भव्यात्माओं! आचार्यों ने कहा है-
न सम्यक्त्व समं किञ्चित्, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयो श्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नान्यत् तनु भृताम्।।
संसार में सम्यक्त्व के समान तीनों लोकों में और तीनों कालों में कोई हित करने वाला श्रेयस्कर, उत्तम, श्रेष्ठ नहीं है और मिथ्यात्व के समान प्राणियों के लिए संसार में कोई अकल्याणकारी, शत्रु, अहितकारी नहीं है। सम्यक्त्व को एक रत्न की उपमा दी है, सम्यक्त्व एक महान रत्न है, रत्नत्रय में प्रथम रत्न है। सम्यग्दर्शन के बिना किसी भी व्यक्ति ने आज तक मोक्ष को प्राप्त नहीं किया है और न आगे कर सकता है।
संसार के अनेक वैभव, अनेक अभ्युदय ऐसे हैं, जो सम्यक्त्व के प्रभाव से ही मिलते हैं। जैसे-चक्रवर्ती पद, नारायण आदि पद, तीर्थंकर पद, ये विशेष पद हैं जो सम्यक्त्व के प्रभाव से ही प्राप्त होते हैं। सौधर्म इन्द्र आदि पद भी सम्यक्त्व के प्रभाव से ही मिलते हैं। संसार में सम्यग्दर्शन सर्वश्रेष्ठ और महान है। हम और आप आज भाग्यशाली हैं, पुण्यशाली हैं जो कि पंचमकाल में जन्म लेकर भी भगवान की भक्ति करने के अधिकारी हैं, पात्र बने हुए हैं। हमें जैनधर्म मिला है, जैनकुल मिला है और उसमें भी भगवन्तों की भक्ति करने का उत्तम अवसर अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है।
इस सम्यग्दर्शन की महिमा विशेषरूप से विद्वानों ने भी बतलाई है-
‘‘मोक्ष महल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यक्त्वा न लहे सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।’’
यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है, ज्ञान और चारित्र कितना भी हो जाये लेकिन सम्यग्दर्शन के बिना पुन:-पुन: यह जीव संसार में परिभ्रमण करता ही रहता है और सम्यग्दर्शन के प्रभाव से इस भव में भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यद्यपि पंचमकाल में यहाँ से मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते पर चतुर्थकाल में उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते थे और आज जहाँ चतुर्थकालवर्त रहा है, ऐसे विदेह क्षेत्रों में वहाँ से उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं या तीसरे भव से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। सम्यग्दृष्टि नियम से देवगति को ही प्राप्त करता है। अगर स्त्री को सम्यग्दर्शन हो गया है तो नियम है कि वह देवगति और पुरुषवेद ही प्राप्त करेगी। सम्यग्दृष्टि स्त्रीपर्याय में, नपुंसक पर्याय में, तिर्यंचों में जन्म नहीं लेता, एकेन्द्रिय आदि तुच्छ योनियों में नहीं जाता, यह सम्यग्दृष्टि की अपनी एक विशेष महिमा है।
मान लीजिए किसी ने पहले नरक की आयु बांध ली, जैसे-राजा श्रेणिक ने नरक की आयु बांध ली, पुन: भगवान महावीर के समवसरण में पहुँचे। वहाँ पर भक्ति किया, सम्यग्दृष्टि बने तो उन्हें नरक तो जाना पड़ा लेकिन सातवें नरक की आयु घट-घट के पहले नरक की रह गई और आगे महामना राजा श्रेणिक तीर्थंकर बन जायेंगे। ऐसे ही किसी ने पहले तिर्यंचायु बांध ली, फिर सम्यग्दर्शन हुआ तो वह भोगभूमि का तिर्यंच होगा और यदि पहले मनुष्यायु बांध ली फिर सम्यग्दृष्टि बना तो वह भोगभूमि का मनुष्य होगा, कर्मभूमि का नहीं, ऐसा नियम है और आयु नहीं बांधी है तो सम्यग्दर्शन होने पर नियम से वह देवयोनि को ही प्राप्त करेगा। सम्यग्दर्शन की महिमा के बारे में एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण मैं आपको बताती हूँ-
