आधुनिकतम मस्तिष्क सम्बन्धी खोजें जैन कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में
सारांश
विगत सदी में भौतिक शास्त्र, गणित तथा जीव विज्ञान में हुए आविष्कार एवं खोज से हमने प्रकृति के अनेक रहस्यों को उद्घाटित किया है। साथ ही दक्षिण भारत में विशेषकर षट्खण्डागम एवं कषायप्राभृत ग्रंथों से संबंधित टीकाएँ एवं सार रूप ग्रंथ गोम्मटसार, लब्धिसार की गणितीय टीकाएँ हिन्दी भाषा में अनुवादित होकर सामने लायी गयी हैं। इनकी कर्म सिद्धान्त संबंधी सामग्री के परिप्रेक्ष्य में हम विज्ञान की आधुनिक मस्तिष्क सम्बन्धी खोजों पर लगे प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करेंगे। शताब्दियों तक विचारकों ने मस्तिष्क के संबंध में चिंतन किया कि वह किस प्रकार चेहरों को, गन्धों को, आवाजों को, पहचानता है और किस प्रकार वह सुदूरवर्ती स्मृतियों को संजोकर सामने बुलाता है तथा अन्तःप्रज्ञा युक्त छलांगें मारकर परिणामों पर पहुँच जाता है। यूनान, चीन आदि देशों ने विगत 2000 वर्षों में जो कुछ पाया और खोजा, उससे कहीं बहुत अधिक आश्चर्यजनक उपलब्धि दक्षिण भारत में हो चुकी थी तथा गणित द्वारा आगे विकसित की गई थी। आज मस्तिष्क विज्ञान की नवीन खोजें जिन्हें कम्प्यूटर के नवीन प्रोग्रामों द्वारा क्रियाशील कृत्रिम मस्तिष्क निषेकों द्वारा सहायता मिली है, हमें एक नये सिरे से मस्तिष्क की जानकारी बढ़ाने की प्रेरणा दे रही हैं। सापेक्षता का आइंस्टाइन का सिद्धान्त एवं मैक्स प्लांक का क्वान्टम सिद्धान्त तंत्रिका विज्ञान ;दमनतव.बपमदबमद्ध में अंशदान देते हुए यह समझाने का प्रयास प्रारंभ कर रहे हैं कि किस प्रकार मस्तिष्क सुदूर स्मृतियों के परदे दूर कर चेहरों, सुगन्धों और अन्य जटिल रूपों को पहचान सकता है जबकि उत्कृष्ट क्षमता युक्त कम्प्यूटर भी लड़खड़ा जाते हैं। जहां कम्प्यूटर किसी व्यवस्था के अनुसार, विधि विधानानुसार कदम गणना करते चलते हैं, वह रूप मस्तिष्क का नहीं है। हमारा मस्तिष्क अब न्यूरानों (मस्तिष्क-कर्म-वर्गणाओं) का अति गहन रूप से परस्पर संयुक्त मधुमक्खी के जैसा निरंतर कार्यरत अंतर्जालि ;पदजमतदमजद्ध है, जो लगातार एक दूसरे को विद्युत-रासायनिक संकेत आगे पीछे भेजता हुआ, प्रत्येक नवीन अनुभव के साथ संचार पथों को बदलता चला जाता है। ऐसे व्यस्त बाजार के मध्य जो न्यूरानों की विशाल जालरचना हैं, उसमें ही हमारे विचार, स्मृतियाँ और अवग्रह, ईहा, धारणादि उत्पन्न होते हैं।
मस्तिष्क वैज्ञानिकों को आशा है कि
यह नवीन सिद्धान्त मिर्गी या वृद्धावस्था रोग ; पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध हो सकेगा। मस्तिष्क के नये प्रतिरूप ;उवकमसद्ध को दो भिन्न विज्ञानों के मेल से क्रांति पूर्ण बनाया जा सकता है-तंत्रिकागत जीव विज्ञान ;दमनतव.इपवसवहलद्ध तथा कम्प्यूटर विज्ञान। न तो मनोविज्ञान, न ही अकेली कम्प्यूटर की पुरानी संरचना इसमें सफल हो सकी थी क्योंकि उसमें मस्तिष्क की गहरी जानकारी का उपयोग नहीं किया गया था। मस्तिष्क का निर्माण 100,000,00 लाख न्यूरानों द्वारा होता है जिसमें सूक्ष्मतम विद्युत तरंगें संचारित होती हैं और इन न्यूरानों के बीच सूचना संचार में रसायन विज्ञान की भूमिका रहती है। इसके सभी भाग न तो अलग-अलग रूप से, न ही अलग-अलग समय में, वरन् सामग्र रूप में तत्काल युगपत कार्य करते पाये गये हैं। जैसे सत्व की समग्र कर्मवर्गणाएं आस्रवित कर्म वर्गणाओं वाले असंख्यात समय प्रबद्धों से आच्छादित हो नवीन निर्जरा तत्काल देती है, वैसा ही ज्ञानावरणीय प्रकृति का कार्य सम्पादन मस्तिष्क में होता पाया गया है। मस्तिष्क की संरचना में दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय प्रकृति की कर्मवर्गणाओं की अहम् भूमिका होती है, शेष की गौण भूमिकाएं होती हैं। अतः मस्तिष्क गत निषेकों या न्यूरानों के कार्य को समग्र रूप से कार्यरत पैटर्न में समझना उचित होगा। यही पेटर्न समझा सकेगा कि हम क्यों स्नेह करते हैं या हँसते हैं। अभी तक इस रहस्यमय गुत्थी को आधुनिक मस्तिष्क विज्ञान सुलझा नहीं सका है। प्रयोगशालाओं के मस्तिष्क के प्रतिरूप में (न्यूरल नेटवर्कों में) एक दर्जन से लेकर कई सौ कृत्रिम न्यूरान होते हैं जिन्हें रूढ़िगत डिजिटल कम्प्यूटर द्वारा संचालित किया जाता है। वैसे एक अकेला न्यूरान मस्तिष्क में 10,000 अन्य न्यूरानों से संयुक्त होता है, ताकि सभी न्यूरान एक दूसरे को संकेत प्रेषण करते रहें। प्रतिकृति में भी यही संचार व्यवस्था लागू की जाती है किन्तु ये प्रतिकृतियाँ खिलौने तक ही सीमित रह जाती हैं। अब शोद्यार्थी ऐसे तंत्रिकाय जालसंरचनाएँ निर्मित कर रहे हैं जो यह प्रदर्शित कर सके कि मस्तिष्क किस प्रकार सामान्य गंधों को पहिचानता है। कुछ ऐसे प्रतिरूप तैयार कर रहे हैं जो यह दिखा सके कि किसी लम्बे समय से खोये मित्र की स्मृति जगा सके। किस प्रकार आस्रवित संकेत आंखों से प्राप्त होकर दृष्ट होते हैं, और किस प्रकार आघात लगने में न्यूरानों का समूह पुनर्व्यवस्थित रूप से संयुक्त होकर कार्य करने लगते हैं।
