श्री मांगीतुंगी जी दिगम्बर सिद्धक्षेत्र की प्राचीनता का प्रत्यक्ष दर्शन
राम, हनु, सुग्रीव सुडील, गव गवाक्ष, नील—महानील।
कोटि निन्यानवै मुक्ति पयान, तुंगीगिरि बंदौ धरि ध्यान।।
यह वही अद्वितीय भूमि है जो प्राचीन काल से पुरातन स्मृतियों की याद दिला रही है । करोड़ों चंद्र, सूर्यों के प्रकाश से अधिक तेज केवल ज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योति को धारण करने वाले व चिरकाल संचित कर्मों को भस्म कर अनंत सौख्य जिन्होंने प्राप्त किया है तथा जिनके चरण कमल देवताओं के मस्तक किरीटों से प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ऐसे सिद्धात्माओं की सिद्धि से ही इस परम पावन भूमि का नाम सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी कहलाया। जो नैर्सिगक शोभा को धारण करते हुए स्वयंपूर्ण है और जिसकी व्यापकता भारत भर में प्रसिद्ध है ।
श्री मांगीगिरि
उत्तर दिशा की ओर एक पर्वतराज हैं, जिसकी दो चूलिका हैं प्रथम मांगीगिरि व द्वितीय श्री तुंगीगिरि के नाम से प्रसिद्ध हैं, जो देखने में अद्वितीय है। यह पहाड़ी क्षेत्र ‘गालना हिल्स’ कहलाता है। मांगीगिरि समुद्र सतह से ४३४३ फुट ऊँचाई पर और तुंगीगिरि ४३६६ फुट ऊँचाई पर है। दोनों पर गुफाएँ हैं। ऊपर गगनचुंबी प्राकृतिक शिखर हैं। श्री मांगी जी पर सीता गुफा, श्री महावीर गुफा, श्री आदिनाथ गुफा, श्री शांतिनाथ गुफा, श्री पार्श्वनाथ गुफा व रत्नत्रय गुफा है । इन गुफाओं के अंदर उन महान् पुरुषों की मूर्तियाँ खड्गासन व पद्मासन में विद्यमान हैं। खड्गासन मूर्तियों का शुद्ध बिम्ब रूप हैं, जिसके हाथ के पिच्छी व कमंडलु अंकित हैं तथा पद्मासन मूर्तियों में तीर्थंकर भगवान की कई मूर्तियाँ हैं। कई यक्ष यक्षिणीयों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं तथा एक जगह खड्गासन दिगम्बर जैनाचार्यों की कई मूर्तियाँ व उनके सामने कई चरण विराजमान हैं, तथा दूसरी ओर एक छत्री बनी हुई है, जिसके अन्दर एक विशालकाय खड्गासन मुनिराज की शांत स्वरूप नग्न दिगम्बर मूर्ति विद्यमान हैं। उसके बाद बलभद्र गुफा है । इस जगह तीन छत्रीयाँ पर्वत के पाषाण की बनी हुई हैं। इसके बाजू में तथा अन्दर कई मूर्तियाँ अंकित हैं। प्रसिद्ध मूर्ति श्री बलभद्र की मूर्ति है जो श्री नारायणकृष्ण जी के बड़े भ्राता थे। इनकी मूर्ति के दर्शन एक ओर सन्मुख पद्मासन सहित ध्यान मुद्रा में है जो फणीमंडल से वेष्टित हैं एवं दूसरी ओर उनकी पीठ के दर्शन होते हैं। इसके बाद श्री नंदीश्वर छत्री बनी हुई है इस छत्री के अन्दर चारों दिशाओं की ओर चार मूर्तियाँ एक ही पाषाण के अन्दर विद्यमान है। इसके आगे श्री क्षेत्रपाल जी की छत्री बनी है । ये सभी मूर्तियाँ अति प्राचीन एवं पर्वतराज के अंगीभूत उकेरी हुई