दृष्टिवाद अङ्ग के पूर्वरूप चौदह भेदों में ‘विद्यानुवाद’नामक पूर्व कहा गया है, उसी विद्यानुवाद पूर्व से निस्सरित विद्या , मंत्र और यंत्र विधान है। विद्या—जिस मंत्र की अधिष्ठातृ देवी हों, मंत्र—जिसका अधिष्ठाता देव हो। बीजाक्षर हो अथवा स्वर हो या व्यजंन हो, प्रत्येक का एक—एक अधिष्ठाता देव या देवी होते हैं। इसका विस्तृत विवेचन वर्तमान में उपलब्ध विद्यानुशासन में पाया जाता है। ५०० महाविद्याओं और ७०० क्षुद्रविद्याओं का वर्णन तथा इनको सिद्ध करने का विधान आदि विद्यानुबाद में पाया जाता है। ये विद्याएं निग्र्रंथ ऋषियों को विद्यानुवाद का स्वयमेव अध्ययन करने मात्र से सिद्ध हो जाती हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि श्रावक, विद्याधर आदि को विशेष तप, संयम, ध्यान से तथा विधि—विधान करने से सिद्ध होती है । इन विद्याओं को सिद्ध करने के लिये प्रथम तो श्रद्धान की परम आवश्यकता है जिस मंत्र की सिद्धि करने के लिये जैसा विधि—विधान कहा है उसी प्रकार करने से वह मंत्र सिद्ध हो सकता है, अन्यथा हानि की उठानी पड़ती है। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने भी राजा नमि विनमि के राज्य प्राप्ति विषयक विवेचन के अन्तर्गत राजा नमि, विनमि को धरणेन्द्र द्वारा कुछ विद्याओं को सिद्ध करने का विधिविधान भी बताया गया ऐसा कहा है। विधिविधान सम्बन्धी उपदेश देते हुए बताया कि यह विद्याधर लोक है, विद्याधर लोक में मनुष्य को कुछ विद्याएं तो स्वयं सिद्ध हो जाती हैं और कुछ आराधना से सिद्ध होती हैं। मातृपक्षीय और पितृपक्षीय कुल विद्याएं तो स्वयं सिद्ध होती हैं तथा आराधना से सिद्ध होने वाली विद्याएं भी है। उनको सिद्धायतन कूट के पास अथवा द्वीप, समुद्र नदी आदि पवित्र स्थान में शुद्ध वस्त्र धारण कर, उन विद्याओं की आराधना करके सिद्ध करें। इस विधि से ही विद्याएं सिद्ध हो सकती हैं तथा नाना प्रकार के इच्छित आकाश गमनादि व भोगोपभोग पदार्थ देती हैं। विद्यानुवादपूर्व में विद्या साधन के अतिरिक्त मंत्र यंत्र का भी विशेष वर्णन पाया जाता है। अत: प्रस्तुत लघु निबन्ध में यंत्र साधना के सम्बन्ध में विशेष लिखने का प्रयास किया गया है। यंत्र लेखन योजना, यंत्र लेखन योजना, यंत्र लेखन विधि तथा यंत्र चमत्कार इन तीन विषयों से सम्बन्धित सामग्री ही इस लेख में प्रमुखता से प्रस्तुत की गई की। यन्त्र मन्त्र साधना के लिए आदि पुराण में पर्व नं. १९ पृ. ४२० पर कहा गया है कि जो सच्चे श्रद्धान से युक्त हो वे ही यन्त्र—मन्त्र साधना करें।
यंत्र लेखना योजना :— जब यंत्र साधन या सिद्धि करने बैठे तो उससे पहले यंत्र लिखने की योजना समझना चाहिये, क्योंकि बिना समझे उसमें भूल होना संभव है। मान लो भूल हो गई और लिखे हुए अंक को काट दिया या मिटा दिया और उसकी जगह दूसरा लिखा तो यह यंत्र लाभदाई नहीं होगा। इसी प्रकार अंक में १ की जगह २ लिखा गया हो तो यह भी एक प्रकार की भूल मानी गई है। भूल होने पर उस भोज पत्र या कागज को छोड़ दो। दूसरा लेकर लिखो। भूल न हो इसके लिये पूर्व अभ्यास करना चाहिए। यंत्र लिखते समय सबसे पहले देख लो कि सबसे छोटा अंक किस खाने में है। उसी खाने से लिखना शुरु किया जाय और वृद्धि पाते अंज्र् से लिखते जाओ। जैसे यंत्र में सबसे छोटा अंज्र् ५ है तो ५ से लिखना प्रारम्भ करो बाद में ६—७—८ जो भी संख्या हो क्रम वृद्धि से लिखते जाओ। इस क्रम से पूरा यंत्र लिख लो। ऐसा कभी न करो कि लाइन से खाने भर दो और सबसे छोटा अंज्र् अंत में या बीच में भरो। इस प्रकार से अक्रम से भरा यंत्र लाभकारी नहीं होगा।
