जैन गणितीय अध्ययन के विकास हेतु समर्पित-गणिनी ज्ञानमती
सारांश जैन साहित्य के विषयवार विभाजन के रूप में करणानुयोग शीर्षक के अंतर्गत भूगोल, खगोल, गणित एवं कर्मसिद्धांत विषयक ग्रंथ आते हैं। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित साहित्य यद्यपि अत्यंत विविधतापूर्ण है, तथापि यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि करणानुयोग उनका सर्वाधिक प्रिय विषय है।
जिन सहस्रनाम स्तोत्र के माध्यम से भगवान जिनेन्द्र देव की स्तुति रचने के उपरांत आपने सर्वप्रथम करणानुयोग के ग्रंथों पर आधारित त्रिलोक भास्कर एवं जैन ज्योतिर्लोक की रचना की। इस कृति के अतिरिक्त, जम्बूद्वीप एवं जैन भूगोल सदृश्य कृतियों में आपने करणानुयोग के ग्रंथों में निहित गणितीय ज्ञान की संरक्षित किया जै। मूल के संरक्षण की आपकी अद्वितीय शैली के अतिरिक्त आपने जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों में निहित गणितीय ज्ञान के अध्ययन हेतु अनेक सफल प्रयास किये हैं, जिनमें शोधार्थियों को प्रोत्साहन देना, सम्मेलनों का आयोजन, संबद्ध पुस्तकों का प्रकाशन आदि निहित हैं। प्रस्तुत आलेख में इनका संक्षिप्त विवेचन करने का प्रयास किया है।
आत्म कल्याण हेतु सतत् साधनारत महान जैनाचार्यों ने जन कल्याण की प्रशस्त भावना से अनुप्राणित होकर अनेकानेक विषयों पर ग्रंथो का सृजन किया है। यही कारण है कि जैन शास्त्र भंडारों में आगम ग्रंथों, टीकाओं, पुराण एवं भक्ति साहित्य के अतिरिक्त भी अनेक ग्रंथो प्राप्त होते हैं, जो संभवत: संघस्थ साधुओं के शिक्षण अथवा श्रावकों के हित को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं। ज्ञान-विज्ञान की सभी प्रमुख शाखाओं में हमें जैनाचार्यों का कृतित्व उपलब्ध होता है। पारम्परिक रूप से सम्पूर्ण जैन वांगमय को चार भागों में विभाजित किया जाता है, जिसे अनुयोग की संज्ञा दी जाती है।
यह विभाजन निम्नवत् हैरत्नकरण्ड श्रावकाचार, आ. समंतभद्र, अध्याय-२, गाथा ४३ से ४६
१. प्रथमानुयोग
२. करणानुयोग
३. चरणानुयोग
४. द्रव्यानुयोग
जैनाचार्यों ने अध्ययन के क्रम में विसंगतियों से बचने और विषयवस्तु के समीचीन रूप से हृदयंगम करने हेतु इसके क्रमिक अध्ययन अर्थात् पहले प्रथमानुयोग फिर करणानुयोग तदुपरान्त चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के पढ़ने की प्ररेणा दी है। करणानुयोग में लोक के स्वरूप भूगोल, खगोल, गणित, कर्मसिद्धांत आदि के विषय समाहित है।
तिलोयपण्णत्तीतिलोयपण्णत्ती (त्रिलोक प्रज्ञप्ति), आ. यतिवृषभ, २ भाग, सम्पादक-डॉ. हीरालाल जैन एवं आ.ने. उपाध्ये, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर, १९४३-१९५२। नवीन संशोधित संस्करण, हिन्दी अनुवादिका आ. श्री विशुद्धमती (तीनभाग) भारतवर्षीय दि. जैन महासभा, कोटा १९८४ से१९८८ (त्रिलोक प्रज्ञप्ति),
तिलोयसारतिलोयसार (त्रिलोकसार), आ. नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती, पं. टोडरमलकृत भाषा वचनिका सहित, हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई, १९११ माधवचंद त्रैविद्यदेव कृत संस्कृत टीका सहित, बम्बई १९२०, हिन्दी अनुवाद एवं व्याख्या, आ. विशुद्धमती माताजी, श्री महावीर जी-१९७६ (त्रिलोकसार), जम्बूद्वीप-पण्णत्ति-संगहोजम्बूद्वीप-पण्णत्ति-संगहो, आ. पदमनंदि, सम्पादक-प्रो. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ.ने. उपाध्ये, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर, १९५८ (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह) एवं लोय विभागलोकविभाग, आ. सिंहसूरि, सम्पादक-डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ.ने. उपाध्ये, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर, १९६२ (लोक विभाग) इस वर्ग के प्रतिनिधि गुंथ हैं।
आचार्य उमास्वामी प्रणीत तत्वार्थसूत्र एवं उन पर लिखी गई आचार्य पूज्यपादकृत सवार्थसिद्धिसर्वार्थसिद्धि, आ. पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५५, भट्ट अकलंक कृत तत्वार्थ राजवार्तिका तत्वार्थराजवार्तिक भट्ट अकलंक, २ भाग, सम्पादक-पं. मनोहरलाल शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, १९५३, १९५७ एवं आचार्य विद्यानंद प्रणीत तत्वार्थ श्लोकवार्तिकतत्वार्थश्लोकवार्तिक, आ. विद्यानंद, सम्पादक-पं. मनोहरलाल शास्त्री, माण्डवी, मुम्बई, १९१८ आदि टीकाएँ, षट्खंडागम, की आचार्य वीरसेन स्वामी कृत धवला टीका की विशेषत: पुस्तक चार तथा आचार्य नेमिचंद सिद्धांतचक्रवर्ती कृत गोम्मटसार कर्मकाण्ड १० भी करणानुयोग की विषय वस्तु के अध्ययन हेतु उपयोगी है।
तत्वार्थसूत्र का पठन-पाठन तो सैकड़ों वर्षों से हो रहा है, किन्तु विगत ५० वर्षों में अनेक विद्वानों ने आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों के परिपे्रक्ष्य में तत्वार्थसूत्र के अध्याय ३ और ४ की उपेक्षा करना शुरू कर दी थी। १९११ में त्रिलोकसार तथा १९४३ में त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा १९५८ में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह का प्रकाशन हुआ। इसके पहले १९३९ धवला टीका प्रकाश में आई। इन ग्रंथों के प्रकाश में आने पर ही गणित इतिहासज्ञों को जैन दार्शनिक गणितज्ञों की परम्परा का समीचीन परिचय प्राप्त हो सका। १९५२ में क्षुल्लिका दीक्षा के उपरांत से ही माताजी ने करणानुयोग का अध्ययन शुरू कर दिया था।
करणानुयोग के प्रति उनकी विशिष्ट अभिरूचि का ही यह प्रतिफल है कि उन्होंने अपनी प्रेरणा से १९७२ में बनाई जाने वाली संस्था का नाम दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान रखा है। इस संस्था द्वारा किया गया सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य जैन आगमों में निहित मध्यलोक के प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप विषयक विवेचनों के आधार पर जम्बूद्वीप की प्रतिकृति का हस्तिनापुर में निर्माण हैं।
संस्था द्वारा संचालित वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला के अंतर्गत पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत भूगोल, खगोल विषयक निम्नांकित चार ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं-
१. त्रिलोकभास्करत्रिलोक भास्कर, आ. ज्ञानमती, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९७४
२. जैन ज्योतिर्लोकजैन ज्योतिर्लोक, आ. ज्ञानमती, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९७५
३. जम्बूद्वीपजम्बूद्वीप, आ. ज्ञानमती, द्वितीय संस्करण, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८१
४. जैन भूगोलजैन भूगोल, आ. ज्ञानमती, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८५
डॉ. अनुपम जैन द्वारा लिखी गई निम्नलिखित तीन कृतियाँ भी संस्था द्वारा प्रकाशित हुई हैं-
१. जम्बूद्वीप परिशीलनजम्बूद्वीप परिशीलन, अनुपम जैन, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८२
२. महावीराचार्य-एक समीक्षात्मक अध्ययन (सहलेखक-प्रो. सुरेशचंद अग्रवाल)महावीराचार्य-एक समीक्षात्मक अध्ययन, अनुपम जैन एवं सुरेशचंद अग्रवाल, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८५ ३.Philosopher Methematicians
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सेमिनार-१९८१
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सेमिनार-१९८१ एवं जम्बूद्वीप सेमिनार-१९८२ के सफल आयोजन के साथ ही जम्बूद्वीप में स्थापित जिनबिम्बों की प्रतिष्ठापना के अवसर पर (२६-२८ अप्रैल १९८५) का सफल आयोजन भी किया गया जिसकी सारांश पुस्तिका और का झ्rदमा्ग्हुे का भी प्रकाशन कर संस्थान ने जैन गणित के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया।
इस सेमिनार के माध्यम से जैन गणित के क्षेत्र में अनेक नये शोधक तथा अनेक नये विषय प्रकाश में आ सके हैं। वस्तुत: जैन गणित और करणानुयोग का अभिनन संबंध है। जैन गणित का बहुभाग विशेषत: ज्यामिति एवं ठोस ज्यामिति आदि से संबंधित विषय वस्तु या तो लोक के स्वरूप को विवेचित करने वाले विभिन्न ग्रंथों में मिलती है, अथवा इनको समझने के लिए रचे गये विशुद्ध रूप से गणितीय ग्रंथों में मिलती है।
करणानुयोग के एक भाग, कर्मसिंद्धांत का गणित तो आज भी गणित इतिहासज्ञों के लिए दूर की कौड़ी है। गणितज्ञ एवं जैनदर्शन विशेषज्ञों की संयुक्त टीम द्वारा कर्मसिद्धांत के गणित को प्रकाश में लाया जाना संभव है। इस क्षेत्र में प्रो. एल.सी. जैन द्वारा किये गये कार्य स्तुत्य है। पूज्य माताजी की प्रेरणा से डॉ. अनुपम जैन-इंदौर ने गणित पर अपना शोध कार्य कर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।गणित के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, अनुपम जैन पीएच.डी शोध प्रबंध, मेरठ, विश्वविद्यालय, मेरठ १९९२ उन्होंने तथा श्री योगेन्द्र शर्मा (मेरठ) ने एम.फिल. प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी इसी क्षेत्र में लिखी है।
श्रीधराचार्य, योगेन्द्र शर्मा एम.फिल,प्रोजेक्ट रिपोर्ट, चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ १९९६ श्रीमती ममता अग्रवाल (मेरठ) एवं श्रीमती प्रगति जैन (इंदौर) ने क्रमश: जैनाचार्य श्रीधर एवं धवला टीकाकार आचार्य वीरसेन के गणितीय अवदानों पर शोध प्रबंध लिखकर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है।
(अ) आचार्य श्रीधर एवं उनका गणितीय अवदान, ममता अग्रवाल, पीएच.डी. शोध प्रबंध, चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, २००२ (ब) आचार्य वीरसेन एवं उनका गणितीय अवदान श्रीमती प्रगति जैन, पीएच.डी. शोध प्रबंध, चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, २००५ में प्रस्तुत वर्तमान में भी आपका आशीर्वाद प्राप्त कर श्री एन.शिवकुमार (बैंगलोर)
Acarya Yativrasbha & his Mathematical Contributions, N.Shivkumar Working for Ph.D. in Mysore University, Mysore
तथा श्री दीपक जाधव (बड़वानी), क्रमश: आचार्य यतिवृषभ एवं आचार्य नेमिचंद सिद्धांत चक्रवर्ती के गणित पर शोध प्रबंध लिख रहे हैं।
जैन गणित के विशेषज्ञ प्रो. एल.सी. जैन (जबलपुर), प्रो. आर.सी. गुप्ता (झांसी), प्रो.पद्मावथम्मा (मैसूर) एवं श्रीमती उज्जवला डोंणगांवकर (नागपुर), डॉ. सज्जनसिंह ‘लिश्क’ (पटियाला) भी समय-समय पर आपका मार्गदर्शन लेने आते रहते हैं। मेरे गुरु डॉ. अनुपम जैन तो सन् १९८१ से पूज्य माताजी के अनन्य शिष्य के रूप में इस प्रकार से जुडे हैं कि वे संस्थान की अकादमिक गतिविधियों के पर्याय बन गये हैं।
जैन गणित के क्षेत्र में किये गए उत्कृष्ट शोध कार्य हेतु डॉ. अनुपम जैन को संस्थान द्वारा दिये जाना वाला अत्यंत महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित तथा उस समय का जैन समाज का सर्वोच्च पुरस्कार प्रथम गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस पुरस्कार के अंतर्गत एक लाख रूपय का नगद राशि, शाल, श्रीफल एवं रजत प्रशस्ति प्रदान की जाती है। दुर्भाग्य से उनका शोधप्रबंध अद्यतन अप्रकाशित है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि इस समय देश में संचालित होने वाली जैन गणित विषयक समस्त गतिविधियों को प्रोत्साहित करने एवं संरक्षण करने में पूज्य माताजी की अहम् भूमिका है। संस्थान के मुखपत्र सम्यग्ज्ञान में भी अनेक लेख प्रकाशित किए गए हैं। विगत दिनों इंदौर में आयोजित
Internationl Conference on History & Meritage of Mathematical Sciences, Indore (16, 19 Dec. 2004)
गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ, इंदौर की सक्रिय सहभागिता रही और इस प्रतिष्ठित सम्मेलन में जैन गणित से संबंधित १७ शोधपत्रों का वाचन किया गया। मेरी स्वयं की अभिलाषा है कि पूज्य माताजी के चरण सान्निध्य में बैठकर मैं जैन गणित के क्षेत्र में कार्य कर सकूँ।