हैं। गुफाओं के बाहर तथा शिखर की प्रदक्षिणा की ओर सैकड़ों मूर्तियाँ दो—दो, तीन—तीन मंजिली ऊँची बनी हुई है । इनमें से प्राचीनता के कारण पर्वत के ऊपर पानी की पांच टंकी बनी हुई हैं तथा पुजारी आदि के रहने के लिये कमरे बने हुए हैं। गिरिराज के शिखर पर चढ़ने वाले व्यक्तियों ने बताया कि कई जगह ऐसी गुफाएँ निर्मित हैं, जहाँ पर दस—दस, बीस—बीस योगीश्वर निजानंद रस से गहन ध्यानस्थ हुए हैं। यहाँ से श्री तुंगीगिरि की ओर जाने का मार्ग है रास्ते में दो संगमरमर की सुन्दर छत्रियाँ नवर्नििमत हैं, जिसमें प्राचीन चरण विराजमान है । पास ही में श्रीकृष्ण की पार्थिव देह का अग्नि संस्कार यहीं किया हुआ है जिसको ‘कृष्णकुंड’ कहते हैं। इसी के आगे श्री तुंगीगिरि आता है ।
श्री तुंगीगिरि
यहाँ पर प्रथम श्री रामगुफा और दूसरी गुफा श्री चंद्रप्रभुजी के नाम की है। इन गुफाओं के अंदर श्री रामचंद्रजी, श्री हनुमानजी, श्री सुग्रीव जी, श्री सुडीलजी, श्री गवजी, श्री गवाक्ष जी, श्री नील, श्री महानील जी की मूर्तियों के साथ। तीर्थंकर भगवंत की मूर्तियाँ विराजमान हैं। यहाँ पर विशेषत: मूर्तियाँ पद्मासन एवं गिरिराज के अड्गभूत विद्यमान हैं तथा यक्ष—यक्षणियों की मूर्तियाँ तथा केशर घिसने का पाषाण भी बना हुआ है। लौटते वक्त दोनों ही पर्वतों के मध्य से उतरने का मार्ग है। अब तो यह रास्ता बहुत सरल सीढ़ियाँ निर्मित होने से सुगम एंव सुन्दर बन गया है। इसी रास्ते में श्री सुद्धबुद्ध मुनिराज के नाम से दो प्रसिद्ध गुफाएँ हैं। इन गुफाओं के अन्दर पद्मासन विशाल मूर्ति भगवान मुनि सुव्रतनाथ स्वामी की विद्यमान है । मध्य में २४ मूर्तियाँ हैं जो पद्मासन एवं खड्गासन में विराजमान हैं। बहुत सी प्रतिमाओं के साथ भगवान बाहुबली की प्रतिमा भी है। प्रतिमाओं के ऊपर यक्ष देवों का नृत्य शोभायमान हो रहा है। कई इन्द्र चंवर ठोर रहे हैं। कोई हाथी पर तो कोई सिंह पर सवार है। इस प्रकार की अवर्णनीय कला है। इस परम पावन भूमि से करोड़ों महात्माओं ने तपश्चरण कर केवल ज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योति को धारणकर व चिरकाल से संचित कर्मों को भस्मकर अनंत सौख्य स्वरूप निर्वाण पद को प्राप्त किया है। ऐसे श्री रामचंद्र, श्री सुग्रीव, श्री सुडील, श्री गव, श्री गवाक्ष, श्री नदल, श्री महानील आदि निन्यानवे कोटि दिगम्बर पुरुष तरण तारण ऋषिराजाओं ने शुद्धात्म योग धारणकर यथास्थान यथेष्ट चिदानंद चिद्रूप, अमृत पद को प्राप्त किया। श्री रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराण पृष्ठ २५६ हस्तिलिखित से—
राम जिनेसुर करत विहार। भव्य समूह उतारे पार।।
अति समय तुंगीगिरि गये। शेष करम चारूं छेदये।।
मोक्ष सुथांनि पहुंचे जाय। शाश्वत धर्म जहाँ अधिकाय।।
