श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भव्यात्माओं! महापुराण ग्रंथ को यदि रत्नाकर भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों की बात चल रही हे। राजा वङ्काजंघ अपनी रानी के साथ ससुराल जा रहे थे रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव डाला। अगले दिन प्रात:काल जब समस्त सेना अपने-अपने स्थान पर ठहर गई तब राजा वङ्काजंघ मार्ग तय करने में चतुर-शीघ्रगामी घोड़े पर बैठकर शीघ्र ही अपने डेरे में जा पहुँचे। घोड़ों के खुुरों से उठी हुई धूलि से जिसके शरीर रुक्ष हो रहे हैं ऐसे घुड़सवार लोग पसीने से युक्त होकर उस समय डेरा में पहुँचे थे जिस समय कि सूर्य उनके ललाट को तपा रहा था। जहाँ सरोवर के जल की तरंगों से उठती हुई मंद वायु के द्वारा भारी शीतलता विद्यमान थी ऐसे तालाब के किनारे पर बहुत ऊँचे तम्बू में राजा वङ्काजंघ ने सुखपूर्वक निवास किया। तदनन्तर आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर नामक मुनिराज, सागरसेन नामक मुनिराज के साथ-साथ वङ्काजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों मुनियों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की थी। इसलिए इच्छानुसार विहार करते हुए वङ्काजंघ के डेरे के समीप आये। वे मुनिराज अतिशय कान्ति के साक्षात् मार्ग ही हों ऐसे दोनों मुनियों को राजा वङ्काजंघ ने दूर से ही देखा। जिन्होंने अपने शरीर की दीप्ति से वन का अंधकार नष्ट कर दिया है ऐसे दोनों मुनियों को राजा वङ्काजंघ ने बड़ी भक्ति के साथ उठकर पड़गाहन किया। पुण्यात्मा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ बड़ी भक्ति से उन दोनों मुनियों को हाथ जोड़कर अर्घ चढ़ाया और फिर नमस्कार कर भोजनशाला में प्रवेश कराया। वहाँ वङ्काजंघ ने उन्हें ऊँचे स्थान पर बैठाया, उनके चरण कमलों का प्रक्षालन किया, पूजा की, नमस्कार किया, अपने मन, वचन, काय को शुद्ध किया और फिर श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, अलोभ, क्षमा, ज्ञान और शक्ति इन सात गुणों से विभूषित होकर विशुद्ध परिणाम से उन गुणवान् दोनों मुनियों को विधिपूर्वक आहार दिया। उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य हुए। देव लोग आकाश से रत्नवर्षा कर रहे थे, पुण्य वर्षा कर रहे थे, आकाशगंगा के जल के छींटों को बरसाती हुई मंद-मंद वायु चल रही थी, दुंदुभि बाजों की गंभीर गर्जना हो रही थी और दिशाओं को व्याप्त करने वाले ‘अहो दानम् अहो दानम्’ इस प्रकार के शब्द कहे जा रहे थे। पुन: वङ्काजंघ जब दोनों मुनिराजों की वंदना और पूजा कर उन्हें वापस भेज चुके तब उन्हें अपने वंâचुकी के कहने से मालूम हुआ कि उक्त दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्र हैं। राजा वङ्काजंघ श्रीमती के साथ-साथ बड़े प्रेम से उनके निकट गये और पुण्यप्राप्ति की इच्छा से सद्गृहस्थों का धर्म सुनने लगे। महानुभावों! मैंने पहले भी आपको बताया है कि आहारदान के अलावा किसी दान में पंचाश्चर्य की वृष्टि नहीं होती है। चारों दानों में आहारदान सबसे अधिक श्रेष्ठ माना गया है। इसी आहारदान का स्मरण हस्तिनापुर में उत्पन्न हुए राजा श्रेयांस को महामुनि ऋषभदेव के आगमन पर हुआ था तब उन्होंने नवधाभक्ति से आहार देकर दानतीर्थ प्रवर्तक की उपाधि प्राप्त की थी। आज भी वही मुनिचर्या का पालन मुनिगण करते हैं और श्रावकजन उन्हें आहार देकर अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। देखो! राजा वङ्काजंघ के पिता वङ्काबाहु राजा जब दीक्षित हो रहे थे तब इन दोनों पौत्रों ने भी दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपश्चरण किया और आकाशगामी ऋद्धि प्राप्त कर ली। दान, पूजा, शील और प्रोषध आदि धर्मों का विस्तृत स्वरूप सुन चुकने के बाद वङ्काजंघ ने उनसे अपने तथा श्रीमती के पूर्वभव पूछे। अपने सभी लोगों के पूर्व भव सुनकर राजा-रानी बड़े प्रसन्न हुए। आज भी लोग साधुओं के मुख से अपने हित-अहित की बात जानने के लिए लालायित रहते हैं। वर्तमान के अर्थात् २०वीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर महाराज कितनी कठोर तपस्या करते थे। मैंने अपनी आँखों से आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की तपस्या देखी है कि वे भीषण गर्मी में भी खुले मैदान में ध्यान किया करते थे। कहा भी है-
भरहे दुस्समकाले , धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तंं अप्पसहावठिदे, ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।
अर्थात् तीर्थंकर की चर्या को वर्तमान में प्रदर्शित करने वाले मुनिगण पंचमकाल के अंत तक रहेंगे। वे सभी तीर्थंकर भगवान जगत् में शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।