आदाय व्रतमात्मतत्त्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा वनं निश्शेषामपि मोहकर्मजनितां हित्वा विकल्पावलिम्।
ये तिष्ठन्ति मनोमरुच्चिदचलैकत्वप्रमोदं गता: निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्तेसर्वसङ्गोज्झिता:।।१।।
अर्थ — व्रत को ग्रहण कर तथा निर्मल आत्मा के स्वरूप को जानकर और वन में जाकर तथा मोह कर्म से पैदा हुवे समस्त विकल्पों को नष्ट कर, समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित जो मुनिगण मनरूपी पवन से नहीं चलायमान ऐसे चैतन्य की एकता में हर्ष सहित हैं अर्थात् अपने आत्मध्यान में लीन हैं और पर्वत के समान निश्चल स्थित हैं वे मुनिगण सदा इस लोक में जयवन्त हैं।।१।।
मुनिगण इस प्रकार की भावनाओं का चिन्तवन करते हैं।
-शार्दूलविक्रीडित-
चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्वसं तत्संहृत्य गतागतौ च मरुतौ धैर्यं समाश्रित्य च।
पर्यज्र्ेन मया शिवाय विधिवच्छून्यैकभूभृद्दरीमध्यस्थेन कदाचिदर्पितदृशा स्थातव्यमन्तर्मुखम्।।२।।
अर्थ —चित्त की वृत्ति को रोककर तथा इन्द्रियों को उजाड़ कर (वशकर) और श्वासोच्छ्वास को रोककर तथा धीरता को धारण कर और पर्यंक आसन माड़ कर (पालती मारकर) और आनन्दस्वरूप चैतन्य की तरफ दृष्टि लगाकर निर्जनपर्वत की गुफा में बैठकर मैं कब आत्मध्यान करूँगा ?।।२।।
धूलीधूसरितं विमुक्तवसनं पर्यज्र्मुद्रागतं शान्तं निर्वचनं निमीलितदृशं तत्त्वोपलम्भे सति।
उत्कीर्णं दृषदीव मां वनभुवि भ्रान्तो मृगाणां गण: पश्यत्युतविस्मयो यदि तदा मादृग्जन: पुण्यवान्।।३।।
अर्थ —निजस्वरूप की प्राप्ति होने पर धूलि से मलिन तथा वस्त्ररहित और पर्यंक मुद्रासहित तथा शांत और वचन रहित तथा आँखों को बन्द किये हुवे मुझे जिस समय वन में भ्रमसहित मृग आश्चर्य से देखेंगे, उसी समय मेरे समान मनुष्य पुण्यवान समझा जायगा।
भावार्थ — जिस समय मैं निर्जनवन में निजस्वरूप में लीन होकर मौन सहित दिगम्बर मुद्रा को धारण कर तथा पालती मारकर और आँखों को बन्दकर धूलि से मलिन होकर तथा क्रोध आदि कषायों से रहित शान्त होकर रहूँगा तथा मृगों का समूह मुझे काष्ठ-पाषाण की मूर्ति जानकर आश्चर्य से देखेगा, उसी समय मैं पुण्यवान हूँ ऐसी ज्ञानी सदा भावना करता रहता है।।३।।
वास: शून्यमठे क्वचिन्निवसनं नित्यं ककुम्मण्डलं सन्तोषो धनमुन्नतं प्रियतमा क्षान्तिस्तपोभोजनम्।
मैत्री सर्वशरीरिभि: सह सदा तत्त्वैकचिन्तासुखं चेदास्ते न किमस्ति मे शमवत: कार्यं न किञ्चित्पर:।।४।।
अर्थ — यदि किसी शून्यमठ में मेरा निवास स्थान है तथा अविनाशी दिशाओं का समूह वस्त्र है और सन्तोष धन है तथा क्षमारूपी स्त्री है और तपरूपी भोजन है तथा समस्त प्राणियों के साथ मित्रता है और आत्मस्वरूप का चिंतवन है तो मेरे सर्व ही वस्तु मौजूद है फिर मुझे दूसरी वस्तुओं से क्या प्रयोजन है, ऐसा योगीश्वर सदा विचार करते रहते हैं।।४।।
लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुबुद्ध्वा श्रुतं पुण्यतो वैराग्यञ्च करोति य: शुचितया लोके स एक: कृती।
तेनैवोञ्झितगौरवेण यदि वा ध्यानामृतं पीयते प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हैमे समारोपित:।।५।।
अर्थ — जो मनुष्य इस संसार में उत्तमकुल में जन्म पाकर तथा निरोग और सुन्दर शरीर को प्राप्त कर और शास्त्रों को जानकर वैराग्य को प्राप्त होकर पवित्र तप को करता है वह मनुष्य संसार भर में एक ही पुण्यवान समझा जाता है और वही तप करने वाला पुरुष यदि मदरहित होकर ध्यानामृत का आस्वादन करे तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य ने सुवर्णमय घर के ऊपर मणिमय कलश की स्थापना की।
भावार्थ — जिस प्रकार संसार में कोई मनुष्य सुवर्णमय मकान बनवावे तो वह अधिक प्रतिष्ठित समझा जाता है और यदि वही पुरुष उसके ऊपर मणिमय कलश चढ़ावे तो वह और भी अत्यंत प्रतिष्ठित समझा जाता है उसी प्रकार उत्तम कुल में जन्म पाकर तथा निरोग और सुन्दर शरीर को प्राप्त होकर और शास्त्र को जानकर तथा वैराग्य को पाकर, जो पुरूष तप करता है वह अधिक प्रतिष्ठित समझा जाता है किन्तु जो ऐसा होकर ध्यान भी करता है वह और भी अत्यंत प्रतिष्ठित समझा जाता है इसलिये भव्यजीवों को उपर्युक्त सामग्री के मिलने पर ध्यान अवश्य करना चाहिये।।५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
ग्रीष्मे भूधरमस्तकाश्रितशिलां मूलं तरो: प्रावृषि प्रोद्भूते शिशिरे चतुष्पथपदं प्राप्ता: स्थितिं कुर्वते।
ये तेषा यमिनां यथोक्ततपसां ध्यानप्रशान्तात्मनां मार्गे सञ्चरतो मम प्रशमिन: काल: कदा यास्यति।।६।।
अर्थ — जो योगीश्वर ग्रीष्मऋतु में पहाड़ों के अग्रभाग में स्थितशिला के ऊपर ध्यानरस में लीन होकर रहते हैं तथा वर्षाकाल में वृक्षों के मूल में बैठकर ध्यान करते हैं और शरद ऋतु में चौड़े मैदान में बैठकर ध्यान लगाते हैं उन शास्त्रों के अनुसार तप के धारी तथा ध्यान से जिनकी आत्मा शान्त हो गई है ऐसे योगीश्वरों के मार्ग में गमन करने के लिये मुझे भी कब वह समय मिलेगा ?।।६।।
भेदज्ञानविशेषसंहृतमनोवृत्ति: समाधि: परो जायेताद्भुतधाम धन्यशमिनां केषांचिदत्राचल:।
वङ्को मूधर््िन पतत्यपि त्रिभुवने वह्निप्रदीप्तेऽपि वा येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत्प्राणेषु नश्यत्स्वपि।।७।।
अर्थ — और स्वपर के भेद ज्ञान से जिस समाधि में मन की वृत्ति संकुचित है और जो आश्चर्यकारी है तथा उत्कृष्ट और अचल है, ऐसी वह समाधि उन धन्य तथा शाम्यभाव के धारक मुनियों के होती है जिस समाधि के होने पर मस्तक पर वङ्का गिरने पर भी तथा तीनों लोक के जलने पर भी और निज प्राणों के नष्ट होने पर भी जिन मुनियों के मन को किसी प्रकार का विकार नहीं होता ।।७।।
अन्तस्तत्त्वमुपाधिवर्जितमहं व्यापारवाच्यं परं ज्योतिर्यै: कलितं श्रुतं च यतिभिस्ते सन्तु न: शान्तये।
येषां तत्सदनं तदेव शयनं तत्सम्पदस्तत्सुखं तद्वृत्तिस्तदपि प्रियं तदखिलश्रेष्ठार्थसंसाधकम्।।८।।
अर्थ — जिसके साथ किसी प्रकार के कर्म का संबंध नहीं है तथा जो ‘‘अहम् ’’ इस शब्द से कहा जाता है ऐसे उत्कृष्ट ज्योति: स्वरूप आत्मतत्त्व को जिनमुनीश्वरों ने जान लिया है तथा सुन लिया है और जिन योगीश्वरों के वह निजतत्त्व ही एक रहने का स्थान है और वही सोने का स्थान है तथा वही सुख है तथा वही वृत्ति है और वही प्रिय है तथा वही निजतत्त्व जिन मुनियों को मनोवांछितपदार्थों का सिद्ध करने वाला है, वे यतीश्वर मुझे शान्ति प्रदान करें।।८।।
पापारिक्षयकारि दातृ नृपतिस्वर्गापवर्गाश्रिया श्रीमत्पज्र्जनन्दिभिर्विरचितं चिच्चेतनानन्दिभि:।
भक्त्या यो यतिभावनाष्टकमिदं भव्यस्त्रिसन्ध्यं पठेत् किं किं सिध्यति वाञ्छितं न भुवने तस्यात्र पुण्यात्मन:।।९।।
अर्थ — जो यतिभावनाष्टक समस्त पापरूपी वैरियों का नाश करने वाला है और राजलक्ष्मी तथा स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी का देने वाला है तथा जिसकी रचना चैतन्यस्वरूप तत्त्व में आनंद मानने वाले श्रीपद्मनन्दि मुनी ने की है, ऐसे यतिभावनाष्टक को जो भव्यजीव भक्तिपूर्वक तीनों काल पढ़ते हैं उन भाग्यशाली भव्यजीवों को संसार में किस-किस इष्ट पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती ? अर्थात् सर्व इष्ट पदार्थ उनको सुलभ रीति से मिल जाते हैं।।९।।
इस प्रकार इस पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में यतिभावनाष्टक
नामक पञ्चम अधिकार समाप्त हुआ।