श्री निर्वाण कांड भाषा से—राम, हनु, सुग्रीव, सुडील।
इन महान् पुरुषों के चरित्र पद्मपुराण में दिये गये हैं। धन्य है श्रीराम के साथियों की, जिन्होंने राजकीय जीवन में प्राण प्रण से साथ दिया, जिस पथ को भगवान राम ने स्वीकारा उसी को श्री हनुमान आदि ने सरागता को छोड़कर वैराग्यता को धारण किया। घोर तपों को तपकर इसी भूमि से इन चरम शरीरी महात्माओं ने अजरामर सिद्धि प्राप्त की। इसलिये इसका नाम श्री तुंगीगिरि सिद्धक्षेत्र नाम से प्रख्यात हुआ। हस्तलिखित पुस्तक संवत १९०१ लेखक— लाला लक्ष्मणदास कायेत चोपडेकर अष्ट में लिखा है—
इसके अलावा श्री बलभद्र स्वामी का आहार लेने के लिये जेतापूर शहर में पदार्पण हुआ था, उस समय बताया है कि कर्मगति कितनी विचित्र रहा करती है । आहार तो नहीं मिला लेकिन अजन्म समाधि उन महान पुरुष श्री बलभद्रस्वामी ने ली। देखिये—
योबुद्धासकलागमार्थममलं, वैराग्य मुन्यादयत।
क्षात्वा र्वजर्नैिवसुधमनसा, दिलागृहंत्वापरा।।
सम्यग्दर्शनंज्ञानपूर्वक महाचारीच सपालयन्।
देव श्री बलिभद्र सर्व महितं, भक्त्यामया संस्तुवे।।
सुधनीर्वेगजनीन द्रुतीसापा दुघ्र्दरष्टत संयम वे यदु भारं।।
उपरोक्त कथन से विदित होता है कि श्री बलभद्रस्वामी तुंगीगिरि से पंचम स्वर्ग गये हैं। लेकिन मूर्ति श्री मांगी पहाड़ पर बनी हुई है । इससे तो सिद्ध हुआ कि पहले समय में श्री मांगीगिरि नाम न होकर श्री तुंगीगिरि ही होना चाहिये शास्त्रों में भी श्री तुंगीगिरि का उल्लेख है । अतीतकाल से यह क्षेत्र प्राचीन है । प्राचीनता की द्योतक गिरिराज की मूर्तियाँ हैं, गिरिराज का पाषाण अति मजबूत होकर हजारों वर्ष तक टिक सकता है लेकिन मूर्तियों का जब प्रक्षालन करते हैं, तब वह रेती की तरह बिखरने लगती है । कितना जर्जर पाषाण हो गया है तथा श्री मांगीराज के ऊपर हर मूर्तियों पर शिलालेख अंकित है । जो प्राचीनता के कारण बहुत से मिट गये हैं कुछ दिखते हैं। संवत ६५१ की प्रतिष्ठित कई जगह मूर्तियाँ हैं तथा श्री आदिनाथ गुफा के अंदर पर्वत के अंगीभूत एक बहुत बड़ा शिलालेख है जिस पर संवत नहीं है । जिसकी भाषा संस्कृत है, शिलालेखों में उन परम तपस्वी जो कि प्रसिद्ध महान आचार्य हो गए हैं, उनके नाम पाए जाते हैं तथा प्रतिष्ठित है ।
क्षेत्र की प्राचीनता व्यक्ति की नाम जो ठीक तरह से पढ़ते नहीं आता। एक जगह पर श्री नग्न दिगम्बर खड्गासन ध्यानस्थ मूर्तियां हैं उनके नीचे सहनाम हैं—श्री रत्नर्कीित, देवी श्री अमरकीर्ति आदि तथा शांतिनाथ गुफा के बाहर एक शिलालेख है। ऊपर मूर्तियाँ है उनके नीचे श्री कुन्दकुन्द आमनाय प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक व प्रतिष्ठाकारक श्री चिनीयाराजा वीरमसेन, प्रधानसेन, कनकसेन तथा उनकी भार्याओं का नाम दिया है। इसमें संवत भी है पर ठीक तरह से पढते नहीं