श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महापुराण ग्रंथ के इस मंगलाचरण में श्री जिनसेनाचार्य ने किसी का नाम लिए बिना गुणों की स्तुति की है। जो अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से सहित एवं सम्पूर्ण ज्ञान से सहित हैं, धर्मचक्र के धारक हैं, तीन लोक के अधिपति हैं और पंचपरिवर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं उनको-अर्हन्तदेव को हमारा नमस्कार है। इस श्लोक के कई अर्थ हैं। सर्वप्रथम ‘‘श्रीमते’’ शब्द से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति है। श्री-लक्ष्मी ज्यपदमीयुषे’’ पद-सिद्धपद का वाचक है, ‘‘धर्मचक्र भृते’’ अर्थात् दशधर्मरूपी चक्र को धारण करने वाले आचार्य परमेष्ठी, ‘‘भत्र्रे’’ पद से अज्ञान को दूर करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी और ‘‘संसारभीमुषे’’ अर्थात् अपनी उत्कृष्ट मुनि चर्या के द्वारा संसार के भय को नष्ट करने वाले साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया है। आगे इसमें गौतम गणधर को नमन करके कहा है कि गणधर वैâसे होते हैं-
सकलज्ञानसाम्राज्य-यौवराज्यपदे स्थितान्।
तोष्टवीमि गणाधीशानाप्त संज्ञानकण्किान्।।१७।। (पर्व १)
अर्थात् जिसमें ६३ शलाका महापुरुषों का कथन है उसे महापुराण कहा है। पूर्व में हुए महापुरुषों का वर्णन करने से यह पुराण है तथा महापुरुषों के द्वारा उपदिष्ट होने से यह महापुराण है। द्वादशांग में जो १२वें अंग में प्रथमानुयोग है, उसी में यह महापुराण ग्रंथ आता है।
पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात्।
महद्भिरूपदिष्टत्वात् महाश्रेयोऽनुशासनात्।।
ऋषिप्रणीतमार्षं स्यात् सूत्क्त सूनृतशासनात्।
धर्मानुशासनाच्छेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।।
इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुते:।
इतिवृत्तमथैतिह्र्यंमान्नार्थ चामनन्ति तत्।।
यह ग्रंथ अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है, इसलिए पुराण कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान् कल्याणकारी पद की प्राप्ति होती है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं। यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है। ‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ-ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘इतिहास’, ‘इतिवृत्त’ और ‘ऐतिह्य’ भी मानते हैं। इसे आर्षग्रंथ कहते हैं, यह सूक्त है, धर्मशासन है, इसे इतिहास भी कहते हैं, आम्नाय भी कहते हैं। श्री जिनसेन स्वामी ने इसमें कहा है कि जैसे-छोटा बछड़ा बड़े भार को उठाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार मैं भी तीर्थंकर भगवन्तों का चरित कहने में यद्यपि असमर्थ हूँ, फिर भी महापुराण नाम से इस ग्रंथ को कहने का साहस कर रहा हूँ। धवला टीकाकार वीरसेनस्वामी एवं श्री जयसेनाचार्य को अपना गुरु मानकर इसमें श्री जिनसेनाचार्य ने उन्हें नमस्कार किया है। इसमें श्रोता और वक्ता का सुंदर लक्षण है तथा धर्मकथा के ७ अंग माने हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। प्रत्येक ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल (अधोलोक) ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें, उसे सत्कथा कहते हैं। उस समीचीन कथा के नायक स्वरूप भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्वशांति के लिए होवें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।