विषय प्रवेश : अंको की श्रेणियो में लोगों की रूचि प्राचीन काल से ही दृष्टिगोचर होती है। वैदिक—साहित्य में अंको के अनेक समुच्चय मिलते हैं, जो समान रूप से बढ़ते हैं। ‘तैत्तिरीय संहिता’ में निम्नलिखित समुच्चय वर्णित हैं— १, ३, ५, ७,……..१९, २१, २३,……९९ २, ४, ६, ८,………२० ४, ८, १२,……… १०, २०, ३०,…… इसी प्रकार ‘वाजसनेयी संहिता’ में निम्नलिखित समुच्चयों का वर्णन किया गया है— ४, ८, १२, १६,………४८ १, ३, ५, ७,…………३१ उपर्युक्त समुच्चय सामान्तर श्रेणी में है। ‘पंचविंश ब्राह्मण’ में निम्नलिखित समुच्चय मिलता है— १२, २४, ४८, ९६,……….१९६६०८,३९३२१६ जो गुणोत्तर श्रेणी में है। ‘वृहद्देवता’ नामक ग्रन्थ में २+३+४……..+१००० श्रेणी दी गई है, और इसका योग ५००४९९ बताया गया है। जैन—साहित्य में श्रेणी का प्रथम बार प्रयोग जैन भद्रबाहु (३१२ ई० पू०) कृत ‘कल्पसूत्र नामक’१ग्रन्थ में मिलता है, वह श्रेणी इस प्रकार थी— १+२+४……….+ ८१९२ इस श्रेणी में १४ पद हैं और उनका योग १६३८३ दिया गया है, जो कि आधुनिक गणित के अनुसार शुद्ध है। जैन भूगोल के अनुसार पृथ्वी एक ऐसी समतल भूमि है, जो क्रमश:एक केन्द्रीय वृत्ताकार भूभागों और जलभागों में बँटी हुई है। मध्य में भूभाग है, जिसका नाम जम्बूद्वीप है। इस द्वीप का व्यास एक लाख योजन है, तथा अन्य द्वीपों और समुद्रों की चौड़ाई क्रमश: दूनी होती जाती है। इसलिए उनके व्यास की श्रेणी, लाख योजन में इस प्रकार बनती है— १, ५, १३, २९, ६१, १२५, २५३, ५०९……… उनकी चौड़ाइयों को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं— १, २a, २२a, २३a , २४a,………..२ह-१ a अत: उनके व्यास इस प्रकार हुए— १ (२२ + १) १, (२३ + २२ + १) a……. तथा ह वें वलय का व्यास · (१ + २२ + २३ + ……………. + २ह)a ( २ह + १ – ३ )a ( २ह + १ a – ३ a) यही बात आगे चलकर आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा ’त्रिलोकसार’ में बतायी गई है।२ जैन लोगों ने धार्मिक कृत्यों के अन्तर्गत प्रायश्चित करने के लिये उपवासों में श्रेणियों का उपयोग किया है। इसके उदाहरण ‘अन्तगड दसाओं’ में मिलते हैं जो इस प्रकार हैं— ७+१४+२१+२८+३५+४२+४९ ·१९६ ८+१६+२४+३२+४०+४८+५६+६४ ·२८८ ९+१८+२७+३६+४५+५४+६३+७२+८१ ·४०५५ १०+२०+३०+४०+५०+६०+७०+८०+९०+१०० ·५५०५ १+२+३+…………….१००+१०० ·५०५०+१००·५१५०६ श्रेणियों में समानन्तर और गुणोत्तर श्रेणियों के योग निकालना तथा विभिन्न रूप से श्रेणियों की संरचना करना आदि जैनाचार्यों की मौलिक वस्तु प्रतीत होती है।‘तिलोयपण्णत्ति’ के दूसरे महाधिकार में गाथा २७ से १०४ तक नारक बिलों के विषय में उनके संकलन का विवरण महत्वपूर्ण है। श्रेणियों को इतने विस्तृत रूप मे वर्णन करने का श्रेय जैनाचार्यों को ही है।यदि ‘तिलोयपण्णत्ति’ का यह विवरण पूर्वाचार्यों से लिया गया है तो जैन ग्रन्थों में आर्यभट्ट से पूर्व श्रेणी संकलन सूत्रों का होना सिद्ध होता है।१ यूनान में इस विषय पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, और यद्यपि ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर पायथोगोरियन सम्पद्राय में प्राकृतिक संख्याओं के संकलन का प्रमाण मिलता है।