भगवान ऋषभदेव जब दशवें भव पूर्व राजा महाबल की पर्याय में थे, उस समय की घटना है। विदेह क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत पर अलका नाम की नगरी में विद्याधर राजा महाबल राज्य करते थे। उनके चार मंत्री थे-शतमति, महामति, संभिन्नमति और स्वयंबुद्ध। चार मंत्रियों में तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे। यद्यपि विदेह क्षेत्र का यह नियम है कि वहाँ पर ‘द्रव्य’ से मिथ्यात्व नहीं है, ‘भाव’ से मिथ्यात्व है। द्रव्य से मिथ्यात्व यानि पाखण्ड वेषधारी साधु नहीं हैं और न अनेक प्रकार के देव-देवियों के मंदिर हैं।
उन चारों मंत्रियों में तीन मंत्री भावों से मिथ्यादृष्टि थे और स्वयंबुद्ध मंत्री जैन, सम्यग्दृष्टि, स्याद्वादनय का अनुसरण करने वाला, अनेकांत दृष्टि वाला था। एक दिन राजा महाबल का जन्मदिन आया। इसे वर्षगांठ भी कहते हैं। उस दिन राज्य में खूब उत्सव मनाया गया। राजमहल में, राजदरबार में भी खूब उत्सव मनाया गया। सारे नगर में खूब ध्वजाएँ लहराईं, तोरण बांधे गए, वन्दनवार सजाए गए और भी अनेक प्रकार से लोगों ने उत्सव किए पुन: राजसभा में राजसिंहासन पर राजा आरूढ़ थे तो मंत्रियों ने पूर्वजों का बखान करना शुरू किया। आपके पूर्वज ऐसे थे, ऐसे थे और धर्म चर्चाएँ और धर्मगोष्ठी भी की। इसी बीच पहले मंत्री ने कहा-राजन्! परलोक नाम की कोई चीज है ही नहीं। न ईश्वर है, न परलोक है, न स्वर्ग नरक है, कुछ नहीं सब कल्पनाएँ हैं। केवल चारभूतों से या पंचभूतों से समझ लीजिए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु मिली, कोई आकाश तत्व कहते हैं तो पांचभूत मानते हैंं इन पंचभूतों से शरीर बना है जो कि नष्ट हो जाएगा। अत: खूब खाओ-पिओ-मौज करो। परलोक के लिए यह धर्म- अनुष्ठान आदि सब बेकार है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कहते हैं परलोक की सिद्धि के लिए उपवास करो, दीक्षा लेओ, तपश्चरण करो, लेकिन जब परलोक नाम की कोई चीज ही नहीं है तो बिना कारण शरीर को कष्ट देने से क्या फायदा? ऐसा पहले मंत्री ने अपना मत रखा।
दूसरे मंत्री ने कहा-सब चीज क्षणभुंगुर है, क्षण-क्षण में नष्ट हो रही है। तीसरे मंत्री ने कहा-सब शून्य है, शून्य है, कुछ नहीं, सब कल्पना है, इन्द्रजाल का खेल है, वâुछ भी नहीं है।
स्वयंबुद्ध मंत्री इन तीनों मंत्री की बात सुनकर चुप न बैठ सका। उसने अपने स्याद्वाद के बल से अनेकांत स्वरूप जैनधर्म का अच्छी तरह से प्रतिपादन किया। उसने कहा-आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी। आत्मा द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। आत्मा अजर, अमर है, शाश्वत है। अनादिकाल से वही आत्मा चतुर्गति में भ्रमण कर रहा है आदि। इस प्रकार उसने सच्चे धर्म का, अहिंसामयी परमोधर्म का समर्थन किया और उन मंत्रियों को चुप कर दिया।
राजा महाबल स्वयंबुद्ध मंत्री की बात को सुनते हुए मुस्कराते ही रहे। उन्होंने अपना कोई निर्णय नहीं दिया। एक दिन क्या होता है। स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरु पर्वत की वंदना के लिए गए हुए थे। चूूँकि वे विद्याधर थे, अत: विद्या के बल से कहीं भी आकाश मार्ग से विचरण करते रहते थे। उन्होंने सुदर्शन मेरु की वंदना करते हुए भद्रसालवन में चार मंदिरों की वंदना की। प्रत्येक मंदिरोें में १०८-१०८ जिनप्रतिमाओं के दर्शन किए। फिर नन्दनवन में चार जिनमंदिरों की वंदना की पुन: सौमनसवन में चार जिनमंदिरों की वंदना की। सौमनस वन में एक तरफ देखते हैं शिला पर दो महामुनि विराजमान हैं, उनके निकट जाकर उन्हें नमस्कार किया, उनकी प्रदक्षिणा दी, उनकी भक्ति की। वे महामुनि चारण ऋद्धिधारी थे, उनके नाम थे-आदित्यगति और अरिंजय। वे महामुनि विदेहक्षेत्र में विराजमान भगवान सीमंधर और युगमंधर के समवसरण में उनका दर्शन करने आये थे।
