना चाहिये।।३९।।
जातोऽप्यजात इव स श्रियमाश्रितोऽपि रज्र् कलंकरहितोऽप्यगृहीतनामा।
कम्बोरिवाश्रितमतेरपि यस्य पुंस: शब्द: समुच्चलति नो जगति प्रकामम् ।।४०।।
अर्थ —शंख की तरह जिस मनुष्य का मृत्यु के पीछे दान से उत्पन्न हुवे यश का शब्द भली—भांति संसार में नहीं पैâलता वह मनुष्य पैदा हुवा भी नहं पैदा हुवा सा है तथा लक्ष्मीवान भी दरिद्री ही है तथा कलंक रहित है तो भी उसका कोई भी नाम नहीं लेता इसलिये मनुष्य को अवश्य दान देना चाहिये।।४०।।
और भी आचार्य दान का ही उपदेश देते हैं—
श्वापि क्षितेरपि विभुर्जठरं स्वकीयं कर्मोपनीतविधिना विदधाति पूर्णम्।
किंतु प्रशस्यनृभवार्थविवेकितानामेतत्फलं यदिह सन्ततपात्रदानम्।।४१।।
अर्थ — संसार में कर्मानुसार कुत्ता भी अपने पेट को भरता है तथा अपने कर्मानूकूल राजा भी अपने पेट को भरता है इसलिये पेट भरने में कुत्ता तथा राजा समान ही हैं परन्तु उत्तम नरभव पाने का तथा श्रीमान् होने का तथा उत्तम विवेकी होने का केवल एक यही फल है कि निरन्तर उत्तम आदि पात्रों में दान देना इसलिये जो मनुष्य उत्तम मनुष्यपने का तथा श्रीमान होने का और विवेकी होने का अभिमान रखता है उसको अवश्य पात्रदान देना चाहिये।।४१।।
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम्।
वित्तस्य तस्य नियतं प्रविहाय दानमन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्त:।।४२।।
अर्थ — परदेश जाना, सेवा करना इत्यादि नाना प्रकार से जो धन पैदा किया गया है तथा जो मनुष्यों को अपने पुत्रों से तथा जीवन से भी प्यारा है, उस धन की सफलता की एक गति दान ही है किन्तु दान को छोड़कर और कोई दूसरी गति नहीं है और सब विपत्ति ही विपत्ति है ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं इसलिये समस्त प्रकार के सुखों का देने वाला मनुष्य को दान अवश्य करना चाहिये।।४२।।
नार्थ: पदात्पदमपि व्रजति त्वदीयो व्यावर्तते पितृवनान्ननु बन्धुवर्ग:।
दीर्घे पथ: प्रवसतो भवत: सखैकं पुण्यं भविष्यति तत: क्रियतां तदेव।।४३।।
अर्थ — मरते समय यह तेरा धन एक पैड से दूसरे पैड तक भी नहीं जाता तथा बन्धुओं का समूह श्मशान भूमि से ही लौट आता है परन्तु इस दीर्घ संसार में भ्रमण करते हुवे तुझको तेरा पुण्य ही एक मित्र होगा अर्थात् वही तेरे साथ जायेगा इसलिये तुझे पुण्य का ही उपार्जन करना चाहिये।।४३।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं—
सौभाग्यशौर्यसुखरूपविवेकिताद्या विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म।
सम्पद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात्तस्मात्किमत्र सततं क्रियते न यत्न:।।४४।।
अर्थ —सौभाग्य-शूरता-सुख-विवेक आदिक तथा विद्या-शरीर-धन-घर और उत्तमकुल में जन्म, ये सब बातें उत्तमादि पात्रदान से ही होती हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा पात्रदान में ही प्रयत्न करना चाहिये।।४४।।
न्यासश्च सद्मच करग्रहणञ्च सूनोरर्थेन तावदिह कारयितव्यमास्ते।
धर्माय दानमधिकाग्रतया करिष्ये सञ्चितयन्नपि गृही मृतिमेति मूढ:।।४५।।
अर्थ —मुझे धन जमीन में गाड़ना है तथा धन से मुझे मकान बनवाना है और पुत्र का विवाह करना है, इतने काम करने पर यदि अधिक धन होगा, तो धर्म के लिये दान करूँगा, ऐसा विचार करता ही करता मूर्ख प्राणी अचानक ही मर जाता है तथा कुछ भी नहीं करने पाता, इसलिये मनुष्य को धन मिलने पर सबसे पहले दान करना चाहिये तथा दान से अतिरिक्त विचार कदापि नहीं करना चाहिये।।४५।।
अब आचार्य कृपण की निन्दा करते हैं—
किं जीवितेन कृपणस्य नरस्य लोके निर्भोगदानधनबंधनबद्धमूर्ते: ।
