जीवसमास—जिनके द्वारा अनेक जीव अथवा जीव की अनेक जातियों का संग्रह किया जावे, उन्हें जीवसमास कहते हैं। चौदह जीवसमास—एकेन्द्रिय के दो भेद हैं—बादर और सूक्ष्म तथा विकलेन्द्रिय के तीन भेद हैं—दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय। पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं—संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय। इस तरह ये सातों ही जीवसमास पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों तरह के होते हैं इसलिये जीवसमास के सामान्यतया चौदह भेद होते हैं। सत्तावन जीवसमास—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद। इन छह के बादर और सूक्ष्म से १२ भेद हुए। प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं—सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। त्रस के ५ भेद हैं—दो इंद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि पंचेन्द्रिय और संज्ञि पंचेन्द्रिय। ये सब मिला कर उन्नीस भेद हुए।
यथा— १२±२±५·१९। ये सभी भेद पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त एवं लब्ध्यपर्याप्त के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इसलिये १९ का ३ के साथ गुणा करने पर ५७ भेद हो जाते हैं।
यथा— १३·५७। अट्ठानवे जीवसमास—जीवसमास के उक्त ५७ भेदों से पंचेन्द्रिय के ६ भेद निकाल दीजिये अर्थात् पंचेन्द्रिय के संज्ञी, असंज्ञी दो मेें पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त से गुणा कर दीजिये तो र्२ें३·६ भेद होते हैं। ५७ में से ६ के निकल जाने से ५७-६·५१ बचे हैं। कर्मभूमि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के गर्भज और सम्मूच्र्छन दो भेद होते हैं। गर्भज के जलचर, स्थलचर, नभचर ऐसे तीन भेद हैं और इनमें संज्ञी, असंज्ञी से दो भेद होने से र्२ें३·६ भेद हो गये, पुन: इनके पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त दो भेद करने से र्६ें२·१२ भेद हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय सम्मूच्र्छन के जलचर, स्थलचर, नभश्चर। इनके संज्ञी-असंज्ञी दो भेद किये तो र्३ें२·६। इन ६ को पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर र्६ें३·१८ भेद हो गये ऐसे कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के १२±१८·३० भेद हो गये। भोगभूमि में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थलचर-नभचर दो ही भेद होते हैं, ये दोनों ही पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त ही होते हैं इसलिये र्२ें२·४। भोगभूमिज के ४ भेद हुये क्योंकि भोगभूमि में जलचर, सम्मूच्र्छन तथा असंज्ञी जीव नहीं होते हैं। आर्यखंड के मनुष्यों के पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ये तीन भेद ही होते हैं। म्लेच्छ खंड में लब्ध्यपर्याप्तक को छोड़कर दो ही भेद होते हैं। इसी प्रकार भोगभूमि, कुभोगभूमि के मनुष्यों के पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त दो ही भेद हैं। देव और नारकियों के भी ये ही दो भेद होते हैं। इस तरह सब मिलाकर अट्ठानवे भेद होते हैं।
यथा—एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय संबंधी ५१, कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के ३०, भोगभूमिज तिर्यंचों के ४, आर्यखंड के मनुष्यों के ३, म्लेच्छखण्ड के मनुष्यों के २, भोगभूमिज मनुष्यों के २, कुभोगभूमि के २, देवों के २, नारकियों के २ ऐसे—५१±३०±४±३±२±२±२± २±२·९८ जीवसमास होते हैं।
स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुलों के भेद इन चार अधिकारों के द्वारा जीवसमास को विशेष रूप से जानना चाहिए। स्थान—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जाति भेद को अथवा एक, दो, तीन, चार आदि जीव के भेदों को स्थान कहते हैं। योनि—जीवों की उत्पत्ति के आधार को योनि कहते हैं। अवगाहना—शरीर के छोटे-बड़े भेदों को अवगाहना कहते हैं। कुल—भिन्न-भिन्न शरीर की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्मवर्गणा के भेदों को कुल कहते हैं। जीवस्थान के भेद—सामान्य से जीव का एक ही भेद है क्योंकि ‘‘जीव’’ कहने से जीवमात्र का ग्रहण हो जाता है अत: सामान्य से जीव- समास का एक भेद, त्रस-स्थावर से दो भेद, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय से तीन भेद, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से चार भेद, पाँच इंद्रियों की अपेक्षा पाँच भेद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ऐसे षट्काय की अपेक्षा से छह भेद, पाँच स्थावर विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय से सात भेद, पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी से आठ भेद, पाँच स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय से नौ भेद, पाँच स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से दस भेद ऐसे ही उन्नीस तक भेद करते चलिये। पूर्वोक्त १९ को पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने से १९²२·३८ भेद एवं १९ को पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त से गुणा करने पर १९²३·५७ भेद होते हैं एवं पूर्वोक्त प्रकार से ९८ तक भेद हो जाते हैं इन्हें जीवसमासों के स्थान कहते हैं।
योनि के मुख्य दो भेद हैं—आकार योनि, गुण योनि। आकार योनि के भेद—शंखावर्त, कूर्मोन्नत और वंशपत्र ये तीन भेद हैं। जिसके भीतर शंख के समान चक्कर पड़े हों उसे शंखावर्त कहते हैं, इसमें नियम से गर्भ वर्जित है। यह योनि चक्रवर्ती की पट्टरानी की होती है। जो कछुए की पीठ की तरह उठी हो उसे कूर्मोन्नत योनि कहते हैं, इस योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री, बलभद्र तथा अन्य भी महान पुरुष उत्पन्न होते हैं अर्थात् इनकी माताओं की यही योनि होती है। जो बाँस के पत्ते के समान लम्बी हो उसे वंशपत्र योनि कहते हैं। इसमें साधारण जन ही उत्पन्न होते हैं।
जन्म के तीन भेद—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद। इन जन्मों के आधारभूत योनि के नौ भेद हैं—सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत्त, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत। सामान्य से योनि के ये नौ भेद हैं एवं विस्तार से ८४,००,००० भेद होते हैं।
यथा—नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, वनस्पति की दस लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की दो-दो लाख, देव, नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येक की चार-चार लाख, मनुष्य की चौदह लाख, सब मिलाकर र्६ें७·४२±१०±६±१२±१४·८४ लाख योनियाँ होती हैं। तात्पर्य—अनादिकाल से प्रत्येक प्राणी इन चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। जब यह जीव रत्नत्रय को प्राप्त करता है तभी चौरासी लाख योनि के चक्कर से छुटकारा पा सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा समझकर जल्दी से जल्दी सम्यग्दृष्टि बनकर सम्यक्चारित्र को ग्रहण कर लेना चाहिए।
देवगति और नरकगति में उपपाद जन्म होता है। मनुष्य तथा तिर्यंचों में यथासंभव गर्भज और सम्मूच्र्छन दोनों ही जन्म होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य तथा एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय का नियम से सम्मूच्र्छन जन्म ही होता है। कर्मभूमियाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंच गर्भज, सम्मूच्र्छन दोनों ही होते हैं। उपपाद और गर्भ जन्म वाले नियम से लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते हैं। सम्मूच्र्छन मनुष्य नियम से लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। चक्रवर्ती की पट्टरानी आदि को छोड़कर शेष आर्यखण्ड की स्त्रियों की योनि, कांख, स्तन, मूत्र, मल आदि में ये लब्ध्यपर्याप्त सम्मूच्र्छन मनुष्य उत्पन्न होते हैं। विषयों में अति आशक्त, परस्त्रीलंपट, वेश्यागामी, निंद्य, पापी जीव मरकर इन सम्मूच्र्छन मनुष्यों में जन्म लेते हैं। इनके मनुष्यायु, मनुष्यगति नामकर्म का उदय है किन्तु पर्याप्तियाँ पूर्ण न होेने से शरीर के योग्य परमाणुओं को ग्रहण ही नहीं कर पाते हैं और मर जाते हैं, इनकी आयु लघु अंतर्मुहूर्त प्रमाण है अर्थात् एक श्वांस में अठारहवें भाग प्रमाण है।
उत्पन्न होने से तीसरे समय में सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव की घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर की जघन्य अवगाहना कहलाती है अर्थात् ऋजुगति के द्वारा उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म-निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव की उत्पत्ति से तीसरे समय में शरीर की जघन्य अवगाहना होती है और इसका प्रमाण घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य में होने वाले महामत्स्य की होती है। इस मत्स्य का प्रमाण हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा, ढाई सौ योजन मोटा है। जघन्य से लेकर उत्कृष्टपर्यंत मध्य में एक-एक प्रदेश की वृद्धि के क्रम से मध्यम अवगाहना के अनेकों भेद होते हैं। सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग है। पर्याप्त द्वीन्द्रिय की जघन्य अवगाहना अनुन्धरी जीव की घनांगुल के संख्यातवें भाग, त्रीन्द्रिय कुंथु की इससे संख्यातगुणी अधिक, चतुरिन्द्रिय काणमक्षिका की इससे संख्यातगुणी अधिक एवं पंचेन्द्रिय सिक्थक मत्स्य की इससे संख्यातगुणी अधिक है। उत्कृष्ट अवगाहना एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक हजार योजन, द्वीन्द्रिय शंख की बारह योजन, त्रीन्द्रिय चींटी की तीन कोश, चतुरिन्द्रिय भ्रमर की एक योजन, पंचेन्द्रिय महामत्स्य की एक हजार योजन है पहले जो महामत्स्य की अवगाहना उत्कृष्ट एक हजार योजन बतलाई है और यहाँ कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन कहा है उसमें कमल की अपेक्षा महामत्स्य का घनक्षेत्र अधिक होता है इसलिये उसे ही अधिक समझना चाहिए।
इस प्रकार से सब मिलाकर जीवों के कुलों की संख्या—एक कोड़ाकोड़ी सत्तानवे लाख, पचास हजार कोटि है अर्थात् एक करोड़ सत्तानवे लाख, पचास हजार को एक करोड़ से गुणा करने पर—१,९७,५०,०००²१,००,००,०००· १,९७,५०,००,००,००,००,००० हैं। अन्य ग्रंथों में मनुष्यों के १४ लाख कोटि कुल गिनाये हैं उनकी अपेक्षा से १,९९,५०,००,००,००,००,००० प्रमाण होता है। भव्य जीवों को इस सिद्धांत शास्त्र के अनुसार जीवों के स्थान, योनि, शरीर, अवगाहना और इन कुल भेदों को अवश्य ही जान लेना चाहिए क्योंकि इनके जाने बिना मोक्षमार्गरूप चारित्र तथा दयामय धर्म का वास्तव में पालन नहीं किया जा सकता है। अतएव अहिंसा व्रत का पूर्णतया पालन करने के लिए अवश्य ही इनका अभ्यास करना चाहिए।