एक न्यूरान को कम्प्यूटर स्विच की अपेक्षा
संकेत प्रेषण में दस लाख गुना अधिक समय लगता है किन्तु मस्तिष्क जाने पहचाने चेहरे को एक सेकेण्ड में पहिचान लेता है। यह इसलिए कि कम्प्यूटर कदम दर कदम चलता है, जब कि मस्तिष्क के न्यूरान्स एक साथ सभी युगपत रूप से समस्या से निपटने जुट जाते हैं। इस प्रकार चिन्तन के क्षेत्र में शोधार्थियों को कम्प्यूटर एवं तंत्रिका-जीव विज्ञान के मेल से मस्तिष्क सम्बन्धी कार्यप्रणाली का आभास होता जा रहा है। किन्तु कषाय का क्षेत्र अभी भी उनकी समझा के परे हैं। कषाय में न केवल दर्शन मोह वरन् चारित्रमोह सम्बन्धी कार्माणवर्गणाओं की भूमिका होती है। यह मोह प्रकृति स्वयं अनेक उपप्रकृतियों वाली कार्माण कार्माण वर्गणाओं के रूप में होते हुए नगर सभा को निषेकों रूप में चर्चित करते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा वाले अनेक स्थिति एवं अनुभाव वाली कार्माण वर्गणायें एक समूह बनाकर भूमिका निभाती होंगी जिसे सामूहिक रूप-प्रकृति कहा जा सकता है। साथ ही मिथ्यात्व को मिलाकर दर्शन मोह और चारित्र मोह की भूमिकाएं भी कम्प्यूटर की जाल संरचना में किस प्रकार की जाये यह अभी तक शोध का विषय नहीं बन सका है।
यदि हम प्रिंसिपल थ्योरेटिक एप्रोच अथवा
सिद्धान्त-सैद्धान्ती विधा के विषय में विचार करें तो हमें शीर्ष से तल की पहुँच की यथा संभव जानकारी ज्ञात हो सकती है। अभी तक कन्स्ट्रक्शन थ्योरेटिक एप्रोच रही है जिसे हम संरचना-सैद्धान्ती विधा कह सकते हैं। इसे तल से शीर्ष तक की पहुँच कहा जाता है। ज्ञान के भेदों में केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म परमाणुओं या निषेकों के क्षय से प्रकट होता है। क्षायिक दर्शन या केवलदर्शन दर्शनावरण कर्म निषेकों के क्षय से प्रकट होता है। इसी प्रकार मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि एवं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन क्षायोपशमिक भाव होने से क्रमशः अपने कर्म निषेक आवरण के क्षयोपशम द्वारा प्रकट होते हैं। क्षयोपशमिक की प्रक्रिया में अपने प्रतिपक्षी कर्मों के स्पर्द्धकों को उदयाभावी क्षय से, किन्हीं स्पर्द्धकों, के उपशम से व किन्हीं स्पर्द्धकों के उदय से जो भाव प्रकट होते हैं उन्हें क्षायोपशामिक भाव कहते हैं। किन्हीं स्पर्द्धकों की मात्रा भी होती है और उसकी शक्ति भी दी गयी होती है। इन्हें वर्ग, वर्गणा तथा गुणहानि की मात्रा और शक्ति से समीकरणों द्वारा कर्म सिद्धान्त से संबंधित किया जाता रहा है। जहाँ संज्ञी या मन सहित की चर्चा आती है उन्हें संज्ञी जीव कहते हैं। संज्ञी या सैनी याने मन सहित पंचेन्द्रिय संज्ञी कहे जाते हैं जो चारों गतियों में पाये जाते हैं। किन्तु असंज्ञी (या अल्प संज्ञी) एकेन्द्रिय जीव से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक असंज्ञी होने से तिर्यंच कहे जाते हैं। मन दो प्रकार का होता है-द्रव्य मन जिसे हम मस्तिष्क ;ठतंपदद्ध कह सकते हैं तथा भाव मन ज्ञान रूप परिणति को कहा जा सकता है जो मति और श्रुत रूप दिखा सकता है। अतः जैन सिद्धान्त के जीव कर्म विज्ञानानुसार हमें कम्प्यूटर के साफ्टवेअर ;वजिूंतमद्ध में कर्म-तंत्रिका निषेकों ;ब्मससेद्ध के (न्यूरान) निर्मित जालों में क्षय एवं क्षयोपशम की प्रक्रिया निर्धारित करना होगी जो अपने-अपने यथायोग्य समूहों में कार्य ;थ्नदबजपवदद्ध कर सकें। पुद्गल के विशेष गुण-5 वर्ण, 5 रस, 2 गंध, 8 स्पर्श के उद्दीपक निषेकों से जब उपरोक्त कर्म-तंत्रिका-निषेकों के सत्व पारस्परिक क्रिया करते हैं तो सत्व के प्रतिसमय परिवर्तन के साथ कुछ तंत्रिका-निषेकों के उदय उदीरणा भूत निर्जरा होने के कारण जीव अपना प्रत्युर ;त्मेचवदेमद्ध अपनी-अपनी यथायोग्य परिणति के अनुसार जनशीलता द्वारा करते हैं। अतः उद्दीपन और जनशीलता के सम्बन्ध- समीकरणों से जीव की कर्म-फल चेतना, कर्म चेतना तथा ज्ञान चेतना का प्रमाण ;डमंनतमद्ध प्राप्त हो सकता है। जो आस्रवित समयप्रबद्ध तंत्रिका-निषेक के प्रदेश, अनुभाग एवं स्थिति को लेकर उदय, उदीरणादि रूप निर्जरा को प्राप्त होता है, वह उत्तेजनशीलता रूप है। अतः इन प्रकृति, प्रदेश अनुभाग, स्थिति रूप चार न्यास प्रमाण का गहन अध्ययन कम्प्यूटर में थ्ममक किया जाना विशेष महत्वपूर्ण होगा। इसमें स्वमेव कषाय ;म्उवजपवदद्ध की यांत्रिकी ;डमबींदपबेद्ध भी कम्प्यूटर में समावेशित हो सकेगी, जो अभी तक कम्प्यूटर विज्ञान में विकसित नहीं हो सकी हैं।
कषाय के प्रदर्शन की असफलता के साथ ही साथ
