श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भवपूर्व राजा महाबल ने स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से जिनमंदिर में जाकर सल्लेखना ग्रहण कर ली थी और धर्मध्यानपूर्वक उन्होंने
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहु:सल्लेखनामार्या:।।
अर्थात् उपसर्ग-संकट आ जावे, ऐसा बुढ़ापा आ जावे कि अब शरीर पूर्ण जर्जर हो गया है, कोई असाध्य रोग हो जावे, जिसका कोई इलाज नहीं है तो धर्मभावना से सल्लेखना ग्रहण करके शरीर छोड़ना चाहिए। सन् १९८० में बाराबंकी की एक महिला को जलोदर रोग हो गया, दिल्ली में भी डॉक्टर ने जवाब दे दिया तब उसके पति-पुत्र आदि मेरे पास ले आये। मैं उस समय ग्रीनपार्वâ-दिल्ली के मंदिर में धर्मप्रवचन कर रही थी। अकस्मात् उनके आने पर उनकी समाधि की भावना देखकर मैंने विधिवत् उनकी सल्लेखना कराई। ऐसे उदाहरण सभी गृहस्थियों के लिए ग्रहण करने योग्य है क्योंकि जीवन के अंत समय में रो-धोकर प्राण छोड़ने से दुर्गति प्राप्त होती है और मन शांत करके आत्मा-शरीर की भेदभिन्नता का चिंतन करके गुरुओं के निकट अथवा घर में परिग्रह आदि का त्याग करके मरण करने से स्वर्ग सुख एवं परम्परा से मोक्ष सुख मिलता है। शास्त्रीय भाषा में सल्लेखना के तीन भेद कहे हैं-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन। वर्तमान में भक्त प्रत्याख्यान नामक सल्लेखना का नियम ग्रहण किया जा सकता है। मुख्यरूप से कषाय और काय को कृश करते हुए महामंत्र आदि श्रवण करते हुए शरीर छोड़ना सल्लेखना है। जबकि आत्मघात कषाय एवं व्रूâर परिणामों से होता है जो आज लोग विष आदि अनेक प्रकार से करके इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ लेते हैं। कई लोग कर्ज आदि से दु:खी होकर आत्महत्या का भाव बना लेते हैं, किन्तु भैय्या! ऐसा कभी मत सोचना, आत्मघात करने से भव-भव में नरक आदि गतियों के दु:ख भोगना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में आप धर्म का, धर्मगुरु का एवं धर्मग्रंथों के स्वाध्याय का, पूजा-पाठ का, मंत्र जाप्य का सहारा लें, उसी से संकट कटेंगे। सल्लेखनापूर्वक मरण करने वाले अधिक से अधिक ७-८ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए सिद्धभक्ति आदि प्रत्येक भक्तियों की अंचलिका में कहा है-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिनगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। अर्थात् मुझे क्रम-क्रम से जिनेन्द्रगुणों की सम्पत्ति प्राप्त हो जावे, यही भावना भाई जाती है। दिल्ली के एक श्रावक हर्रोमल (हरिश्चंद्र जैन-कम्मो जी के पिता जी) मुझे कई बार कहते थे कि माताजी! मेरे अंतिम समय में आप मुझे संबोधन अवश्य देना, सो जब प्रसंग आया तो मैंने सन् १९८१ में रात्रि में भी समाचार मिलने पर ब्रह्मचारिणी माधुरी को (मुझे-आर्यिका चंदनामती को) भेजा।
इसी प्रकार सन् १९६९ में मेरे गृहस्थावस्था के पिता ने अपने अंतिम समय में पूर्ण धर्मध्यानपूर्वक मुझ आर्यिका का स्मरण किया, तो वहाँ एक श्वेत वस्त्र वाली महिला को उपस्थित किया गया, मेरी पुरानी पिच्छिका उन्हें स्पर्श कराई गई आदि। देखो! ऐसी सुन्दर सल्लेखना करके राजा महाबल ने प्राण छोड़े। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल शरीर को छोड़ कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की शिक्षा देने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया। वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो अपने आत्मीयजनों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो परिकर के लोग धर्म से हटाकर विषयों में फँसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं। पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे, धर्म में लगने की प्रेरणा देते हों और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही होते हैं। अन्त में भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर हम सभी को शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।