मानव जीवन दुर्लभ है। उसका अन्तिम साध्य आवागमन के बंधन से उन्मुक्त होना है। जिसका एकमात्र साधन है धर्म—आराधना। धर्म का आधार मानस की पवित्रता, भावनाओं की उज्वलता तपमूलक आचार का अनुसरण है पर केवल आदर्श की परिधि में नहीं व्यावहारिक भूमिका पर विचार करें कि यह कब संभव है? जब मनुष्य के घर की स्थिति संतोष जनक हो। उनके दैनिक जीवन निर्वाह की समीचीन व्यवस्था हो। जिस व्यक्ति के दोनों समय खाने की व्यवस्था नहीं है और रहने को समुचित स्थान तक नहीं है, जिसके बच्चे क्षुधा से पीड़ित रहते हैं, रुग्ण होने पर जिन्हें औषधि तक उपलब्ध नहीं होती, क्या उनके लिये संभव होगा कि वे अपने को आत्मध्यान में रमा सकें? यह स्पष्ट ही है कि ऐसा असंभव नहीं तो दु:संभव अवश्य है। मेरे मन को इस बात ने चमत्कृत कर डाला कि भारतीय मनीषियों/ चिन्तकों ने मानव जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के कितने प्रयत्न किये। मंत्र, तंत्र, यंत्र भी उसी के विभिन्न पहलू हैं। शायद कतिपय मंत्रवेत्ताओं और मंत्राराधकों के मानस में यह आया हो कि जो कुछ उन्होंने अर्जित किया है,उससे वे समाज को लाभान्वित कर सकें। इस विद्या का आरम्भ कब से हुआ? इसका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। वेद चतुष्टयी में अथर्ववेद में मांत्रिक प्रयोगों का विस्तीर्ण विवेचन—विश्लेषण है। जिन पाश्चात्य विद्वानों ने वैदिक वाङ्गमय की भाषा, विवेचन—सरणि आदि की दृष्टि से गंभीर आलोढन—आलोचन किया है उनके अनुसार अथर्वन का आशय मंत्र प्रयोग है—वैसा मंत्र प्रयोग, जिसके द्वारा रोगों का अपगम किया जा सके। अथर्ववेद को अथर्वागिरा भी कहा जाता है। अंगिरा हानि और विनाश का द्योतक है, वहाँ अथर्वन् स्रजन या शान्ति का सूचक है। ऐसा प्रतीत होता है, मंत्र विद्या के उत्तरावर्ती विकास में जहाँ शत्रुओं का मारण, उच्चाटन, संहनन जुड़ा, उस भाव की अभिव्यंजना अंगिरा में है। वेदपरक साहित्य में आगे चलकर मंत्र एवं तंत्र विद्या पर अनेक ग्रंथ रचे गये तथा विविध आस्था के अनुरूप उन्हें पृथक—पृथक भेदों में बांटा गया, जिनमें वैष्णव, शैव और शाक्य मुख्य हैं। इनके साथ आगम शब्द का प्रयोग आया है, जो तंत्र के अर्थ में है। आगम शब्द इनके अनादिस्रोत या गुरु परम्परा से आते रहते क्रम के अर्थ में सन्निहित है। यद्यपि मंत्र, तेज आगे चलकर भौतिक एषणा की पूरकता से जुड़ते गये पर उनके तात्विक विश्लेषण में उनका पूर्ववर्ती सात्विक अर्थ ही अधिकांशत: विद्यमान रहा।
जैन परम्परा पर दृष्टिपात करें
तो मंत्र विद्या का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से जुड़ता है। भगवद्भाषित गणधर ग्रथित द्वादशांग में बारहवां अंग दृष्टिवाद है। इसके पांच विभाग हैं— परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयोग, पूर्वगत और चूर्णिका। चौथे विभाग पूर्वगत में चौदह पूर्व आते हैं। चौदह पूर्वों में दशवां विद्यानुप्रवाद (विद्यानुवाद) पूर्व है, जिसका कलेवर परम्परा से एक करोड़ दस लाख पद का माना गया है। विद्यानुप्रवाद पूर्व मुख्यत: मन्त्रात्मक साधनाओं, सिद्धियों एवं उनके साधनों से सम्बद्ध है। जैन परम्परा मेें ऐसी मान्यता है कि पूर्वों का ज्ञान प्राय: लुप्त हो गया। विद्यानुप्रवाद पूर्व के अतिरिक्त द्वादशांगी के दशवें अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी मंत्रों के विश्लेषण का भाग रहा है। नन्दी सूत्र में प्रश्नव्याकरण का जो विषय—विवेचन हुआ है, उसमें प्रश्न, अप्रश्न, प्रश्नाप्रश्न, विद्यातिशय आदि का उल्लेख है। विद्यातिशय का तात्पर्य मंत्र विद्या से है। वर्तमान में जो प्रश्न व्याकरण उपलब्ध है, वह उससे सर्वथा भिन्न है। ऐसा लगता है कि नन्दी और स्थानांग में प्रश्नव्याकरण का जैसा स्वरूप वर्णित हुआ है, वह (प्रश्न—व्याकरण) लुप्त हो गया। संघदास गणी की वासुदेव हिंडी नामक अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है, जो पाँचवी शती की कृति मानी जाती है। उसके चतुर्थ लम्भक (अध्याय) में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का चरित्र विस्तार से वर्णित है। वहाँ एक कथा आती है जिससे मंत्र विद्या के प्रवर्तक का सम्बन्ध भगवान् ऋषभ के समय के साथ जुडता है। वहां कहा गया है—भगवान ऋषभ समग्र लोक—व्यवस्थाओं को सुसम्पादित कर श्रमण—दीक्षा स्वीकार करने को तैयार हुए। उनके सौ पुत्र थे। उन्होंने अपना राज्य वैभव, सम्पदा—सब कुछ उनमें बांट दिया। उनके कच्छ और महाकच्छ नामक दो कुमारों के पुत्र, जिनके नाम नमि और विनमि थे, उस समय कहीं बाहर गये हुए थे। ऋषभ श्रमण बन गये। साधना के लिए चल पड़े। तदनन्तर जब नमि और विनमि अपने घर आये तो उन्हें वह सब ज्ञात हुआ, जो घटित हो चुका था। वे सोचने लगे कि सबको मिला, हमें तो कुछ नहीं मिला। वे प्रभु ऋषभ की खोज में निकल पड़े। जहाँ प्रभु ऋषभ थे, पहुँच गये। उन्होंने सोचा, हमें भगवान की सेवा करनी चाहिये। इसलिए जब भगवान ऋषभ ध्यान में होते, वे हाथ में तलवार लिए प्रहरी के रूप में खड़े रहते। एक दिन की घटना है, नागराज धरणेन्द्र भगवान ऋषभ को वन्दनार्थ आया। उसने नमि—विनमि को भगवान की सेवा में देखा। प्रश्न किया, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। कुमारों ने कहा कि प्रभु जब दीक्षित हो रहे थे, तब हम कहीं दूर गये हुए थे। उनकी सम्पत्ति में से हमें कुछ भी नहीं मिला। प्रभु हमें भी कुछ दें एतदर्थ उनकी सेवा साध रहे हैं। धरणेन्द्र हंसा—कुमारों! क्या तुम नहीं देखते, ये सब कुछ छोड़ चुके हैं। ये सन्यासी और योगी हैं। जो तुम चाहते हो, वे कैसे देंगे? पर तुम लोगों ने इतने दीर्घकाल तक भगवान की सेवा साधी इसलिए मैं तुम्हें वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व की दो श्रेणियों और आकाशगामिनी आदि महत्त्वपूर्ण विद्याएं प्रदान करता हूँ। दोनों कुमार विद्याएँ प्राप्त कर आकाशमार्ग से वैताढ्य पर्वत पर चले गये। वहाँ उन्होंने नगर बसाये, अपना राज्य प्रतिष्ठित किया। वे विद्याओं के धारक थे इसलिए विद्याधर संज्ञा से प्रतिष्ठित हुए। उनकी