पुरानी विधाओं वाले कम्प्यूटर देखने, सुनने, भाषण को समझाने आदि की मस्तिष्क सम्बन्धी क्रियाओं को करने में असफल रहे हैं। मात 1.35 किलो ग्राम के इस मस्तिष्क का पिण्ड कृत्रिम रूप से बनाने में शोधार्थी उसकी मौलिकता, एकाग्रता और चेतना का प्रतिरूप बनाने में असफल रहे हैं। केवल शोध में इतना अवश्य हो सकता है कि तंत्रिका-निषेकों के समूह एक साथ, एक ही समय क्रियांवित होकर देखने, सूंघने, सुनने आदि कि क्रियाओं में भूमिका निभाते हैं। तंत्रिका-निषेकों के जाल शोधार्थियों की सहायक हो सकते हैं कि मस्तिष्क किस प्रकार सूक्ष्म सूचना प्रक्रिया को निभाते हैं। यद्यपि तंत्रिका-निषेकों ;छमनतवदेद्ध को एक साथ क्रिया प्रतिक्रियांवित करना, वह भी असंख्य संख्या समूह रूप में सिद्ध हुए हों, हमें मस्तिष्क के प्रतिरूप बनाने में सफल बना सकता है। प्रथमतः इंद्रिय जन्य संवेदना की ओर बढ़ना होगा तत्पश्चात् कषायों को प्रदर्शित करने, इसी आधार पर, मस्तिष्क के प्रति रूप जटिलतम रूप में निर्मित हो सकेंगे। वह समग्रता की भूमिका अभी केवल मस्तिष्क ही निभा सकता है, जहाँ तंत्रिका-निषेक एक साथ, एक ही समय में एक जुट होकर उद्दीपन के प्रति अपनी क्षमता के अनुकूल दायित्व निभाते देखे गये हैं। भूमिका हम तत्वार्थसूत्र को लेकर प्रारंभ करेंगे- ‘‘मति स्मृति संज्ञा चिंता अभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।।’’ मस्तिष्क ये यहाँ द्रव्य मन अभिप्रेत है। द्रव्य मन की रचना पौद्गलिक है। इस प्रकार द्रव्य मन की रचना में प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति संभव हो जाती हैं। मनोयोग और कषाय मिलकर स्मृति नामक मतिज्ञान की रचना में सहायक होते होंगे। सक्षम स्मरण शक्ति अति प्राचीन काल से सभी सभ्यताओं व संस्कृतियों में लाभदायक सिद्ध हुई है, क्योंकि विद्याओं को सीखने का मूल्य सदैव सर्वोपरि रहा है। याद करने की मह भारत में और भी अधिक आंकी जाती रही जो श्रुत रूप ज्ञान को परम्परागत संस्थाओं द्वारा लिपियों के अभाव में सम्राट अशोक के काल तक चली आई। श्लोकादि गढ़ने की कला में भारतीयों ने श्रुत को अक्षुण्ण रखने की जो क्षमता विकसित की वह विश्व के सभी अभिलेखों की संरक्षण कला के आगे निकल गयी। विदेश में भी मार्कस फेसव क्विन्टिलियन (ई. 35-95) ने वक्ताओं को शिक्षित करने हेतु तीन सरल नियम दिये थे- 1. अच्छी तरह ध्यान दो। 2. अभ्यास करते जाओ। 3. यदि कुछ भी नया सुनो तो उसे अपनी जानकारी के साथ संगत में ले आओ। यूनान में प्लेटों ने भी मन को मोम की ऐसी टिकिया माना था जिसमें स्मृति की देन निम्न रूप में थी- इसी प्रकार पतंजलि जैसे कई भारतीय दार्शनिकों ने स्मृति को संस्कार रूप ;प्उचतमेेपवदद्ध में मान्यता दी थी। पतंजलि ने स्मृति को मन के पांच प्रकारों में से एक पर्याय माना, जिसमें शेष पर्यायें सम्यक्ज्ञान, मिथ्याज्ञान, कल्पना ;थ्ंदबलद्ध एवं निद्रा (रूप) में स्वीकारा।
जैन आगम में निम्नलिखित सामग्री उपलब्ध है
मनोवर्गणाएं, बंधन, संहनन, संस्थान, अंगोपांग, निर्माण, नामकर्म की वर्गणाएँ, मुख्यतः कार्माण वर्गणाएं, उनकी गति-एक समय में एक प्रदेश या 14 राजुगत प्रदेश (लोकान्तर्गत प्रदेश राशि), पुद्गलकाय बनने में स्पर्श रूक्षत्व गुण के अविभागी प्रतिच्छेद, मतिज्ञानादि के अविभागी प्रतिच्छेद, परमाणु तथा स्कन्धों के गुणों के अविभागी प्रतिच्छेद-यथाः वर्ण, रस, गन्ध तथा आठ प्रकार के स्पर्श, शब्दादि दिये गये होते हैं। पुनः योग और कषाय के संयोग से, अथवा मोह के संयोग से कर्म परमाणुओं का जीव से व्यावहारिक सम्बन्ध या बंध होता है, जिसकी दस अवस्थाएँ होती हैं। असंख्य प्रकार के स्कन्ध होते हैं जो जीव के निमि से होने पर कर्म निमि तथा अन्य निमि होने पर पुद्गल निमि होते हैं। 93 प्रकार के नामकर्म आदि। विशेष विवरण के लिए गोम्मटसारादि ग्रंथ दृष्टव्य हैं। यूनानी गैलेन ;ळंसमदद्ध, (प्राः 130-200 ई.) की कल्पना थी कि मन सिर में रहता होगा। अरस्तु ;। तपेजवजसमद्ध निःसंदेह रूप से मन का स्थान हृदय में मानता था जिसे ठंडा रखने में मस्तिष्क युक्ति संगत माना गया था। 16 वीं सदी तक उसका ग्रंथ पश्चिमी विश्व में मान्य रहा। प्रायः 700 वर्ष पश्चात ।नहनेजपदम विद्वान की मान्यता थी, ‘‘भूतकाल स्मृति रूप है, भविष्य आशा रूप और वर्तमान उपयोग रूप है। अथवा, संक्षेप में, वर्तमान ही अस्तित्वशील है अतः वर्तमान में ही भूतकाल वर्तमान स्मृति के रूप में तथा भविष्य वर्तमान आशा रूप में गर्भित रहता है। स्मृति सम्बन्धी वैज्ञानिक खोजें सर फ्रांसेस गाल्टन (ई. 1822-1911) द्वारा प्रारंभ की गयी मानी जाती हैं। यह वैज्ञानिक चालर्स डारविन का चचेरा भाई था। वह औषधि, खोज, मौसम विज्ञान, मानव विज्ञान और वंश विज्ञान में उलझा रहता था। उसकी रूचि इस समस्या में थी कि किस प्रकार लोग वस्तुओं को स्मृत रखते हैं तथा विशेषकर उनकी रूचि मानसिक बिम्ब योजना में थी। उसने जो मित्रों आदि को लेकर प्रयोग किये थे वे 1883 में पतपमे पदजव भ्नउंद थ्ंबनसजलश्श् नामक पुस्तक में प्रकाशित हुए। यह अन्तर्निरीक्षण सूचना स्मृति अध्ययन सम्बन्धी थी। तत्पश्चात् जर्मन चिकित्सक एवं मनोवैज्ञानिक हरमाँ एबिंघोस (1850-1909 ई.) ने किसी भी स्मृत अक्रमबद्ध धारा में अनेक प्रकार की सामग्री सम्बन्धी भूल जाने के समय की गणनाएं की थीं। यहाँ से प्रतिधारणा सम्बन्धी, पुनर्स्मृत कार्य में लगने वाले समय का मात्रा वाचक (परिणाम वाचक) प्रायोगिक अध्ययन प्रारंभ हुआ। तत्सम्बन्धी