२ परन्तु श्रेणी गणित में विशेष उन्नति नहीं हुई। ‘स्थानांगसूत्र नामक’ जैन ग्रन्थ में, जो कि ३०० ई० पू० का है, गणित के अन्तर्गत दस विषय३ दिये गये हैं जिनमें से एक विषय व्यवहार भी है। इस ग्रन्थ के टीकाकार श्री अभयदेव सूरि (१०५० ई० ने व्यवहार की व्याख्या करते हुए बताया है कि ‘व्यवहार ’शब्द का तात्पर्य ‘श्रेणी व्यवहार’ से है। महावीर कृत ‘गणितसार संग्रह’ के ५वें अध्याय का शीर्षक मिश्रक व्यवहार’ है इस अध्याय का अन्तिम भाग ‘श्रेणी बद्ध संकलित’ है। उक्त भाग में महावीरचार्य ने समान्तर श्रेणी, प्राकृतिक संख्याओं, उनके वर्गों और घनों के योग तो दिये ही हैं साथ ही गुणोत्तर श्रेणी का प्रकरण भी दिया है। इसी विषय के कुछ सूत्र ‘परिकर्म व्यवहार’ नामक अध्याय के ‘संकलितम्’ शीर्षक के अन्तर्गत भी दिये हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अतिरोचक प्रश्न भी दिये हैं। अन्त में दो एक नियम छन्द शास्त्र की मात्राओं की संख्याओं के सम्बन्ध में हैं।४ महावीराचार्य ने अपने ‘गणितसारसंग्रह’ नामक ग्रन्थ में ऐसी समान्तर श्रेणियों का भी उल्लेख किया है, जिनमें पदों की संख्या पूर्णांक न होकर भिन्नात्मक है। यद्यपि ऐसी श्रेणियाँ जिनमें पदों की संख्या भिन्नात्मक होती हैं, सारहीन समझकर आधुनिक बीज गणित में व्यवहार में नहीं लाई जाती है, परन्तु प्राचीन भारतीय गणित में प्रचुर मात्रा में मिलती है। ऐसी श्रेणियों की व्याख्या सीढ़ी अथवा पीने के गिलास से मिलती हुई आकृतियों से की जाती है। ऐसी श्रेणियों की सहायता से उस समय की दैनिक जीवन से सम्बन्धित अनेक समस्यायें हल हो जाती थीं। इसलिये उनको ऐसी श्रेणियों की भी आवश्यकता पड़ी। ऐसी श्रेणियां सबसे पहले ‘बक्षाली गणित’ में दृष्टिगोचर होती हैं। इसके बाद तो महावीराचार्य के ‘गणितसार संग्रह’ में ही मिलती हैं। इस ग्रन्थ के कलसवर्ण व्यवहार’ नामक अध्याय में इस प्रकार की श्रेणियों के उदाहरण दिये है जों इस प्रकार हैं— (१) जिस श्रेणी में प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या क्रमश: २/३,१/६ और ३/४ हो तथा ऐसी ही एक और श्रेणी में ये क्रमश: २/५, ३/४ और २/३ हों तो इन श्रेणियों का योग बतलाओ।५ (२) समान्तर श्रेणी में दी गई एक श्रेणी के प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या क्रमश: २/५, १/५ और ३/४ हैं। इन सब भिन्नात्मक राशियों के अंश और हर उत्तरोत्तर २ और ३ द्वारा क्रमश: बढ़ाये जाते हैं जब तक कि सात श्रेणियां इस प्रकार तैयार नहीं हो जातीं। बतलाओ कि इनमें से प्रत्येक श्रेणी का योग क्या है?१ तत्पश्चात् यह विषय इतना लोकप्रिय होता गया कि बाद के बहुत से गणितज्ञों ने इसके विकास में अपना योगदान दिया। १०वीं शताब्दी के लगभग गणित के इस विषय ‘श्रेणी व्यवहार’ पर एक विशाल ग्रन्थ के लिखे जाने की आवश्यकता अनुभव होने लगी ‘वृहद्धारा परिकर्म’ श्रेणी व्यवहार पर एक विशाल ग्रन्थ के बारे में (जो कि इस समय उपलब्ध नहीं है) ९७८ ई. में नेमिचन्द्र ने बतलाया है तथा उसके कुछ भाग का सार भी लिखा है।२ समान्तर तथा गुणोत्तर श्रेणी मे विभाजन सबसे पहले नवीं शताब्दी में महावीरचार्य के ‘गणितसार संग्रह’ मे ही मिलता है।३ यद्यपि इससे पूर्व विभाजन वैदिक—काल में भी मिलता है, परन्तु उस समय का विभाजन दूसरे आधार ‘युग्म’ तथा ‘अयुग्म’ श्रेणी पर था।४ १०वीं शताब्दी में धारा (एaqलहमे) विभाजन १४ प्रकार का किया गया है, जिसमें उपरोक्त दो युग्म तथा अयुग्म भी सम्मिलित हैं।५ यह १४ प्रकार की किस्में ‘वृह्दधारा’ में उल्लिखित की गई हैं, जिनका सारांश ‘त्रिलोकसार’ (९७८ ई.) में दिया गया है। (१) सर्वधारा ६—इसमें एक से प्रारम्भ करके सभी क्रमागत संख्याएं सम्मिलित हैं— यथा— १, २, ३,…………..ह. (२) समधारा ७—इसमें दो से आरम्भ करके सभी समसख्याएं सम्मिलित होती हैं। यथा—२, ४, ६, ८, १०……….(२ह) यही श्रेणी वेदाँग काल में ‘युग्म श्रेणी’ के नाम से प्रचलित थी। (३) विषमधारा—८ इसमें एक से आरम्भ करके सभी विषम संख्याएँ होती हैं— यथा—१, ३, ५,………(२ह-१) यही श्रेणी वेदांगकाल में ‘अयुग्म श्रेणी’ के नाम से प्रचलित थी। (४) कृतिधारा—९ इसमे प्रत्येक पद पूर्ण वर्ग होता है—यथा १,४, ९, …..