उत्तर—पुरुषादि के उस रूप परिणाम को या शरीर चिन्ह को वेद कहते हैं। वेदों के दो भेद हैं—भाववेद, द्रव्यवेद। मोहनीय कर्म के अंतर्गत वेद नामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है अर्थात् तद्रूप परिणाम को भाववेद और शरीर की रचना को द्रव्यवेद कहते हैं। ये दोनों वेद कहीं समान होते हैं और कहीं विषम भी होते हैं। वेद के तीन भेद होते हैं—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद। नरकगति में द्रव्य और भाव दोनोें वेद नपुंसक ही हैं। देवगति में पुरुष, स्त्री रूप दो वेद हैं जिनके जो द्रव्यवेद है वही भाववेद रहता है यही बात भोगभूमिजों में भी है। कर्मभूमि के तिर्यंच और मनुष्य में विषमता पाई जाती है। किसी का द्रव्यवेद पुरुष है तो भाववेद पुरुष, स्त्री या नपुंसक कोई भी रह सकता है, हाँ! जन्म से लेकर मरण तक एक ही वेद का उदय रहता है, बदलता नहीं है। द्रव्य से पुरुषवेदी आदि भाव से स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है फिर भी मुनि बनकर छठे-सातवें आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं। किन्तु यदि द्रव्य से स्त्रीवेद है और भाव से पुरुषवेद है तो भी उसके पंचम गुणस्थान के ऊपर नहीं हो सकता है। अतएव दिगम्बर आम्नाय में स्त्री मुक्ति का निषेध है। पुरुष वेद—जो उत्कृष्ट गुण या भोगों के स्वामी हैं, लोक में उत्कृष्ट कर्म को करते हैं, स्वयं उत्तम हैं वे पुरुष हैं। स्त्रीवेद—जो मिथ्यात्व, असंयम आदि से अपने को दोषों से ढके और मृदु भाषण आदि से पर के दोषों को ढके वह स्त्री है। नपुंसकवेद—जो स्त्री और पुरुष इन दोनों लिंगों से रहित हैं, ईंट के भट्टे की अग्नि के समान कषाय वाले हैं वे नपुंसक हैं। स्त्री और पुरुष का यह सामान्य लक्षण है, वास्तव में रावण आदि अनेक पुरुष भी दोषी देखे जाते हैं और भगवान की माता, आर्यिका महासती सीता आदि अनेक स्त्रियाँ महान् श्रेष्ठ देखी जाती हैं। अत: सर्वथा एकान्त नहीं समझना चाहिए। जो तृण की अग्निवत् पुरुषवेद की कषाय, कंडे की अग्निवत् स्त्रीवेद की कषाय और अवे की अग्नि के समान नपुंसकवेद की कषाय से रहित अपगतवेदी हैं, वे अपनी आत्मा से ही उत्पन्न अनंत सुख को भोगते रहते हैं।