-अनुष्टुप्-
चिदानन्दैकसद्भावं परमात्मानमव्ययम्।
प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम्।।१।।]
अर्थ—चैतन्यस्वरूप आनन्दस्वरूप अविनाशी और शान्त ऐसे परमात्मा को सर्वकार्यों की शान्ति के लिए मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ—जो परमात्मा चैतन्यस्वरूप है तथा आनन्दस्वरूप है और नित्य, शाश्वत तथा समस्त क्रोधादिकर्मोंे से रहित है ऐसा परमात्मा मुझे इस एकत्व नामक अधिकार के वर्णन करने में शांति प्रदान करें।।१।।
खादिपञ्चकनिर्मुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम्।
चिदात्मकं परंज्योतिर्वन्दे देवेन्द्रपूजितम्।।२।।
अर्थ—जो चैतन्यस्वरूप तेज पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल से सर्वथा भिन्न है तथा ज्ञानावरणादि कर्मों से रहित है और जिसका बड़े—बड़े देव तथा इन्द्र आदिक सदा पूजन करते हैं ऐसा वह चैतन्यस्वरूप ‘उत्कृष्ट तेज’ मेरी रक्षा करे अर्थात् उस चैतन्यस्वरूप तेज को मस्तक नवाकर मैं नमस्कार करता हूँ।
यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोधचक्षुषाम्।
सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने।।३।।
अर्थ—जिस चैतन्यस्वरूप आत्मा को ज्ञानरहित अज्ञानी पुरुष अनुभव नहीं कर सकते हैं तथा अखंड ज्ञान के धारक ज्ञानी जिसका सदा अनुभव करते हैं और समस्त पदार्थों में जो सारभूत है, ऐसे उस चैतन्यस्वरूप आत्मा के लिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।।३।।
चित्तत्त्वं तत्प्रतिप्राणिदेह एव व्यवस्थितम्।
तमश्छन्ना न जानन्ति भ्रमन्ति च बहिर्बहि:।।४।।
अर्थ— यद्यपि प्रत्येक प्राणी की देह में यह निर्मलचैतन्यरूपी तत्व विराजमान है तो भी जिन मनुष्यों की आत्मा अज्ञानान्धकार से ढकी हुई है वे इसको कुछ भी नहीं जानते हैं तथा चैतन्य से भिन्न बाह्य पदार्थों में ही चैतन्य के भ्रम से भ्रान्त होते हैं।।४।।
भ्रमतोऽपि सदा शास्त्रजाले महति केचन।
न विदन्ति परं तत्त्वं दारुणीव हुताशनम्।।५।।
अर्थ— कई एक मनुष्य अनेक शास्त्रों का स्वाध्याय भी करते हैं तो भी तीव्रमोहनीय कर्म के उदय से भ्रान्त होकर लकड़ी में जिस प्रकार अग्नि नहीं मालूम होती, उसी प्रकार चैतन्यस्वरूप आत्मा को अंशमात्र भी नहीं जानते।।५।।
केचित् केन्येपि कारुण्यात्कथ्यमानमपि स्फुटम्।
न मन्यन्ते न शृण्वन्ति महामोहमलीमसा:।।६।।
अर्थ—प्रबल मोहनीय कर्म से अज्ञानी हुवे अनेक मनुष्य उत्तम पुरुषों कर बताये हुवे भी आत्मतत्त्व को न तो मानते ही हैं तथा न सुनते ही हैं।।६।।
धुरि धर्मात्मकं तत्त्वं दु:श्रुतेर्मन्दबुद्धय:।
जात्यन्धहस्तिरूपेण ज्ञात्वा नश्यन्ति केचन।।७।।
अर्थ—यद्यपि वस्तु का स्वरूप अनेकान्तस्वरूप है तो भी अनेक जड़बुद्धि मनुष्य, जन्मांध जिस प्रकार हाथी के एक-एक भाग को ही समझ लेते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार एकान्तस्वरूप मानकर ही नष्ट होते हैं।
भावार्थ— किसी समय कई एक अन्धे मनुष्यों को इस बात की अभिलाषा हुई कि हम हाथी देखें इसलिये उन्होंने एक महावत से इस बात का निवेदन भी किया कि वह हमको हाथी दिखावे अतएव किसी दिन उस महावत ने उनके सामने लाकर हाथी खड़ाकर दिया तथा कहा कि जो तुमने हाथी को देखने के लिये निवेदन किया था उसी के अनुसार यह हाथी तुम्हारे सामने खड़ा है इसे तुम देखो। फिर क्या था? अन्धे दौड़े तथा एक-एक अंग को टटोलने लग गये, जब देख चुके तब उनमें से प्रत्येक को पूछा गया कि हाथी वैâसा था तो उनमें से जिसने हाथी की पूँछ का स्पर्श किया था वह झट बोल निकला कि हाथी लंबे बांस के समान होता है। जब दूसरे से पूछा गया कि भाई हाथी वैâसा होता है ? तब उसने कहा कि हाथी लंबा-लंबा नहीं है किन्तु चाकी के पाट के समान गोल है क्योंकि उसने हाथी के पैर ही का स्पर्श किया था। इसी प्रकार औरों से भी पूछा गया तो उनमें से भी किसी ने वैâसा भी कहा, किसी ने किसी अंग को हाथी कहा तथा किसी ने किसी अंग को हाथी कहा किन्तु हाथी के समग्रस्वरूप का कोई भी वर्णन नहीं कर सका इसलिये उनकी वे सर्व बातें मिथ्या ही समझी गई। हाँ यदि वे इस प्रकार का एकान्त नहीं पकड़ते कि हाथी लंबा ही होता है अथवा गोल ही होता है तो उनकी सब बातें सत्य समझी जातीं क्योंकि हाथी उन पूँछ-पैर आदि अंगों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ नहीं था सर्व मिले हुवे अंगो का ही नाम हाथी था उसी प्रकार यद्यपि वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है तो भी बहुत से दुर्बुद्धि एक धर्म अथवा दो ही धर्म को वस्तु मानकर समग्र वस्तु का स्वरूप समझकर अपने को सर्वज्ञ बनने का दावा रखते हैं किन्तु उनका उस प्रकार का अभिप्राय खोटा ही अभिप्राय समझा जाता है क्योंकि वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है। हाँ यदि वे वस्तु में एक ही धर्म है अथवा दो ही धर्म हैं ऐसा एकान्त न पकड़े तो किसी रीति से उनका उस प्रकार का कहना निर्बाध समझा जा सकता है क्योंकि वे धर्म वस्तु से जुदे नहीं हैं उन धर्मस्वरूप ही वस्तु है इसलिये उन धर्मों के कहने से वस्तु का स्वरूप कथंचित् सच भी माना जा सकता है इसलिये यह बात भलीभांति सिद्ध हो चुकी है कि वस्तु एकान्तात्मक नहीं है किन्तु अनेकान्तात्मक ही है किन्तु जो एकान्तात्मक मानते हैं, वे दुर्बुद्धी हैं।।७।।