तस्माद्वरं बलिभुगुन्नतभूरिवाग्भिर्व्याहूत काककुल एव बलिं स भुङक्ते।।४६।।
अर्थ —जिस लोभी पुरुष की मूर्ति भोग तथा दानरहित धनरूपी बंधन से बंधी हुई है, उस कृपण पुरुष का इस लोक में जीना सर्वथा व्यर्थ है क्योंकि उस पुरुष की अपेक्षा वह काक ही अच्छा है जो कि ऊँचे शब्द से और दूसरे बहुत से काकों को बुलाकर मिलकर भोजन करता है।
भावार्थ — कहीं पर यदि थोड़ा सा भी भोजन किसी पुरुष द्वारा डाला हुवा देख लेवे तो कौवा ऊँचे शब्द से और दूसरे बहुत से कौवों को बुलाकर भोजन करता है किन्तु लोभी योग्य धन पाकर भी न तो स्वयं खाता है न दूसरे को खवाता है और न उस धन को दान में ही व्यय करता है इसलिये लोभी मनुष्य की अपेक्षा कौवा ही उत्तम है तथा उस लोभी पुरुष का होना न होना संसार में समान है इसलिये जो मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहता है उसको अवश्य उत्तम आदि पात्रों में दान देना चाहिये।।४६।।
औदार्ययुक्तजनहस्तपरम्पराप्तव्यावर्तनप्रसृतखेदभरातिखिन्ना: ।
अर्था गता: कृपणगेहमनन्तसौख्यपूर्णा इवानिशमबाधमति स्वपन्ति।।४७।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि उदारतासहित जो मनुष्य, उनके हाथों से पैदा हुवा जो भ्रमण, उससे उत्पन्न हुवा जो अत्यंत खेद, उससे खिन्न होकर समस्तधन, कृपण के घर चले गये हैं तथा वहीं पर वे बाधारहित आनन्द के साथ सोते हैं, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ—यहाँ पर उत्प्रेक्षालंकार है इसलिये ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि यह स्वाभाविक बात है कि जिसको जहाँ पर दु:ख होता है, वह उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में चला जाता है उसी प्रकार धन ने भी यह सोचा कि उदार मनुष्य के घर में रहने से हमको दान आदि कार्यों में जहाँ-तहाँ घूमना पड़ता है तथा व्यर्थ के घूमने में पीड़ा भोगनी पड़ती है इसलिये वह कृपण के घर में चला गया तथा वहां पर न घूमने के कारण वह आनन्द से एक जगह पर ही रहने लगा।
सारार्थ—उदार का धन तो दान आदि कार्यों में खर्च होता है और कृपण का एक जगह पर रक्खा ही रहता है।।४७।।
अब आचार्य पात्रों के भेदों का वर्णन करते हैं—
उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं मध्यं व्रतेनरहितं सुदृशं जघन्यम् ।
निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदञ्च विद्धि।।४८।।
अर्थ — उत्तमपात्र तो महाव्रती (मुनि) हैं तथा अणुव्रती (श्रावक) मध्यमपात्र हैं और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र हैं तथा व्रतसहित मिथ्यादृष्टि कुपात्र हैं तथा अव्रती मिथ्यादृष्टि अपात्र हैं, ऐसा जानना चाहिये।
तेभ्य: प्रदत्तमिह दानफलं जनानामेतद्विशेषणविशिष्टमदुष्टभावात्।
अन्यादृशेऽथ हृदये तदपि स्वभावादुच्चावचं भवति किं बहुभिर्वचोभि:।।४९।।
अर्थ —निर्मल भाव से उत्तम आदि पात्रों के लिये दिया हुवा दान मनुष्यों को उत्तम आदि फल का देने वाला होता है तथा जो दान मायाचार अथवा दृष्टिपरिणामों से दिया जाता है, वह भी नीचे-ऊँचे फल का स्वभाव से देने वाला होता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि इस विषय में हम विशेष क्या कहें! दान अवश्य फल का देने वाला होता है।