ह२. (५) अकृतिधारा—१ इसमें प्रत्येक पद अपूर्ण वर्ग होता है। यथा— २, ३, ५, ६, ७,………… (६) घनधारा—२ इसका प्रत्येक पद पूर्ण घन होता है—यथा— १, ६, २७,………+ह३ (७) अघनघारा—३ इसमें प्रत्येक पद अपूर्ण घन होता है—यथा— २, ३, ५, ६, ७, ९,……………. (८) कृतिमातृकधारा—४ इसे वर्ग मातृक धारा भी कहते हैं। इस श्रेणी में एक से प्रारम्भ करके सभी संख्याएं होती हैं, जिनमें से प्रत्येक पद वर्ग किया जा सकता है।‘सर्वधारा’ और ‘कृतिमातृक धारा’ मे अन्तर केवल यही है कि ‘सर्वधारा’ को अन्तिम पद ‘ह’ होता है परन्तु ‘कृतिमातृक धारा’ में अन्तिम पद होता है यथा— १, २, ३, ४,……………..+ (९) अकृतिमातृक धारा—५ यह ऐसी श्रेणी होती है जिसका वर्ग करने पर अकरणीगत राशि प्राप्त न हो। यथा— (१०) घनमातृक धारा—६ इसका प्रत्येक पद घन किया जा सकता है। यथा— १,२, ३, …………..३ (११) अघनमातृक धारा—७ इसका कोई भी पद घन करने पर अकरणीगत राशि प्राप्त नहीं नहीं होती। यथा— …………… (१२) द्विरूपवर्ग धारा—८ इस प्रकार की श्रेणी में प्रथम पद २ का वर्ग और अन्य प्रत्येक पद अपने पिछले पद का वर्ग होता है। यथा— २२, २४, २८……….अथवा ४, १६, २५६,……. (१३) द्विरूपघन घारा—९ इस श्रेणी में प्रथम पद २ का घन और अन्य प्रत्येक पद अपने पिछले पद का वर्ग होता है। यथा— २३ , (२३)२, (२३)४,…….अथवा ८, ६४, ४०९६……… (१४) द्विरूप घनाघन धारा—१ इस श्रेणी में प्रथम पद (२३)३ होता है और अन्य प्रत्येक पद अपने अपने पिछले पद का वर्ग होता है। यथा— (२३)३, (२३)६, (२३),१२………. आचार्य नेमिचन्द्र जी लिखते हैं—‘‘जिन्हें धारा प्रकरण में विशेष रुचि हो, वे बृहद् धारा प्रकरण२ को देखें क्योंकि यहाँ यह प्रकरण लोगों को परिचय देने तथा त्रिलोकगणित की आवश्यकता पूर्ण करने के लिये (सूक्ष्म में) दिया गया है’’। परन्तु खेद की बात है कि आचार्य द्वारा उल्लिखित पुस्तक इस समय अनुपलब्ध है। नामकरण—‘श्रेणी’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले जैन ग्रन्थों में मिलता है।३ ५वीं शताब्दी से इसी नाम का सामान्यरूप से प्रयोग हुआ।४ ‘वृहद्धारा प्रकरण’ ग्रन्थ में श्रेणी के लिये ‘धारा’ शब्द प्रयोग किया गया है।५ वृहद्धारा—प्रकरण’ ग्रन्थ में गुणोत्तर श्रेणी के लिये ‘गुणसंकलित’ शब्द प्रयोग किया गया है और ‘गुणहानि’६ शब्द उस गुणोत्तर श्रेणी के लिये प्रयोग किया गया है जिसका पदानुपात एक से कम होता है। जैन ग्रन्थों में पद के लिये ‘घन’ शब्द प्रयोग किया गया है । किसी श्रेणी में प्रथम स्थान पर जो प्रमाण रहता है, उसे ‘आदि’ ‘मुख’ ‘वदन’ ‘प्रभाव’ व ‘वक्त्र’ कहते हैं तथा अन्तिम पद के लिए ‘अन्त’ अन्त्यधन’ तथा ‘भूमि’ शब्द काम में लाये गये हैं। अनेक स्थानों में समान रूप से होने वाले वृद्धि अथवा हानि के प्रमाण को ‘चय’, ‘प्रचय या उत्तर’ कहते हैं। ऐसी वृद्धि या हानि होने वाले स्थानों को ‘गच्छ’ या ‘पद’ कहते हैं। समान्तर श्रेणी के मध्य पद के लिय ‘मध्य’ अथवा ‘मध्यधन’ शब्द प्रयोग किये गये हैं। किसी श्रेणी के योग के लिये ‘सर्वधारा’ ‘श्रेणीफल’ ‘गणित सर्वधन’ तथा ‘संकलितधन’ शब्दों का उल्लेख मिलता है।‘त्रिलोकसार’ मे गुणोत्तर श्रेणी के योग के लिए ‘गुण गणित’ शब्द प्रयोग हुआ है। ‘गणितसारसंग्रह’ में दो शब्द और प्रयोग किये गये हैं—‘आदिधन’ तथा ‘उत्तरधन’ प्रथम पद में श्रेणी के पदों की संख्या गुणा करने पर प्राप्त राशि‘आदिधन’ कहलाती है यथा—आदिधन ·a ² ह। प्रचय द्वारा गुणित श्रेणी के पदों की संख्या तथा एक कम पदों की संख्या के आधे का गुणनफल ‘उत्तरधन’ कहलाता है। यथा— उत्तरधन · ह (ह – १) ् उत्तरधन के लिये ‘कर्मकाण्ड’ ग्रन्थों मे ‘प्रचयधन’ प्रयोग किया है।