श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों में दशावतारों के मध्य राजा महाबल के प्रथम अवतार में राजा के जन्मदिवस अवसर पर चारों मंत्री-अपने-अपने मतों का प्रदर्शन कर रहे थे। उसमें तीसरे मंत्री संभिन्नमति ने कहा कि सारा जगत इन्द्रजाल के सदृश है इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा।उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप हैं, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांति रूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है। अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं। इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री को बड़ी चिंता हो गई कि कहीं हमारा राजा जैनशासन से विचलित न हो जावे इसलिए उसने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई। पुन: स्वयंबुद्ध ने कहा कि राजन्! संसार में स्याद्वादमयी अनेकांत शासन ही सर्वोत्तम है। उसने आगे कहा-पूर्व में कभी यहाँ राजा अरविंद हुए हैं, उनके दो पुत्र थे-हरिश्चन्द्र और कुरविन्द। राजा अरविंद को एकबार दाहज्वर हो गया। अनेक उपचारों के बाद भी शांति नहीं मिली। उस राजा अरविंद को कुअवधि ज्ञान था अत: उसकी बुद्धि उल्टी हो गई।
एक दिन राजा के शयनगृह में छिपकली की पूँछ कटने से खून की बूंद उस पर टपकी और उसकी कुछ दाह शांत हुई। पाप के उदय से वह बहुत ही संतुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोग से बड़ी अच्छी औषधि पा ली है। उसने कुरुविन्द नाम के अपने दूसरे पुत्र को बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे लिए खून से भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो। राजा अरविंद को विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचारकर फिर बोला-इसी समीपवर्ती वन में अनेक प्रकार के मृग रहते हैं उन्हीं से तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खून से बावड़ी भर दे। वह कुरुविन्द पाप से डरता रहता था इसलिए पिता के ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करने के लिए असमर्थ होता हुआ क्षण भर चुपचाप खड़ा रहा। तत्पश्चात् वन में गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनि से जब उसे मालू हुआ कि हमारे पिता की मृत्यु अत्यन्त निकट है तथा उन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है तब वह उस पापकर्म के करने से रुक गया। परंतु पिता के वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं है, ऐसा मानकर उसने मंत्रियों की सलाह से कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाख के रंग से भरी हुई एक बावड़ी बनवाई। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविंद ने जब बावड़ी तैयार होने का समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ। जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधान को देखकर हर्षित होता है। जिस प्रकार पानी-नारकी जीव वैतरणी नदी को बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापी अरविंद राजा भी लाख के लाल रंग से धोखा खाकर अर्थात् सचमुच का रुधिर समझकर उस बावड़ी को बहुत अच्छी मान रहा था। जब वह उस बावड़ी के पास लाया गया तो आते ही उसके बीच में जाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा। परन्तु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है। यह जानकर वह बुद्धिरहित राजा अरविंद रुष्ट होकर पुत्र को मारने के लिए दौड़ा परन्तु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवार से उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया। कभी-कभी आयुकर्म का बंध हो जाने पर जीव के परिणाम अच्छे-बुरे हो जाते हैं। भव्यात्माओं! आपकी आयु भी कब बंध जावे, कुछ ज्ञात नहीं है अत: सदैव अपने परिणाम अच्छे रखना चाहिए कि यदि आयु की त्रिभागी पड़े तो अच्छी आयु का बंध होवे। राजा अरविंद को मरते वक्त हिंसानंदी रौद्रध्यान उत्पन्न हो गया था इसीलिए वे मरकर नरक चले गये। यहाँ ध्यान रखना है कि रौद्रध्यान के चार भेद हैं-हिंसानंदि, मृषानंदि, चौर्यानंदि और परिग्रहानंदि इनमें से कोई भी रौद्रध्यान किसी के लिए हितकारी नहीं हो सकता है अत: आर्त-रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्मध्यान का ही आश्रय लेना चाहिए। धर्मध्यान के साथ शुक्ल ध्यान में स्थित होकर जिन भगवन्तों ने आत्मकल्याण के साथ-साथ जगत के कल्याण का भी उपदेश दिया है ऐसे वे चौबीसों भगवान विश्वशांति की स्थापना में निमित्त बने, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।