पुस्तक, 1855 ई. में प्रकाशित हुई। इस प्रकार सीखने तथा स्मृति सम्बन्धी आधुनिक प्रायोगिक, मनोविज्ञान का मात्रा वाचक अध्ययन का महत्व बढ़ता गया। स्मरण रहे कि गोम्मटसारादि ग्रंथों में मात्रावाचक मति आदि ज्ञानों का गणितीय उपक्रम वर्द्धमान महावीर की श्रुत परम्परा में बहुत पहिले ही प्रारंभ हो चुका था। किन्तु रूढ़िगत समाज द्वारा इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया गया। अब हम जीव विज्ञान संबंधी यांत्रिकीकरण के बारे में चर्चा करेंगे जो स्मृति में उपसेवित हुई है। स्मृति अपनी अंगुलि या दृश्यमान टेबल सदृश कोई वस्तु नहीं है। वह व्यवहार की एक झलक है, वह जो हमारा कर्म है। हम कोई कविता या गीत पढ़ते या सुनते हैं और कई दिनों या वर्षों पश्चात् हमें किन्हीं बिलकुल भिन्न परिस्थितियों में वह याद आ जाता है। इस प्रकार पिछला अनुभव, सुखद अथवा दुखद याद आ जाता है-स्मृत या स्मरण हो जाता है। स्मृति इस प्रकार सीखने तथा पुनःस्मरण के बीच स्थित होती है। तीन भाव ; रूपों में स्मृति का विचार होता है- 1. प्रथम भाव में कोई अनुभव या क्रिया हमारे मस्तिष्क में होती है, 2. द्वितीय माध्य भाव जिसमें प्रथम भाव में होने वाले परिवर्तन समय गुजरते बने रहते हैं। 3. अंतिम भाव में प्रथम भाव द्वारा होने वाला अनुभव या क्रिया प्रभावित होता है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस
अवधारित करने वाले भाव को मदहतंउ या स्मृति अनुरेखण कहा गया है, जो बजाये जाने वाली रिकार्डिंग मशीन अथवा प्लेटों के मोम का सांचा न समझ लिया जाये। निःसंदेह, मस्तिष्क के निषेक ;ब्मससेद्ध के रूपान्तरण द्वारा अवधारणा की उपलब्धि होती होगी। यह रूपान्तरण क्रिया गहराई से समझ लेना चाहिये। तत्वार्थ सूत्र में इसका चार क्रमित भावों में विवेचन किया गया हैः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। स्मृतियों की झलकियों के चिन्तन में हम स्पष्टतः यादगारों को देखते हैं। उनके साथ ही हमें कषायों से रंजित राग-अनुराग, सुख, दुख, दर्द, क्रोधादि की संवेदनाएं भी प्रकट हुई अनुभव में आती हैं। अतः अनिवार्य रूप से हमें स्मृति मानो अपनी चेतन या स्वजागृति की प्रतिबिम्ब जैसी भासित होती है। किन्तु मनोवैज्ञानिकों ने प्रायोगिक विश्लेषण द्वारा यह पाया है कि स्मृति का सम्बन्ध चेतना से न होकर बिलकुल स्वतंत्र यांत्रिक परिणमन रूप होता है। चाहे वह मानव में हो अथवा पशुओं में। आधुनिक स्मृति विज्ञान-(जैन आगम के परिप्रेक्ष्य में)तंत्रिका-निषेक ;दमनतवदद्ध और उसकी क्रिया-प्रथमतः मस्तिष्क द्वारा स्मृति किस प्रकार संगृहीत की जाती होगी, इसके लिए मतिज्ञानावरणीय तंत्रिका उपांग निषेकों ;दमतअम बमससेद्ध की क्रिया के सम्बन्ध में जानकारी करेंगे। तंत्रिका-निषेकों को न्यूरान्स भी कहते हैं। उनका आकार, विस्तार अनेक प्रकार का होता है। सभी के निषेक-काय ;बमसस.इवकल वत जतनदाद्ध से शाखायें फूटती हैं। इस प्रकार तंत्रिका-निषेक ;दमनतवदद्ध की झलक एक वृक्ष जैसी होती है। विद्युत संकेत उसकी केबिल-जैसी शाखाओं पर अनुगमन करते हैं। दो प्रकार की शाखाएं होती है: या आवक तंत्रिका तंतु शाखाओं में आने वाले विद्युत संकेत होकर निषेक-काय ;बमसस.इवकलद्ध में पहुँचते हैं। निषेक-काय में उत्पन्न संकेत अन्य तंत्रिका-निषेकों ;दमनतवदेद्ध की ओर ऐसी शाखाओं से अग्रेषित (अग्रसर) होते हैं जिन्हें जावक तंत्रिका-तन्तु या दमतअमत पिइतम कहते हैं। ये तंत्रिका-तन्तु, तंत्रिका निषेक की बाहर की और ले जाने वाली केबिलों के रूप में होते हैं। इनकी लम्बाई काफी अधिक हो सकती है, जैसे कि ऊंट के मष्तिष्क के तंत्रिका-तन्तु। इस प्रकार तंत्रिका-निषेक एक दूसरे से बड़ी-बड़ी दूरियाँ तक जुड़े रहते हैं। जावक तंत्रिका-तन्तु अन्तिक छोर परिपथ ;बपतबनपजद्ध में स्थित अगले तंत्रिका-निषेक के आवक-तंत्रिका-तंतु ;कमदकतपजमेद्ध से संयोग स्थापित करते हैं। इनके मिलाप या संगम स्थान को यादंचेमद्ध कहते हैं। संगम-स्थान दंचेमद्धए जो कि जावक तंत्रिका-तन्तु ;कमदकतपजमद्ध के अंत में होता है, ग्राहक आवक-तंत्रिका तन्तु की झिल्ली से समीपी संयोग में रहता है। जब तंत्रिका-निषेकों के जुड़ाव अन्य तंत्रिका निषेकों ;दमनतवदेद्ध से होते हैं तभी तंत्रिका परिपथ या जालीदार-काम ;दमनतंस बपतबनपजे वत दमजूवताद्ध की संरचना हो जाती है। ये परिपथ मात्र कोई अटकल पच्चू रूप से जुड़े निषेक समूह नहीं होते हैं। मानवीय अनुमस्तिष्क में लगभग दस अरब (10,000,000,000) तंत्रिका-निषेक होते हैं। ये तंत्रिका-निषेक पाँच प्रकार के होते हैं, जिनके स्थान अनुमस्तिष्क के अलग-अलग विशेष भागों में होते हैं तथा वे अन्य प्रकार के तंत्रिका-निषेक से भी जुड़े रहते हैं। तंत्रिका जैव-वैज्ञानिकों को लगातार तंत्रिका की संरचना एवं कार्य के बीच सम्बन्धों की खोज में लगा रहना होता है। यथाः नेत्र के तंत्रिका-निषेक एवं अनुमस्तिष्क भी भीतरी त्वचा ;बवतजमगद्ध किस प्रकार दृष्टि सम्बन्धी सूचना प्रसारित करती हैं। हो सकता है कि इसमें पशुओं के नाम