केचित्किञ्चित्परिज्ञाय कुतश्चिद् गर्विताशया:।
जगन्मन्दं प्रपश्यन्तो नाश्रयान्ति मनीषिण:।।८।।
अर्थ—कई एक मनुष्य कहीं से कुछ थोड़ी सी बात जानकर अपने को बड़ा विद्वान मान लेते हैं तथा अपने सामने जगतभर के विद्वानों को मूर्ख समझते हैं अतएव अहंकार से वे विद्वानों की संगति भी नहीं करना चाहते।।८।।
धर्म वâो परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिये, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
जन्तुमुद्धरते धर्म: पतन्तं जन्मशज्र्टे।
अन्यथा स कृतो भ्रान्त्या लोवैâर्ग्राह्य: परीक्षित:।।९।।
अर्थ— संसार संकट में पँâसे हुवे प्राणियों का उद्वार करने वाला धर्म है किन्तु स्वार्थी दुष्टों ने उसको विपरीत ही कर दिया है अर्थात् उन का माना हुवा धर्म का स्वरूप संसार में केवल डुबाने वाला ही है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे भलीभांति परीक्षाकर धर्म को ग्रहण करें।।९।।
कौन धर्म प्रमाण करने योग्य है इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
सर्वविद्वीतरागोक्तो धर्म: सूनृततां व्रजेत्।
प्रामाण्यतो यत: पुन्सो वाच: प्रामाण्यमिष्यते।।१०।।
अर्थ—समस्त लोकालोक के पदार्थों के जानने वाले तथा वीतरागीमनुष्य का कहा हुवा ही धर्म प्रमाणीक होता है क्योंकि मनुष्य के प्रामाण्य से ही वचनों में प्रमाणता समझी जाती है इसलिये जब वीतराग तथा सर्वज्ञ प्रमाणीक पुरुष हैं तब उनका कहा हुवा धर्म भी प्रमाणीक ही है ऐसा समझना चाहिये।।१०।।
बहिर्विषयसंबन्ध: सर्व: सर्वस्य सर्वदा।
अतस्तद्भिन्नचैतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ।।११।।
अर्थ— समस्त बाह्य विषयों का संबंध तो सब जीवों के सदा काल ही रहता है किन्तु बाह्य पदार्थों के संबंध से जुदा जो ज्ञानानन्दस्वरूप चैतन्य का ज्ञान तथा संबंध है वह अत्यंत दुर्लभ है।
भावार्थ—अनादिकाल से बाह्य पदार्थों का संबंध तो जीवों के प्रतिक्षण लगा आया है इसलिए उसका तो सर्वजीवों को अनुभव है परन्तु उस बाह्य संबंध से भिन्न अन्तरंग में चैतन्य का ज्ञान तथा उसका संबंधक भी नहीं हुआ है क्योंकि वह अत्यन्त दुर्लभ है इसलिए भव्य जीवों को चैतन्य का ही ज्ञान करना चाहिए तथा उसी का अनुभव करना चाहिए।।११।।
लब्धिपञ्चकसामिग्री विशेषात्पात्रतां गत:।
भव्य: सम्यग्दृगादीनां, य: स: मुक्तिपथे स्थित:।।१२।।
अर्थ—जिस को सिद्धि होने वाली है ऐसा जो भव्य है, वह देशना-प्रायोग्य-विशुद्धि-क्षयोपशम तथा करणलब्धि इस प्रकार इन पाँच प्रकार लब्धिस्वरूप सामग्री के विशेष से सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय का पात्र बनता है अर्थात् रत्नत्रय को धारण करता है, वही मोक्ष में स्थित है, ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ—सत्य उपदेश का नाम तो देशना है तथा पंचेंद्रीपना, सैनीपना, गर्भजपना, मनुष्यपना, ऊंचा कुल, यह प्रायोग्य नामक लब्धि है तथा सर्वघाती प्रकृतियों का तो उदयाभावीक्षय तथा देशघाती प्रकृतियों का उपशम यह क्षयोपशमलब्धि है तथा परिणामों की विशुद्धता का नाम विशुद्धि लब्धि है और अध:करण, अपूर्व करण, अनिवृतिकरण यह करणलब्धि है इन पाँच प्रकार की लब्धियों के विशेष से जो रत्नत्रय का धारी है, वही भव्य पुरुष शीघ्र मुक्ति को जाता है।।१२।।
सम्यग्दृग्बोधचारित्रं त्रितयं मुक्तिकारणम्।
मुक्तावेव सुखं तेन तत्र यत्नो विधीयताम्।।१३।।
अर्थ— सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मुक्ति का कारण है और वास्तविक सुख की प्राप्ति मोक्ष में ही है इसलिये भव्यजीवों को उसी के लिये प्रयत्न करना चाहिये।।१३।।
आचार्य सम्यग्दर्शनादि का स्वरूप दिखाते हैं-
दर्शनं निश्चय: पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते।
स्थितिरत्रेव चारित्रमितियोग: शिवाश्रय:।।१४।।
अर्थ—आत्मा का निश्चय तो सम्यग्दर्शन है तथा आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में निश्चल रीति से रहना सम्यक्चारित्र है तथा इन तीनों की जो एकता, वही मोक्ष का कारण है।।१४।।
एकमेव हि चैतन्यं शु्द्धनिश्चयतोऽथवा।
कोऽवकाशो विकल्पानां तत्राखण्डैकवस्तुनि।।१५।।
अर्थ—अथवा शुद्धनिश्चयनय से एक चैतन्य ही मोक्ष का मार्ग है क्योंकि आत्मा एक अखंड पदार्थ है इसलिये उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र आदि भेदों का अवकाश नहीं है अर्थात् अखंड तथा एक आत्मा के सम्यग्दर्शन आदि टुकड़े नहीं हो सकते।।१५।।
प्रमाणनयनिक्षेपा अर्वाचीने पदे स्थिता:।
केवले च पुनस्तस्ंिमस्तदेक: प्रतिभासते।।१६।।
अर्थ—जब तक आत्मा शुद्धात्मा नहीं हुवा है तभी तक इसमें प्रमाण तथा नय और निक्षेप भिन्न-भिन्न हैं ऐसे मालूम पड़ते हैं किन्तु जिस समय यह आत्मा शुद्धात्मा हो जाता है उस समय इसमें केवल चैतन्यस्वरूप आत्मा ही प्रतिभासता है।।१६।।
निश्चयैकदृशा नित्यं तदेवेकं चिदात्मकम्।
