ज्योतिष मंत्र यंत्र और तंत्र का संक्षिप्त इतिवृत्त
—आर्यिका १०५ श्री विशुद्धमति माताजी
(प० पू० १०८ आ० श्री शिवसागरजी की शिष्या)
वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता आदि गुणों से अलंकृत जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निर्गत एवं गणधर देव द्वारा गुम्फित द्वाद्वशांग गत सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति में तथा त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में सूर्य, चन्द्र एवं राहु आदि ग्रहों का सांगोपांग वर्णन किया गया है तथा कल्याणवाद पूर्व में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारागणों के संचार, उत्पत्ति एवं विपरीत गति के शुभाशुभ फलों का तथा शुभाशुभ शकुनों के फलों का वर्णन किया गया है। विद्यानुवाद पूर्व में प्रगुंसेनादिक सात सौ अल्प विद्याओं, रोहणी आदि पांच सौ महाविद्यााओं के साथ साथ आठ महानिमित्तों का भी सांगोपांग वर्णन है। जिन लक्षणों को देखकर भूत—भविष्यत् में घटित हुई अथवा घटित होने वाली घटनाओं का आभास प्राप्त होता है उसे निमित्त कहते हैं। कारक और सूचक के भेद से ये निमित्त दो प्रकार के हैं। जो किसी वस्तु को सम्पन्न करने में सहायक होते हैें, उन्हें कारक निमित्त कहते हैं, जैसे कुम्हार के निमित्त से घट और जुलाहे के निमित्त से पट निष्पन्न होता है, तथा जिससे किसी वस्तु या कार्य की सूचना मिलती है, उसे सूचक निमित्त कहते हैं, जैसे—सिगनल का झुकना गाड़ी आने का और ठण्डी हवा बरसात या तालाब की सूचक है। ज्योतिष शास्त्र में सूचक निमित्तों की विशेषता है, क्योंकि शुभ अशुभ प्रत्येक घटनाओें के घटित होने के पूर्व प्रकृति, शरीर स्वभाव, वाणी, आदि मेें कुछ न कुछ अच्छे—बुरे विकार अवश्य उत्पन्न होते हैं। ये शुभाशुभ विकार सूर्यादि ग्रह अथवा अन्य प्राकृतिक कारण किसी भी व्यक्ति का स्वयं इष्ट अनिष्ट नहीं करते अपितु इष्ट—अनिष्ट रूप में घटित होने वाली भावी घटनाओं की मात्र सूचना देते हैं, और जो ज्ञानी पुरुष इन संकेतों अथवा सूचनाओं के रहस्य को समझते हैं वे भूत—भावी शुभाशुभ घटनाओं को सरलता पूर्वक जान लेते हैं। मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, और इन सभी द्वीप समुद्रों में अलग—अलग सूर्य—चन्द्रादि ज्योतिष देवों का अवस्थान है, किन्तु जहाँ तक मनुष्यों का सत्चार है वहाँ (अढाई द्वीप) तक के सूर्य—चन्द्रादि गमन शील हैं, आगे सर्वत्र अवस्थित हैं, यह सूर्य—चन्द्रादि ग्रहों का गमन घड़ी, घण्टा, दिन, माह, ऋतु, अयन एवं वर्ष आदि व्यवहार काल मात्र का द्योतक नहीं है, अपितु अंधकार में दीपक के प्रकाश सदृश मनुष्यों की भूत—भावि शुभाशुभ घटनाओं के भी द्योतक हैं। इन सूर्य—चन्द्रादि ग्रहों के उदय, अस्त तथा इनकी विपरीत चाल आदि को देखकर जो भावी सुख दु:ख एवं जन्म मरण आदि का ज्ञान होता है वह अन्तरिक्ष निमित्त ज्ञान कहलाता है। जैनागम में ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि आठ कर्म कहे गये हैं, इनमें मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो भेद हैं, इस प्रकार मुख्य कर्म नौ हैं, इन्हीं कर्मों के फलों को सूचित करने वाले नव