स्वयंबुद्ध मंत्री ने उन महामुनियों की भक्ति करते हुए उनसे प्रश्न किया-भगवन्! हमारा राजा महाबल भव्य है कि अभव्य? वह निकट भविष्य में मोक्ष को प्राप्त करेगा या नहीं। वह जैनधर्म को स्वीकारेगा या नहीं? आदि प्रश्न किए। देखिए! हितैषी इसे कहते हैं जो अपने मित्रों के लिए भी धर्म के बारे में सोचें, न केवल अपनी आत्मा के बारे में। आज क्या है? लोग गुरु के पास जाते हैं, धन की प्राप्ति, पुत्र की प्राप्ति आदि अनेक सांसारिक सुखों की इच्छा रखते हुए अनेक भावनाएँ, कामनाएँ लेकर आते हैं लेकिन ऐसे लोग विरले ही हैं, जो आते ही गुरु के पास प्रश्न करें कि गुरुदेव! ‘आत्मने किम् हितम्’-अर्थात् आत्मा का हित किसमें है? आत्मा के लिए हितकर क्या है, ऐसा बहुत कम पूछने वाले होते हैं।
स्वयंबुद्ध मंत्री ने अपनी आत्मा के लिए और राजा के लिए पूछा। तब मुनिराज ने अपने दिव्य अवधिज्ञान से और भगवान के समवसरण में जो सुनकर आये थे, उसके आधार से प्रसन्नमना होकर मुस्कराते हुए कहा-हे मंत्रीवर! हे भव्योत्तम! तुम्हारा राजा भव्य है, आज से दशवें भव में तीर्थंकर ऋषभदेव होगा और मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस भव में भी तुम्हारी बात स्वीकारेगा। आज उसे दो स्वप्न हुए हैं और वे तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठे हुए सोच रहे हैं। कब स्वयंबुद्ध मंत्री आवे और मैं उससे अपने प्रश्नों का उत्तर समझूँ। तुम जाकर उनके प्रश्नों का फल बताकर उन्हें सम्बोधित करो। राजा प्रसन्नमना होकर तुम्हारी बात को धारण करेंगे और धर्म को स्वीकारेंगे। मंत्री बहुत ही प्रसन्नमना,गद्गद होकर पुन: पुन: गुरु को नमस्कार करके उनके चरणों का स्पर्श करके अपने मस्तक को पवित्र करता हुआ वहाँ से चला आया और सीधे राजमहल में पहुँच गया। राजा उसकी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। मंत्री ने कुशल समाचार पूछकर पहले ही बता दिया कि आज आपने दो स्वप्न देखे हैं। राजा ने कहा-हाँ, मैंने पहले स्वप्न में देखा है कि तीनों मंत्रियों ने मुझे जबरदस्ती कीचड़ में डाल दिया है और तुमने उनकी भर्त्सना करके मुझे कीचड़ से निकाला है और सिंहासन पर बिठाकर मेरा राज्याभिषेक करके मुझे बहुत सम्मानित किया है और दूसरा स्वप्न मैंने देखा है कि दीपक की लौ क्षीण हो रही है।
तब मंत्री ने कहा-राजन्! आज मुझे सुमेरु पर्वत की वंदना करते समय सौमनस वन में दो महामुनि के दर्शन हुए। मैंने उनसे आपके बारे में पूछा था तो उन्होंने बताया है। पहले प्रश्न का समाधान तो स्पष्ट है कि तीनों मंत्री ने जो आपको उपदेश दिया, वह आपके लिए हितकर नहीं है और जो मैंने कहा वह सत्य कहा है, भगवान की वाणी का मैंने प्रतिपादन किया है। मैंने अपना निजी कुछ नहीं कहा। मैंने आपके हित के लिए स्याद्वादनय से बताया कि आत्मा कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है। संसार कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है आदि।