प्रपश्यामि गतभ्रान्तिर्व्यवहारदृशा परम्।।१७।।
अर्थ—शुद्धनिश्चयनय से यह आत्मा एक है, नित्य है तथा चैतन्यस्वरूप है ऐसा मैं अनुभव करने वाला अनुभव करता हूूँ किन्तु व्यवहारनय से प्रमाणस्वरूप तथा नय और निक्षेपस्वरूप भी मैं इस आत्मा को भलीभांति देखता हूँ।
भावार्थ— शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से यह आत्मा एक, नित्य तथा चैतन्यस्वरूप ही है किन्तु व्यवहार नय की अपेक्षा से इसमें प्रमाण तथा नय और निक्षेप आदि भेद दीखते हैं।।१७।।
अजमेकं परं शान्तं सर्वोपाधिविवर्जितम्।
आत्मानमात्मना ज्ञात्वा तिष्ठेदात्मनि य:स्थिर:।।१८।।
स एवामृतमार्गस्य सएवामृतमश्नुते।
सएवार्हन् जगन्नाथ: सएवप्रभुरीश्वर:।।१९।।
अर्थ—जो पुरुष जन्म रहित और एक तथा शान्तिस्वरूप और समस्तकर्मों कर रहित अपने को अपने ही से जानकर अपने में ही निश्चलरीति से ठहरता है वही पुरुष मोक्ष को जाने वाला है तथा वही मनुष्य मोक्ष सुख को प्राप्त होता है और वही अर्हन्त तथा जगन्नाथ और प्रभु तथा ईश्वर कहलाता है इसलिये भव्यजीवों को अपनी आत्मा में अवश्य निश्चल रीति से ठहरना चाहिये।।१८।।१९।।
केवलज्ञानदृक्सौख्यस्वभावं तत्परं मह:।
तत्र ज्ञातेन किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम्।।२०।।
अर्थ—जो उत्कृष्ट आत्मस्वरूप तेज है वह केवलदर्शन तथा केवलज्ञान और अनंतसुखस्वरूप ही है इसलिये जिसने इस तेज को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया और जिसने इस तेज को देख लिया, उसने सब कुछ देख लिया तथा जिसने इस तेज को सुन लिया, उसने सब कुछ सुन लिया, ऐसा समझना चाहिये।।२०।।
इति ज्ञेयं तदेवैकं श्रवणीयं तदेव हि।
दृष्टव्यञ्च तदैवैकं नान्यन्निश्चतो बुधै:।।२१।।
अर्थ—इसलिये भव्यजीवोंं को निश्चय से एक चैतन्यस्वरूप ही जानने योग्य है तथा वही एक सुनने योग्य है और वही देखने योग्य है किन्तु उससे भिन्न कोई भी वस्तु न तो जानने योग्य है तथा न सुनने योग्य है और न देखने ही योग्य है, ऐसा समझना चाहिये।।२१।।
गुरूपदेशतोऽभ्यासाद्वैराग्यादुपलभ्य यत्।
कृतकृत्यो भवेद्योगी तदेवैकं नचापरम्।।२२।।
अर्थ—गुरू के उपदेश से तथा शास्त्र के अभ्यास से और वैराग्य से जिसको पाकर योगीश्वर कृतकृत्य हो जाते हैं वह यही चैतन्य स्वरूपतेज है और कोई नहीं है।।२२।।
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।२३।।
अर्थ—जिस मनुष्य ने प्रसन्नचित्त से इस चैतन्यस्वरूपआत्मा की बात भी सुन ली है वह भव्यपुरुष होने वाली मुक्ति का निश्चय से पात्र होता है अर्थात् वह नियम से मोक्ष को जाता है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को अवश्य ही इस चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुभव करना चाहिये।।२३।।
जानीते य: परं ब्रह्म कर्मण: पृथगेकताम्।
गतं तद्गतबोधात्मा तत्स्वरूपं स गच्छति।।२४।।
अर्थ—जो मनुष्य शुद्धात्मा में लीन होकर कर्मों से भिन्न तथा एक ऐसे उस परब्रह्म परमात्मा को जानता है वह पुरुष परब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है इसलिये भव्यजीवों को परमात्मा का अवश्य ध्यान करना चाहिये।।२४।।
केनापि परेण स्यात्संबन्धो बंधकारणम्।
परैकत्वपदे शान्ते मुक्तये स्थितिरात्मन:।।२५।।
अर्थ—अन्य पदार्थों के साथ जो आत्मा का संबंध होना है उससे केवल बंध ही होता है तथा उसी आत्मा का जो उत्कृष्ट, शान्त और एकतारूप स्थान में ठहरना है उससे मोक्ष ही होती है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को पर पदार्थों से ममत्व छोड़कर स्वस्वरूप में ही लीन होना चाहिए।।२५।।
विकल्पोर्मिभरत्यक्त: शान्त: वैâवल्यमाश्रित:।
कर्माभावे भवेदात्मा वाताभावे समुद्रवत्।।२६।।
अर्थ—पवन के थंभ जाने पर जिस प्रकार समुद्र लहरियों से रहित तथा क्षोभरहित शांत हो जाता है उसी प्रकार जब इस आत्मा से सर्वथा कर्मों का संबंध छूट जाता है उस समय यह आत्मा भी समस्त प्रकार के विकल्पोंकररहित तथा केवलज्ञानकरसहित—शान्त हो जाता है।
भावार्थ— यदि देखा जावे तो स्वभाव से समुद्र शान्त ही है किन्तु जिस समय पवन चलता है उस समय उसकी लहरी ऊँचे को उठती है तथा वह क्षुब्ध हो जाता है परन्तु जिस समय पवन रुक जाता है उस समय फिर वह समुद्र शान्त हो जाता है उसी प्रकार निश्चयनय से यह आत्मा भी शान्त ही है किन्तु कर्म के संबंध से इसमें नाना प्रकार के विकल्प आकर खड़े हो जाते हैं किन्तु जिस समय उन कर्मों का संबंध छूट जाता है उस समय फिर वैसा का वैसा ही आत्मा शान्त हो जाता है।।२६।।
संयोगेन यदा यातं मत्तस्तत्सकलं परम्।
तत्परित्यागयोगेन मुक्तोऽहमिति मे मति:।।२७।।
अर्थ—सम्यग्दृष्टि इस प्रकार का चिंतवन करता रहता है कि जो वस्तु संयोग से उत्पन्न हुई हैं वे सब मुझसे जुदी हैं तथा मुझे इस बात का ज्ञान है कि उन संयोग से पैदा हुई समस्त वस्तुओं के त्याग से मैं मुक्त हूँ मेरी आत्मा में किसी प्रकार के कर्म का संबंध नहीं है।।२७।।
किं मे करिष्यत: क्रूरौ शुभाशुभनिशाचरौ।
रागद्वेषपरित्यागमोहमन्त्रेण कीलितौ।।२८।।
अर्थ—रागद्वेषरूपीप्रबलमंत्र से कीलित हुवे तथा क्रूर ऐसे शुभ तथा अशुभ कर्मरूपी राक्षस मेरा क्या करेंगे ? कुछ भी नहीं कर सकते।