७ ‘आदिधन’ भी ‘कर्मकाण्ड’ मे मिलता है। इसमें प्रचयधन और आदिधन का समबन्ध भी दिया गया है। समान्तर श्रेढी—‘तिलोयपण्णत्ति’ में समान्तर श्रेढी a + (a +्) +…….+ डa + (ह – १) ़् के विषय में निम्नलिखित सूत्रों का वर्णन है— १. ऊह अर्थात् ह वाँ पद a + (ह – १ ) ्१ २. ३. ४. ५. इसमें । अन्तिम पद का मान है। ‘गणितसारसंग्रह’ में महावीराचार्य ने समान्तर श्रेढी पदों तक के समस्त पदों के योग के लिये निम्न सूत्र दिये हैं— ‘पहले श्रेणी के पदों की संख्या मे से एक घटाते हैं फिर प्राप्त फल को आधा करते हैं और तब प्रचय द्वारा गुणा किया जाता है।’’ इसे फिर श्रेणी के प्रथम पद के साथ जोड़ा जाता है। योग को पदों की संख्या से गुणा करने पर योग प्राप्त होता है।’’ इसे बीजीय रूप से इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं— (१) जहाँ ल् प्रथम पद, ृ प्रणय और ह पदों की संख्या है। योग प्राप्त करने की दूसरी विधि इस प्रकार है। श्रेणी के पदों की संख्या को एक द्वारा ह्रासित कर प्रचय द्वारा गुणित करते हैं। प्राप्त फल में श्रेणी के प्रथम पद की दुगुनी राशि मिलाते हैं। योगफल में श्रेणी के पदो की संख्या से गुणा करके आधा कर देने पर श्रेणी का योग प्राप्त होता है। इसको बीजीय रूप से इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं— (२) एह ड (ह – १) + २a ़ ह/२ समान्तर श्रेढी के पदों की संख्या (गच्छ) निकालने का नियम महावीराचार्य ने इस प्रकार दिया है— ‘‘प्रथम पद की दुगुनी राशि और प्रचय के अन्तर के वर्ग में श्रेणी के योग द्वारा गुणित प्रचय की आठ गुनी राशि जोड़ते हैं। फिर इसका वर्गमूल निकालते हैं वर्गमूल में प्रचय जोड़ते हैं, और इस प्रकार प्राप्त जोड़ का आधा करते हैं। इसे प्रथम पद द्वारा ह्रासित कर प्रचय द्वारा विभाजित करते हैं। तो श्रेणी के पदों की संख्या ज्ञात होती है।१ इसको बीजीय रूप में इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं। महावीराचार्य ने आदि और प्रचय निकालने के लिये भी सूत्रों का उल्लेख किया है।‘‘श्रेणी के योग को उत्तरधन द्वारा ह्रासित किया जाता है फिर प्राप्त फल को पदों की संख्या द्वारा विभाजित करने पर आदि प्राप्त होता है।’’२ यथा— ‘‘आदि ज्ञात करने के लिये दूसरा सूत्र इस प्रकार दिया गया है—श्रेणी में पदों की संख्या द्वारा भाजित श्रेणी का योग प्रचय और एक कम पदों की संख्या की आधी राशि के गुणनफल द्वारा ह्रासित कर दिया जाता है, आदि प्राप्त होता है।३ यथा— श्रेणी के योग की दुगुनी राशि को पदों की संख्या से विभाजित कर एक कम पदों की संख्या और प्रचय के गुणनफल द्वारा ह्रासित करते हैं। प्राप्त फल को प्रचय द्वारा गुणित कर, जब दो द्वारा विभाजित करते हैं, तो आदि प्राप्त होता है।४ यथा— प्रचय प्राप्त करने के लिये महावीरचार्य लिखते हैं कि ‘‘श्रेणी का योग आदि धन द्वारा ह्रासित जाता है। पुन: इसे पदों की संख्या द्वारा,ह्रासित पदों की संख्या के वर्ग द्वारा, निरूपित राशि की द्वारा विभाजित करने पर प्रचय प्राप्त होता है। इसे बीजीय कप में इस प्रकार निरूपित करते हैं। यथा— दूसरा प्रमाण—प्रचय, प्राप्त करने के लिये गणित रूप संग्रह में दूसरा सूत्र इस प्रकार र्विणत है—‘‘योग्य के पदों की संख्या से भाजित कर प्रथम पद हासिल करते हैं, प्राप्त फल भी एक कम पदों की संख्या की आधी राशि द्वारा विभाजित करने पर प्रचय प्राप्त होता है। इसे बीजीय रूप में इस प्रकार प्रदर्शित करते हैं।६ प्रचय प्राप्त करने के लिये तीसरा नियम इस प्रकार उल्लिखित है ‘‘श्रेणी के योग को २ से गुणित कर और पदों की संख्या से विभाजित कर प्रथम पद की दुगुनी राशि से ह्रासित करते हैं। प्राप्त फल को एक कम पदों की संख्या द्वारा विभाजित करने पर प्रचय प्राप्त होता हैं।