आता। महाराज वीरमसेन मुल्हेर नगर में राठोड़ वंश के राजा थे। ६५० वर्षों तक राठौड़ वंशिय राजपूत राजाओं ने मुल्हेर पर राज्य किया था यह करीब ४०० वर्ष पहले हो गए हैं। मुल्हेर के प्राचीन इतिहास में लिखा है। महाराजा वीरमसेन को कहीं पर भी लड़ाई के लिए जाना होता तो वे उनके इष्ट देव चक्रेश्वरी देवी को नमस्कार कर के ही जाते थे उन्होंने श्री मंगेश्वर और तुंगेश्वर पहाड़ों के ऊपर जाकर बड़े—बड़े मंदिरों की स्थापना कराई। श्री आदिनाथ गुफा के अंदर संवत् १४०० का पर्वत के पाषाण का दीवार में चूने में लगाया हुआ बोर्ड है । यात्रार्थ आने वाले संघ का नाम है तथा हजारों वर्ष पहले बना हुआ एक प्राचीन रास्ता है। श्री तुंगीगिरि के ऊपर कोई शिलालेख नहीं है। श्री सुद्धबुद्धजी की गुफाओं की मूर्तियों की बनावट व यहाँ की बनावट में समानता है। इस प्रकार हजारों वर्ष की प्राचीनता है। दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों का विश्रामस्थान पहले मुल्हेर था। मुल्हेर आज का ग्राम पहले बड़ा भारी शहर था। करीब १५० वर्ष पहले ब्रिटिशों की आमदनी में भी मुल्हेर शहर गजीटेड था। बहुत घर जैनियों के थे। यात्रियों के लिये धर्मशालायें भट्टारकजी का निवास स्थान बड़े—बड़े जैन मंदिर आदि थे। दशाहुम्मड दिगम्बर जैन भाईयों की बड़ी संख्या उस समय थी। उस समय की धर्मशाला व मंदिर सभी गिर गये। सिर्पक एक धर्मशाला जिसमें अभी स्कूल है तथा भट्टारकजी का निवास स्थान गिर गया है जिसे नीचे तलघर अभी भी सुरक्षित है । विक्रम संवत् १८२२ में बेटावद निवासी संघवी वेणीदास जी दशाहुम्मड ने श्री मांगीतुंगीजी का एक संघ निकालकर मुल्हेर नगर में श्री जिनिंबब प्रतिष्ठा कराई थी। जिसका शिलालेख वर्तमान में अमलनेर के निकट मांडल ग्राम के श्री जिनालय में चौबीस प्रतिमाजी के ऊपर विराजमान है तथा काल दोष के प्रभाव से मुल्हेर निवासी दिगम्बर जैन सभी इधर—उधर चले गए वहाँ की जिन प्रतिमा खानदेश के कुसुंबा ग्राम के मंदिर में है जो बहुत प्राचीन है। यात्रियों की व्यवस्था ईडर गादी के भट्टारक जिनका वास्तव्य मुल्हेर में भी रहता था, द्वारा होती थी।
गिरिराज के शिखर का नवीन शोध करीब २४ वर्ष से दो व्यक्ति श्री मांगीगिरि के शिखर पर चढ़ते हैं व ध्वजा लगाई उसके बाद एक व्यक्ति जाति का कोंकणी था हर वर्ष मेले पर अपने घर से घी लाकर दिया जलाता था जो नीचे से दिखता था। वह बतलाता है कि ऊपर चरण विराजमान है एक बड़ी भारी गुफा है दो वृक्ष हैं तथा मोगरे के फूल हैं। हर व्यक्ति को शिखर पर चढ़ने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। यदि कोई दानी शिखर पर चढ़ने की सीढ़ियाँ बनवा देवे तो वहाँ जिनालय उन चरण पादुकाओं की रक्षणार्थ बना सकते हैं। यह शिखर करीब २०० फुट ऊँचा है उसके ऊपर ३०० फुट लम्बा व ७५ फुट चौड़ा है ।