कर्म सम्बन्धी अपना रूपी नियंत्रण रखती हों। तंत्रिका-निषेक अपना व्यापार विद्युत संकेतों द्वारा करते हैं। संकेतों की प्रक्रिया जैव भौतिकी का विषय बन चुका है। जब किसी तंत्रिका-निषेक को किया जाता है तो उसकी झिल्ली ; में यह संकेत विद्युत-रासायनिक खलबली (अशांति) मचाता है। इससे झिल्ली ; के पार विद्युत विभव ;चवजमदजपंसद्ध में संक्रमक स्थानीय परिवर्तन होता है। झिल्ली का विभव शीघ्रता से बढ़ता है जो लगभग वोल्टका दशांश होता है। और बाद में वह पूर्ण अवस्था में वापस चला जाता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया 1/1000 या 1/10000 सेकेण्ड समय में हो जाती है। इस समय कहा जाता है कि निषेक में कर्म-विभव (अनुभव ) को दाग दिया (पितम किया) है। ऐसे कर्म-अनुभागों को देखा जा सकता है, तब तंत्रिका-निषेक की सतह पर या उसके भीतर इलेक्ट्राइड्स (विद्युत अग्र-बैटरी के विद्युत छोरों) को रखा जाता है और संवेदनशील विद्युत विस्तारक तथा विभवमापी यंत्रों से उन्हें जोड़ दिया जाता है। ग्राफिक रिकार्ड में विभव में शीघ्र परिवर्तन ‘कील’ ;मद्ध के रूप में दिखाई देता है। यह ‘स्पाइक’ या ‘कील’ शब्द ‘‘कर्म-अनुभाग’ के लिए दूसरा शब्द है। कर्म अनुभाग अर्थात् बजपवद चवजमदजपंसद्ध जिसे क्रिया-विभव रूप में अनुवादित किया गया है। किसी जावक तंत्रिका तन्तु या तंत्रिका अक्ष के किसी भाग में कर्म-अनुभाग पड़ोसी भाग को उजित ;मगबपजमद्ध करता है, जिससे वह दाग देता है, और बदले में यह अगले पड़ोसी भाग को करता है। इस प्रकार यह संकेत ;पहदंसद्ध भाग-भाग पर गमन करता हुआ अंत में जावक तंत्रिका तन्तु ;गवदद्ध के अंतिम छोर तक पहुँचता है। वस्तुतः तंत्रिका-संकेत विद्युत धारा नहीं होते हैं जो संचालक केविल में शांति से बहते चले जायें। जावक तंत्रिका तंतु ;गवदद्ध में से होकर गमन करने वाली वस्तु विद्युत-रायायनिक पदार्थ होती है जो जावक तंत्रिका तन्तु के प्रत्येक भाग पर आक्रमण करती है, प्रत्येक बिन्दु पर संकेत पुनः उत्पन्न होता है नये सिरे से, और उसका आकार तथा आयाम हर स्थल पर समान होता है। इस प्रकार कर्म-अनुभाग इस प्रकार के नियम प्रकार का सर्वास्ति अथवा सर्वनास्ति’’ या ‘‘अस्ति अथवा नास्ति’’ रूप घटना जैसा होता है। कोई निषेक जब किसी ‘‘उद्दीपक’’ उनसनेद्ध का निमि पाता है तो उसकी दागने की दर या तो बढ़ती है या घटती है। किन्तु प्रत्येक व्यक्तिशः संकेत अन्य प्रत्येक संकेत के समान होता है। चूँकि कर्म-अनुभाग ;जपवद.चवजमदजपंसद्ध समयानुसार अनियमित रूप में बंटे रहते हैं, अत- व्यक्तिशः निषेकों की संकेतक बनावटें एक दूसरे की पहिचान में न आने वाली होती हैं, जिनकी दी गई परास ;तंदहमद्ध में स्थित विषेश दागने वाली आवृयाँ (बारंबारतायें) हुआ करती हैं। लगभग 50 वर्ष पूर्व शेरिंगटन ने एक विशेष तंत्रिका-निषेक ;दमनतवदद्ध के विषय में देखा कि उसका महत्व संकेतक बनावटों पर निर्भर नहीं होता किन्तु उन जोड़ों से सम्बन्धित होता है जो दूसरे तंत्रिका-निषेकों को उस तंत्रिका-निषेक से जोड़ते हैं। यह नियम के अपवाद वे तंत्रिका-निषेक हो सकते हैं जो मियादी अथवा भावित ;चींपबद्ध संकेत उत्पन्न करते हों। वस्तुतः प्रायः सभी तंत्रिका-निषेक समान रूप से दाग क्रिया करते हैं। इस सम्बन्ध में पुस्तक दृष्टव्य है। जब कर्म-अनुभाग ;बजपवद.चवजमदजपंसद्ध जावक तंत्रिका तन्तु के अंतिम छोर पर पहुँचता है तो वह तंत्रिका-संगम जोड से मुठभेड़ ;मदबवनदजमतेद्ध करता है। तंत्रिका-संगम का पूर्व भाग एक उच्च स्तरीय विशिष्ट संरचना होता है जिसमें रासायनिक पदार्थ, ‘‘न्यूरो ट्रांस्मिटर या तंत्रिका-प्रेषक’’ होता है। जावक तंत्रिका तन्तु ;गवदद्ध के अंत वाले तंत्रिका संकेत उसके विद्युत अनुभाग को बदल देते हैं। और चूंकि जावक तंत्रिका तन्तु का सिरा विध्रुवीकृत ;कमचवसंतपेमकद्ध हो जाता है, वह ऐसी नपी-तुली मात्रा में रासायनिक प्रेषक को विमुक्त करता जाता है जो दागने की आवृति के अनुपात में होती है। प्रेषक भी पश्च-तंत्रिका-संगम झिल्ली पर क्रिया करता है और संकेत-ग्राहक तंत्रिका-निषेक में अनुभाग परिवर्तन कर देता है। तंत्रिका संगम जोड़ विभिन्न प्रकार के होते हैं। प्रत्येक में एक लाक्षणिक संप्रेषक का प्रयोग होता है। कुछ तंत्रिका-संगम विद्युतीय रूप में युग्मित ;बवनचसमकद्ध होती हैं और तंत्रिका-संगम के पूर्व भागांत में विध्रुवीकरण जोड़ के पार फैल जाता है, जबकि कोई रासायनिक संप्रेषणों द्वारा कोई मध्यस्थता नहीं होती है। रासायनिक तथा विद्युतीय तंत्रिका-संगमें ;लदंचेमेद्ध संकेतों का ‘‘सर्वअस्ति-या-सर्वनास्ति’’ ;सस.वत.दवदमद्ध के अंत का बोध देती हैं। इस बिन्दु पर दागीय बारंबारता परिवर्तित की जाती है, ऐसी एक विद्युतीय अनुभाग में, जो निष्क्रिय ;चंपअमद्ध रूप से पश्च-तंत्रिका-संगम में फैलता चला जाता है। इस प्रकार हम दूसरे प्रकार के विद्युतीय संकेतों को पाते हैं जिनसे तंत्रिका-निषेकों को निपटना पड़ता है। ये अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। ग्राहक तंत्रिका-निषेकों के आवक-तंत्रिका-तन्तु में तंत्रिका-संगम अनुभाग में तीन महत्वपूर्ण गुण होते हैं- 1. प्रत्येक तंत्रिका-संगम संकेत का लाक्षणिक चिन्ह होता है, अनुभाग या तो उदय (विध्रुवित) होता है अथवा गिरता (अतिध्रुवित) है। जो तंत्रिका-संगमें विध्रुवीकरण करती हैं वे होती हैं, और जो अतिध्रुवीकरण करती हैं वे अवरोधक होती हैं। 