संसार में सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैं, फिर भी अपने-अपने कर्मों के अनुसार प्रत्येक प्राणी को सुख-दु:ख भोगना पड़ता है। जब विपत्ति आती है, संकट आते हैं तो सभी प्रभु का स्मरण करते हैं, किन्तु सुख के दिनों में सब भूलकर विषय-भोगों में ही निमग्न रहते हैं। यदि हम अपने जीवन में प्रत्येक क्षण भगवान का स्मरण करते हुए बितायें तो शायद दु:ख का सामना न करना पड़े।
मोह के वशीभूत होकर हम इस चतुर्गति के दु:खों को भोगते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं। हमारे प्रिय परिजनों, मित्रों पर कोई असाध्य बीमारी या महाविपत्ति आती है तो हम उसके निवारण हेतु अनेक प्रयत्न करते हैं। शास्त्रों में भी अनेक उदाहरण पढ़ने में आते हैं कि प्रभु के नामस्मरण से, पूजा-अनुष्ठान के द्वारा अकाल मृत्यु और संकट भी टल जाते हैं।वर्तमान में भी कई प्राणी ऐसे संकटों के निवारण हेतु गुरुओं के समीप जाकर उपाय पूछते हैं, तब करुणावश वे आगमोक्त विधि के अनुसार यंत्र-मंत्र, पूजा-अनुष्ठान करने के लिए प्रेरणा देते हैं जिन्हें श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करके अनेकजन इन कष्टों से छुटकारा प्राप्त करते हैं। उन्हीं में से एक ‘‘मृत्युंजय विधान’’ भी है जिसमें अवर्णादि बीजाक्षर की पूजा करके मंत्रों के माध्यम से अकाल मृत्यु को टालने हेतु प्रयत्न करते हैं। इसमें अवर्ण से लेकर कबीजपर्यंत वर्णों की स्थापना कर अर्घ्य चढ़ाया जाता है। प्रत्येक वर्ण में कई प्रकार की शक्ति समाहित हैं जो कष्ट निवारण में प्रबल निमित्त हैं। इस विधान की मृत्युंजय जाप करने से भी इच्छित फल की प्राप्ति होती है। जयमाला में चौबीस तीर्थंकर भगवान की स्तुति करते हुए कामना की है कि-
प्रभु आपके प्रभाव से फिर जन्म ना धरूँ,
सम्यक्त्व के माहात्म्य से जीवन सफल करूँ।
नृप इन्द्र आदि की मुझे किंचित् भी चाह ना,
आतम से परमातम बनूँ बस एक कामना।।
यह ‘मृत्युंजय विधान’ सभी प्रकार के संकटों को दूर कर इच्छित सिद्धि करने वाला है।