भावार्थ— रागद्वेषस के होने से ही शुभ तथा अशुभ कर्मों का बंध होता है यदि रागद्वेष का ही संबंध मेरी आत्मा के साथ न रहेगा तो मेरा शुभ-अशुभकर्म कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा सम्यग्दृष्टि विचार करता रहता है
संबन्धेऽपि सति त्याज्यौ रागद्वेषौ महात्मभि:।
विना तेनापि ये कुर्युस्ते कुर्यु: किं न वातुला:।।२९।।
अर्थ— सज्जनों को चाहिये कि रागद्वेष के संबंध होने पर भी वे रागद्वेष का त्याग कर देवें किन्तु जो लोग संबंध के न होने पर भी रागद्वेष को करते हैं वे मनुष्य समस्त अनिष्टों को पैदा करते हैं।
भावार्थ— रागद्वेष के होते संते अनेक प्रकार के अनिष्ट होते हैं इसलिये सज्जनों को कदापि रागी तथा द्वेषी नहीं बनना चाहिये।।२९।।
मनोवाक्कायचेष्टाभिस्तद्विधं कर्म जृम्भते।
उपास्यते तदेवैकं तेभ्योभिन्नं मुमुक्षुभि:।।३०।।
अर्थ—मन, वचन, काय की चेष्टा से चेष्टानुसारकर्म वृद्धि को प्राप्त होता है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्यपुरुष, मन, वचन, काय से भिन्न एक चैतन्यमात्र आत्मा की ही उपासना करते हैं।।३०।।
द्वैततोद्वैतमद्वैतादद्वैतं खलु जायते।
लोहाल्लोहमयं पात्रं हेम्नोहेममयं यथा।।३१।।
अर्थ—जिस प्रकार लोह से लोहमय ही पात्र की उत्पत्ति होती है तथा सुवर्ण से सुवर्णमय ही पात्र की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार द्वैत से निश्चय से द्वैत ही होता है तथा अद्वैत से अद्वैत ही होता है।
भावार्थ— कर्म तथा आत्मा के मिलाप का नाम द्वैत है अत: जब तक कर्म तथा आत्मा का मिलाप रहेगा, तब तक तो संसारी ही रहेगा किन्तु जिस समय कर्म तथा आत्मा का मिलाप छूट जावेगा, तब मुक्त हो जावेगा।
निश्चयेन तदेकत्वमद्वेतममृतं परम्।
द्वितीयेन कृतं द्वैतं संस्ाृतिर्व्यवहारत:।।३२।।
अर्थ—निश्चयनय से तो एकतारूप जो अद्वैत है, वही मोक्ष है और व्यवहार नय से कर्मोंकर किया हुवा जो द्वैत है वह संसार है।
भावार्थ— बंध और मोक्ष, राग और द्वेष, कर्म और आत्मा, शुभ और अशुभ, इस प्रकार द्वैतकर सहित जो बुद्धि है वह असिद्धि है अर्थात् निजानन्द शुद्ध अद्वैतस्वरूप की रोकने वाली है।।३३।।
उदयोदीरणासत्ता प्रबन्ध: खलु कर्मण:।
बोधात्मधाम सर्वेभ्यस्तदेवैकं परं परम्।।३४।।
अर्थ—उदय, उदीरणा तथा सत्ता इत्यादि समस्त कर्मों की ही रचना है किन्तु आत्मा इस समस्त रचना से भिन्न है, उत्कृष्ट है तथा केवलज्ञान का धारी है।।३४।।
क्रोधादिकर्मयोगेऽपि निर्विकारं परं मह:।
विकारकारिभिर्भेद्यैर्न विकारि नभोभवेत्।।३५।।
अर्थ—काले-पीले-नीले-घोड़ा के आकार, हाथी के आकार इत्यादि अनेक विकार सहित बादलों से जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश विकृत नहीं होता उसी प्रकार यद्यपि आत्मा के साथ क्रोध आदि कर्मों का संबंध है तो भी आत्मा विकार रहित ही है।।३५।।
नामापिहि परं तस्मान्निश्चयात्तदनामकम्।
जन्ममृत्यादिचाशेषं वपुर्धर्मं विदुर्बुधा:।।३६।।
अर्थ—निश्चयनय से आत्मा का कोई नाम नहीं है वह नाम रहित ही है और जो ये जन्म— मरण आदि धर्म हैं वे शरीर के ही धर्म हैं ऐसा बड़े—बड़े विद्वान् कहते हैं।।३६।।
बोधेनापि युतिस्तस्य चैतन्यस्यतु कल्पना।
सच तच्च तयोरैक्यं निश्चयेन विभाव्यते।।३७।।
अर्थ—आत्मा ज्ञानकर सहित है यह तो चैतन्यस्वरूप आत्मा में कल्पना ही है क्योंकि शुद्धनिश्चय नय से आत्मा और ज्ञान एक ही पदार्थ हैं, ऐसा अनुभवगोचर है।।३७।।
क्रियाकारक संबन्ध प्रबन्धोज्झित मूर्त्तियत्।
एवं ज्योतिस्तदेवैकं शरण्यं मोक्षकांक्षिणाम्।।३८।।
अर्थ—जो चैतन्यरूपी तेज क्रिया और कारक के संबंध की रचना रहित है वही एक मोक्षाभिलाषी भव्यजीवों का परमशरण है।
भावार्थ— क्रिया कारक के संबंधकर रहित, तथा एक ऐसे चैतन्यस्वरूप तेज की जो भव्यजीव उपासना करते हैं उनको मोक्ष मिलता है इसलिये भव्यजीवों को ऐसे चैतन्य की ही सदा उपासना करनी चाहिये।।३८।।
तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम्।
चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तप:।।३९।।
अर्थ—वह चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मा ही तो ज्ञान है तथा वही दर्शन है और वही चारित्र है तथा वही तप है किन्तु उस शुद्धात्मा से भिन्न न कोई ज्ञान है तथा न कोई दर्शन है और न कोई चारित्र है तथा न कोई तप ही है इसलिये भव्यजीवों को आत्मा का ही ज्ञान-श्रद्धान-आचरण आदि करना चाहिये।।३९।।
नमस्यञ्च तदेवैकं तदेवैकञ्च मंगलम्।
उत्तमञ्च तदेवैकं तदेव शरणं सताम्।।४०।।
अर्थ—वही एक चैतन्यस्वरूप आत्मा नमस्कार करने योग्य है तथा वही मंगलस्वरूप है और वही सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ है तथा वही भव्यजीवों का शरण है।।४०।।
आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया।
स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिन:।।४१।।
अर्थ—प्रमादरहित योगीश्वरों का जो चिदानन्दस्वरूप आत्मा का ध्यान है, वही तो आचार है तथा वही आवश्यक क्रिया है तथा वही स्वाध्याय है किन्तु उससे भिन्न आचार आदि कोई वस्तु नहीं है।।४१।।