2. जावक-तन्तु में सर्वास्ति या सर्वनास्ति दागन से विलग तंत्रिका-संगमों के अनुभाग अनुक्रम में या क्रमबद्ध होते हैं संकेत का मान निर्दिष्ट रेंज में कुछ भी हो सकता है, जो पूर्व-तंत्रिका-संगम जावक-तंत्रिका-तन्तु में होने वाले विसर्जन (निर्जरन) पर निर्भर रहता है। 3. अपने मूल स्थान बिन्दु से तंत्रिका-संगमों के अनुभाग निष्क्रिय रूप से फैलते हैं, ऐसे जटिल रूप से आयाम में कमी करते चलते हैं जो तंत्रिका-निषेक के ठीक माप, आकार और भौतिक संरचना पर निर्भर करती है। मान लें आप किसी ऐसे स्थान पर तंत्रिका निषेक पर बैठे हैं जहाँ उसका जावक-तंत्रिका-तन्तु का उद्गम स्थल होता है। इस स्थान को जावक-तंत्रिका-तन्तुओं ;गवदद्ध की चूलिका ;पससवबाद्ध कहते हैं। आपको तंत्रिका-संगम संकेत अन्य तंत्रिका-तन्तुओं ;गवदद्ध की चूलिका ;पससवबाद्ध कहते हैं। आपको तंत्रिका-संगम संकेत अन्य तंत्रिका-निषेकों से हजारों जावक-तंत्रिका-तन्तु के द्वारा प्राप्त हो रहे हैं, जिनमें से प्रत्येक किसी न किसी मात्रा में अनुभाग ;चवजमदजपंसद्ध में‘‘वृद्धि’’ या ‘‘हानि’’ का अंशदान करता है। इस चूलिका पर बैठे हुए आपको परिवर्तनों के समग्र को देखना है। यह साधारण योग नहीं होता है। कुछ तंत्रिका-संगमों द्वारा बहुत भारी अंशदान होता है, क्योंकि या तो वे बड़े संकेत देते हैं, अथवा क्योंकि वे पास में स्थित होते हैं। अन्य द्वारा अंशदान थोड़ा हो सकता है क्योंकि वे महीनतम ;जीपददमेजद्धआवक-तंत्रिका-तन्तु ;गवदद्ध चूलिका पर संकलित अनुभाग किसी सीमांत ;जीतमेीवसकद्ध के पार हो जाता है तो जावक-तंत्रिका-तन्तु ;गवदद्ध द्वारा कीलों ;चपामेद्ध का विस्फोटन उत्पन्न होता है जो अगले तंत्रिका-संगम तक अनुगमन करता है। यहाँ एक संकलक विस्तारक ;नउउपदह उचसपपिमतद्ध है जो किन्हीं निर्दिष्ट नियमों के अनुसार आने वाले संकेतों का योग निकलता है। तंत्रिका-निषेक ;दनतवदद्ध तंत्रिका-परिपथ का मात्र अवयव ;मसमउमदजद्ध नहीं हैं, वरन् एक उच्च स्तरीय सूक्ष्म साधन ;कमअपबमद्ध है जो विशेष मात्रा में सूचना संसाधित ;चतवबमेेद्ध करने में सक्षम है। इस साधन के निर्गत ;वनजचनजद्ध लक्षणों का नियंत्रण अत्यंत जटिल चर अवयवों की राशि द्वारा होता है। इन लक्षणों में कोई भी अधिक समय तक रहने वाला परिवर्तन द्वारा स्मृति का अनुभागीय यंत्रीकरण ;चवजमदजपंस उमबींदपेउद्ध संरचित होता है।
अभी तक तंत्रिकाओं संबंधी प्राचलों
दमनतवदंस चंतंउमजमतेद्ध पर पड़ने वाला अनुभव का प्रभाव बहुत थोड़े अंशों में ज्ञात हो सकता है। कुछ सिद्धान्त तंत्रिका-संगम की कारगरता (प्रभावकता) में होने वाले परिवर्तन का कारण सीखना ;समंतदपदहद्ध मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि विद्यमान तंत्रिका-संगमों ;ेलदंचेमेद्ध का मजबूत या निर्बल होना, मजबूत बनना, अथवा नये संगमों का बनना हो सकता है। इसके समान परिणाम का कारण आपका तंत्रिका तन्तु ;कमदतिपजमद्ध तल पर तंत्रिका-संगमों का पुनर्वितरण, उत्पति या शाखा ऊगने में या झिल्ली का रासायनिक रूपान्तरण हो सकता है। वस्तुतः तंत्रिका निषेक का तंत्रिका-संगमी शरीर क्रिया विज्ञान सीखने की प्रक्रिया और स्मृति पर गहन प्रकाश डाल सकें। लघु अवधि स्मृति: कुछ पलों में ही हम सीख या याद कर सकते हैं। जो स्मृति शीघ्र खो जाती है, वह लघु स्मृति होती है जो जानवरों में पाई जाती है। वे तत्व ;हमदजेद्ध जो स्मृति में कमी ;उदमेपंद्ध ला देते हैं, वे तंत्रिका निषेकों की सक्रियता को प्रभावित कर देते हैं। विद्युत आघात से भी स्मृति चली जाती है-कुछ समय के लिये। लघु अवधि स्मृति को दीर्घ अवधि स्मृति में बदलने को ‘‘दृढ़ीकरण’’ ;बवदेवसपकंजपवदद्ध कहते हैं। सिर पर चोट लगने से, अतिकम तापमान और बेहोश करने वाली औषधियाँ ;इंतइपजनतंजमेद्धभी विद्युत आघात की भांति लघु अवधि स्मृति को दृढ़ीकृत होने से रोकती हैं। अतः लघु अवधि स्मृति विद्युतीय हो सकती हैं और उनके दृढ़ीकरण में समय लग सकता है ताकि रासायनिक संश्लेषण या उत्पाद तंत्रिका निषेक में हो सके। लघु अवधि स्मृति का एक दोष-स्थिरीकरण स्मृति हानि ;पिगंजपवद ंहै। मस्तिष्क के कुछ भागों ; इवकल और के तंत्रिका-निषेकों के नष्ट होने के कारण यह बीमारी होती है। इसी प्रकार पश्चयामी, स्मृति हानि ;तमजतवहतंकम भी होती है। लघु अवधि स्मृति के जो भी कारण हों इसमें तंत्रिका के स्पंदन या आवेगों ;पउचनसेमद्ध का लगातार छोटे बंद तंत्रिका परिपथ पर चलना भी हो सकता है। तंत्रिका-संगमों के अनुभागों ;चवजमदजपंसेद्ध के परिवर्तन भी इसमें कारण हो सकते हों। इन सभी को के अभिलेखों में देखा जाय। इसी प्रकार तत्सम्बन्धी और सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं।