ग्रह अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं। नये ग्रह किसी भी व्यक्ति के इष्टानिष्ट का सम्पादन नहीं करते मात्र मानव के शुभाशुभ कर्म फलों के अभिव्यञ्जक हैं। इन ग्रहों में कुछ ग्रहों की किरणें अमृतमय, कुछ की विषमय और कुछ ग्रहों की उभय मिश्रित किरणें होतीं हैं सौम्य ग्रह आकाश में अपनी—अपनी गति विशेष के द्वारा जहाँ—जहाँ जाते हैं। वहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य एवं बुद्धि आदि पर अपनी अमृत किरणों द्वारा सौम्य प्रभाव डालते हैं, इसी प्रकार कूर ग्रह दुष्प्रभाव और उभय मिश्रित रश्मिग्रह मिश्रित प्रभाव डालते हैं। बालक—बालिकाओं की उत्पत्ति के समय भी उनके पूर्व संचित कर्मानुसार जिन जिन रश्मि वाले ग्रहों की प्रधानता रहती है, उसी से उसके सम्पूर्ण जीवन के शुभाशुभ का पर्यापेक्षण कर लिया जाता है। अमृतमय रश्मियों के प्रभाव से जातक कुशाग्रबुद्धि, सत्यवादी, अप्रमादी, जिनेन्द्रिय, स्वाध्यायी एवं सच्चरित्र होते हैं, विषमय रश्मियों के प्रभाव से विवेक शून्य दुर्बुद्धि व्यसनी, सेवावृत्ति एवं हीनाचरण वाले होते हैं तथा मिश्रित रश्मियों के प्रभाव से मिश्रित स्वभाव वाले होते हैं। इन ग्रह रश्मियों का प्रभाव मात्र मानव पर ही नहीं पड़ता, अपितु अचेतन पदार्थों पर भी पड़ता है। ग्रहों की गति एवं स्थिति की विलक्षणता के कारण तथा स्थान—विशेष के कारण भिन्न भिन्न क्षेत्र एवं भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न हुए व्यक्तियों के स्वभाव, आकृति आदि में भी विभिन्नता पाई जाती है। इसी प्रकार जड़—चेतन पदार्थों में उत्पन्न होने वाली विलक्षणताओं का प्रभाव सूर्यादि ग्रह एवं नक्षत्रों पर भी पड़ता है। जैसे— अकम्पनादि सात सौ मुनिराजों के ऊपर उपसर्ग आने से आकाश मंडल मेें श्रवण नक्षत्र का कम्पायमान होना। द्रव्य,क्षेत्र काल और भाव, इन चारों के परस्पर एवं भिन्न—भिन्न सम्पर्क से भी इनमें शुभ—अशुभपना आता है। जैसे—आटे में शक्कर के सम्पर्क से मधुरता और विष के सम्पर्क से कटुता आ जाती है। क्षेत्र—मल, मूत्र, हड्डी, रक्त, आदि के सम्पर्क से क्षेत्र में अशुद्धता एवं महामहोत्सव, पूजा प्रतिष्ठा, यज्ञ आदि के सम्पर्क से शुद्धता आ जाती है, उसी प्रकार अग्निदाह, अतिवृष्टि, सूर्य—चन्द्रादि ग्रहण के निमित्त काल में अशुद्धता और निर्वाण गमन एवं तीर्थंकरादि महापुरुषों के जन्म आदि के कारण काल में शुद्धता आ जाती है। सूर्य, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र एवं वार आदि के सम्पर्क से भी समय में शुद्धता— अशुद्धता आती है। जैसे—
१.मंगलवार को सप्तमी तिथि हो तो अमृत योग एवं मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र हो तो सर्व कार्यों को सिद्ध करने वाला अमृतसिद्धि योग बनता है, किन्तु यदि सप्तमी मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र होता है तो सर्व कार्यों का विनाशक विष योग बन जाता है।
२.३,८,१३, तिथि को बुधवार हो तो पाप योग बनता है, किन्तु यदि ३, ८, १३ तिथि बुधवार को मृग, श्रवण, पुष्प, जेष्ठा भरणी और अश्विनी नक्षत्र में से कोई नक्षत्र हो तो अमृतयोग बन जाता है। ३, ८, १३ तिथि को यदि गुरुवार हो तो भी अमृतयोग बन जाता है।