गुणशीलानि सर्वाणि धर्मश्चात्यन्तनिर्मल:।
सम्भाव्यते परं ज्योतिस्तदेकमनुतिष्ठत:।।४२।।
अर्थ—जो पुरुष उस चैतन्यस्वरूप आत्मा का ध्यान करने वाला है वही पुरुष चौरासी लाख उत्तरगुणों का धारी है तथा वही अठारह हजार शीलव्रतों का धारी है और उसी पुरुष के निर्मल धर्म हैं ऐसा निश्चय है।।४२।।
तदेवैकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधे:।
रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरत: स्थितम्।।४३।।
अर्थ—समस्त शास्त्ररूपी विस्तीर्णसमुद्र का उत्कृष्ट रत्न यह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही है अर्थात् इसी रत्न की प्राप्ति के लिये शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है तथा संसार में जितने भर मनोहर पदार्थ हैं, उन सब पदार्थों में मनोहर तथा उत्कृष्ट पदार्थ यह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही है इसलिये भव्यजीवों को इस चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही अच्छी तरह से ध्यान करना चाहिये।।४३।।
तदेवैकं परं तत्त्वं तदेवैकं परं पदम्।
भव्याराध्यं तदेवैकं तदेवैकं परं मह:।।४४।।
अर्थ—वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही एक उत्तमतत्त्व है तथा वही एक उत्कृष्टस्थान है और वही एक भव्यजीवों के आराधन करने योग्य है तथा वही एक अद्वितीय उत्तमतेज है।।४४।।
शस्त्रं जन्मतरुच्छेदि तदेवैकं सतां मतम्।
योगिनां योगिनिष्ठानां तदेवैकं प्रयोजनम्।।४५।।
अर्थ—और वही चैतन्यस्वरूपी आत्मा जन्मरूपी वृक्ष के नाश करने के लिये शस्त्र के समान है अर्थात् चैतन्यस्वरूप आत्मा के भली-भांति ध्यान के करने से सर्व जन्ममरण आदि नष्ट हो जाते हैं तथा वही आत्मारूपी तेज भव्यजीवों का मान्य है और वही ध्यानयुक्त योगियों का प्रयोजन है अर्थात् उसी की प्राप्ति के लिये योगिगण सदा प्रयत्न करते रहते हैं।।४५।।
मुमुक्षूणां तदेवैकं मुक्ते: पन्था न चापर:।
आनन्दोऽपि न चान्यत्र तद्विहाय विभाव्यते।।४६।।
अर्थ—मोक्षाभिलाषियों के लिये चैतन्यस्वरूप आत्मा ही मोक्ष का मार्ग है, आत्मा से अन्य कोई भी मोक्षमार्ग नहीं है तथा आनंद भी आत्मा में ही है किन्तु उसके सिवाय और कहीं पर भी आनन्द नहीं प्रतीत होता इसलिये भव्यजीवों को इसी का ध्यान करना चाहिये।।४६।।
संसारघोरघर्मेण सदा तप्तस्य देहिन:।
यन्त्रधारागृहं शान्तं तदेव हिमशीतलम्।।४७।।
अर्थ—संसाररूपी प्रबलताप से निरंतर संतप्त प्राणियों को वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही शांत तथा बरफ के समान ठंडा, फव्वारा सहित मकान है, अर्थात् जिस प्रकार धूप से संतप्तमनुष्यों को फव्वारा सहित मकान में आराम मिलता है उसी प्रकार संसार के संताप से खिन्न जीवों को इस शांत आत्मा में लीन होने से ही आराम मिलता है इसलिये भव्यजीवों को सदा चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही अनुभव करना चाहिये।।४७।।
तदेवैकं परं दुर्गमगम्यं कर्मविद्विषाम्।
तदेवैतत्तिरस्कारकारि सारं निजं बलम्।।४८।।
अर्थ—तथा वही चैतन्यस्वरूप आत्मा एक ऐसा किला है कि जिसमें कर्मरूप वैरी कदापि प्रवेश नहीं कर सकते और उन कर्मरूपी शत्रुओं का अपमान करने वाला वही चैतन्यस्वरूप आत्मा एक उत्कृष्ट बल है।
भावार्थ— जो मनुष्य चैतन्यस्वरूप आत्मा का ध्यान करते हैं उनका कर्मरूपी वैरी कुछ नहीं कर सकते इसलिये भव्यजीवों को शुद्धात्मा का ही ध्यान करना चाहिये।।४८।।
तदेव महती विद्या स्फुरन्मन्त्रस्तदेव हि।
औषधं तदपि श्रेष्ठं जन्मव्याधिविनाशनम्।।४९।।
अर्थ—और वही चैतन्यस्वरूपी तेज प्रबलविद्या है तथा वही स्फुरायमान मंत्र है और समस्त जन्म-जरा आदि को नाश करने वाली वही एक परम औषधि है।।४९।।
अक्षयस्याक्षयानन्दमहाफलभरश्रिय:।
तदेवैकं परं बीजं नि:श्रेयसलसत्तरो:।।५०।।
अर्थ—और उसी शुद्धात्मारूपी तेज से अविनाशी तथा अक्षय सुखरूपी उत्तम फल के देने वाले मोक्षरूपी मनोहर वृक्ष की उत्पत्ति होती है।
भावार्थ— जो पुरुष उस शुद्धात्मा का अनुभव, मनन, ध्यान करते हैं उनको अक्षय सुख को देने वाली मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवों को सदा उस आत्मा का ही चिंतवन करते रहना चाहिये।।५०।।
तदेवैकं परं विद्धि त्रैलोक्यगृहनायकम्।
येनैकेन विना शज्र्े वसदप्येतदुद्वसम्।।५१।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! तीन लोकरूपी घर का स्वामी उसी चैतन्यस्वरूप तेज को तुम समझो क्योंकि मैं ऐसी शंका करता हूँ कि इस एक चैतन्यस्वरूप तेज के बिना यह तीन लोकरूपी घर भी वन के समान है।
भावार्थ— यद्यपि यह लोक जीवाजीवादि छह द्रव्यों से भरा हुवा है तो भी इसमें जानने वाला एक आत्मा ही है और इसके सिवाय समस्त लोक जड़ ही है इसलिये यह आत्मा ही तीन लोकों का राजा है अत: उत्तम फल के चाहने वाले भव्यजीवों को इसी में लीन रहना चाहिए।।५१।।
शुद्धं यदेव चैतन्यं तदेवाहं न संशय:।
कल्पनयानयाप्येतद्धीनमानन्दमन्दिरम्।।५२।।
अर्थ—जो निराकार, निरंजन, शुद्ध, चिद्रूप है सो मैं ही हूँ इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है इस प्रकार की कल्पना से भी वह आनन्दस्वरूप शुद्धात्मा रहित है।