प्रायोगिक प्रतिबंधन और दीर्घ-अवधि स्मृति
दीर्घ अवधि वाली स्मृति, सुदृढ़ होने के पश्चात् क्या लघु अवधि वाली स्मृति की तरह विद्युतीय रहती है घ् विद्युत आघात विक्षोभ ;बवदबनेेपवदद्धए या शामक, संज्ञाहारिक, वेदनाहारी यदि इतने अधिक गहरे हों कि विद्युतीय नीरवता ;पसमदबमद्ध हो जाये और दीर्घकाल स्मृति अक्षुण्ण बनी रहे। अतः स्थायी स्मृति विवृय आवेग ;पउचसनेमेद्ध या विद्युता से उत्पन्न अन्य तंत्रिका निषेक की विद्युतीय अवस्था नहीं है। वस्तुतः यह मान्यता है कि इसमें संरचनात्मक ;उवतचीवसवहपबंसद्धआकृति विज्ञान अथवा रासायनिक परिवर्तन तंत्रिका-निषेकों में हो जाता है। इसका कारण यह हो सकता है कि ;दमनतवदेद्ध पर आघात या तंत्रिका-संगमी दनादन तंत्रिका जोड़ से दागने से स्थायी ;कनतंइसमद्ध परिवर्तन हो जाता है, जिससे तांत्रिक ;दमनतवदंसद्ध परिपथ पश्च क्रिया के प्रति अधिक सुग्राही या सुप्रभाव्य हो जाता है। स्मृति सृदृढ़ता पर जो प्रयोग किये गये वे प्रशिक्षण या संस्कार से संबंधित हैं। ये प्रयोग ईवान पेत्रोविच पावलोव द्वारा मेडिकल अकादमी, सेट पीटर्सबर्ग, रूस में किये गय जिस पर उन्हें 1904 में नोबेल पुरस्कार मिला। उनके प्रयोग के मुंह में लार आने से संबंधित थे। जब रोटी भोजन करता है तो उसके मुँह से लार टपकती है। यह स्वयमेव होने वाली प्रतिवर्त क्रिया ;तमसिमग बजपवदद्ध है। इसमें नियमितता और तात्कालिकता एक सहज तंत्रिका परिपथ प्रतिवर्ती चाप ;तमसिनग तबद्ध पर आधारित रहती है। जिनके द्वारा आवेश यात्रा करते हैं। इसमें केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र शामिल होता है। (उद्दीपन, जैसे सुई चुभन, द्वारा आवेगों के समूह अनेक संवेदी तंत्रिका तंतुओं द्वारा मेरू रज्जु में जाते हैं, जहाँ से वे दूसरे तंत्रिका तंतुओं को भोजन दिये जाते हैं। तथा आवेग प्रेरक तंत्रिका तन्तुओं के एक समूह में नीचे जाते हैं जो पेशियों को सक्रिय करते हैं, जिनके सिकुड़ने से पांव सुई चुभन से उठा लिया जाता है।) यदि दूर से भी रोटी दिखाई जाये तो भी उस प्रतिबन्धित की लार टपकने लगती है। यह आंतरिक प्रतिवर्त ;पददंजम तमसिमगद्ध नहीं है तथा ;चनचचलद्ध में नहीं होता है। लार टकपाने को देख-देख कर कहीं से सीख जाता है। वह रोटी की आशा ;मगचमबजपवदद्ध में लार नहीं टपकाता, किन्तु वह सीखता है। पहले घंटी बजाकर दरवाजा खोलकर खाना लाया जाता है। खाने को देखकर लार ;सपअंद्ध टपकना, फिर घंटी को सुनकर भी लार का निकलना। यहाँ घंटी की आवाज को प्रतिबंधित उद्दीपक कहा जाता है और भोजन ;विवकद्ध को अप्रतिबंधित उद्दीपक ;नदबवदकपजपवदंस जपउनसनेद्ध कहते हैं। इस प्रकार के प्रतिबन्धन के स्थान पर अप्रतिबंधित उद्दीपक को विस्थापित कर प्रतिबंधिक उद्दीपक ;बचदकपजपवदपदहद्ध को चिरसम्मत प्रतिबंधन ;बसंपबंस बवदकपजपवदपदहद्ध कहते हैं वेदनादायक उद्दीपक ;जपउनसनेद्धभी इसी प्रकार वेदना देते हैं। को प्रतिबंधित ;बवदकपजपवदमकद्ध कर लार टपकाने हेतु अप्रतिबंधित उद्दीपक के स्थान पर उद्दीपक ;नदबवदकपजपवदमक जपउनसनेद्ध को विस्थापित कर प्रतिबंधिक उद्दीपक ;बवदकपजपवदमक जपउनसनेद्ध द्वारा पूंछ हिलाना ;हहपदहद्ध आदि कराना और प्रकाश, आवाज, स्पर्श, पिन, बिजली धक्का द्वारा अनेक प्रक्रियाओं द्वारा को अनेक प्रकार से प्रतिबंधित किया जा सकता हैै। यही कर्म बंधन प्रक्रिया का एक स्वरूप कहा जा सकता है। तथ्य: प्रतिबंधित ;बवदपिजपवदमक तमेचवदेमद्धका सीखना अत्यंत प्रचलित है, विस्तृत है, और सभी तंत्रिकीय व्यवस्था ;दमनतंस वतहंदपेंजपवदद्ध का एक मूलभुत गुण प्रतीत होता है। पावलोव ने प्रतिबंधन ;बवदकपजपवदपदहद्ध को पशु और मानव के व्यवहार का सामान्य मिश्रण बतलाया। यह चिरसम्मत प्रतिबंधन ;बसंपबंस बवदपिजपवदपदहद्ध है। लार टपकना, आंख पुतली का सिकुड़ना आदि ऐसे प्रकार के प्रतिबंधन हैं।
दूसरे प्रकार का प्रतिबंधन है
प्रक्रियात्मक प्रतिबंधन ;वचमतंदज बवदकपजपवदपदहद्ध इसके लिए दंड एवं पारितोषिक के द्वारा पशु को असाधारण व्यवहार सिखलाया जाता है। जैसे, केंचुए की चाल दाहिनी ओर करना सिखाना, तोते को भाषा सिखाना। सर्कस आदि में इसका प्रयोग होता है। अत्यंत भयानक उपलब्धियाँ भी इस प्रणाली प्रतिबन्धन कदमों ;लेजमउमजपब बवदकपजपवदपदह ेजमचेद्ध के द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। ये यांत्रिक होते हैं। जैसे बालक या चिंपैजी भी पर किये गये सीखना जैसे प्रतिबंधन प्रयोग दिखलाते हैं कि तंत्रिकीय यंत्र अस्तित्व में है जो संवेदी-प्रेरक ;मदेवतल.