भावार्थ — उत्तमपात्र को निर्मलभाव से दिया हुवा दान सम्यग्दृष्टि को तो स्वर्गमोक्ष आदि उत्तम फल का देने वाला है तथा वही दान मिथ्यादृष्टि को भोगभूमि के सुख को देने वाला है तथा मध्यम पात्र में दिया हुवा दान सम्यग्दृष्टि को तो स्वर्ग फल का देने वाला है और मिथ्यादृष्टि को मध्यम भोगभूमि के सुख का देने वाला है तथा जघन्यपात्र में दिया हुवा दान सम्यग्दृष्टि को तो स्वर्ग फल का देने वाला है और मिथ्यादृष्टि को जघन्य भोगभूमियों के सुख का देने वाला है, इस प्रकार तो पात्रदान का फल है तथा कुपात्र में दिया हुवा दान कुभोगभूमि के फल का देने वाला है और अपात्र में दिया हुआ दान व्यर्थ जाता है अथवा दुर्गति के फल का देने वाला है तथा दुष्ट परिणामों से दिया हुआ दान ऊँचे-नीचे फल का देने वाला है इस प्रकार दान कुछ न कुछ फल अवश्य देता है इसलिये भव्यजीवों को तो अपने आत्महित के लिये उत्तम आदि पात्रों में निर्मल भाव से दान देना ही चाहिये।।४९।।
अब आचार्य दान के भेदों को बतलाते हैं—
-वसंततिलका-
चत्वारि यान्यभयभेषजभुक्तिशास्त्रदानानि तानि कथितानि महाफलानि।
नान्यानि गोकनकभूमिरथाङ्गनादिदानानि निश्चितमवद्यकराणि यस्मात्।।५०।।
अर्थ —अभय-औषध-आहार-शास्त्र इस प्रकार से दान चार प्रकार का है तथा वह चार प्रकार का दान तो महाफल का देने वाला कहा है परंतु इससे भिन्न गौ-सुवर्ण-जमीन-रथ-स्त्री आदि दान महाफल का देने वाला नहीं कहा है, वह निन्दा का कराने वाला ही कहा है इसलिये महाफल के अभिलाषियों को ऊपर कहा हुआ चार प्रकार का ही दान देना चाहिये।।५०।।
आचार्य और भी दान का उपदेश देते हैं—
यद्दीयते जिनग्रहाय धरादि किञ्चित्तत्तत्र संस्कृतनिमित्तमिह प्ररूढम् ।
आस्ते ततस्तदधिदीर्घतरं हि कालं जैनञ्चशासनमत: कृतमस्ति दातु:।।५१।।
अर्थ —जो जिनमन्दिर के बनाने के लिये अथवा सुधार के लिये जमीन, धन आदिक दिये जाते हैं उससे जिनमन्दिर अच्छा बनता है तथा उस जिनमन्दिर के प्रभाव से बहुत काल तक जिनेन्द्र का मत इस पृथ्वीमण्डल पर विराजमान रहता है इसलिये दाता ने जिनमन्दिर के लिये जमीन, धन आदि देकर जैनमत का उद्धार किया, ऐसा समझना चाहिये।।५१।।
-पृथ्वीवृत्त-
दानप्रकाशनमशोभनकर्मकार्यकार्पण्यपूर्णहृदयाय न रोचतेऽद: ।
दोषोज्झितं सकललोकसुखप्रदायि तेजोरवेरिव सदा हतकौशिकाय।।५२।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि खोटा जो मिथ्यात्वरूपी कर्म, उसका कार्य जो कृपणता, उससे जिसका हृदय भरा हुआ है ऐसे कृपण पुरुष को समस्त दोष कर रहित तथा सर्वलोक को सुख का देने वाला दान का प्रकाशरूप कार्य अच्छा नहीं लगता, जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश घूक (उल्लू) को अच्छा नहीं लगता है।।५२।।
दानोपदेशनमिदं कुरुते प्रमोदमासन्नभव्यपुरुषस्य न चेतरस्य ।
जाति: समुल्लसति दारु न भृङ्गसङ्गादिन्दीवरं हसति चन्द्रकरैर्न चाश्म।।५३।।
अर्थ — और भी आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार भ्रमरों के संग से चमेली ही विकसित होती है, लकड़ी विकसित नहीं होती तथा चन्द्रमा की किरणों से कमल ही प्रफुल्लित होता है, पाषाण प्रफुल्लित नहीं होता, उस ही प्रकार जिसको थोड़े ही काल में मोक्ष होने वाली है, ऐसे भव्य मनुष्य को ही यह दान का उपदेश हर्ष का करने वाला होता है, अभव्य को यह दान का उपदेश कुछ भी हर्ष का करने वाला नहीं होता।।५३।।
रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपादपद्मद्वयस्मरणसंजनितप्रभाव: ।
श्रीपद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदानपञ्चाशतं ललितवर्णचयं चकार।।५४।।
अर्थ —आचार्यवर दानोपदेशरूपप्रकरण को समाप्त करते हुए कहते हैं कि रत्नत्रयरूपीभूषण से भूषित ऐसे श्रीवीरनन्दीनामकमुनि के दोनों चरणकमलों के स्मरण से उत्पन्न हुआ है उत्तम प्रभाव जिसको, ऐसा श्रीपद्मनन्दी नामक मुनि उत्तमोत्तमवर्णों की रचना से
५२ श्लोकों में दान का प्रकरण समाप्त करता हुआ।।५४।।
इति श्री पद्मनन्दिमुनिद्वारा विरचित श्रीपद्मनन्दिपञ्चविंशतिकानामक ग्रन्थ में दानोपदेशनामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ।