स्मरण शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयम्। मोक्षमार्ग स पायान्न: शिकोटिर्मुनीश्वर।।१।।
जिनके वचनों से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूप चतुष्टय की आराधना द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना कर जगत के जीव शीतलता का अनुभव करते हैं (सुखी होते हैं) वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उन (समन्तभद्र) के ही शिष्य शिवकोटि सूरि हैं जिन्होंने तपश्चरण द्वारा अपनी देहयष्टि लता के समान झुका ली है और जिन्होंने संसार—सागर को पार कराने वाले जहाज के समान इस तत्त्वार्थसूत्र की रचना की।
उन (स्वामी समन्तभद्र) के शिवकोटि और शिवायन नाम के दो शिष्य थे, जो शास्त्र के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ थे और जिन्होंने श्री गुरुजी के चरणों में रहकर सम्पूर्ण (श्रुत) शास्त्रों का अध्ययन कर लोक को कृतार्थ किया।
मैं शिवकोटि (·मोक्ष) प्रदान करने वाले अर्थात् मोक्ष का मार्ग बताने वाले उन शिवकोटि मुनि की वन्दना करता हूं जिन्होंने महाराज स्वयंवर और महारानी सिद्धार्था के पुत्र (चौथे तीर्थंकर) भगवान अभिनन्दननाथ की शरण ली है।
श्री शिवकोटिमुनीश्वरपुरोगमा: स्ववगतागमा नृणां। ज्ञानतपश्चारित्रं सदर्शनं दर्शयामासु:।।५।।
पूर्वाचार्यो के माध्यम से आगमों से भली—भांति परिचित हुए श्री शिवकोटि मुनीश्वर ने (सम्यक्) दर्शन सहित (सम्यक्) ज्ञान, (सम्यक्) तप और (सम्यक्) चारित्र का दर्शन कराया।
पहचान
ऊपर प्रथम श्लोक में आचार्य जिनसेन (समय लगभग ७७०—८५० ई.) ने अपने आदिपुराण में मोक्षमार्ग बताने वाली ‘चतुष्टय आराधना’ के कर्ता के रूप में शिवकोटि मुनि का स्मरण किया है। हरिषेण व चामुण्डराय प्रभृति कुछ परवर्ती ग्रन्थकारों ने तथा डाँ.ए.एन. उपाध्ये और डॉ. बी.के.खड़बड़ी प्रभृति कुछ विद्वानों ने भी प्राकृत ‘आराधना’’ ग्रन्थ का रचयिता शिवकोटि आचार्य को माना है।कन्नड़ भाषा रचित ‘वड्डाराधने’ के कर्ता भी सामान्यत: शिवकोटि आचार्य माने जाते हैं किन्तु डॉ. खड़बड़ी ने अपनी पुस्तक vad:daradhane:A study में किये गये विवेचन में १०वीं शती ईस्वी के प्रथम पाद में कन्नड़ में शिवकोट्यचार्य प्रणीत ‘वड्डाराधने’ के कवच अधिकार पर आधारित १९ कथाओं के इस संग्रह को किसी अज्ञातनामा व्यक्ति की कृति बताया है। इस प्रकार आचार्य जिनसेन, जो ८वीं, ९वीं शती में हुए, द्वारा उक्त कन्नड़ -‘वड्डाराधने’ के कथाकथित कर्ता शिवकोटि मुनि का उक्त श्लोक में स्मरण करने का प्रश्न नहीं उठता। वस्तुत: ‘आराधना’ अपरनाम ‘भगवती आराधना’ जिसे ‘मूलाराधना’ भी कहते हैं, के कर्ता, जैसा कि उक्त ग्रन्थ की गाथा संख्या २१५९—६० में स्वयं उसके रचनाकार ने लिखा है—‘पाणितलभोजी शिवार्य हैं जिन्होंने अपने गुरु आर्य जिननन्दिगणि, आर्य सर्वगुप्तिगणि और आर्य मित्रनन्दिगणि के चरणों में (मूल) सूत्रों और उनके अर्थों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया था तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस ‘आराधना’ ग्रन्थ की स्वशक्ति अनुसार रचना की थी।’ अद्र्धमागधी मिश्रित शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध २१६४ गाथाओं वाले इस आराधना ग्रन्थ पर प्राकृत—संस्कृत आदि विभिन्न भाषाओं में अनेक टीकाएं समय—समय पर रची गर्इं। इस समय उपलब्ध सबसे प्राचीन टीका अपराजित सूरि अपरनाम श्रीविजय (समय लगभग ७०० ई.) की संस्कृत में रचित ‘विजयोदया टीका’ मानी जाती है जिसमें कुछ पूर्ववर्ती टीकाओं के भी उल्लेख हैं। ‘आराधना’ की गाथा संख्या १५३९ में आचार्य भद्रबाहु का घोर पीड़ा के बावजूद शांतिपूर्ण मरण का जिस प्रकार वर्णन किया गया उससे विद्वानों का अनुमान है कि वह आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (समय लगभग ३७—१४ ईसा पूर्व) के प्राय: समकालीन रहे होंगे। ‘श्रुतावतार’ में आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के उपरान्त जिन चार आरातीय यतियों का उल्लेख है उनमें एक शिवदत्त हैं। आचार्य कुन्दकुन्द (समय लगभग ८ ई.पू.—४४ ई.) ने अपने ‘भावपाहुड’ में एक ‘शिवभूति’ नामक मुनि का तथा एक अन्य स्थान पर ‘शिवकुमार’ नामक भावश्रमण का ससम्मान उल्लेख किया है। श्वेताम्बर ग्रन्थ ‘मूलभाष्य’ और ‘कल्पसूत्र—स्थविरावली’ में बोटिक संघ (दिगम्बर सम्प्रदाय) के मूल संस्थापक के रूप में किन्हीं ‘शिवभूति’ का उल्लेख किया गया है। प्रो. हीरालाल जैन ने नागपुर यूनिवर्सिटी जर्नल नं.१ में ‘ शिवभूति और शिवार्य’ विषयक अपने लेख में ‘भगवती आराधना’ के कर्ता शिवार्य तथा श्वेताम्बर ग्रंथों में उल्लिखित शिवभूति को अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ‘प्रेमी—अभिनन्दन—ग्रन्थ’ में प्रकाशित अपने लेख ‘भगवती आरधना के कर्ता शिवार्य’ में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आचार्य का कुल नाम ‘शिव’ था जिसके साथ ‘भूति’, ‘कोटि’ ‘कुमार’ ‘दत्त’ शब्द उल्लेखकर्ताओं ने स्वरुचि अनुसार अथवा भ्रमवश जोड़ दिये हैं और यह कि ये शिवार्य भद्रबाहु द्वितीय के पश्चात् तथा आचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व, सन् ईस्वी के प्रारम्भ के लगभग हुए थे। सामान्यत: ‘पाणितलभोजी’ दिगम्बर मुनि का विशेषण माना जाता है किन्तु कतिपय अन्तर्साक्ष्यों और बहिर्साक्ष्यों के आधार पर पं.नाथूराम प्रेमी ने अपने ‘जैन साहित्य और इतिहास’ में ‘यापनीयों का साहित्य’ शीर्षक लेख में ‘शिवार्य’ को यापनीय सम्प्रदाय (दिगम्बर और श्वेताम्बर के मध्य की धारा का माना है। वस्तुत: शिवार्य उस युग के हैं जब दिगम्बर—श्वेताम्बर विभेद होने पर उनके मध्य समन्वय के लिए प्रयत्नशील जैन साधुओं में एक स्वतंत्र विचारधारा जन्म ले रही थी। श्रवणबेलगोला की सिद्धिरबस्ती में स्तम्भ लेख, जो क्रमांक २ पर उदधृत है, में उल्लिखित समन्तभद्र के शिष्य ‘शिवकोटि’ और अय्यपार्र्य के जिनेन्द्रकल्याणभ्युदाय’ से क्रमांक ३ पर उदधृत श्लोक में समन्तभद्र के शिष्य के रूप में उल्लिखित ‘शिवकोटि’ और ‘शिवायन’ उपर्युक्त ‘भगवती आराधना’ के कर्ता ‘शिवार्य’ से सर्वथा भिन्न हैं। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने The Jaina Sources of The Histoty Of Ancient India में उक्त शिवकोटि को स्वामी समन्तभद्र (समय लगभग १२०-१८५ ई.) का राजवंशी शिष्य बताया है जिन्होंने, कहा जाता है, अपने गुरु की सलाह से अपने भाई शिवायन के साथ सन्यास लेकर मुनि दीक्षा ले ली थी। यह भी कहा जाता है कि उक्त ‘शिवकोटि’ ने आचार्य उमास्वामि के ‘तत्त्वार्थसूत्र’ पर ‘रत्नमाला’ नामक टीका रची थी। उन्होंने उक्त ‘शिवकोटि’ के जैन धर्म के प्रति अनुराग रखने वाले कदम्बवंशी द्वितीय शासक शिवस्कन्धश्री से, जिसने अपने पुत्र श्री कण्ठ के पक्ष में राजसिंहासन का परित्याग किया था, अभिन्न होने की संभावना व्यक्त की है। कदाचित् क्रमांक ४ व ५ पर उदधृत श्लोकों में भी इन्हीं ‘शिवकोटि’ का ससम्मान स्मरण किया गया भगवान के जन्मनगर कुण्डलपुर का वर्णन करते हुए आचार्य गुणभद्र ने उसे भरतक्षेत्र के विदेह में ही बताया है (भरतस्मिन् विदेह रण्ये व्येराई कुडपुरेशस्य—), अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदंत भी वीरजिणिन्द चरिउ में कुण्डपुर को भरत क्षेत्र के विशाल शोभा वाले विदेह प्रदेश में स्थित बताते हैं (…..