यंत्रांक योजना :— अधिकांश यंत्रों में अंक संख्या इस विधि से लिखी होती है कि किसी तरफ से जोड़ने पर एक ही संख्या आती है इसका अभिप्राय यह है कि यन्त्रक सब ओर अपना बल समान रखना चाहता है। किसी भी दिशा में निज प्रभाव कम नहीं होने देता है। यन्त्रों मेें भिन्न २ प्रकार के खाने होते हैं और वे भी प्रमाणित रूप से व अंज्रें से अंकित होते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक अंक निज बल को पिछले अंक में मिला दश गुणा बढ़ा देते हैं, तदनुसार यह योजना भी यन्त्र शक्ति को बढ़ाने के हेतु से की गई समझना चाहिये। जिन यन्त्रों में विशेष खाने हों और जिनके अंकों का योग करने से एक ही योजन आता हो तो इस तरह के यन्त्र अन्य हेतु से समझना चाहिए। ऐसे यन्त्रों का योगांक करने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे यन्त्र इस प्रकार के देवों से अधिष्ठित होते हैं कि जिनका प्रभाव बलिष्ट होता है। जैसे भक्तामर आदि के यन्त्र। इसलिए जिन यन्त्रों का योगाज्र् एक न मिलता हो उन यन्त्रों के प्रभाव या लाभ प्राप्ति में शंका नही करना चाहिए।
यंत्र लेखन विधान :— यन्त्र लिखने बैठे तब यन्त्र के साथ विधान लिखा हो तो प्रथम उस पर ध्यान दो। प्रधानत: यन्त्र लिखते समय मौन रहना चाहिए। सुखासन से बैठना चाहिए। सामने छोटा या बड़ा पाटिया या बाजोठ हो तो उस पर रखकर लिखना, परन्तु निज के घुटने पर रखकर कभी नहीं लिखे क्योंकि नाभि के नीचे अङ्ग ऐसे कार्यो में उपयोगी नहीं माने गए हैं। प्रत्येक यन्त्र को लिखने के समय दीप, धूप, अवश्य रखनी चाहिए और यन्त्र विधान में जिस दिशा की ओर मुख करके लिखने का विधान बताया हो, उसी दिशा की ओर मुख करके लिखें, यदि नहीं लिखा हो तो सुख सम्पदा प्राप्ति के लिए पूर्व दिशा की ओर, संकट, कष्ट आधि, व्याधि के मिटाने को उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। सम्पूर्ण क्रिया कर शरीर शुद्धि करके स्वच्छ कपड़े पहन कर विधान पर पूरा ध्यान रखना उचित है। लेखन विधि ऊन के बने आसन पर बैठकर नहीं करना चाहिए। स्थान शुद्धि का भी पूरा ध्यान रखना चाहिये।
यंत्र चमत्कार :— यंत्र का बहुमान करके उससे लाभ की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। वार्षिक पर्व दीपावली के दिन दूकान के दरवाजे पर या अन्दर जहां देव स्थापना हो वहां पर पन्दरिया, चौंतीसा, पेंसठिया, यंत्र लिखने की प्रथा बहुत जगह देखने में आती है। विशेष में यह भी देखा है कि गर्भवती स्त्री कष्ट पा रही हो और छुटकारा न होता हो तो विधि सहित यंत्र लिखकर उस स्त्री को दिया जाय तो देने मात्र से छुटकारा हो जाता है। किसी स्त्री को डाकिनी, शाकिनी, सताती है तो यंत्र को हाथ में या गले में बांधने से या सिर पर रखने व दिखाने मात्र से आराम हो जाता है। प्राचीन काल में ऐसी प्रथा थी कि किले या गढ़ की नींव लगाते समय अमुक प्रकार का यंत्र लिख दीपक के साथ नींव में रखते थे। इस समय भी बहुत से मनुष्य यंत्र को हाथ में बांधे रहते हैं और जैनधर्म में तो पूजा करने के भी मंत्र होते हैं जिनका नित्य प्रति अभिषेक कराया जाता है और चन्दन से पूजा कर पुष्प चढ़ाते हैं। इस तरह से यंत्र का बहुमान प्राचीन काल से होता आया है। जो अब तक चल रहा है। साथ ही श्रद्धा भी फलती है, जिस मनुष्य को यन्त्र पर भरोसा होता है उसे फल भी मिलता है। इसीलिए श्रद्धावान लोग विशेष लाभ उठाते हैं। श्रद्धा रखने से आत्मविश्वास बढ़ता हैं। एक निष्ठ रहने की प्रकृति हो जाती है। एक निष्ठा से आत्मबल व आत्मगुण भी बढ़ते हैं। परिणाम पुष्ट—निर्मल होते हैं अत: आत्म शुद्ध्यर्थ भी श्रद्धान रखना परमावश्यक है। जैनागम में अनेक यन्त्रों का सविस्तार विधि—विधान पूर्वक वर्णन पाया जाता है जिज्ञासुओं को वहां से जानना चाहिए।