अब दूसरा स्वप्न जो आपने देखा है उसका फल यह है कि आपकी आयु मात्र एक महीने की रह गई है, ऐसा महामुनि ने मुझे बताया है। राजा को कोई दु:ख नहीं हुआ, उसने प्रसन्नमना होकर गुरु का और स्वयंबुद्ध मंत्री का उपकार माना। राजा ने कहा-तुमने मुझे सचेत कर मेरा बड़ा उपकार किया है, अब मुझे क्या करना है, यह देखते हैं। राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर विजयार्ध पर्वत पर जाकर सिद्धकूट जिनमंदिर में आठ दिन तक आष्टान्हिक महापर्व की पूजा करके २२ दिन की सल्लेखना ले ली और स्वयंबुद्ध मंत्री को निर्यापकाचार्य बनाकर कहा कि आप मुझे बराबर तत्त्व ज्ञान का उपदेश देते रहेंगे। आत्मा भिन्न है शरीर भिन्न है, आखिर इस शरीर को एक दिन तो छोड़ना ही है। खुशी-खुशी, धैर्यपूर्वक, प्रसन्नमना होकर भगवान का नाम स्मरण करते हुए शरीर को छोड़ेंगे तो निश्चित ही देवपद मिलेगा और हाहाकार करके, विलाप करके, दुखी होकर शरीर को छोड़ेंगे तो दुर्गाfत में जाना पड़ेगा। ‘आर्तध्यान’ से सेठ का जीव मरकर मेढ़क हो गया। आर्तध्यान से धन के लोभ में मरकर जीव साँप हो जाते हैं, रौद्रध्यान से मरकर नरक चले जाते हैं आदि।
राजा महाबल २२ दिन की सल्लेखना से शरीर का त्याग करके दूसरे स्वर्ग में ललितांग नाम के देव हो गए। वहाँ की आयु पूरी करके, दिव्य वैभव को भोग करके, वहाँ से च्युत होकर राजा वङ्काजंघ हुए। पुन: राजा वङ्काजंघ आहारदान के प्रभाव से मरकर भोगभूमि में आर्य हुए। भोगभूमि में जाने वाले मनुष्य, स्त्री, पुरुष, तिर्यंच कोई भी हो, युगलिया नियम से मरकर एक देवयोनि को ही प्राप्त करेंगे। स्वर्ग में अधिकतम पहला स्वर्ग या दूसरा स्वर्ग। अथवा सम्यग्दर्शन नहीं है तो भवनत्रिक में भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी कोई भी देव हो जायेंगे। भोगभूमिज मर करके न तो मनुष्य होंगे, न तिर्यंच, न नरक में जायेंगे। पुन: वे राजा महाबल के जीव भोगभूमि से मरकर दूसरे स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम के देव हो गए। एक दिन उन्हें अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि प्रीतिंकर महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हुआ है, उनकी गंधकुटी की रचना हुई है, उनकी दिव्यध्वनि खिर रही है, वहाँ असंख्यातों भव्यप्राणी उनका उपदेश सुन रहे हैं।
गंधकुटी में भी समवसरण जैसी व्यवस्था रहती है लेकिन तीर्थंकरों के समवसरण जैसा वैभव वहाँ नहीं रहता, कुछ कम रहता है। श्रीधर देव वहाँ आ गए और प्रीतिंकर केवली के मुख से बहुत कुछ सुनकर प्रसन्नमना हुए। उन्होंने प्रश्न किया कि भगवन्! आज से पाँचवें भव पूर्व महाबल की पर्याय में मेरे चार मंत्री थे। शतमति, महामति, संभिन्नमति और आप थे स्वयंबुद्ध मंत्री। आपने तो दीक्षा लेकर स्वर्गपद पाया पुन: मनुष्य बने, दीक्षा लेकर केवली हो गए। आपने तीसरे भव में ही अपने संसार का अंत कर लिया। यह तो निश्चित ही है केवली भगवान मोक्ष को प्राप्त करेंगे। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे तीन मंत्री कहाँ है? भगवान केवली ने बताया कि तीन मंत्री में से एक का जीव तो नरक चला गया है और दो मंत्री के जीव निगोद चले गए हैं।
तीसरे नरक तक तो जाकर देव सम्बोधित कर सकते हैं, उसके आगे नहीं। निगोद पर्याय में तो सम्बोधित भी नहीं कर सकते। निगोद पर्याय क्या है? छहढाला में कहा है-
एक श्वास में अठ दस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दुख भार।
