ब्र. विद्युल्लता हीराचन्द शाह(श्राविका संस्था नगर, सोलापुर)
श्राविका—संस्थानगर सोलापुर में भगवान महावीर का अति मनोज्ञ मन्दिर है। वहां एक विशाल भित्ति—चित्र बनवाया गया है जिसे देखकर एक जैनेतर धर्मी व्यक्ति ने जिज्ञासा से प्रश्न किया कि ‘‘ यह वृक्ष और ६ आदमियों का चित्र क्यों बनाया गया है? मैंने कहा कि जरा आप ध्यान से देखिये और सोचिये इसमें संसारी जीवों की भाव दशा का कैसा विचित्र एंव मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है। फलों से लदे हरे भरे इस वृक्ष के नीचे और शाखाओं पर विभिन्न रंगों से बनाये गये ये पुरुष जीवों के विभिन्न जातीय परिणामों के द्योतक हैं। इनमें से कोई पुुरुष वृक्ष के फलों की प्राप्ति के लिए वृक्ष को जड़मूल से ही उखाड़ना चाहता है, कोई पुरुष वृक्ष को स्कंध से काटकर फल प्राप्त करना चाहता है।तीसरा व्यक्ति वृक्ष की दीर्घकाय शाखाओं को काटकर फल खाने की इच्छा कर रहा है। एक पुरुष वृक्ष की छोटी—छोटी टहनियों (शाखाओं) पर लगे फलों को प्राप्त करने के लिए उन लघुकाय शाखाओं को ही गिराना चाहता है तो पांचवां व्यक्ति ऐसा भी है जो मात्र फलों को ही तोड़कर अपनी क्षुधा शांत करना चाहता है, किन्तु छठा व्यक्ति सहज गिरे हुए फलोें को खाना चाहता है। इन छहों व्यक्तियों के जैसे तीव्र—मन्द कषाय परिणाम हैं उनका दिग्दर्शन कराने हेतु ही चित्र में उनके शरीर को विभिन्न रंगों में दर्शाया गया है।प्रथम पुरुष से छठे पुरुष तक सभी के मानसिक परिणामों की स्थिति उत्तरोत्तर उज्जवल और विशुद्ध है। जैन—दर्शन के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ’लेश्या’ को समझाने के लिए ही इसका चित्रांकन किया गया है। मेरे इस स्पष्टीकरण से वह जैनेतरधर्मी व्यक्ति सहसा आश्चर्यान्वित हुआ और उसने अपने मनोभाव इन शब्दों में अभिव्यक्त किये— ‘‘यह चित्र तो बड़ा मनोवैज्ञानिक है और जैनदर्शन के तत्त्वज्ञान का ज्वलंत दृष्टान्त है। जीव के मनोभावों की सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम छटा से स्थूल भाव छटा इस चित्र में दर्पण की भांति स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रही है। मैं इस लेश्या तत्त्व का गहनतम अध्ययन करना चाहूंगा।’’ इसी के साथ जैनसाहित्य के उन आर्षग्रन्थों की उस व्यक्ति ने जानकारी चाही, जिन ग्रन्थों में इस विषयक निरूपण किया गया है। उसकी इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए शीघ्र ही ग्रन्थभण्डार खोलकर गोम्मटसार जीवकाण्ड, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, पंचसंग्रह, षटखंडागम भाग १, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थ दिखाये जिनमें हमारे आचार्यों ने ‘लेश्या—मार्गणा’ का विस्तृत और सूक्ष्मतम विवेचन लिपिबद्ध किया है। वह व्यक्ति तो ग्रंथसामग्री देखकर चला गया। उसने लेशया का गहन अध्ययन किया या नहीं किन्तु उस प्रसंग से मुझे अवश्य प्रेरणा मिली कि मैं भी कुछ दिन लेश्या’ विषय पर चिंतन—मनन पठन करूं। अपनी अन्तस्प्रेरणा के अनुसार मैंने यथाशक्य पठन—मनन और चिंतन इस विषय में किया उसी का परिणाम यह संक्षिप्त निबन्ध है जो यहां प्रस्तुत हैं। लेश्या का समान्य लक्षण : क्रोधादि कषाय से अनुरंजित जीव की मन—वचन—काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। यह प्रवृत्ति छह प्रकार की होती है और उसका निर्देश कृष्ण, नील, कापोत, पीत पद्म और शुक्ल इन रंगों के रूप में किया गया है। इनमें पीत, पदम् और शुक्ल ये तीन शुभ तथा कृष्ण, नील,कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं हैं;
यह गेरुवेण कुड्डी लिप्पइ लेवेण आम पिट्टेण। तह परिणामो लिप्पइ सुहासुह य त्ति लेव्वेण।।१४३।।
जिसके द्वारा जीव पुण्य—पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके आधाीन करता है उसको लेश्या कहते हैं। जिसप्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं। अथवा— आत्मा और कर्म का जो सम्बन्ध कराती है, उसे लेश्या कहते हैं। लेश्या के भेद—प्रभेद : द्रव्य और भाव के भेद से लेश्या दो प्रकार की है। इन दोनों ही प्रकार की लेश्याओं के छह—छह उत्तर भेद हैं। द्रव्यलेश्या— शरीर नाम कर्मोदय से उत्पन्न द्रव्य लेश्या कहलाती है। अर्थात् वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का रंग है उसे द्रव्य लेश्या कहते है। कृष्णादि छह प्रकार के शरीरवर्णों की अपेक्षा यह द्रव्य लेश्या छह प्रकार की हैं। यथा कृष्णलेश्या—भौंरे के समान, नीललेश्या—मयूरकंठ या नीलमणि सदृश, कपोतलेश्या—कबूतर के सदृश पीत लेश्या—सुवर्ण सदृश, पद्म लेश्या—कमल सदृश, और शुक्ल लेश्या—शंख के समान श्वेत वर्णवाली होती है। भावलेश्या— ‘‘कषायानुरञ्जिता कायवाङ मनोयोगप्रवृत्तिर्लेश्या’’ कषाय से अनुरंजित मन—वचन—कायरूप योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं। अथवा मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम, अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जीव का स्पन्द भावलेश्या है। कृष्णादि के भेद से भावलेश्या भी छह प्रकार की है। भावलेश्याओं के लक्षण इस प्रकार हैं।