भरहंतरालि रमणीय विसइ सोहा विसालि कुंडउरि राउ सिद्धत्थ…..)। श्वेताम्बर आम्नाय में मान्य आगम साहित्य में भगवान महावीर को वेसालिय—वैशालिक कहा गया है। आचारांग और कल्पसूत्र में उन्हें विदेहवासी बताया गया है। गंगा के उत्तर का प्रदेश विदेह तथा दक्षिण का प्रदेश मगध कहलाता था। मगधप्रदेश में ही उसकी राजधानी राजगृह (राजगिर), उसके सन्निकट, (मात्र १०—१५ मील की दूरी पर ही नालन्दा जिलान्तर्गत) वर्तमान दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कुंडलपुर तथा ना—अति—दूर (मुंगेर जिलान्तर्गत) लछवाड़ स्थित है। मगध में राजतंत्र था तथा सम्राट श्रेणिक—बिम्बसार ने सम्पूर्ण मगधप्रदेश को विजित कर उसमें अपना एकछत्र राज्य स्थापित किया हुआ था। विदेह प्रदेश में लिच्छवि क्षत्रियों के वज्जिसंघ का समृद्धिशाली गणतंत्र राज्य था। जिसकी प्रमुख नगरी वैशाली थी। कुंडपुर—कुंडग्राम या क्षत्रियकुंड वैशाली का एक उपनगर या उसके सन्निकट एक ग्राम था। वरिष्ठ श्वेताम्बर (स्थानकवासी) आचार्य श्री हस्तिमल जी महाराज भी उपर्युल्लिखित आगमिक तथ्यों के आधार पर इसे ही भगवान महावीर की सही जन्मभूमि के रूप में स्वीकार करते हैं (देखें, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, पृष्ठ ५५६)। वज्जिसंघ में ७७०७ लिच्छवि राजा (या मतदाता) थे जो स्वयं एकाधिक ग्रामों के अधिपति थे तथा अपनों में ही एक को अपना राजप्रमुख चुनते थे। राजप्रमुख सामान्यतया अपने पदपर जीवन पर्यन्त आसीन रहता था। तत्कालीन राजप्रमुख महाराज चेटक थे जो भगवान महावीर के नाना (तथा कुछ के अनुसार मामा) थे। लिच्छवि राजा अपनी परिषद में राजप्रमुख की अध्यक्षता में बैठकर बहुमत से सभी नीतिगत निर्णय लेते थे। वज्जिसंघ के शक्तिशाली गणतंत्र राज्य, उसके लिच्छवि राजाओं व उनकी नगरी वैशाली के वैभव तथा उन्नत संस्कृति की भगवान बुद्ध द्वारा एकाधिक बार प्रशंसा किए जाने के उल्लेख बौद्ध आगमिक साहित्य में मिलते हैं। अस्तु मगधाधिपति सम्राट श्रेणिक—बिम्बसार के काल में मगधप्रदेश में ही कोई कुंडलपुर या लछवाड़ का स्वतंत्र राज्य रहा हो, इसकी कोई संभावना ही नहीं है।श्रेणिक के पुत्र दुर्दान्त सम्राट अजातशत्रु ने तो भगवान महावीर के जीवनकाल में ही वज्जिसंघ को पराजित कर वैशाली का पूर्ण विध्वंस कर दिया था तथा अपने साम्राज्य का विस्तार विदेहप्रदेश में भी कर लिया था। लिच्छवि गणतंत्र भले ही मिट गया पर उन्होंने कभी किसी राजा की दासता स्वीकार नहीं की। यद्यपि वैशाली के निकट वासोकुंड (या क्षत्रियकुंड) के भगवान महावीर के सही जन्मस्थान होने में कोई संदेह प्रतीत नहीं होता तथापि चूंकि कुछ मनीषियों का राजगिर के निकट के कुंडलपुर या मुंगेर जिलान्तर्गत लछवाड़ के पक्ष में आग्रह है, अच्छा हो यदि इस २६००वें जन्ममहोत्सव वर्ष में आयोजित हो रही किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस विषय पर विशद् चर्चा कराकर मतैक्य स्थापित कर लिया जाये। (शोधादर्श—४४, जुलाई २००१, में विवेचन स्व. श्री अजितप्रसाद जैन ने भगवान महावीर की जन्मभूमिविषयक विवाद को समाप्त किये जाने हेतु प्रस्तुत किया था। महावीर के जन्म और निर्वाण सम्बन्धी स्थानों के सम्बन्ध में विवाद महावीर की ऐतिहासिकता को ही संदिग्ध कर देगा। महावीर की जन्मभूमि वैशाली के निकट वासोकुंड और निर्वाणभूमि कुशीनगर जिले में पावानगर आधुनिक शोध—खोज के आधार पर सर्वमान्य होने चाहिए।