श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भव्यात्माओं! महापुराण ग्रंथ के अनुसार राजा वङ्काजंघ ने जंगल में मुनियों से अपने और रानी श्रीमती के पूर्वभव पूछने के बाद अपने साथ के मंत्रियों और वहाँ खड़े चारों पशुओं के भी पूर्वभव पूछे तो वे सर्वप्रथम मतिवर के पूर्वभव बताने लगे- हे राजन्! इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती नाम का देश है जो कि स्वर्ग के समान सुन्दर है, उसमें एक प्रभाकरी नाम की नगरी है। यह मतिवर पूर्वभव में इसी नगरी में अतिगृद्ध नाम का राजा था। वह विषयों में अत्यन्त आसक्त रहता था। उसने बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण नरक आयु का बंध कर लिया था जिससे वह मरकर पज्र्प्रभा नाम के चौथे नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ दशसागर तक नरकों के दु:ख भोगता रहा। उसने पूर्वभव में इसी प्रभाकरी नगरी के समीप एक पर्वत पर अपना बहुत सा धन गाड़ रखा था। वह नरक से निकलकर इसी पर्वत पर व्याघ्र हो गया। तत्पश्चात् किसी एक दिन प्रभाकरी नगरी का राजा प्रीतिवर्धन अपने प्रतिकूल खड़े हुए छोटे भाई को जीतकर लौटा और उसी पर्वत पर ठहर गया। वह वहाँ अपने छोटे भाई के साथ बैठा हुआ था कि इतने में पुरोहित ने आकर उससे कहा कि आज यहाँ आपको मुनिदान के प्रभाव से बड़ा भारी लाभ होने वाला है। वे मुनिराज वहाँ किस प्रकार प्राप्त हुए। इसका उपाय मुनि ने अपने दिव्यज्ञान से जानकर बताया। हम लोग नगर में यह घोषणा कर देते हैं कि आज राजा के बड़े भारी हर्ष का समय है इसलिए समस्त नगरवासी लोग अपने-अपने घरा पर पताकाएँ फहराओ, तोरण बांधो और घर के आंगन तथा नगरी की गलियों में सुगंधित जल सींचकर इस प्रकार पूâल बिखरे दो कि बीच में कहीं कोई स्थान खाली न रहे। ऐसा करने से नगर में जाने वाले मुनि अप्रासुक होने के कारण नगर को अपने विहार के अयोग्य समझकर लौटकर यहाँ पर अवश्य ही आयेंगे। पुरोहित के वचनों से संतुष्ट होकर राजा प्रीतिवर्धन ने वैसा ही किया जिससे मुनिराज लौटकर उन्हीं के यहाँ आ गये। पिहितास्रव नाम के मुनिराज एक महीने के उपवास समाप्त कर आहार के लिए भ्रमण करते हुए क्रम-क्रम से राजा प्रीतिवर्धन के घर में प्रविष्ट हुए। राजा ने उन्हें विधिपूर्वक आहारदान दिया जिससे देवों ने आकाश से रत्नों की वर्षा की और वे रत्न मनोहर शब्द करते हुए भूमि पर पड़े। राजा अतिेगृद्ध के जीव सिहं ने भी वहाँ यह सब देखा जिससे उसे जातिस्मरण हो गया। वह अतिशय शान्त हो गया, उसकी मूच्र्छा जाती रही और यहाँ तक कि उसने शरीर और आहार से भी ममत्व छोड़ दिया। वह सब परिग्रह अथवा कषायों का त्याग कर शिलातल पर बैठ गया। मुनिराज पिहितास्रव ने भी अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से अकस्मात् सिंह का सब वृत्तान्त जान लिया और जानकर उन्होंने राजा प्रीतिवर्धन से कहा कि हे राजन्! इस पर्वत पर कोई पशु श्रावक होकर (स्रावक के व्रत धारणकर) संन्यास कर रहा है। तुम्हें उसकी सेवा करनी चाहिए। वह आगामी काल में भरत क्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव के चक्रवर्ती पद का धारक पुत्र होगा और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। मुनिराज के इन वचनों से राजा प्रीतिवर्धन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने मुनिराज के साथ वहाँ जाकर अतिशय साहस करने वाले सिंह को देखा।
तत्पश्चात् राजा ने उसकी सेवा अथवा समाधि में योग्य सहायता की और यह देव होने वाला है यह समझकर मुनिराज ने भी उसके कान में नमस्कार मंत्र सुनाया। वह सिंह अठारह दिन तक आहार का त्यागकर समाधि से शरीर छोड़ दूसरे स्वर्ग के दिवाकरप्रभ नामक विमान में दिवाकर प्रभ नामक देव हुआ। इस आश्चर्य को देखकर राजा प्रीतिवर्धन के सेनापति, मंत्री और पुरोहित भी शीघ्र ही अतिशय शान्त हो गये। इन सभी ने राजा के द्वारा दिये हुए पात्रदान की अनुमोदना की थी इसलिए आयु समाप्त होने पर वे उत्तरकुरु भोगभूमि में आर्य हुए। और आयु के अंत में ऐशान स्वर्ग में लक्ष्मीमान देव हुए। उनमें से मंत्री, कांचन नामक विमान में कनकाभ नाम का देव हुआ, पुरोहित रुषित नाम के विमान में प्रभंजन नाम का देव हुआ और सेनापति प्रभानामक विमान में प्रभाकर नाम का देव हुआ। आपकी ललितांगदेव की पर्याय में ये सब आपके ही परिवार के देव थे। सिंह का जीव वहाँ से च्युत हो मतिसागर और श्रीमती का पुत्र होकर आपका मतिवर नाम का मंत्री हुआ है। प्रभाकर का जीव स्वर्ग से च्युत होकर अपराजित सेनानी और आर्जवा का पुत्र होकर आपका अकम्पन नाम का सेनापति हुआ है।
कनकप्रभ का जीव श्रुतकीर्ति और अनन्तमती का पुत्र होकर आपका आनंद नाम का प्रिय पुरोहित हुआ है तथा प्रभंजन देव वहाँ से च्युत होकर धनदत्त और धनदत्ता का पुत्र होकर आपका धनमित्र नाम का सम्पत्तिशाली सेठ हुआ है। इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर राजा वङ्काजंघ और श्रीमती-दोनों ही धर्म के विषय में अतिशय प्रीति को प्राप्त हुए। देखो! कहाँ तो परिग्रह में अति आसक्त होने से राजा भी मरकर तिर्यंचगति में व्याघ्र हुआ और कहाँ भरतचक्रवर्ती बनकर अथाह सम्पत्ति से भी विरक्त होकर क्षणमात्र में केवली बन गये थे। यह है भावों की महिमा और गुरुओं के संबोधन से वैâसे पामर जीव भी उत्कृष्ट पद को प्राप्त कर लेते हैं। राजा वङ्काजंघ के साथ वाले चारों मंत्री और चारों पशुओं का संबंध आगे मोक्ष जाने तक इनके साथ जुड़ा रहा है। अर्थात् ये सभी आगे तीर्थंकर पुत्र बनकर मोक्ष गये हैं। देखो! आहारदान के देखने मात्र से इन सभी का कल्याण हो गया। इसी संदर्भ में मुनिराज द्वारा बताये गये नकुल (नेवला) का पूर्वभव भी बड़ा रोमांचक है, मुनि श्री वहाँ कहते हैं- हे राजन्! यह नकुल (नेवला) भी पूर्वभव में इसी सुप्रतिष्ठित नगर में लोलुप नाम का हलवाई था। वह धन का बड़ा लोभी था। किसी समय वहाँ का राजा जिनमंदिर बनवा रहा था और उसके लिए वह मजदूरों से र्इंटें मंगाता था। वह लोभी मूर्ख हलवाई उन मजदूरों को कुछ पुआ वगैरह देकर उनसे छिपकर कुछ र्इंटें अपने घर में डलवा लेता था। उन र्इंटों के फोड़ने पर उनमें से कुछ में सुवर्ण निकला। यह देखकर इसका लोभ और भी बढ़ गया। उस सुवर्ण के लोभ से उसने बार-बार मजदूरों को पुआ आदि देकर उनसे बहुत सी र्इंटें अपने घर डलवाना प्रारंभ किया। एक दिन उसे अपनी पुत्र के गाँव जाना पड़ा। जाते समय वह पुत्र से कहा गया कि हे पुत्र तुम भी मजदूरों को कुछ भोजन देकर उनसे अपने घर र्इंटे डलवा लेना। यह कहकर वह तो चला गया परन्तु पुत्र ने उसके कहे अनुसार घर पर र्इंटें नहीं डलवाई। जब वह दुष्ट लौटकर घर आया और पुत्र से पूछने पर जब उसे सब हाल मालूम हुआ तब वह पुत्र पर बड़ा क्रोधित हुआ। उस मूर्ख ने लकड़ी तथा पत्थरों की मार से पुत्र का शिरफोड़ डाला और उस दु:ख से दु:खी होकर अपने पैर भी काट डाले। अन्त में वह राजा के द्वारा मारा गया और मरकर इस नकुल पर्याय को प्राप्त हुआ है। वह हलवाई लोभ के उदय से ही इस दशा तक पहुँचा है। हे राजन! आपके दान को देखकर ये चारों ही परम हर्ष को प्राप्त हो रहे हैं और इन चारों को ही जाति-स्मरण हो गया है जिससे ये संसार से बहुत ही विरक्त हो गये हैं। आपके दिए हुए दान की अनुमोदना करने से इन सभी ने उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया है। इसलिए ये भय छोड़कर धर्मश्रवण करने की इच्छा से यहाँ बैठे हुए हैं। हे राजन्! इस भव से आठवें आगामी भव में तुम वृषभनाथ तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे और उसी भव में ये सब भी सिद्ध होंगे और तब तक ये पुण्यशील जीव आपके साथ-साथ ही देव और मनुष्यों के उत्तम-उत्तम सुख तथा विभूतियों का उपभोग करते रहेंगे। इन तीर्थंकर महापुरुष का चरित्र जगत में शांति करे यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।