— कृष्णलेश्या— तीव्र क्रोध करने वाला, वैर को नहीं छोड़नेवाला, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म व दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश में नहीं हो, कार्य करने में विवेकरहित हो, कलाचातुर्य से रहित हो, पंचेन्द्रिय के विषियों में लम्पटी हो, मानी, मायावी, आलसी, और भीरु हो, अपने ही गोत्रीय तथा एक मात्र स्वकलत्र को भी मारने की इच्छा करनेवाला हो ऐसा जीव कृष्णलेश्या का धारक होता है। नीललेश्या— जो बहुत निद्रालु हो, परवंचन में अतिदक्ष हो और धन-धान्य के संग्रह में तीव्र लालसा वाला हो विषयों में अत्यन्त आसक्त हो, प्रचुर माया प्रपंच में संलग्न , लोभी तथा आहारादि संज्ञाओं में आसक्त हो अनृत भाषण करनेवाला हो अतिमानी, कार्य करने में निष्ठा रखने वाला न हो कायरता युक्त हो और अतिचपल हो वह नीललेश्या का धारक होता है।२ कापोतलेश्या— जो दूसरों पर रोष करता हो, दूसरों की निन्दा करता हो, अत्यन्त दोषों से युक्त हो, भय की बहुलता से सहित हो, दूसरों से ईष्र्या करने वाला हो, पर का पराभव करने वाला हो, स्वात्म प्रशंसक हो, कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित हो, जीवन से निराश हो गया हो दूसरों पर विश्वास न करता हो, दूसरों के द्वारा स्तुति किये जाने पर अतिसन्तुष्ट हो तथा युद्ध में मरने की इच्छा रखता हो वह कापोतलेश्या का धारक होता है।३ पीतलेश्या— जो अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को, सेव्य—असेव्य को जानता हो, सभी में समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृदुस्वभावी और ज्ञानी हो, दृढ़ता—मित्रता—सत्यवादिता स्वकार्यपटुता आदि गुणों से समन्वित हो, वह तेजोलेश्या (पीतलेश्या) का धारक होता है।४ पद्मलेश्या— जो त्यागी हो, भद्रपरिणामी हो, देव—गुरु गुण पूजन में रुचि, चोखा (सच्चा) हो, बहुत अपराध या हानि होने पर भी क्षमाशील हो, पाण्डित्य युक्त हो वह पद्लेश्या का धारक होता है।५ शुक्ललेश्या— जो पक्षपात न करता हो, निदान नहीं करता हो, सबमें समान व्यवहार करता हो, पर में राग—द्वेष—स्नेह न करता हो, निर्वैर हो, पाप कार्यों से उदासीन हो, श्रेयोमार्ग में रुचि रखता हो, परनिन्दा नहीं करता हो, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देता हो वह शुक्ललेश्या का धारी है।६ उपर्युक्त लक्षणवाली छहों लेश्याएं यथासम्भव सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं। मिथ्यात्व—गुणस्थान से सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान तक कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति से होने वाली लेश्याएं हैं तथा ११—१२—१३ वें गुणस्थान में कषायों का अभाव हो जाने पर भी योग विद्यमान होने से वहां एक शुक्ललेश्या का सद्भाव पाया जाता है। अयोगकेवली और सिद्ध भगवान् लेश्या रहित हैं, क्योंकि वहां योग का भी अभाव हो गया है। सिद्ध भगवान तो संसार से मुक्त ही हो चुके हैं।
लेश्यासम्बन्धी विशेष
शंका—समाधान निम्नप्रकार है—
शंका—कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर संयोगकेवली को लेश्या रहितपने की आपत्ति होती है।
समाधान— ऐसा नहीं है, सयोगकेवली के भी लेश्या पायी जाती है। कषायरहित जीवों में भी शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त काययोग भी तो कर्मबन्ध में कारण है अत: उस योग प्रवृत्ति से ही वहां लेश्या का सद्भाव मानने में सयोगकेवली के लेश्या होती है इन वचनों का व्याघात नहीं पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि कषाय तो १० वें गुणस्थान तक ही पाई जाती है आगे के गुणस्थानों में कषाय नहीं है, क्योंकि ११वें गुणस्थान में कषायों का उपशम हो गया है तथा १२ वें गुणस्थान में कषाएं क्षीण हो चुकी हैं अत: ११—१२—१३ वें गुण स्थान में कर्मलेप का कारण योग तो विद्यमान है इस अपेक्षा वहां शुक्ल लेश्या मानी है।