जहाँ एक श्वास में १८ बार जन्म मरण करते हैं, ऐसी तुच्छ योनि निगोद है, एकेन्द्रिय पर्याय है। अब वह श्रीधरदेव विचार करते हैं कि राजा महाबल की पर्याय में मैंने जैनधर्म को स्वीकारा, तो आज मैं देव की पर्याय में हूँ और स्वयंबुद्ध मंत्री जिसने मुझे संबोधा था, वह आज केवली बन गए हैं। लेकिन देखो! मिथ्यात्व के निमित्त से दो मंत्री निगोद चले गए, जहाँ उनको हम तो क्या, केवली भगवान भी सम्बोधित नहीं कर सकते। तीन लोक में तीन काल में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उन्हें सम्बोधित करके उस योनि से निकाल सके। एकेन्द्रिय योनि में कान नहीं है केवल शरीर है, काय है, श्वासोच्छ्वास और आयु ये चार प्राण हैं। जब वहाँ वचन नहीं, कान नहीं, मन नहीं तो उन्हें कौन सम्बोधित कर सकता है? एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, इन पर्यायों में कोई सम्बोधन किसी प्रकार से कोई नहीं कर सकता, जब उसका स्वयं का पाप क्षीण हो, मंद हो, तब भले ही वह जीव वहाँ से निकलकर मनुष्य योनि को प्राप्त कर सकता है। इसमें असंख्यातों वर्ष, अनन्तों भव, अनन्तकाल निकल जाते हैं।
श्रीधरदेव ने दूसरे नरक जाकर शतमति मंत्री के जीव को सम्बोधित किया, उसे सम्यग्दर्शन ग्रहण कराया और कहा-मंत्रिवर! राजा महाबल की पर्याय में तुम मेरे मंत्री थे, तुमने मुझे मिथ्यात्व का उपदेश दिया था, तुम मिथ्यादृष्टि थे। मिथ्यात्व के निमित्त से तुम इस नरक में आए हो। अब सम्यग्दर्शन को धारण करो तो यहाँ से निकलकर अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हो। उस शतमति मंत्री के जीव नारकी ने इसे स्वीकारा और स्वीकार करके, नरक की आयु को पूर्ण करके, नरक के दुखों को भोग करके पुष्करद्वीप के विदेह क्षेत्र में महीधर चक्रवर्ती का पुत्र जयसेन हुआ और जब उसका यौवन अवस्था में विवाह हो रहा था तो फिर श्रीधरदेव ने उसको जाकर सम्बोधा। अरे जयसेन! तुम नरक से आए हो, नरक के दु:खों को याद करो। अब इस विवाह के चक्कर में और गृहस्थी के चक्कर में पड़ करके, विषयभोगों में फंस करके फिर अपने मनुष्य भव के अमूल्य क्षणों को व्यर्थ में मत गंवाओ। उसने फिर इस बात को स्वीकारा और दीक्षा लेकर कालान्तर में स्वर्ग को प्राप्त किया।
देखो! संसार में मिथ्यात्व से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है। मिथ्यात्व के कारण एक ने नरक पाया और दो ने निगोद। मिथ्यात्व क्या है? सम्यक्त्व क्या है? इसे भी जानना आवश्यक है।
सच्चे देव-अर्हंत देव-जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया है और सिद्ध परमेष्ठी, जिन्होंने आठों कर्मों का नाश किया है, सिद्धालय में विराजमान हैं, ऐसे सच्चे देव, जिनकी मूर्तियाँ आज मंदिरों में विराजमान हैं। वीतराग छवि जिनकी है, ऐसे सच्चे देव, उनके द्वारा कथित सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु-निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि इनको नमस्कार करना, इनकी भक्ति करना और शास्त्र में कथित जो सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं, उन अष्ट अंग्ाों को धारण करना, पालन करना, उनके अनुसार प्रवृत्ति करना, छ: अनायतन का, तीन मूढ़ता का त्याग करना, आठ मदों को छोड़ना, २५ मल दोष रहित सम्यग्दर्शन को धारण करना यह सम्यग्दर्शन है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है-
भयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागमलिङ्गिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव, न कुर्यु: शुद्धदृष्टय:।।