१ इसका बीजीय रूप इस प्रकार है—यथा— इसके अतिरिक्त महावीराचार्य ने कुछ विशेष दशाओं के हल भी दिये हैं, जो कठिन, परन्तु उपयोगी हैं वे अधो वर्णित हैं— (१) किसी समान्तर श्रेणी के ज्ञात योग से दूसरी समान्तर श्रेणी का प्रथम पद और प्रचय जहां मन से चुना हुआ योग दी हुई श्रेणी के योग का दुगना, तिगुना, आधा, तिहाई अथवा इसी तरह का गुणक अथवा भिन्नीय रूप है, निम्नलिखित नियम से प्राप्त करते हैं।’’ ‘‘चुने हुये योग को ज्ञात योग द्वारा विभाजित करते हैं। इस भजनफल को जब ज्ञात प्रचय द्वारा गुणित करते हैं तो इष्ट प्रचय प्राप्त होता है। यदि उसी भजनफल को जब ज्ञात प्रथम पद से गुणा करते हैं तो इच्छित प्रथम पद उस श्रेणी का ज्ञात होता है, जिसका कि योग ज्ञात श्रेणी के योग का या तो अपवत्र्य अथवा भिन्न ात्मक भाग होता है।२ इसको बीजीय रूप में इस प्रकार लिख सकते हैं।’’ यथा— a१ और र्१ और १ , a , और १ऐसी श्रेणी के क्रमश: योग, प्रथम पद तथा प्रचय हैं, जिनका योग चुन लिया जाता है। यदि दो श्रेणियों का योग दिया गया हो तो उनके प्रथम पदों की निष्पत्ति तथा उनके प्रचयों की निष्पत्ति सदैव १ ही नहीं रहती। अत: यहां जो हल दिये गये हैं, वे कुछ विशिष्ट दशाओं में ही प्रयुक्त होते हैं। (२) जिनके पदो की संख्या मन से चुनी जाती है, ऐसी दो श्रेणियों के पारस्परिक विनिमत प्रथम पद और प्रचय तथा उन श्रेणियों के योगों को जो बराबर हो अथवा जिनमें से एक दूसरे का दुगना , तिगुना, आधा आदि हो, निकालने का नियम इस प्रकार है—३ यथा— a ह ( ह – १) ज् – २ह, तथा ृ ( ह१)२ – ह – २ झ्स् जहाँ a, और ह क्रमश: प्रथम पद, प्रचय और श्रेणी के पदों की संख्या है,ह,द्वितीय श्रेणी के पदों की संख्या है और ज् दोनों योगों कीर निष्पति है।a और इस प्रकार निकालने के बाद दूसरी श्रेणी के प्रथम पद और प्रचय क्रमश: a और होंगे। (३) असमान प्रचयों, समगच्छ और समयोगधन वाली दो श्रेणियों के प्रथम पद ज्ञात करने के लिय नियम इस प्रकार हैं—४ a१ (१ – ) + a जहाँ a और a१दो श्रेणियों के प्रथम पद हैं, , और १ उनके क्रमश: प्रचय हैं। स्पष्ट है कि यदि , १ और ह दिये हुए हों तो a का कोई मान मानकर a१ का मान निकाल सकते हैं। (४) ऐसी समान्तर श्रेढ़ियों के प्रचयों की , जिनके प्रथम पद असमान परन्तु गच्छ और योग समान हों, ज्ञात करने का नियम इस प्रकार है—१ १ (५) जब समान्तर श्रेढी का योग उसके गच्छ का वर्ग अथवा घन होतो चुने हुए गच्छ वाली श्रेणी के सम्बन्ध में प्रथम पद, चय और योग निकालने का नियम इस प्रकार है—२ ह२ जब a १ और ृ स्पष्ट है कि में a – १ और ृ रखने पर का मान ह२ के बराबर आ जाता है। जब a ह और ृ (६) समान्तर श्रेढी के दिये हुए योग के, (जो कि इष्ट राशि का घन हो) सम्बन्ध में प्रथम पद,प्रचय और गच्छ निकालने का नियम इस प्रकार है—३ पदों तक इस किया की साधारण प्रयोज्यता, समीकरण से शीघ्र स्पष्ट हो सकता है। इन सब दशाओं में श्रेणी के पदों की संख्या, प्रथम पद की ज्३ से गुणित करने पर प्राप्त हो सकती है, क्योंकि पद हैं। प्रत्येक दशा में प्रचय, प्रथम पद से द्विगुणित किया जाता है। ‘त्रिलोकसार’ में आचार्य नेमिचन्द्र जी ने भी अन्तिम पद, प्रथम पद तथा सब पदों के योग निकालने के लिये सूत्रों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है— ‘‘एक कम पद संख्या को चय से गुणा करो। गुणनफल को मुख्य (प्रथम पद) में जोड़ने से भूमि (अन्तिम पद) आवेगा।’’ इसका बीजीय रूप इस प्रकार है—४ १ a + ( ह – १ ) जब कि १ भूमि है। प्रथम पद ज्ञात करने के लिये आचार्य कहते हैं कि ‘भूमि में से एक कम पद संख्या और चय के गुणनफल को घटाने पर मुख मिलेगा’।१ बीजीयरूप में इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं— a १ – ( ह – १ ) श्रेणी के समस्त पदों का योग मालूम करने के लिये आचार्य लिखते हैं—‘मुख और भूमि’ को जोड़कर आधे की पद संख्या से गुणा करने पर सब स्थानों का प्रमाण (योगफल) आ जाता है।२ यथा— एह समान्तर श्रेढी के समस्त पदों का योग निकालने के लिए आचार्य ने एक अन्य नियम इस प्रकार लिखा है—‘‘पद संख्या में से एक घटाकर, दो का भाग दो और फिर चय से गुणा करो। जो गुणनफल आवे, उसमें पद जोड़ो, तथा योग को पद संख्या से गुणा करो तो सब स्थानों का प्रमाण आ जावेगा।३ यथा— एह ह ड a + – ़ यदि मुख (प्रथम पद), चय और भूमि (अन्तिम पद) ज्ञात हों पद संख्या निकालने के लिय आचार्य इस प्रकारलिखते है—४ ह पंडित टोडरमल जी ने भी समान्तर श्रेढी के समस्त पदों के योग के सूत्र का वर्णन किया है, जिसका बीजीय रूप इस प्रकार है—५ योग ह ( ृ a ) गुणोत्तर श्रेणी— गुणोत्तर श्रेढी के संकलन के लिए सूत्र ‘जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति’ में भी दिये गये हैं।६ ‘तिलोयपण्णत्ति’ में गुणोत्तर श्रेढी के संकलन का सूत्र चमरेन्द्र की भैंसों की सेना की गणना तथा बैरोचन आदि के अनीकों की गणना के सम्बन्ध में किया गया है। वह सूत्र इस प्रकार है—७ यथा— एर्ह ४ इसके अतिरिक्त ‘तिलोयपण्णति’ में गुणोत्तर श्रेढी का उपयोग अन्तिम पाठ द्वीप समुद्रों के विस्तार बतलाने में किया है।१ ‘गणितसारसंग्रह’ में भी गुणोत्तर श्रेढी का योग ज्ञात करने के लिये सूत्र दिये हैं।जो इसप्रकार हैं। ए अध्ययर्न गुण — आदि मान लीजिए कि किसी गुणोत्तर श्रेढी में गुण ·r और आदि ·a हो तो योग· योग निकालने के लिये महावीरचार्य ने गुणधन के रूप में भी सूत्र दिया है, जो इस प्रकार है३ योग जहाँ गुणधन a१ ह है। ‘कर्मकाण्ड’ में भी भंगों की संख्या निकालते समय गुणोत्तर श्रेढी का प्रयोग किया गया हैउसमें लिखा है—‘‘यदि भंग संख्या एक से प्रारम्भ होती है तो उत्तरोत्तर दुगुनी होती जाती है। अत: भंगों की संख्या का योग निकालने के लिये अन्तिम पद का दूना करके और एक घटा देना चाहिये।४ इसको बीजीयरूप में इस प्रकार लिख सकते हैं : – २ १ – १ चूँकि यह गुणोत्तर श्रेढी है, जिसका प्रथम पद एक और गुणानुपात २ है। अत: १ ल्r ह-१ – १२ ह-१ – २ह-१ ए – २.२ह-१ -१ २ह -१ इसका मान उपरोक्त सूत्र में लिखने पर— उपरोक्त सूत्र निम्नलिखित का सरलतम रूप है। ‘कर्मकाण्ड’ मे भंग की संख्या निकालने में गुणोत्तर श्रेढी के अन्तिम पद के सूत्र का भी प्रयोग किया गया है। उसमें लिखा है ‘‘ यह संख्या एक से प्रारम्भ होती है, और उत्त्रोत्तर दुगुनी होती जाती है। अत: अन्तिम पद २ के ऊपर संख्या से कम की घात लगाकर ज्ञात हो जाती है।’’ इसको बीजीयरूप में इस प्रकार कहते हैं— १ २ह-१ आधुनिक सूत्र के अनुरूप १ arह-१ र्१ २ह-१ २ह-१ गुणोत्तर श्रेढी के गुण निकालने की विधि:— यदि किसी गुणोत्तर श्रेढी का योग, आदि और गच्छ दिये हों तो गुण निकालने के लिये योग को आदि से भाग देकर भजनफल में से एक घटाओ फिर किसी (मन से सोची हुई किसी) संख्या से शेष को भाग दो। भजनफल में से एक घटाकर फिर उसी जाँच भाजक से भाग दो। इसी प्रकार बार—बार करते जाओ। यदि अन्त में भजनफल एक आ जाये तो जाँच भाजक ही गुण का मान होता है। यदि अन्त में भजनफल एक न आवे तो अन्य किसी जाँच से प्रारम्भ करो।१ उदाहरण: किसी गुणोत्तर श्रेढी में आदि·३, गच्छ·६ और योग·४०९५ है तो उसका गुण ज्ञात करो।