“ तिरक्कुरल [ कुरल- काव्य ] “यह तमिल भाषा में रचित नीति-ग्रंथ है /
इसका हिंदी अनुवाद स्व.प.गोविंदराम जैन शास्त्री ने पू. आचार्य श्री 108 विद्यानंद जी की प्रेरणा से किया है/ इस ग्रंथ मे मानव जीवन के सर्वांगीण- निर्माण की प्रेरक सूक्तियों एवं मूलमन्त्रों को 108 परिच्छेदों में विभक्त किया गया है / इस ग्रंथ में वर्णित सूक्तियां कुंद-कुंद साहित्य के अनुकूल लगतीं हैं / इन सूक्तियों को विषय-वार क्रमवद्ध रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है
”परिच्छेद- 1
ईश्वर- स्तुति——” 1- “अ” जिस प्रकार शब्द –लोक का आदि वर्ण है ठीक उसी प्रकार आदि भगवान [ भगवान-आदिनाथ ] पुराण – पुरुषों में आदिपुरुष हैं / 2- यदि तुम सर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणों की पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी सारी विद्वता किस काम की / 3- जो मनुष्य उस कमलगामी परमेश्वर के पवित्र चरणों की शरण लेता है वह जगत में दीर्घजीवी होकर सुख-सम्रिद्धि के साथ रहता है / 4- धन्य है वह मनुष्य जो आदिपुरुषके पादारविंद में रत रहता है / जो न किसी से राग करता है और न घ्रिणा/ उसे कभी कोई दुख नही होता / 5- देखो जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक गान करते हैं उन्हें अपने भले – बुरे कर्मों का दुःखद फल नहीं भोगना पडता / 6- जो लोग उस परम पिता जितेन्द्रिय पुरुष के द्वारा दिखाये गये धर्म-मार्ग का अनुशरण करते हैं वे चिरंजीवी अर्थात अजर-अमर बनेंगे / 7- केवल वे ही लोग दुःखों से बच सकते हैं जो उस अद्वितीय पुरुष की शरण में आते हैं / 8- धन-वैभव और इंद्रिय-सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं जो उस धर्म –सिंधु मुनीश्वर के चरणों में लीन रहते हैं / 9- जो मनुष्य अष्ट गुणों से मण्डित परब्रह्म के आगे सिर नहीं झुकाता वह उस इंद्रिय के समान है जिसमें अपने गुणों [विषय] को ग्रहण करने की शक्ति नहीं है / 10- जन्म-मरण के समुद्र को वे ह्ई पार कर सकते हैं जो प्रभू के चरणों की शरण में आ जाते हैं / दूसरे लोग उसे पार नहीं कर सकते / ”परिच्छेद-2, मेघ-महिमा—–”
1- समय पर न चूकने वाली मेघ-वर्षा से ही धरती अपने को धारण किये हुये है और इसी लिये लोग उसे अमृत कहते है/
2- जितने भी स्वादिष्ठ खाद्य पदार्थ है वे सब वर्षा के ही द्वारा मनुष्य को प्राप्त होते हैं,और जल स्वयं ही भोजन का एक मुख्य अंग है/
3- यदि पानी न बरसे तो सारी पृथ्वी पर अकाल का प्रकोप छा जाये यद्यपि वह चारोंओर समुद्र से घिरी हुई है /
4- यदि स्वर्ग के झरने [मेघ-वर्षा]सूख जावे,तो किसान लोग हल जोतना ही छोड देंगे /
5- वर्षा ही नष्ट करती है और वर्षा ही नष्ट हुई वस्तुओं को फिर से हरा-भरा कर देती है /
6- स्वयं शक्ति-शाली समुद्र में ही कुत्सित वीभत्सता का दारुण प्रकोप हो उठे यदि आकाश उसके जल को पान करना और फिर उसे वापिस देना अस्वीकार कर दे /
7- यदि आकाश से पानी की बौछारें आना बंद हो जायें, तो घास तक का उगना बन्द हो जायेगा / 8- यदि स्वर्ग [मेघों] का जल सूख जाये,तो पृथ्वी पर न यज्ञ होंगे और न भोज ही दिये जायेंगे /
9- यदि ऊपर से जल-धारायें आना बंद होजायें,तोफिर इस पृथ्वी पर न कहीं दान रहे,न कहीं तप /
10-पानी के बिना संसार में कोई काम नहीं चल सकता,इसलिये सदाचार भी अन्ततः वर्षा पर ही आश्रित हैं / ”परिच्छेद-3, मुनि-महिमा—–” 1- जिन लोगों ने इंद्रियों के समस्त भोगों को त्याग दिया है और जो तपस्वी जीवन व्यतीत करते है, धर्मशास्त्र उनकी महिमा को अन्य सब बातों से अधिक उत्क्रिष्ट बताते हैं / 2- तुम तपस्वी लोगों की महिमा को नहीं नाप सकते / यह काम उतना ही कठिन है,जितना कि दिवंगत आत्माओं की गडना करना / 3- जिन लोगों ने परलोक के साथ इह लोक की तुलना करने के पश्चात इसे त्याग दिया है,उसकी महिमा से यह पृथ्वी जगमगा रहीहै / 4- जो पुरुष अपनी सुदृढ इच्छा शक्ति के द्वारा अपनी पांचों इंद्रियों को इस तरह वश में रखता है,जिस तरह हाथी अंकुश द्वारा वशीभूत किया जाता है,वही वास्तव में स्वर्ग के खेतों में बीज बोने योग्य है / 5- जिसने इंद्रियों की तृष्णा शमन की है,उस तपश्वी के तप में क्या सामर्थ्य है,यदि यह देखना चाहते हो,तो देवाधिदेव इंद्र की ओर देखो / 6- महान पुरुष वेही हैं,अशक्त कार्यों को भी सम्भव कर लेते है और क्षुद्र वे हैं,जिनसे यह काम नही हो सकता / 7- जो स्पर्ष,रस,गंध,रूप,और शब्द -इन पाँच इंद्रिय-विषयों का यथोचित उपभोग करता है,वह सारे संसार पर शासन करेगा / 8- संसार भर के धर्मग्रंथ,सत्यवक्ता महात्माओं की महिमा की घोषणा करते हैं / 9- त्याग की चट्टान पर खड़े हुए महात्माओं के क्रोध को एक क्षण भी सह-लेना असम्भव है । 10-दाधु-प्रक्रिति पुरुषों को ही “ब्राह्मण” कहना चाहिये,क्योंकि वे ही लोग सब प्राणियों पर दया रखते हैं । ”परिच्छेद-4, धर्म-महिमा—–” ———————->>>>>>>>