३.४, ९, १४, तिथि सर्व कार्यों को विफल करने वालीं रिक्ता तिथियाँ हैं, किन्तु इन्हें यदि शनिवार का योग प्राप्त हो जाय तो ये सर्व सिद्धिदा बन जातीं है। अर्थात् सर्वार्थसिद्धि योग बन जाता है।
४.सूर्य ग्रह जिस नक्षत्र पर हो उससे यदि चंद्रग्रह ४, ६, ९, १०, १३ एवं २० वे नक्षत्र पर हो तो जैन सिद्धान्तानुसार एक लाख दोषों को नाश करने वाला रवि योग होता है, किन्तु यदि सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र सातवाँ हो तो भस्म योग और १५ वाँ हो तो दण्ड योग बनता है जो सर्वथा त्याज्य है। ऐसे सहस्रों उदाहरण हैं जिनसे समय (काल) की शुद्धता और अशुद्धता ज्ञात होती है। ज्योतिष शास्त्र में काल की इस शुद्धता का नाम शुभमुहूर्त और अशुभता का नाम अशुभमुहूर्त है जिनके निमित्त से भावाी घटनाओं का संकेत प्राप्त हो जाता है। एक कार्य की पूर्णता अनेक कारणों से होती है, और उन कारणों के प्रति सजगता अर्थात् सचेष्ट रहना ही पुरुषार्थ है, यही पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न कार्य की सफलता का मूल रहस्य है।जैसे—खेती करने वाला कृषक खेत, खाद्य, जल, एवं बीज आदि साधनों को जुटाते हुए साथ में समय का भी साधन जुटाता है, अर्थात् कौन सा धान्य बोने का और उसे काटने का सर्वोत्तम मौसम कौन सा है इसका भी ध्यान रखता है, उसी प्रकार बीज बोने या काटने के प्रारम्भ में भी उपयुक्त समय देखना अति आवश्यक है, क्योंकि, खेती की सफलता में जैसे अनेक कारण सहायक हैं वैसे शुभमुहूर्त भी सहायक है। जैन दर्शन ने काल को चक्ररूप से उद्घोषित किया है। अर्थात् जैसे गाड़ी के चाक में लगे हुये आरे ऊपर नीचे रहते हैं, वैसे ही काल रूपी चाक के प्रमुख छह आरे धूमते रहते हैं, इनमें तीन आरे शुभ, शुभतर और शुभतम हैं तथा तीन अशुभ, अशुभतर और अशुभतम हैं। काल की इस शुभता और अशुभता का माप दण्ड है प्रकृति और प्राणी। जैसे उपर्युक्त तीनों शुभ कालों में तारतम्यता को लिए हुए प्रकृति का सौन्दर्य, सौम्यता, शान्तता, सुभिक्षता आदि क्रमश: वृिंद्धगत थे, उसी प्रकार अनुभकालों में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षता आदि वृद्धिगत है। मनुष्य के स्वभाव एवं सुख—दु:ख की हानि वृद्धि में भी इसी प्रकार परिवर्तन होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि एक सदृश नहीं रहता वह कभी शुद्ध कभी अशुद्ध होता रहता है। और उसकी शुद्धता, अशुद्धता का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है, अत: समुचित जीवनयापन के लिए एवं कार्य सम्पादन के लिए अन्य अनेक साधनों के ज्ञान सदृश ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान एवं उसका सुदपयोग भी अति—आवश्यक है। काल के सदृश सूर्य—चन्द्रादि ग्रह भी मानव जीवन के अभिव्यञ्जक हैं। इस ग्रह सम्बन्धी इस ज्योतिष शाखा के मूलत: तीन विभाग हैं।
१. भौतिक खण्ड— इसमें केवल सांसारिक सफलता, भौतिक समृद्धि और पारिवारिक स्थितियों का अध्ययन किया जाता है।
२. मानसिक खण्ड— इसमें मनुष्य की मानसिक शक्ति का विकास, विचार शक्ति का विकास,विद्याध्ययन की योग्यता एवं क्रिया तथा ज्ञान शक्ति के परस्पर सयोग—वियोग का अध्ययन किया जाता है।