उवजवतद्ध की नवीन बनावटें/अभिरचनाएं ;चंजजमतदेद्ध स्थापित कर देती हैं। इस प्रतिबंधन ;बवदकपजपवदपदहद्ध के द्वरा ट्रिगर की जाने वाली संवेदी आश्रय ;पदचनजद्ध और चुना गया व्यावहारिक ;इमींअपवतंसद्ध उदय ;वनजचनजद्ध के बीज जो जुड़ाव ;बवददमबजपवदेद्ध होते हैं वे अन्य विकल्प प्रेरक प्रोग्रामों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो सकते हैं। अतः स्मृति का आधार, प्रतिबंधन के साथ होने वाले संभव तंत्रिकीय परिवर्तन को खोजा जाना चाहिए। इससे सीखने और स्मृति के स्वरूप सम्बन्धी सुराग ;बसनमेद्ध प्राप्त होने की आशा है। सीखना और स्मृति के विद्युतीय सहवर्ती पदार्थ ;बवदबवउउपजंदजेद्ध तंत्रिका-निषेकों की विद्युतीय सक्रियता भी यथायोग्य ;चचतवचतपंजमद्ध उद्दीपकों ;जपउनसपद्ध की जोड़ियों द्वारा प्रतिबंधित की जा सकती है। गलगंड ;जींसंउनेद्ध (कशेरूकी के अग्र मस्तिष्क के भाग में एक मुख्य संवेदी समन्वयन भाग) की केन्द्रिक नाभि ;बमदजतंस दनबसमनेद्ध की जघन्य बारंबारता वाला उद्दीपन को आवाज के स्वर ;जवदमद्ध के साथ बारबार जोड़ा जाये तो प्रायः 30 प्रयासों के बाद गलगंड के निषेक मात्र आवाज के प्रति दायित्वशील हो जाते हैं। इस प्रकार के तंत्रिकीय प्रतिबंधन के अन्य प्रयोग और उदाहरण हैं। यथा: खरगोश को प्रकाश द्वारा पंजा उठवा देना। दृश्यमान मस्तिष्क प्रभाग में ;अपेनंस बवतजमगद्ध के कुछ भागों में ऋणात्मक विद्युत आवेश देने पर, विद्युत उद्दीपन से प्राप्त अनुभव के धारण को अवरूद्ध ;इवसबाद्ध किया जा सकता है। मस्तिष्क के किसी क्षेत्र के तंत्रिका-निषेकों ;दनतवदेद्ध में अन्य दीर्घकालीन अनुभागीय परिवर्तन तथा उजक एवं रोधक ;मगबपजंजवतल – पदीपइपजवतलद्ध पश्च तंत्रिकीय जोड़ अनुभाग का मिला जुला प्रतिनिधित्व विद्युतीय संकेत या धीमी तरंगें करती प्रतीत हुई है। ये प्रतिबंधन के समय प्राप्त भीतरी मस्तिष्क की लय या ताल ;तीलजीउद्ध रूप या तुल्यकालिकता ;लदबीतवदलद्ध की तलों ;समअमसेद्ध में होने वाले परिवर्तनों के रूप में परीक्षित किये गये हैं। प्रतिबंधित अनुक्रियाओं की स्थापना से जुड़े अनुभाग में भी इसी प्रकार के लाक्षणिक परिवर्तन देखे गये हैं। तंत्रिका के जोड़ों का निर्माण: दीर्घ अवधि वाली स्मृति यांत्रिकी और तंत्रिका निषेकों के बीच नयी संरचनामय जोड़ों पर विचार करें। यद्यपि नाम कर्म निषेकों ;हमदमेद्ध द्वारा तंत्रिका मंडल का समग्र संगठन विवेचित होता है, किन्तु विभिन्न जातियों के लिए यह भिन्न-भिन्न होता है। तंत्रिका जोड़ों के सम्बन्ध में दो भिन्न मत है: 1. संपूर्ण तंत्रिका जाल कार्य एक ऐसी समान विभव वाली अभिन्न प्रथमतः प्रणाली है जिसमें गतिशील संरचनाएं दूर स्थित बिन्दुओं को सामान्य कार्य हेतु जोड़ती है। ये संरचनाएं जटिल, लचीली और स्व-नियमित होती हैं। 2. तंत्रिका जाल पूर्व नियोजित रूप से तार संबंधित एवं निश्चायक लक्षण वाला होता है। जब इनके तंत्रिका संगमों में परिवर्तन होते हैं तो उन पर दीर्घ अवधि वाली स्मृति आश्रित होती है।
मस्तिष्क के निषेक विभाजित नहीं होते है
किन्तु वे नई शाखाओं में उगते हैं। ज्यों-ज्यों ये उम्र पाकर बढ़ते हैं त्यों-त्यों सीखने की क्षमता, नई योग्यताएं विकसित होती हैं। यदि निरन्तर शाखा उत्पादन एवं तंत्रिका-निषेकों में पारस्परिक जोड़ स्मृति की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं, तो उनका सम्बन्ध अनुभव ;मगचमतपमदबमद्ध से होना चाहिये। प्रयोगों के आधार पर जोड़ों की क्षमता अनुभव के अनुसार बढ़ती देखी गयी है। मस्तिष्क में ग्लिया ;हसपंद्ध नामक अनेक तंत्रिका-बंध निषेक होते हैं। ग्लिया के आव्यूह बनते हैं जिनमें तंत्रिका-निषेक जुड़े होते हैं। ये तंत्रिका-निषेक शाखाओं को सही जोड़ों को बनाने में गाइड (निदेशक) का कार्य करते हैं-ऐसा प्रस्तावित है। ग्लिया विभाजित होते हैं किन्तु तंत्रिका-निषेक नहीं। विद्युत क्रियाशीलता जो तंत्रिका निषेक में होती है वह ग्लिया के चारों ओर उद्दीपन कर ग्लिया की संख्या बढ़ाकर कुछ जोड़ बढ़ा सकती है। यह मात्र अनुमान है। स्मृति का स्थानीकरण ;स्वबंसपेंजपवद व मउवतलद्ध रू यह न जानते हुए भी कि स्मृति के चिन्ह क्या हैं घ् क्या हम कह सकते हैं कि वे कहाँ हैं। पशु के संवेदी ;मदेवतलद्ध और प्रेरक ;उवजवतद्ध कार्यों को प्रमस्तिष्क वल्कुट के चिन्हित भागों में रहने वाले संवेदी तंत्रिका-निषेक नियंत्रित करते हैं। दृष्टि से संबंधित निषेक संवेदी आस्रय, जैसे आकार, वर्ण, गमन आदि को विश्लेषित करते हैं और वे स्तम्भों और पंक्तियों में व्यवस्थित प्रणाली में रहते हैं। मानवीय वल्कुट के संवेदी एवं प्रेरक व्यवहार के सुनिश्चित क्षेत्र में दृष्टव्य है। भाषण की समृति का सम्बन्ध होने से उस स्थान से सम्बन्धित है। उसका स्थान दायें मस्तिष्क में होता है। थेलेमस में ट्यूमर वालों को विशेष भाषण दोष भी देखा गया है। स्मृति का जीव रसायन: जब तंत्रिका निषेकों की विद्युतीय क्रियाशीलता बढ़ती है तब त्छ।और प्रोटीन में वृद्धि होती हैं जिस प्रकार क्छ। या उसके त्छ। अनुलेखन की मूल धारा के रूप में प्रोटीनों की संरचना आनुवंशिक कूटित ;हमदमजपब बवकमकद्ध हो जाती है ठीक उसी प्रकार स्मृति संभवतः विशेष प्रकार के आर. एन. ए. या त्छ। के रूप में कूटित ;बवकमकद्ध होती हो। ऐसा कुछ व्यक्तियों का मत है कि त्छ। की मूल-धारा का निश्चय तंत्रिका-निषेकों की विद्युतीय क्रियाशीलता से होता है। त्छ। का सूची वेथ ;पदरमबजपवदद्ध वृ़द्धों को देने पर स्मृति बढ़ती है। इससे स्मृति और भाषा-व्यवहार में सम्बन्ध स्पष्ट होता है।