शंका—लेश्या को औदयिक भाव कहा गया है। ११वें—१२वें और १३वेें गुणस्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम वचन है, किन्तु वहां कषायों का उदय नहीं होने से लेश्या को औदयिकपना नहीं बन सकता।
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योेंकि जो योगप्रवृत्ति कषायोदय से अनुरंजित है वही यह है, पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्तकषायादि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है।
शंका— लेश्या योग को कहते हैं अथवा कषाय को या योग और कषाय दोनों को कहते हैं? इनमें से आदि के दो विकल्प (योग और कषाय) तो मान नहीं सकते, क्योंकि वैसा मानने पर योग और कषाय मार्गणा में ही उसका अन्तर्भाव हो जावेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते, क्योंकि वह आदि के दोनों विकल्पों के समान है।
समाधान— कर्मलेप रूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जावे कि एकता को प्राप्त हुए योग और कषाय रूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अन्तर्भाव हो जावेगा सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मानने में विरोध आता है। केवल योग या केवल कषाय को लेश्या नहीं कह सकते हैं, किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते ऐसा नहीं मान लेना, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं हैं, कारण कि वह योगप्रवृत्ति का विशेषण है। क्षीण—कषायादि जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग तो तब आता जब केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानते।
शंका— योग और कषाय से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता है?
समाधान— नहीं, क्योंकि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के आलम्बनरूप आचार्यादि बाह्य पदार्थों के सम्पर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल योग और केवल कषाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता है अत: लेश्या उन दोनों से भिन्न है यह सिद्ध हो जाता है।
शंका—लेश्या का कषायों में अन्तर्भाव क्यों नही कर देते?
समाधान— यद्यपि लेश्या और कषाय दोनों औदयिक भाव हैं तथापि कषायोदय के तीव्र मंद आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है।
शंका—’ नारकी जीवों के अशुभ लेश्याएं ही हैं फिर वहां सम्यक्त्व कैसे सम्भव है?
समाधान— यद्यपि नारकियों के नियम से अशुभ लेश्या है तथापि उस लेश्या में कषायों के मन्द अनुभागोदय के वश से तत्त्वार्थ श्रध्दानरूप गुण के कारण परिणामरूप विशुध्दि विशेष की असम्भावना नहीं है। इस प्रकार लेश्यामार्गणा में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल, अन्तर भाव और अल्पबहुत्व इन १६ अधिकारों द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थों में अति विस्तृत कथन किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को धवलादि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। करणानुयोग प्रधान सिद्धान्त ग्रन्थों में अशुद्धनय से जीव की कर्मोपाधि सहित भावावस्था का वर्णन किया गया है। विस्तार रुचि शिष्य के लिए १४ मार्गणाओं द्वारा जीव का अन्वेषण किया गया है। उन मार्गणाओं में लेश्या भी एक मार्गणा है। छह लेश्याओं द्वारा जैनदर्शन में भावनाओं का, विचार तरंगों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, भावों का पृथक्करण अत्यन्त सरल व सूक्ष्मतम गहन दृष्टि से समझाया गया है। मन के विचारों की श्रेणियां ही जैनदर्शन में लेश्या नाम से अभिहित हैंं लेश्या मार्गणा का विस्तृत और स्पष्ट अथवा संक्षेप पठन—मनन—चिंतन करने का उद्देश्य और उसकी सार्थकता यही है कि द्रव्यदृष्टि से स्वभावत: शुद्ध आत्मा में कषायोदय का निमित्त पाकर मन—वचन—काय की सकंपता से कर्मों का जो अनादिकालीन गहनतम कर्म लेप लगा है उसे हम पृथक् करने का पुुरुषार्थ करें। कषाय अथवा लेश्या आदि रूप औदयिक भावों का स्वरूप जानकर यह निर्णय करें कि ये औदयिकादि भाव हमारी आत्मा का अहित करने वाले हैं आत्मा के लिए उपादेय नहीं हैं और निर्णयकर औदायिक भावों को छोड़ने के लिए सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र रूप भेद—अभेद रत्नत्रय को स्वीकार कर आत्मा की शुद्धदशा पर लगी कर्मकालिमा को दूर करते हुए अलेश्यभाव को परम पारिणामिक भाव स्वरूप चैतन्यदशा को प्राप्त करें।