भय से, आशा से-किसी प्रकार की धन आदि की आशा से, लोभ से, स्नेह से-कोई स्नेही कह रहे हैं इनको हाथ जोड़ लो आदि भय, आशा, स्नेह और लोभ किसी भी निमित्त से कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को नमन नहीं करना, प्रणाम नहीं करना, उनकी विनय नहीं करना आदि, यही मिथ्यात्व का त्याग है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को नमन करना, उनकी भक्ति आदि करना, उनकी आज्ञा का पालन आदि करना यही सम्यग्दर्शन है। ऐसे इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की है।जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। समन्तभद्रस्वामी का यही कहना है-
न सम्यक्त्व समं किंचित्……..। सम्यक्त्व के समान तीनों लोकों और तीनों कालों में कोई श्रेयस्कर, हितकर, कल्याणकर वस्तु नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई शत्रु-अहितकर नहीं है। मिथ्यात्व का त्याग करो, सम्यक्त्व को ग्रहण करो, धारण करो। यह सम्यग्दर्शन ही आज इस पंचमकाल में सर्वश्रेष्ठ रत्न है और नियम से देवपद को और परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराएगा। संसार में जितने भी सुख है उनमें कोई भी ऐसा सुख नहीं है जो सम्यग्दर्शन के प्रसाद से न प्राप्त हो सके। आचार्यों ने स्वयं कहा है-
‘धर्माराम् तरूणाम् फलानि सर्वेन्द्रयार्थ सौख्यानि।’ जितने भी सांसारिक वैभव हैं, पंचेन्द्रिय के वैभव हैं, सभी सम्यग्दर्शन के प्रसाद से मिलते हैं। ‘भक्ति’ भी सम्यग्दर्शन है। समयसार में श्री जयसेन स्वामी ने तो स्पष्ट कहा है-जिनेन्द्र भगवान की भक्ति, पंचपरमेष्ठी की भक्ति यही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि सही मायने में जो सुन्दर भक्ति, अतिशयपूर्ण भक्ति, विशेष भक्ति कर सकता है, मिथ्यादृष्टि वह भक्ति नहीं कर सकता है। आप सम्यग्दृष्टि हैं भगवान की प्रतिदिन पूजा करें, अभिषेक करें, उनकी भक्ति करते हुए संसार के भी अनेक अभ्युदयों को प्राप्त करें। धन, सुख, सम्पत्ति सब कुछ सम्यग्दर्शन के प्रसाद से मिल सकता है। कोई ऐसी वस्तु संसार में है ही नहींr, जो सम्यग्दृष्टि को न मिल सके। आप स्वयं चिंतन करें, जब चक्रवर्ती पद सम्यग्दृष्टि को मिल सकता है, तब सौधर्म इन्द्र का पद, लौकान्तिक पद आदि तो मिल ही जायेंगे।
चौबीस तीर्थंकर की भक्ति और उनकी पूजा-भुक्ति मुक्ति दातार है। भुक्ति यानि संसार के वैभव, संसार के सुख और मुक्ति यानि मोक्ष। तो जब तक हम मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते, तब तक संसार के सभी सुख-वैभव सम्यग्दर्शन के प्रसाद से मिल सकते हैं, मिलते हैं और मिलेंगे। एक भक्त भगवान से क्या कहता है-
जिनधर्म विनिर्मुक्तो, मा भवच्चक्रवर्त्यपि।
स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:।।
हे भगवन्! मैं इस जिनधर्म को छोड़कर, आपकी भक्ति को छोड़कर चक्रवर्ती भी नहीं होना चाहता हूँ। चूँकि सुभौम चक्रवर्ती ने णमोकार मंत्र का अपमान किया तो वह नरक चला गया। भले ही मैं किसी का दास हो जाऊँ, दरिद्र अवस्था में ही क्यों न रहूँ लेकिन सम्यग्दर्शनरूपी रत्न मेरे पास है तो मैं समझता हूँ कि मैं सबसे बड़ा धनवान हूँ। मैंने पूजन की पंक्तियों में कई जगह संजोया है-
सम्यक्त्व रत्न पाय मैं निहाल हो गया। बस तीन रत्न से ही मालामाल हो गया।
अर्थात् हे भगवन्! मैंने सम्यक्त्वरत्न को पाया है अत: मेरा जीवन निहाल हो गया है। इस प्रकार की भक्ति करते हुए मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिए।