श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! आदिपुराण में आपने जाना है कि राजा महाबल स्वर्ग में ललितांग देव हुए और निर्नामा नाम की कन्या स्वयंप्रभा देवी हुई। दोनों वहाँ खूब सुखपूर्वक रह रहे थे। तभी ललितांगदेव की आयु के छह माह शेष रहने पर ललितांगदेव के वंâठ की माला मुरझाने लगी तो वह बहुत दु:खी रहने लगा। स्वर्ग में यद्यपि देवों की आँखों में आँसू नहीं आते, फिर भी विलापकर करके वह स्वयंप्रभा देवी के छूट जाने की बात सोचकर बड़ा कष्ट अनुभव कर रहा था। आदिपुराण में कहा है-
आजन्मनो यदेतेन निर्विष्टं सुखमामरम्।
तत्तदा पिण्डितं सर्वं दु:खभूयमिवागमत्।।७।।
तत्कण्ठमालिकाम्लानिवच: कल्पान्तामनशे।
शीघ्ररूपस्य लोकान्तमणेरिव विचेष्टितम्।।८।। (पर्व ६)
अर्थात् उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस देव ने जन्म से लेकर आज तक जो देवों संबंधी सुख भोगे हैं वे सबके सब दु:ख बनकर ही आ गये हैं। जिस प्रकार शीघ्र गति वाला परमाणु एक ही समय में लोक के अन्त तक पहुँच जाता है उसी प्रकार ललिताङ्गदेव की कण्ठमाला की म्लानता का समाचार भी उस स्वर्ग के अन्त तक व्याप्त हो गया था। तब वहाँ के मित्रदेवों ने उसे संसार की स्थिति समझाकर सम्बोधन प्रदान किया।
यथोदितस्य सूर्यस्य निश्चितोऽस्तमय: पुरा।
तथा पातोन्मुख: स्वर्गे जन्तोरभ्युदयोऽप्ययम्।।१९।।
तस्मात् मा स्म गम: शोवंâ कुयोन्यावत्र्तपातिनम्।
धर्मे मतिं निधत्स्वार्य धर्मो हि शरणं परम्।।२०।।
कारणान्न बिना कार्यमार्य जातुचिदीक्ष्यते।
पुण्यं च कारणं प्राहु: बुधा: स्वर्गापबर्गयो:।।२१।
तत्पुण्यसाधने जैन शासने मतिमादधत्।
विषादमुत्सृजानूनं येनानेना भविष्यसि।।२२।।
इति तद्वचनाद् धैर्यमवलम्ब्य स धर्मधी:।
मासाद्र्धं भुवने कृत्स्ने जिनवेश्मान्यपूजयत्।।२३।। (पर्व ६)
अर्थात् जिस प्रकार उदित हुए सूर्य का अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्ग में प्राप्त हुए जीवों के अभ्युदयों का पतन होना भी निश्चित है। इसलिए हे आर्य, कुयोनिरूपी आवर्त में गिराने वाले शोक को प्राप्त न होइए तथा धर्म में मन लगाइए, क्योंकि धर्म ही परम शरण है। हे आर्य, कारण के बिना कभी भी कोई कार्य नहीं होता है और चूॅूंकि पण्डितजन पुण्य को ही स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण कहते हैं। इसलिए पुण्य के साधनभूत जैनधर्म में ही अपनी बुद्धि लगाकर खेद को छोड़िए, ऐसा करने से तुम निश्चय ही पापरहित हो जाओगे। इस प्रकार सामानिक देवों के कहने से ललिताङ्गदेव ने धैर्य का अवलम्बन किया, धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन-चैत्यालयों की पूजा की। पुन: अच्युत स्वर्ग में भगवान की पूजा करके चैत्यवृक्ष के नीचे सल्लेखना ग्रहणकर महामंत्र का उच्चारण करते हुए बैठ गया। देखो! देवता भी सल्लेखना वैâसे धारण करते हैं? अर्थात् धर्मध्यानपूर्वक महामंत्रपूर्वक शरीर छोड़कर ललितांग देव जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र की पुष्कलावती देश में उत्पलखेटक नगर के राजा वङ्काबाहू की रानी वसुन्धरा के गर्भ से जन्म धारण कर लिया। उधर स्वयंप्रभा देवी भी पतिवियोग से दु:खी होकर उसने ६ माह तक लगातार भगवान की पूजा की और वहाँ की आयु भोगकर वह भी मध्यलोक में पुष्कलावती विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गई। महानुभावों! मेरे गुरु आचार्य वीरसागर जी कहा करते थे कि इस मनुष्य पर्याय में ऐसी धर्म की दृढ़ भावना बनाओ कि आगे देवपर्याय में भी वहाँ के दिव्य वैभव में लिप्तता न आने पावे और वहाँ भी धर्म की दृढ़ता बनी रहे, सल्लेखना का भाव उत्पन्न हो और आगे पुन: मनुष्यजीवन मिल सके। यह जिनेन्द्र भक्ति हम सबको शांति प्रदान करे और चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत में शांति की स्थापना करें यही मंगलभावना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।