गिरिराज के आसपास के पर्वतों का संक्षिप्त परिचय
श्री मांगीगिरि पर्वत के पास घाण्यागढ़ के नाम से पर्वत है । यह पर्वत उसी समय से प्रख्यात है जब श्री कृष्णजी की लाश लेकर श्री बलभद्र जी ६ माह तक इसी जंगल में भटकते रहे उनके पूर्व भव के हितैषी देव ने इसी पर्वत पर तेली का वेश धरकर रेती में से तेल निकालने का प्रयत्न करने लगे। उसी रास्ते बलभद्रजी जाते हैं और उस तेली वेषधारी देवता से बोलते हैं—कि मूर्ख ! रेती से कहीं तेल निकल सकता है क्या ? तो इस पर उसने बताया ‘‘महाराज मुझे मूर्ख बताने की अपेक्षा आप अपनी मूर्खता देखिये कि श्री कृष्णा की मृत देह लेकर आप इधर—उधर भटक रहे हैं। श्री बलभद्र जी मोह में इतने आसक्त व भाई के प्रेम में इतने तल्लीन थे कि देवता से कहा कि मेरा भाई कृष्ण मरा नहीं है जिंदा है। उसी समय से इस पर्वत का नाम घाण्यागढ़ पड़ा है।
कंचनपुर का किला — पास ही एक बहुत बड़ा दूसरा पर्वत है जिसके आस पास हजारों केलों के खेत हैं। वहाँ एक बहुत बड़ा विशाल किला बना हुआ है। चढ़ने के लिये पर्वत में ही सीढ़ियाँ बनी हुई हैं कई बड़े—बड़े सुंदर जलाशय हैं, जाई, जुई के कई फूलों के वृक्ष हैं। बड़ा सुन्दर जंगल है इसकी लहरी में बड़ा भारी पहले जमाने में कंचनपुर का शहर था। आज भी पुराने खंडहर दृष्टिगोचर होते हैं। आदिवासी लोग कंचनपुर का किला कहकर इसे पुकारते हैं।
डोंगरिया देव की गुफाये पश्चिम की ओर श्री मांगीगिरि से मिली हुई एक गुफा है जिसको भिल्ल कोंकणी आदिवासी डोंगरादेव की गुफा के नाम से पहचान करते हैं। मार्गशीर्ष सुदी १५ को उनका मेला भरता है, पुरानी रिपोर्ट में छपा हुआ है कि एक महाशय को गुफा के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्होंने बताया कि पहाड़ पोला है अन्दर पानी से पार होकर वह गये तो अंतरिक्ष रत्नों की प्रतिमा िंसहासन पर विराजमान देखी। पूजा के भाव हुए (दर्शनकर अपने को कृत—कृत्य समझा) बाजू में धुले अष्ट द्रव्य पड़े हुए हैं। चार बजे वापिस आये। आज से ४० वर्ष पहले (सन् १९०५ में) जो व्यक्ति शिखर पर चढ़े थे उन्होंने उन गुफाओं में प्रवेश किया उसका एक साथी भी था, जिसे खोजा गया परन्तु मिल नही पाया।
श्री मांगीजी तुंगीज का नाम कैस पड़ा पश्चिम की ओर एक मांगी गांव था शब्द का अपभ्रंश होकर उसे अभी मंडाणा कहते हैं और पूर्व में शिखर के नीचे तुंगी गांव था। यह दोनों बड़े गांव थे आज तुंगी को तुंगन कहते हैं हमारे अंदाज से गाँवों के नाम से पहाड़ का नाम पुकारने लगे।
श्री गिरिराज की तलहटी में मंदिर व धर्मशालाएँ