भावार्थ— जो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है वह मैं ही हूँ इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं, इस प्रकार की भी कल्पना उस शुद्धात्मा में नहीं है, शुद्धात्मा समस्त प्रकार की कल्पनाओं से रहित ही है।।५२।।
मोक्ष के लिये की हुई इच्छा भी ठीक नहीं, ऐसा आचार्य बताते हैं।
स्पृहा मोक्षेऽपि मोहोत्था तन्निषेधाय जायते।
अन्यस्मै तत्कथं शान्ता स्पृहयन्ति मुमुक्षव:।।५३।।
अर्थ—मोह के होते सन्ते ही इच्छा होती है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैंं कि यदि मोक्ष के लिये भी मोह से पैदा हुई इच्छा हो जावे, तो वही जब मोक्ष के रोकने वाली हो जाती है तब शान्त तथा मोक्षाभिलाषी मनुष्य अन्य पदार्थों के लिये वैâसे इच्छा कर सकते हैं?।।५३।।
ज्ञानी मनुष्य इस बात का विचार करते हैं-
अहं चैतन्यमेवैकं नान्यत्किमपि जातुचित्।
सबन्धोऽपि न केनापि दृढपक्षो ममेदृश:।।५४।।
अर्थ—मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूं चैतन्य से भिन्न नहीं हूं और मेरा निश्चयनय से किसी दूसरे पदार्थ के साथ संबंध भी नहीं है, यह मेरा प्रबल सिद्धान्त है।।५४।।
शरीरादिबहिश्चिन्ताचक्रसम्पर्कवर्जितम्।
विशुद्धात्मस्थितं चित्तं कुर्वन्नास्तेनिरन्तरम्।।५५।।
अर्थ—बाह्य शरीर आदि पदार्थों की चिन्ता छोड़कर रागद्वेष आदि मलों से रहित तथा निर्मल अपनी आत्मा में ही चित्त को लगाते हैं।।५५।।
एवं सति यदेवास्ति तदस्तु किमिहापरै:।
आसाद्यात्मन्निदं तत्त्वं शान्तो भव सुखी भव।।५६।।
अर्थ— इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से आत्मा के चिंतवन से जो होता है सो हो दूसरे-दूसरे विचारों से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार के वास्तविकस्वरूप को प्राप्त होकर अरे आत्मा! तू शान्त हो तथा सुखी हो, इस प्रकार ज्ञानी अपनी आत्मा को शिक्षा देता रहता है।।५६।।
आपारजन्मसन्तानपथभ्रान्तिकृतश्रमम्।
तत्त्वामृतमिदं पीत्वा नाशयन्तु मनीषिण:।।५७।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्य पुरुषों ! इस कहे हुवे चैतन्यामृत का पान करो तथा इस अपार संसार में अनन्त तिर्यंच, नरक आदि पर्यायों में भ्रमण करने से जो खेद हुवा है, उसको शान्त करो।।५७।।
अतिसूक्ष्ममतिस्थूलमेकं चानेकमेव तत्।
स्वसंवेद्यमेवद्यञ्च यदक्षरमनक्षरम्।।५८।।
अनौपम्यमनिर्देश्यमप्रमेयमनाकुलम् ।
शून्यं पूर्णं च यन्नित्यमनित्यं च प्रचक्ष्यते।।५९।।
निश्शरीरं निरालम्बं निश्शब्दं निरुपाधि यत्।
चिदात्मकं परंज्योतिरवाङ्मानसगोचरम्।।६०।।
इत्यत्र गहनेऽत्यन्तदुर्लक्ष्ये परमात्मनि।
उच्यते यत्तदाकाशं प्रत्यालेख्यं विलिख्यते।।६१।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि चैतन्यरूपी तेज अत्यन्त सूक्ष्म भी है और अत्यन्त स्थूल भी है और एक भी है अनेक भी है, स्वसंवेद्य भी है अवेद्य भी है, अक्षर भी है, अनक्षर भी है तथा उपमारहित है, अवक्तव्य है, अप्रमेय है, आकुलता रहित है, और शून्य भी है, पूर्ण भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, और शरीर सहित है, आश्रय रहित है, शब्द रहित है, उपाधिरहित है तथा चैतन्यस्वरूप परम तेज का धारी है, और न उसको वचन से ही कह सकते हैं तथा न उसका मन से चिंतवन कर सकते हैं, इस प्रकार यह परमात्मा अगम्य तथा दृष्टि के अगोचर है इसलिये जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश पर चित्र लिखना कठिन है उसी प्र्ाकार परमात्मा का वर्णन करना भी अत्यंत कठिन है।
भावार्थ— इस अमूर्तीक परमात्मा को इन्द्रियों से नहीं देख सकते इसलिये तो वह सूक्ष्म है और केवलदर्शन तथा केवल- ज्ञान से देखा और जाना जा सकता है इसलिये वह स्थूल भी है तथा सदा अपने स्वरूप में विद्यमान रहता है और परपदार्थों से भिन्न है इसलिये शुद्ध निश्चयनय से यह एक भी है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से इसकी अनेक ज्ञान-दर्शन आदि पर्याय मौजूद हैं इसलिये यह अनेक भी है तथा अहम्-अहम् इत्याकारक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के गोचर है अर्थात् अपने से जाना जाता है इसलिये तो स्वसंवेद्य है और इन्द्रियों से यह नहीं जाना जा सकता इसलिये यह अवेद्य भी है तथा व्यवहारनय से वचन से कुछ कहा जाता है इसलिये तो यह अक्षर है किन्तु शुद्धनिश्चय नय से इसको कुछ भी नहीं कह सकते इसलिये यह अनक्षर भी है अथवा ‘‘जिसका नाश न होवे वह अक्षर है’’ यदि ऐसा अक्षर शब्द का अर्थ करेंगे तो भी शुद्ध निश्चयनय से तो यह अक्षर ही है क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से इसका कुछ भी नाश नहीं होता तथा व्यवहारनय से यह अनक्षर (विनाशीक) भी है क्योंकि प्रतिसमय इसकी पर्याय पलटती रहती हैं और इसकी समानता को धारण करने वाला कोई पदार्थ नहीं है इसलिये यह उपमारहित भी है तथा इसके वास्तविक स्वरूप को कुछ भी कह नहीं सकते इसलिये यह अवक्तव्य भी है और इसके ‘केवलज्ञानरूपी, गुणों का किसी क्षेत्र आदि के द्वारा परिमाण नहीं किया जा