२ ४०९५ को ३ से भाग देने पर १३६५ आता है। भजनफल १३६५ में से एक घटाने पर १३६४ आता है। चूँकि ४ से १३६४ भाज्य है, अत: हम ४ को जाँच भाजक मान कर आगे बढ़ते हैं। शेष क्रिया इस प्रकार होगी— १३६४/४ · ३४१ ३४१—१ · ३४० ३४०/४ · ८५ ८५—१ · ८४ ८४/४ · २१ २१—१ · २० २०/४ · ५ ५—१ · ४ ४/४ · १ अत: ४ ही अभीष्ट गुण का मान है। उपरोक्त विधि का आधार मूल सिद्धान्त यह है— जो कि स्पष्टत: r के द्वारा मान्य है। आदि निकालने की विधि— यदि किसी गुणोत्तर श्रेढी के योग, गच्छ और गुण ज्ञात हो तो उसका आदि निकालने का सूत्र इस प्रकार है।३ गुण में से एक घटाकर शेष का योग से गुणा करो। गुण का गच्छवाँ घात लेकर उसमें से एक घटा दो। इस शेष पिछले गुणनफल को भाग देने पर आदि प्राप्त हो जावेगा। इस क्रिया में यह सिद्वान्त निहित है— गुण निकालने की विधि:— यदि किसी गुणोत्तर श्रेढी का गुण, योग और आदि ज्ञात हो तो उसका गच्छ निकालने के लिये नियम इस प्रकार है—१ ‘‘गुण में से एक घटाकर शेष का योग से गुणा करो। गुणनफल को आदि से भाग देकर एक जोड़ो, प्राप्त योगफल को बार—बार गुण से भाग दो। जितनी बार भाग जाता है, वही संख्या अभीष्टगच्छ होता है’’ यह क्रिया इस नियम पर आधारित है—र् ( r -१) a (rह-१) a (rह – १) a rह -१ (rह-१) + rह उदाहरण— यदि किसी गुणोत्तर श्रेढी का आदि ·५, गुण ·२ तथा योग ·१२७५ हो तो गच्छ ज्ञात करो।२ १२७५²(२—१) ·१२७५ १२७५´ ५ ·२५५ २५५+१ ·२५६ २५६´२ ·१२८ १२८´२ ·६४ ६४´२ ·३२ ३२´२ ·१६ १६´२ ·८ ८´२ ·४ ४´२ ·२ २´२ ·१ अत: २५६ में २ का भाग ८ बार जाता है, इसलिये गच्छ ८ है, ‘त्रिलोकसार’ में भी गुणोत्तर श्रेढी का उल्लेख किया गया है। उसमें आचार्य नेमिचन्दजी ने गुणोत्तर श्रेढी को ‘गुणधारा’ कहकर सम्बोधित किया है। इस प्रकार की श्रेणी के समस्त पदो का योग निकालने के लिये नियम इस प्रकार बतलाया गया है— ‘‘धारा के गुण को आपस मे उतनी बार गुणा करो जितने कुल पद हैं। गुणनफल में से एक घटाओ तथा गुण में से एक घटाकर इस शेषफल का उपरोक्त शेषफल में भाग दो । भागफल में मुख का गुणा करने पर सर्वस्थान प्रमाण आवेगा।१ समान्तरी गुणोत्तर श्रेढी— ‘तिलोयपण्णत्ति’ में २ समानन्तरी—गुणोत्तर श्रेणी का उल्लेख आया है। इसमें बतलाया है—‘‘लवण समुद्र की खंड शलाकाओं से धातकी खंडद्वीप की शलाकाएँ (१४४—२४) या १२० अधिक है। कालोदधि की खंड शलाकाएँ घातकी खंड तथा लवण समुद्र की शलाकाओं से ६७२—(१४४+२४) या ५०४ अधिक है। यह वृद्धि का प्रमाण (१२०)²४+२४ लिखा जा सकता है। इसी प्रकार अगले द्वीप की वृद्धि का प्रमाण (५०४)²४)+(२²२४) है। इसलिए यदि धातकी खंड से ह१ की गणना प्रारम्भ की जावे तो इष्ट ह१ वें द्वीप या समुद्र की खंड शलाकाओं की वर्णित वृद्धि का प्रमाण प्रतीक रूप से होता है। यहाँ Dह१, ह१ वें द्वीप या समुद्र का विष्कम्भ है। यह प्रमाण उस समान्तरी गुणोत्तर श्रेढी का ह, वा पद है, जिसके उत्तरोत्तर पद पिछले पदों के चौगुने से क्रमश: २४²२ह१-१ अधिक होते हैं।’’ यद्यपि इसे Arग्ूप् सूग्म्द उाग्हाूrग्म् एीगे कहा गया है, तथापि यह आधुनिक वर्णित श्रेणियों से भिन्न है। Eह२ का मान—एक से प्रारम्भ होने वाली विभिन्न श्रेणियो दी गई संख्या की प्राकृतिक संख्याओं के वर्गों का योग निकालने के नियम ‘गणितसारसंग्रह’ में इस प्रकार दिया हुआ है—३ ‘दी हुई पद संख्या में एक जोड़ते हैं और तब वर्गित करते हैं। यह वर्गित राशि दुगनी की जाती है, और फिर इसमें से पद संख्या और एक के योग को घटाते हैं इस प्रकार प्राप्त शेष को दी हुई पद संख्या के आधे द्वारा गुणा करते हैं। इस कुल राशि को ३ से भाग देने पर प्राकृतिक संख्याओं के वर्ग का योग प्राप्त होता है। इसको बीजीयरूप में इस प्रकार लिखते हैं— Eस्२ १२ + २२ +३२ + ४२ + …………. ह२ समान्तर श्रेढी के कुछ पदों के वर्गों का योग निकालना जब कि प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या ज्ञात हो— इसके लिये दो नियम दिये हुये हैं। पहला नियम इस प्रकार है—४ ‘‘पदो की संख्या को दुगनी राशि एक द्वारा राशि एक ह्रासित किया जाता है तब प्रचय के वर्ग द्वारा गुणित की जाती है और ६ द्वारा भाजित की जाती है। प्राप्त फल में प्रथम पद और प्रचय के गुणनफल को जोड़ते हैं। परिणामी योग को एक द्वारा ह्रासित पदों की संख्या से गुणित करते हैं। इस प्रकार प्राप्त गुणनफल में प्रथम पद की वर्गित राशि को जोड़ा जाता है। प्राप्त योग को पदों की संख्या से गुणित करने पर अभीष्ट योग प्राप्त होता है।’’ यथा—a२ + ( a + ) + (a + २ )२ + ………. ह पदों तक दूसरा नियम इस प्रकार है—१ ‘‘श्रेणी के पदो की संख्या की दुगुनी राशि एक द्वारा ह्रासित की जाती है, और तब प्रचय के वर्ग द्वारा गुणित की जाती है। प्राप्त फल एक कम पदों की संख्या द्वारा गुणित किया जाता है। यह गुणनफल ६ द्वारा भाजित किया जाता है। इस परिणामी भजनफल में प्रथम पद का वर्ग तथा एक कम पदों की संख्या, प्रथम पद तथा प्रचय इन तीनों का सतत् गुणनफल जोड़ा जाता है। इस प्रकार प्राप्त फलों पदों की संख्या द्वारा गुणित होकर इष्ट फल को उत्पन्न करता है।’’ a२ + (a + )२ + ( a + २)२ + …………ह पदों तक। ड ढ(२ह – १)२ल (ह – १) + ल्२ + (ह – १) a ़ह Eह का मान निकालना इसके लिये निगम इस प्रकार दिया है ? ‘‘पदों की संख्या की अद्र्ध राशि के वर्ग के एक अधिक पदों की संख्या के वर्ग द्वारा गुणित करते हैं।’’ यथा—Eह३ १३ + २३ + ३३ …………… ह३ प्रथम पद, प्रचय और पद संख्या द्वारा होने पर पदो के घन का योग ज्ञात करना— इसके लिये दी हुई श्रेणी के योग को प्रथम पद द्वारा गुणित कर प्रथम पद, प्रचय के अन्तर से गुणित करते हैं। तब श्रेणी के योग के वर्ग को प्रचय द्वारा गुणा करते हैं। यदि प्रथम पद प्रचय से छोटा हो तो उपरोक्त गुणनफलों में से पहले को दूसरे में से घटाया जाता है। यदि प्रथम पद प्रचय से बड़ा होता है तो प्रथम गुणनफल को दूसरे गुणनफल में जोड़ देते हैं। इस प्रकार अभीष्ट योग प्राप्त होता है, यथा— a३ + (a + )३ + (a + २)३ + …………….. ह पदो तक। यदि ए२ ( a – ) a यदि a ्न और a – ( a ष् ) एa सब a ्न महावीराचार्य की ‘श्रेणी व्यवहार’ की सर्वोच्च देन ‘जटिल श्रेणी’ का योग निकालना है।३ इसके लिये आचार्य का कहना है कि यदि श्रेणी इस प्रकार की हो। निष्कर्ष : अध्याय का अवसान करते हुए कहा जा सकता है कि अंको की श्रेणियों के आनन्द में जन मन अत्यधिक रमा है यही कारण है कि यह प्राचीनता को धारण करती है। वैसे तो वैदिक साहित्य मे भी इसकी महिमा की गरिमा दीख पड़ती है, परन्तु जैन साहित्य में इसका महिला सौन्दर्य और निखर कर आया है।कहने का अभिप्राय यह है कि जैनाचार्यों ने इस गाणितिक विषय पर गहन विचार करते हुए इसको एक समुचित एवं सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया है। महावीरचार्य ने इस क्षेत्र के अन्तर्गत अपना महान योगदान देकर अपने स्तुत्य—प्रयास का परिचय दिया र्है। सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द ने अपने प्रिय ग्रन्थ ‘त्रिलोकसार’ में धारा विभाजन १४ प्रकार का किया है जो अद्वितीय है। अन्तत: कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने गाणितिक श्रेणी व्यवहार के अन्तर्गत अथक परिश्रम करके गणित—शास्त्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। वस्तुत: इन जैनाचार्यों ने इस गाणितिक विषय के प्रतिपादन में जो भागीरथ प्रयत्न किये हैं उनको कदापि विस्मृत किया जा सकत।