ईडर निवसी पूज्य भट्टाकजी महाराज को मुल्हेर नगर से जैनी चले जाने से चिंता उत्पन्न हुई। उन्होंने विक्रम संवत् १८७० में पं. ऋषभदास जी को भेजकर गिरिराज की तलहटी में एक धर्मशाला निर्माण कराई जो अभी तक विद्यमान है और एक लकड़ी का सिंहासन बनवाकर श्री जिन प्रतिमाजी दर्शन पूजन के लिये विराजमान की गई। उसके बाद विक्रम संवत १९०४ में कारंजा के पट्ठाधीश श्रीमत् श्री देवेन्द्र कीर्ति जी भट्टारक तत् शिष्य मण्डलाचार्य ब्र: रत्नसागरजी का शुभागमन हुआ आपके सदुपदेश से सोलापुर निवासी सुप्रसिद्ध सेठ उत्तरेश्वर गोत्री गांधी देवकरण सुत नाथूराम भ्राता हरिशचन्द्र आपने एक शिखर बन्दी विशाल जिनालय का निर्माण कर विक्रम संवत् १९१५ में माघ शुक्ल ५ को पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई। तदनंतर बार्शी निवासी सेठ तुलजाराम तस्य भार्या केशरबाई बड़ जाते ने एक दूसरा जिनालय निर्माण कराकर विक्रम संवत् १९२७ में पंचकल्याण प्रतिष्ठा करायी। विक्रम संवत् १९७६ में श्री शाह जीवराज ताराचंद सोलापुर निवासी श्री मूलनायक आदिनाथ जी भगवान को विराजमान कर पंचकल्याण प्रतिष्ठा कराई। विक्रम संवत् १९९७ में कन्नड निवासी श्री सेठ मोतीलाल जी कन्हैयालाल जी ने मान स्तंभ बनवाकर पंच कल्याणक प्रतिष्ठा करायी। कई दानियों ने यात्रियों को निवास के लिए करीब ३१ कमरे बनवाये हैं चारों ओर कम्पाउंड बना हुआ है ।
नवनिमित सीढ़ियाँ — श्री दानवीर सेठ गजराज जी गंगवाल कलकत्ता के सद प्रयत्न से करीब पौने दो लाख रुपये प्रदान कर चढ़ने के लिये मार्ग पर सीढ़ियाँ बनाई गयी।
क्षेत्र कमेटी — श्री १०५ क्षुल्लक धर्मदास महाराज के सदप्रयत्न से विक्रम संवत १९४७ से एक पंचकमेटी की स्थापना की। स्व. शाह पितांबरदास नानासा जी पारोला निवासी को सर्वेसर्वा कमेटी में नियुक्त किया गया। आप इस प्रान्त के प्रसिद्ध व्यक्ति कहे जाते थे क्षुल्लक धर्मदास जी महाराज का जब क्षेत्र में शुभागमन हुआ तक कोई कमेटी क्षेत्र पर नहीं थी। श्री भट्टारकजी महाराज चल दिये थे करीब एक वर्ष तो ऐसा होता रहा है कि भिल्ल लोग आरती उतारते थे। उपोरक्त क्षुल्लक महाराज ने पर्चे छपाये और सभी आसपास के सहधर्मी भाइयों को एकत्रित करके पंच कमेटी की नियुक्ति की। आज इस कमेटी में ९ सदस्य हैं।
मुल्हेर का किला
यहाँ पर पुराने राजाओं की हजारों वर्षों तक राजधानी रही। पर्वत पर बड़े—बड़े सरोवर हैं। प्रसिद्ध पानी की टांके हैं तथा चढ़ने का मार्ग बना हुआ है। श्री महादेव जी के कई मंदिर है उस पर चकश्वरी देवी की मूर्ति व घुड़सवार आदि प्राचीन चीजें भी दिखाई देती हैं। पहले तलहटी में हजारों जैन धर्म के पालक थे आज एक ग्राम के रूप में रह गया है ।
वार्षिक मेला — हर साल र्वािषक मेला र्काितक सुदी १३ से १५ तक भरता है । उस समय क्षेत्र की धर्मशाला से दो फर्लांग की दूरी पर रथ में श्री जी की मूर्ति विराजमान कर ले जाया जाता है । वहाँ १०८ कलशों से पंचामृत अभिषेक होता है । महोत्सव में आसपास के सभी भाई एकत्रित होते हैं। जैनेतर हजारों लोग एकत्रित होते हैं। कई जगह से डीडीयाँ आती है मराठी में श्री मांगीतुंगी जी के लोग भजन बोलते हैं। रथ के आगे डीडीयाँ चलती है जो कि अभिषेक के स्थान पर आकर बहुत धूमधाम से नृत्य करते हैं। बाहर से बहुत सी दुकानें आती हैं। हजारों लोग नारियल फोड़कर पहाड़ व मंदिरों के दर्शन कर अपने आप को धन्यभागी मानते हैं।
जीवन की महान कसौटी — भव्य आत्माओं की सानंद यात्रा हो जाती है । जिनके अपार पुण्य की महिमा है ऐसे यात्रीगणों को भी मैंने प्रत्यक्ष में देखा है। गिरिराज के बीच में चढ़ते वक्त वह बेभान हो जाते हैं। रास्ता टटोलने लगते हैं दो नेत्र होकर भी आगे का रास्ता नहीं दिखाई देता। नीचे की ओर देखते हैं तो रास्ता दिखाई देता है। अनेक प्रयत्न करने पर भी उन्हें यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। भाग्य को कोसते हुए वह अपने आप को दुर्भाग्यशाली समझकर वापस लौट जाता है ।
देव दुन्दुभी — सन् १९७८ में एक यात्रा संघ जयुपर से आया था। अष्टमी का समय था। करीब सौ यात्रीगण मांगीगिरि पर दर्शनार्थ जाते हैं सबसे आगे वसंतकुमार नाम का नवयुवक आगे चलता था वहाँ पर शेर बैठा था। उन्होंने उसे देखा और वह भागते हुए वापिस सीताजी के चरण के पास आए और आने वाले यात्रियों से कहा—ऊपर बहुत बड़ा शेर बैठा है । सभी लोग स्तब्ध हो गये कुछ समय तक वहीं बैठे रहे। उसके पश्चात् सभी लोग जाते हैं तो शेर विलायमान हो गया था। सभी दर्शन करके तुंगीगिरि की ओर जाते हैं प्रथम टोंक पर लोहे का खंबा लगा हुआ है। वहाँ पर करीब ६० यात्रीगणों ने सहस्त्रों प्रकार की वाद्य ध्वनि सुनी। दूसरे दिन ग्वालियर के यात्री गणों ने भी इसी प्रकार की वाद्यध्वनि सुनी और वह यात्रीगण क्षेत्र के विजिटर्स बुक में जितने वाद्यों के नाम ले सकते थे उतना लिखकर बाकी अपनी समझ के बाहर हैं ऐसा लिख कर गये हैं। इसके पूर्व भी कई यात्रियों ने वाद्यध्वनि व हजारों स्त्री पुरुषों के एक साथ गाने की आवाज सुनी है ।
क्षेत्र पर पहुँचने का मार्ग एवं दूरी — (इस परम पावन महान भूमि पर दिगंबर जैनियों के सिवाय किसी का कोई प्रकार का आडंबर नहीं है । जिधर देखो उधर दिगम्बरत्व ही दिखाई देता है) क्षेत्र में आने का मार्ग मनमाड़ रेलवे स्टेशन से मोटर बस द्वारा सटाणा होते हुए ताहाराबाद सूतर गुजरात से आने वाले को नवापुर, पिंपलनेर होते हुए ताहाराबाद तक आकर बस द्वारा पहुँचाा जाता है । सूरत से यह क्षेत्र २२५ किमी पर है । क्षेत्र के लिये मालेगांव बस डिपो से दो बसें, मनमाड़ से एक, शिरपुर (धुलिया) से एक व नासिक से एक बस प्रतिदिन चलती है । इसके अलावा तहाराबाद से निजी वाहन चलते रहते हैं। ताहाराबाद से यह क्षेत्र १० किमी पर है ।
मांगीतुंगी जी सिद्धक्षेत्र परिचय एवं पूजा , पेज नं. ५-१५