सकता अर्थात् वह समस्त लोक तथा अलोक का प्रकाश करने वाला है इसलिये यह अप्रमेय भी है और यह अचिंत्य सुख का भण्डार है इसलिये आकुलता रहित भी है तथा यह परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से रहित है इसलिये शून्य भी है और समस्त ज्ञान,दर्शन, सुख आदि गुणों से भरा हुवा है इसलिये यह पूर्ण भी है और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा इसका विनाश नहीं होता इसलिये यह नित्य भी है तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इसका प्रति समय विनाश होता रहता है इसलिये वह अनित्य भी है और इसका कोई शरीर नहीं इसलिये यह शरीर रहित है और इसका कोई आश्रय (आधार) नहीं इसलिये यह आश्रय रहित भी है और यह तो चेतन है तथा शब्द पुद्गल है इसलिये यह शब्दरहित भी है तथा इसके साथ निश्चयनय से किसी प्रकार की कर्मों की उपाधि नहीं लगी हुई है इसलिये यह उपाधि रहित है और यह चैतन्यस्वरूप ज्योति है और इसको वचन से कह नहीं सकते तथा मन से विचार नहीं सकते इसलिये यह वाणी तथा मन के अगोचर भी है इसलिये इस प्रकार के शुद्धात्मा का वर्णन करना अल्पज्ञानियों के लिये कठिन है।।५८।५९।६०।६१।।
अस्तां तत्र स्थितो यस्तु चिंतामात्रपरिग्रह:।
तस्यात्र जीवितं श्लाघ्यं देवैरपि स पूज्यते।।६२।।
अर्थ—जो पुरुष उस शुद्धात्मा में तिष्ठने वाला है वह तो दूर रहा किंतु जो पुरुष इस शुद्धात्मा का चिंतवन करने वाला है उसका भी जीवन इस संसार में अत्यंत प्रशंसनीय है तथा उसकी बड़े—बड़े देव आकर पूजा-सेवा करते हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा शुद्धात्मा का ही ध्यान करना चाहिये।।६२।।
सर्वविद्भिरसंसारै सम्यग्ज्ञानविलोचनै:।
एतस्योपासनोपाय: साम्यमेकमुदाहृतम्।।६३।।
अर्थ—समस्त पदार्थों के जानने वाले तथा कर्मों कर रहित तथा केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारी केवली भगवान इस शुद्धात्मा की उपासना करने वाले भव्यजीवों को समस्त पदार्थों में अवश्य समता रखनी चाहिये।।६३।।
साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम्।
शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचका:।।६४।।
अर्थ—साम्य, स्वास्थ्यं, समाधि, योग, चित्त, निरोध, शुद्धोपयोग, ये सर्वशब्द एक ही अर्थ के कहने वाले हैं अर्थात् इन शब्दों के नाम जुदे—जुदे हैं किन्तु अर्थ एक ही है।।६४।।
और भी आचार्यवर साम्य ही के स्वरूप का वर्णन करते हैं।
नाकृतिर्नाक्षरं वर्णो नो विकल्पश्च कश्चन।
शुद्धचैतन्यमेवैकं यत्र तत्साम्यमुच्यते।।६५।।
अर्थ—जिसमें न कोई आकार है और न कोई अक्षर है और न कोई नीला आदि वर्ण है और न जिसमें कोई विकल्प है किन्तु केवल एक चैतन्य ही है, वही साम्य है।।६५।।
साम्यमेकं परं कार्यं साम्यं तत्त्वं परं स्मृतम्।
साम्यं सर्वोपदेशानामुपदेशो विमुक्तये।।६६।।
अर्थ—साम्य ही एक उत्कृष्ट कार्य है और साम्य ही एक उत्तम तत्त्व है तथा साम्य ही मुक्ति के लिये समस्त उत्तम उपदेशों में से उपदेश है।।६६।।
साम्यं सद्बोधनिर्माणं शश्वदानन्दमन्दिरम्।
साम्यं शुद्धात्मनोरूपं द्वारं मोक्षैकसद्मन:।।६७।।
अर्थ—इस साम्य से ही भव्यजीवों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा इस साम्य से ही अविनाशी सुख मिलता है और यह साम्य ही शुद्धात्मा का स्वरूप है तथा साम्य ही मोक्षरूपी मकान का द्वार है।।६७।।
साम्यं निश्शेषशास्त्राणां सारमाहुर्विपश्चित:।
साम्यं कर्ममहादावदाहे दावानलायते।।६८।।
अर्थ—समस्त शास्त्रों का सारभूत यह साम्य ही है और यही साम्य समस्त कर्मरूपी वन के जलाने में दावानल के समान है, ऐसा गणधर आदि देव कहते हैं।।६८।।
साम्यं शरण्यमित्याहुर्योगिनां योगगोचरम्।
उपाधिरचिताशेषं दोषक्षपणकारणम्।।६९।।
अर्थ—और यह साम्य ही समस्त दु:खों को दूर करने में समर्थ है तथा ध्यानी पुरुष ही इसका ध्यान करते हैं और यह साम्य ही आत्मा और कर्मों के संबंध से उत्पन्न हुवे जो रागादि दोष, उनको सर्वथा नष्ट करने वाला है इसलिये भव्य जीवों को सदा साम्य का ही मनन करना चाहिये।।६९।।
निस्पृहायाणिमाद्यब्जखण्डे साम्यसरोजुषे।
हंसाय शुचये मुक्तिहंसीदत्तदृशे नम:।।७०।।
अर्थ—अणिमा-महिमा आदि रूप जो कमलखण्ड, उसकी जिसको अंशमात्र भी इच्छा नहीं है तथा जो समतारूपी सरोवर में सदा प्रीतिपूर्वक रमण करने वाला है और जिसकी दृष्टि मोक्षरूपी हंसिनी में लगी हुई है और जो अत्यंत पवित्र है, ऐसे परमहंस उस शुद्धात्मा के लिये मेरा नमस्कार है।।७०।।
ज्ञानिनोमृतसंगाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन्।
आमकुम्भस्य लोकेस्मिन् भवेत् पाकविधिर्यथा।।७१।।
अर्थ—जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे घड़े के लिये पकाने की विधि एक प्रकार से ताप को ही उपजाने वाली है तो भी वह पाक विधि घड़े को अमृत (जल) के संगम कराने वाली होती है अर्थात् पक जाने पर ही घड़ा पानी के भरने के योग्य होता है उसी प्रकार यद्यपि बहिरात्माओं को मृत्यु, दु:ख के देने वाली है तो भी ज्ञानियों के लिये वह अमृत (मोक्ष) के समागम के ही लिये होती हैं अर्थात् ज्ञानी पुरुष सदा मृत्यु के नाश के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं तथा चैतन्यस्वरूप से भिन्न ही मृत्यु को मानते हैं इसलिये मृत्यु के होने पर भी उनको दु:ख नहीं होता।।७१।।
मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीर्बुद्धि: कृतज्ञता।
विवेकेन विना सर्वं सदप्येतन्न किञ्चन।।७२।।
अर्थ—जो मनुष्य विवेकी नहीं है उसका मनुष्यपना, उत्तमकुल में जन्म, धन, ज्ञान और कृतज्ञपना, होकर भी, निष्फल ही है इसलिये मनुष्यों को विवेकी अवश्य होना चाहिये।।७२।।
विवेक किसको कहते हैं ? इस बात को आचार्य वर बतलाते हैं-
चिदचिद्द्वे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम्।
उपादेयमुपादेयं हेयं हेयञ्च कुर्वत:।।७३।।
अर्थ—संसार में चेतन तथा अचेतन दो प्रकार के तत्त्व हैं उनमें ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करने वाले तथा त्याग करने योग्य को त्याग करने वाले पुरुष का जो विचार है उसी को विवेक कहते हैं।
भावार्थ— चैतन्यस्वरूप आत्मा तो ग्रहण करने योग्य है तथा जड़-शरीर आदि त्यागने योग्य है, ऐसा जो विचार है, उसी का नाम विवेक है।। ७३।।
दु:खं किञ्चित्सुखं किञ्चिच्चित्ते भाति जडात्मन:।
संसारेऽत्र पुनर्नित्यं सर्वं दु:खं विवेकिन:।।७४।।
अर्थ—मूर्ख पुरुषों को तो इस संसार में कुछ सुख तथा कुछ दु:ख मालूम पड़ता है किन्तु जो हिताहित के जानने वाले विवेकी हैं उनको तो इस संसार में सब दु:ख ही दु:ख निरन्तर मालूम पड़ता है।।७४।।
हेयञ्च कर्मरागादि तत्कार्यञ्च विवेकिन:।
उपादेयं परंज्योतिरुपयोगैकलक्षणम्।।७५।।
अर्थ—विवेकी पुरुष को ज्ञानावरणादिकर्मों का तथा उनके कार्यभूत रागादिकों का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये और ज्ञान-दर्शनस्वरूप इस उत्कृष्ट आत्मतेज को ही ग्रहण करना चाहिये।।७५।।
ज्ञानी मनुष्य इस बात का विचार करते रहते हैं-
-इन्द्रवङ्काा-
यदेव चैतन्यमहं तदेव तदेव जानाति तदेव पश्यति।
तदेव चैकं परमस्ति निश्चयाद्गतोऽस्मि भावेन तदेकतां परम्।।७६।।
अर्थ—जो चैतन्य है सो मैं ही हूँ और वही चैतन्य पदार्थों को जानता है तथा देखता है और वही एक उत्कृष्ट है और निश्चयनय स्वभाव से मैं तथा चैतन्य अत्यंत अभिन्न हूँ।।७६।।
-वसन्ततिलका-
एकत्वसप्ततिरियं सुरसिन्धुरुच्चै: श्रीपद्मनन्दिहिमभूधरत: प्रसूता।
यो गाहते शिवपदाम्बुनिधिं प्रविष्टामेतां लभेत स नर: परमां विशुद्धिम्।।७७।।
अर्थ—यह एकत्वसप्ततिरूपी गंगा नदी अत्यंत उन्नत ऐसे श्रीपद्मनन्दी नामक हिमालय पर्वत से पैदा हुई है तथा मोक्ष पदरूपी समुद्र में जाकर मिली है इसलिये जो भव्यजीव उस नदी में स्नान करते हैं इनके समस्त मल नाश हो जाते हैं और वे अत्यन्त विशुद्ध हो जाते हैं।
भावार्थ—जो भव्यजीव इस एकत्व सप्ततिनामक अधिकार का चिंतवन-मनन करते हैं उनके समस्त रागादि दोष दूर हो जाते हैं अत: वे अत्यंत शुद्ध हो जाते हैं और मोक्ष को प्राप्त होते हैं इसलिये उत्तमपुरुषों को सदा इसका ध्यान चिंतवन करना चाहिये।।७७।।
संसारसागरसमुत्तरणैकसेतुमैवं सतां सदुपदेशमुपाश्रितानाम्।
कुर्यात्पदं मललवोऽपि किमन्तरङ्गे सम्यक् समाधिविधिसन्निधिनिस्तरङ्गे।।७८।।
अर्थ—जिन सज्जन पुरुषों ने संसार-समुद्र से पार करने में पुल के समान इस उत्तम उपदेश का आश्रय किया है उन सज्जन पुरुषों के उत्तम आत्मध्यान के करने से क्षोभ रहित अंतरंग में किसी प्रकार का रागादि मल नहीं रह सकता।
भावार्थ— इस एकत्व सप्तति अधिकार के उपदेश से जिन भव्यजीवों का मन अत्यन्त निर्मल हो गया है उन भव्य जीवों के मन में किसी प्रकार का मल प्रवेश नहीं कर सकता।।७८।।
निर्मलचित्त होकर ज्ञानी ऐसा विचार करता है-
आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृति: सापि भिन्ना तथैव।
कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालङ्कृतं सर्वमेतत्।।७९।।
अर्थ—यह ज्ञानस्वरूप मेरा आत्मा भिन्न है और उसके पीछे चलने वाला कर्म भी भिन्न है तथा कर्म और आत्मा के संबन्ध से जो कुछ विकार हुवा है वह भी मुझसे भिन्न है और काल-क्षेत्र आदिक जो पदार्थ हैं वे भी मुझसे भिन्न हैं इस प्रकार अपने-अपने गुण तथा अपनी-अपनी पर्यायों से सहित जितने भर पदार्थ हैं सर्व मुझसे भिन्न ही भिन्न हैं इस प्रकार ज्ञानी सदा विचार करता रहता है।।७९।।
-वसन्ततिलका-
येऽभ्यासयन्ति कथयन्ति विचारयन्ति सम्भावयन्ति च मुहुर्मुहुरात्मतत्त्वम्।
ते मोक्षमक्षयमनूनमनन्तसौख्यं क्षिप्रं प्रयान्ति नवकेवललब्धिरूपम्।।८०।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि जो भव्यजीव उस आत्मतत्त्व का बारंबार अभ्यास करते हैं और कथन करते हैं तथा विचार और अनुभव करते हैं वे भव्यजीव अविनाशी और महान् तथा अनन्तदर्शन, क्षायिक ज्ञान Dाौर क्षायिक चारित्र आदि नौ केवललब्धिस्वरूप सुख के भण्डार ऐसे मोक्ष पद को बात की बात में पालते हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा इस आत्मतत्व का चिंतवन करना चाहिये।।८०।।
इस प्रकार श्रीपद्मनन्दि आचार्य विरचित पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में
एकत्वसप्तति नामक अधिकार समाप्त हुवा।