प्रातिहार्य से युत अरिहंतों, को अठगुण युत सिद्धों को।
वंदूँ अठ प्रवचनमाता से, संयुत श्री आचार्य को।।
शिष्यों से युत पाठकगण को, अष्ट योग युत साधू को।
वंदूँ पंचमहागुरुवर को, त्रिकरण शुचि से मुद मन हो।।
भगवन् ! पंचमहागुरु, भक्ति कायोत्सर्ग।
करके आलोचन विधि, करना चाहूँ सर्व।।१।।
अष्टमहाशुभ प्रातिहार्य, संयुत अरिहंत जिनेश्वर हैं।
अष्टगुणान्वित ऊर्ध्वलोक, मस्तक पर सिद्ध विराज रहें।।
अठ प्रवचनमाता संयुत हैं, श्री आचार्य प्रवर जग में।
आचारादिक श्रुतज्ञानामृत, उपदेशी पाठकगण हैं।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु परमेष्ठी हैं।
नितप्रति अर्चूं पूजूँ वंदूँ, नमस्कार मैं करूँ उन्हें।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।३।।