वंश परम्परा में विद्याधर कुल का विकास हुआ। जैन ग्रंथों के अनुसार जैन आचार्यों के कुलों में एक का नाम विद्याधर कुल था। उस परम्परा में अनेक मन्त्रात्मक विद्याओं के वेत्ता तथा चमत्कारिक सिद्धियों के धारक आचार्य थे। ‘विद्या’ शब्द यहां मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त है। जैन परम्परा में पहले प्राय:ऐसा ही प्रयोग होता रहा है। जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की सेवा करने वाले चौबीस देव और देवियां—यक्ष और यक्षिणियाँ मानी गई हैं। जो तीर्थंकरों की आराधना, साधना करने वालों को लाभान्वित करती हैं।
श्वे.जैन आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ‘जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग—२’ में लिखते हैं ‘महापरिज्ञा अध्ययन में मंत्र विद्या है। यद्यपि आचारांग निर्युक्ति, शीलांक कृत आचारांग टीका, जिनदास गणि द्वारा रचित आचारांग चूर्णि और अन्य आगमिक ग्रंथों मेें इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता पर पारम्परिक प्रसिद्ध जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता चली आ रही है कि आचारांग सूत्र के ‘महापरिज्ञा’ अध्ययन में अनेक मंत्रों और बड़ी महत्वपूर्ण विद्याओं का समावेश था, उन मंत्रों और विशिष्ट विद्याओं का स्वल्प सत्व, धैर्य व गांभीर्य वाले साधक कहीं दुरुपयोग न कर लें, इस जनहित की भावना से पूर्व के आचार्यों ने अपने शिष्यों को इस अध्ययन की वाचना देना बंद कर दिया और इसके परिणामस्वरूप शनै: शनै: कालक्रम से महापरिज्ञा का अध्ययन विलुप्त हो गया। इस परम्परागत प्रसिद्ध जनश्रुति को एकांतत: अविश्वसनीय किंवदंती की गणना में नहीं रखा जा सकता क्योंकि व्रजस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या की उपलब्धि की थी, इस प्रकार का उल्लेख अनेक ग्रंथोें में आज भी उपलब्ध होता है। आचारांग चूर्णिकार ने लिखा है— बिना आज्ञा, बिना अनुमति के महापरिज्ञा अध्ययन नहीं पढ़ा जाता था। इससे भी थोड़ा आभास होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में कुछ इस प्रकार की विशिष्ट बातें थीं जिनका बोध साधारण श्रावक के लिये वर्जनीय था। आगे चलकर मंत्र और विद्या के अर्थ में जैन परम्परा में कुछ भिन्नता आ गई। उत्तरवर्ती ग्रंथों के अनुसार जो स्त्री देवता के द्वारा अधिष्ठित हो उसे विद्या और पुरुष देवता के द्वारा अधिष्ठित हो उसे मंत्र नाम से अभिहित किया जाने लगा। मंत्र साधना के विकास के युग में जैन ने अपने देवी—देवताओं के अतिरिक्त इतर परम्परा के देवी—देवताओं को भी स्वीकार किया। संभवत: घंटाकर्ण उसी कोटि के देव हैं, जिसका सम्बन्ध बौद्ध परम्परा से है, शिव के गणों में उनकी गणना है। घंटाकर्ण के नाम पर घंटाकर्ण कल्प रचना प्राप्त होती है। यद्यपि ऐहिक सिद्धि के लिए जैनपरम्परा में मंत्र विद्या के प्रयोग का निषेध है पर जैनशासन की उन्नति और प्रभावना की दृष्टि से आचार्य को मंत्र विद्या का वेत्ता होना आवश्यक कहा गया है। इस प्रकार के प्रभावक आचार्यों के चरित्र संबंधी ग्रंथ जैनवाङ्गमय में उपलब्ध हैं। १४ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य प्रभाचन्द द्वारा लिखित प्रभावक चरित्र इसी कोटि का एक ग्रंथ है, जिसमें मंत्र विद्या निष्णात प्रभावक आचार्यो के वर्णन हैं। पूर्वगत भंग विद्या और उत्तरवर्ती मंत्र साहित्य के बीच में हम कतिपय प्राकृत ग्रंथों के नाम पाते हैं, जिनमें सिद्ध—प्राभृत, योनि प्राभृत, निमित्त प्राभृत तथा विद्या प्राभृत के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये सभी अप्राप्य हैं, केवल योनिप्राभृत ही अंशत: प्राप्य है। जैनपरम्परा में यद्यपि प्राचीन साहित्य अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध था, पर फिर भी अनेक रूपों में उसका विकास होता गया। फलत: नवकार मंत्र कल्प,लोगस्स कल्प, उवसम्मग्गहर कल्प, कल्याणमंदिर कल्प, ऋषिमंडल कल्प व मंत्र भी निमित्त हुए।वर्धमान विद्या कल्प आदि का खूब प्रचलन हुआ। आचार्य के लिए सूरिमंत्र की उपासना का एक विशेष क्रम रहा। बौद्ध परम्परा में हम पाते हैं कि महायान से लेकर व्रजयान, सहजमान या सिद्धमान के काल तक मंत्र—तंत्र साधना का बड़ा विस्तार हुआ। पाँचवी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक इस रहस्यमय विद्या पर केवल बौद्ध भिक्षुओं ने ही दो—ढ़ाई हजार ग्रंथ रच डाले। तिब्बत, चीन, लंका, मंगोलिया, बर्मा, कम्बोड़िया आदि देश तो तांत्रिक लामाओं के गढ़ थे। इसी के समकक्ष योगमार्गियों के अन्तर्गत नाथ सम्प्रदाय का युग आता है, जहाँ नाद और ध्यान की आराधना के साथ—साथ मांत्रिक साधना का भी विकास हुआ। नाट्यों की साधना में ब्रह्मचर्य और आचार शुद्धि पर बहुत बल रहा। मंत्र—तंत्र के इतिहास में एक वह युग भी आता है जहां पंच मकार के सेवन द्वारा साध्य प्राप्ति का मंत्र देखा जाता है पर यह मंत्र—तंत्र जगत का एक कुत्सित पक्ष है। जैनपरम्परा की सदैव यह विशेषता रही कि तंत्र साधना के प्रसार में वहां मद्य—मांसादि हेय पदार्थों के प्रयोग कभी गृहीत नहीं हुए, उसमें उक्त प्रकार की अपवित्रता नहीं आई। इन पिछली शताब्दियों में जीवन का क्रम भोगोन्मुखता की ओर अधिक प्रवृत्त होता गया इसलिए मंत्रों से किसी रूप में आध्यात्मिक विकास सधने की जो बात थी, वह लुप्त होती गई। केवल भौतिक और वह भी अधिकांशत: वासनात्मक तथा शत्रु के प्रति मारक और उच्चाटन आदि की प्रवृत्ति की विशेष बलवत्ता हुई। मंत्रों के नाम पर जनसाधारण को प्रवंचना का भी स्वार्थलोलुप जनों द्वारा एक उपक्रम चला। अज्ञजन मंत्रों के नाम पर ठगे जाने लगे। फलत:मंत्रों की वास्तविकता और शक्तिमत्ता से लोगों की निष्ठा उठती गई। जनसाधारण इसे ढोंग और दिखावा मानने लगा। यद्यपि मंत्रवेत्ता, मंत्र प्रभाव और मंत्रशक्ति सर्वांशत: न सभी नष्ट हुई थी, न कभी होगी। वह आज भी विद्यमान है पर मंत्रों के नाम पर जन साधारण को ठगने का इतना विस्तार हो गया, प्रवंचक और ठग इतने आ गये कि यथार्थ तक लोग पहुंच ही नहीं पाते।