३ आध्यात्मिक खण्ड— इसमें मनुष्य की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, ज्ञान, ध्यान, तपस्या, योग, वैराग्य, सिद्धि असिद्धि एवं मोक्ष आदि का अध्ययन किया जाता है। जैसे नग्न दिगम्बरत्व श्रमण की दीक्षा का योग—कारक ग्रह शनि है, बलवान शनि यदि गुरु के साथ हो या गुरु को देखता हो अथवा चन्द्र और सूर्य का प्रत्यक्ष अथवा दृष्टि (अप्रत्यक्ष) सम्बन्ध शनि या राहू से हो, अथवा बलवान शनि की गुरु, चन्द्र और लग्न पर दृष्टि हो तथा गुरु नवम भाव में हो अथवा दशम भावपति, मंगल या शनि के नवांश में हो शनि से दृष्ट और चन्द्र से युक्त हो तो प्रबल आध्यात्मिक संन्यास योग बनता है। मानव के जीवन विकास के लिए जैसे अन्य अन्य साधनों का एवं तज्जन्य ज्ञान होना आवश्यक है। उसी प्रकार उसकी जन्मपत्री आदि का ज्ञान भी उसके जीवन विकास के लिए अत्यावश्यक है।
मन्त्र :— मन्त्र शब्द मन् धातु से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय लगाकर बना है। जिसके द्वारा आत्मा का आदेश— निजानुभव जाना जाय अथवा आत्मादेश पर विचार किया जाय अथवा परमपद में स्थित पंच परमेष्ठियों का एवं शासन देवों का सत्कार किया जाय उसे मन्त्र कहते हैं। ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यञ्जन बीज संज्ञक हैं और अ आ इ आदि स्वर शक्ति रूप हैं, अत: बीज और शक्ति दोनों के संयोग से बीज मन्त्रों की निष्पत्ति होती है। ये सब स्वर—व्यञ्जन मातृका वर्ण कहलाते हैं, उन वर्णों में सृष्टि, स्थिति और संहार रूप तीनों शक्तियाँ पाई जातीं है, इसीलिए ये मन्त्र विधिपूर्वक जाप्य करने वाले के लौकिक एवं अभ्युदय सुखों की सृष्टि करते हैं। बाधक कारणें का उच्चाटन आदि करके प्राप्त हुये सुख साधनों में अथवा आत्मसाधना में स्थिर रखते हैं, और अशुभ कर्मों का तथा अष्ट कर्मों का संहार करते हैं। प्रत्येक बीजाक्षरों में अनेक प्रकार की शक्तियाँ निहित हैं, विंâतु इन शक्तियों की जागृति मेंं पूर्ण विधि विधान का ज्ञान भी अति आवश्यक है। सुसिद्ध, सिद्ध, साध्य और शत्रु के भेद से मन्त्र चार प्रकार के होते हैं, जो मन्त्र और जपने वालोें के नाम के स्वर—व्यजनों को जोड़कर उसमें चार का भाग देकर निकाले जाते हैं। इस प्रक्रिया से शोधन किया हुआ यदि सुसिद्धि दायक भी मंत्र है, किन्तु यदि अशुभ मुहर्त में प्रारम्भ कर लिया जायगा तो भी अभीष्ट फल प्राप्ति नहीं होती। जैसे—जयेष्ठ मास में किया हुआ जप मरण और आषाढ़ मास में किया हुआ जप बुद्धि नाश में कारण पड़ता है, इत्यादि। जैनागम में णमोकार मंत्र महामंन्त्र है, अन्य सभी मन्त्र इसी महामन्त्र से नि:सृत हैं, अत: मन्त्र शास्त्र भी श्रद्धास्पद एवं आत्मकल्याण में साधक हैं।
यन्त्र :—भगवान आदिनाथ ने गार्हस्थ्य अवस्था में अपनी ब्राह्मी कन्या को सर्वप्रथम स्वर—व्यंजन और सुन्दरी कन्या को अंक सिखाये थे इसलिए जैनागम मेें दोनों विद्याओं का समादर सदृश है। गोल, त्रिकान, चौकोन एवं षट्कोनादि रेखाओं से वेष्ठित बीजाक्षरों द्वारा जो यन्त्र बनाये जाते हैं वे प्राय: सभी जिन मन्दिरों में उपलब्ध हैं और उन यन्त्रों पर उतनी ही श्रद्धा है जितनी भगवान् की मूर्ति पर है। जिस प्रकार स्वर—व्यंजनों मन्त्र और यन्त्र बनते हैं उसी प्रकार संख्या से भी यन्त्र बनते हैं। समस्त अंकों में नौ का अंक प्रधान है। भूवलय आदि ग्रन्थों में इसकी महिमा महान कही है। रत्नाहार की मध्यवर्ती प्रधान मणि के समान ही गणित का यह अंक प्रधान है। यह अंक समस्त विद्याओं का साधक, विश्व का रक्षक एवं छद्मस्थ की बुद्धि के अगम्य है। ३, ६, और ९ इन तीनों की बनावट तीन लोक की द्योतक है, इसीलिए ३ और ६ नौ अंक के पूरक हैं। इन तीनों में परस्पर अति मित्रता है। ३ और ६ का पहाड़ा ३.६ और ९ को छोड़कर अन्य किसी अंक को ग्रहण नहीं करता, और विश्व व्याप्त होने से ९ का पहाड़ा तो अपने नवांक को छोड़कर अन्य किसी भी अंक को आत्मसात् करता ही नहीं। क्षायिका लब्धियां ९ ही क्यों हैं? लोक ३ ही क्यों? तीर्थंकर २४ नारायण ९, प्रतिनारायण ९,बलदेव ९, श्लाका पुरुष ६३ (·९) ही क्यों? २७ (·९) श्वासच्छ्वास में कायोत्सर्ग ९ ही क्यों? ूमाला में १०८ (·९) दाने क्यों? भगवान् में १००८ (·९), साधु में १०८ (·९), और आर्यिका में १०५ (·६) ही क्यों? इसी प्रकार ६ माह का अयन, १२ माह का वर्ष, ३० दिन का माह, २४ घंटे का दिन रात, ६० मिनट का घंटा और ६० सेकेण्ड का मिनट आदि ही क्यों? जीव के भ्रमण की ८४ लाख(·१२·३) योनियां क्यों? फेरे ७ ही क्यों? तथा कषायें २५ (·७) ही क्यों ? जगत् में ऐसे प्राय: अनेक पदार्थ इसी प्रकार कोई न कोई संख्याओं से बद्ध हैं, वे कुछ न कुछ रहस्य को लिये हुए ही हैं। मानव जीवन के उत्थान, पतन एवं शत्रुता मित्रता आदि में जैसे अन्य पदार्थ, स्थान, काल, व्यक्ति, राशियां एवं ग्रह आदि कारण पड़ते हैं, उसी प्रकार अंक भी कारण पड़ते हैं, इसीलिए १५ का यंत्र २१ का, ३४ का, ८१ का एवं १७० आदि के भिन्न भिन्न यन्त्र भिन्न भिन्न कार्योत्पादक होते हैं तथा व्यक्तियों के नाम अंक अथवा जन्म तारीख आदि के अंकों से शत्रु मित्र भी बन जाते हैं, क्योंकि राशि एवं ग्रहों के सदृश अंको में भी परस्पर में शत्रुता मित्रता है।
तन्त्र :— यह भी एक अपूर्व विद्या है, विद्वानों ने इसका भी विस्तृत वर्णन किया है। छोटे छोटे ग्रामों में जहां वैद्य, डाक्टर एवं अस्पतालों आदि का अभाव हैं, वहां आधाशीशी, एकातरा, तिजारी आदि अनेक रोगों का उपचार इसी तन्त्र विद्या के बल से कर लिया जाता है। इतना ही नहीं, इस विद्या के प्रयोग से व्यापार आदि में भी लाभ होता है। जैसे—पुष्प नक्षत्र में निर्गुण्डी और सपेâद सरसों गृह या दुकान के द्वार पर रखने से क्रय—विक्रय अच्छा होता हैै। मघा नक्षत्र में लाई हुई पीपल की जड़ पास रखकर सोवे तो स्वप्न नहीं आते। तीनों उत्तरा नक्षत्रों में उत्तर दिशा में सपेâद चिरचिटे की जड़ को लाकर सिर पर रखे तो नियम से विजय प्राप्त होती है। इत्यादि— रोगी मनुष्य को निवृत्ति के लिए औषधि जितनी आवश्यक है, संसारी प्राणी को सुख शांति से जीवन यापन हेतु ज्योतिष, मंत्र यन्त्र एवं तन्त्र विद्या का ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है। जिस प्रकार घन पतन का कारण नहीं है, अपितु उसका दुरुपयोग पतन का कारण है, उसी प्रकार ये उपर्युक्त विद्याएँ हानिप्रद नहीं हैं, मात्र इनका दुरुपयोग हानिप्रद है।