जैन दर्शन में जीवों की उत्पत्ति एवं उनके जन्म के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन मिलता है। कुछ जीवों के सम्मूच्र्छन जन्म सम्बन्धी जैनों की अवधारणा पूर्णत: मौलिक एवं विशिष्ट है, लेकिन इस सम्बन्ध में व्यापक भ्रम एवं शंकायें हैं। जैन दर्शनानुसार चार इन्द्रिय तक के सभी जीवों तथा कुछ पंचेन्द्रिय जीवों का जन्म सम्मूच्र्छन रीति से होता है। चींटी, मच्छर आदि कीटों को चार इन्द्रिय तक के जीव होने के कारण इन्हें भी सम्मूच्र्छन जीव माना गया है। मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय जीवों को भी सम्मूच्र्छन माना गया है। यह भी अवधारणा हैं कि सभी सम्मूच्र्छन जीव नंपुसक ही होते हैं, अत: उनमें नर तथा मादा का भेद भी नहीं होता है। लेकिन आमतौर पर चींटी के अण्डे देखे जाते हैं तथा यह भी सर्वविदित है कि मलेरिया नामक रोग मादा मच्छर के काटने से होता है। इन शंकाओं का हल हम जीव—विज्ञान से पा सकते हैं। आज विज्ञान न इतनी तरक्की कर ली है कि उसने हजारों—हजार पशुओं/मच्छर तथा कीटों की प्रजातियों को खोज निकाला है। इतना ही नहीं, प्रतिवर्ष औसतन सात—आठ हजार नई प्रजातियाँ सामने आ रही हैं। इन प्रजातियों के जीवन, उनके व्यवहार आदि के बारे में भी पूर्ण जानकारी उपलब्ध है। अत: हमको जीवों के जन्म सम्बन्धी अवधारणा को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुये पहले जीवों के जन्म सम्बन्धी जैनों की अवधारणा प्रस्तुत की जा रही है, तथा उसके बाद वैज्ञानिक आधार को प्रस्तुत करेंगे। इसके बात ही तुलनात्मक अध्ययन द्वारा भ्रम तथा शंकाओं को दूर किया जा सकेगा।
(२) जैन दर्शनानुसार जन्म के भेद
जैन दर्शन में जीवों का जन्म तीन प्रकार से होना कहा गया है—(१) सम्मूच्र्छन जन्म, (२) गर्भ जन्म तथा (३) उपपाद जन्म।१,२ इधर—उधर के परमाणुओं के मिलने से तथा विभिन्न अनुकूल वातावरण से जो जन्म होता है उसे सम्मूच्र्छन जन्म कहते हैं। रति क्रिया के बाद नर तथा मादा के क्रमश: वीर्य और रज के संयोग से जो जन्म होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं। निश्चित उपपाद शय्याओं पर जो जन्म होता है उसे उपपाद जन्म कहते हैं। गर्भजन्म वाले जीवों को तीन भागों में बाँटा गया है—(१) पोतज, (२) अण्डज तथा (३) जरायुज। जिनके शरीर के साथ गर्भ में थैली आदि का कोई आवरण नहीं रहता है तथा उत्पन्न होते ही चलने लगते हैं, जैसे—सिंह, व्याघ्र, आदि ऐसे जीव पोतज कहलाते हैं। अण्डे से जिनका जन्म होता है ऐसे पक्षी आदि अण्डज कहलाते हैं। जिनके शरीर के साथ मांस की थैली का आचरण होता हे, जैसे—मनुष्य, गाय, भैंस आदि जरायुज कहलाते हैं। देव तथा नारकियों की उपपाद शय्याएं निश्चित हैं। उन पर आत्मा के प्रवेश जब पहुँचते हैं तब अन्ततुहूर्त (लगभग ४८ मिनट) में पूर्ण शरीर की रचना अपने आप हो जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य जितने भी जीव हैं उनका जन्म सम्मूच्र्छन रीति से ही होता है।
२.१ सम्मूच्र्छन जीव— जैन दर्शन में एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के सभी जीव तथा कुछ पंचेन्द्रिय जीवों का जन्म सम्मूच्र्छन रीति से होना बताया गया है।३ जो जीव सम्मूच्र्छन जन्म से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूच्र्छन जीव कहलाते हैं। ये जीव नपुसंक ही होते हैं। इनमें नर तथा मादा के भेद का अभाव होने से ये रतिक्रिया ही नहीं कर सकते हैं, अत: इनका जन्म गर्भ से मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। एक सामान्य बात देखने में आती है कि पुराने चावलों में लट तथा पुराने गेहूँ में सुरैरी (घुन) पड़ जाती है। चारपाईयों में खटमल, बालों में जूँ मरे हुय जीव—जन्तुओं में लटें तथा पेट में पटेरे हो जाते हैं। इसी प्रकार बरसात के दिनों में मच्छर हो जाते हैं, तथा शक्कर आदि के फैल जाने पर चींटी आदि हो जाते हैं। इन सभी जीवों को सम्मूच्र्छन की श्रेणी में रखा गया है क्योंकि ये सभी अनुकूल परिस्थितियों में पैदा होते देखे जाते हैं। एक रोचक बात यह भी है कि मेंढ़क तथा मछलियों को भी इसी श्रेणी में रखा गया है क्योंकि ये बरसात के दिनों बहुत अधिक संख्या में पाये जाते हैं। बहुत सूक्ष्म आकार बोले सम्मूच्र्छन मनुष्य भी होते हैं जो कि असैनी होते हैं तथा स्त्री की काँख के मल में उत्पन्न होते हैं। स्वयंभू रमण समुद्र में पाये जाने वाले महामत्म्य जिनकी लम्बाई हजार योजन की होती है, भी सम्मूच्र्छन रीति से जन्म लेते हैं। लेकिन कुछ आचार्यों के अनुसार कहीं—कहीं मत्स्यों के अंगों में वयभिचार भी देखा जाता है। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं कि चार इन्द्रिय तक के सभी जीव सम्मूच्र्छन जन्म वाले होते हैं। यहाँ दो, तीन तथा चार इन्द्रिय जीवों के कुछ उदाहरण देना उचित होगा। जिस जीव के स्पर्शन और रसना, ये दो इन्द्रियां होती हैं, उसे दो इन्द्रिय जीव कहते हैं : जैसे—लट, केचुआ, सीप, कोंड़ी, जोंक और शंख आदि। जिसके स्पर्शन, रसना और घ्राण, ये तीन इन्द्रियां होती है, उसे तीन इन्द्रिय जीव कहते हैं जैसे : कानखजूरा, चींटी, बिच्छू, खटमल, जूँ, घुण, (घुन, सुरैरी), इन्दुगोप और िंगजाई आदि। जिसके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु, ये चार इन्द्रियाँ होती हैं, उसे चार इन्द्रिय जीव कहते हैं जैसे भौंरा, बर्र, मक्खी, डांस और टिड्डी आदि। ये सभी जीव तो सम्मूच्र्छन होते हैं ही, इनके अतिरिक्त मछली तथा मेंढक जैसे पंचेन्द्रिय जीव भी सम्मूच्र्छन होते हैं। इस वर्गीकरण की समीक्षा आगे प्रस्तुत करेंगे। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि चींटी का जन्म सम्मूच्र्छन रीति से होता है। यहाँ धवलाकार ने स्वयं एक शंका यह प्रस्तुत की है कि ‘चींटी आदि के अण्डे देखे जाते हैं, अत: इनका गर्भ—जन्म ही होता है, सम्मूच्र्छन नहीं’। इस शंका का समाधान स्वयं धवलाकार ने इस प्रकार दिया है—‘इन अण्डों का जन्म ही सम्मूच्र्छन रीति से होता है तथा फिर अण्डों से चींटीं बाहर निकलती है’।
२.२ वनस्पतिकायिक जीव— सभी एकेन्द्रिय जीव स्थावर कहलाते हैं। ये पांच प्रकार के होते हैं—(१) पृथ्वीकायिक, (२) जलकायिक, (३) अग्निकायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक। सभी स्थावर सम्मूच्र्छन होते हैं। यहाँ हम सिर्पक वनस्पति कायिक जीवों की कुछ चर्चा करेंगे। वनस्पति के सात भेद होते हैं८
(१) मूल बीज — जिनका मूल अर्थात् जड़ ही बीज हो (जो जड़ के बोने से उत्पन्न होती है) वे मूल बीज कही जाती हैं, जैसे—अदरक, हल्दी आदि।
(२) अग्र बीज — अग्रभाग ही जिनका बीज हो (अर्थात् टहनी की कमल लगाने से जो उत्पन्न हो) वे अग्र बीज हैं, जैसे—गुलाब, आर्यक, अदीची आदि।
(३) ”’पर्व बीज — पर्व ही है बीज जिनका वे पर्व बीज है, जैसे—गन्ना, बेंत आदि।
(४) कन्द बीज —जो कन्द से उत्पन्न होती हैं, वे कन्द बीज हैं, जैसे—आलूख् सूरण आदि।
(५) स्कन्ध बीज — जो स्कन्ध से उत्पन्न होती हैं, वे स्कन्ध बीज हैं, जैसे—ठाक, सलरि, पलाश आदि।
(६) बीज रूह — जो बीज से उत्पन्न होती हैं, वे बीज रूह हैं, जैसे—चावल, गेहूँ, चना आदि।
(७) सम्मूच्र्छन —जो नियत बीज आदि की अपेक्षा से रहित, केवल मिट्टी और जल के सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं उनको सम्मच्र्छन वनस्पति कहते हैं, जैसे—फूई, काई, घास आदि। उपर्युक्त सातों प्रकार की वनस्पतियाँ सम्मूच्र्छन ही होती हैं, गर्भज नहीं।
२.३ सम्मूच्र्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंच —जैसा कि ऊपर जिक्र किया है कि कुछ पंचेन्द्रिय जीव जैसे—मछली, मेंढ़क, कछुआ आदि भी सम्मूच्र्छन होते हैं। इसके बारे में विशेष बात यह है कि ये संज्ञी और पर्याप्तक होते हैं तथा संयम भी पालन कर सकते हैं।
२.४ योनियाँ
जीवों की कुल चौरासी लाख योनियाँ होती हैं। उनमें से दस लाख योनि प्रत्येक वनस्पति की होती हैं। दो इन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीवों की कुल योनियाँ १८ लाख, पंचेन्द्रिय निर्यंचों की चार लाख तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ होती हैं।१० योनि वस्तुत: वह स्थान है जहाँ जीव जन्म लेता है। एक प्रकार की योनि से एक प्रकार की ही प्रजाति पैदा होती है। ==
(३) प्रजनन सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्य
प्रजनन (Reproduction) वह प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य, पशु तथा वनस्पति स्वजाति को उत्पन्न करते हैं। किसी भी प्रजाति (Species) का जीवित रहना प्रजनन पर ही आधारित है। यदि किसी प्रजाति विशेष में प्रजनन किसी कारण से रुक जाए या फिर प्रजनन की दर उसके जीवों की मृत्यु दर से कम हो जाये, तो वह प्रजाति नष्ट हो जाती है। आज तक अनेकों प्रजातियाँ इसी कारण से नष्ट हो चुकी हैं। प्रजनन मुख्यत: दो प्रकार स होता है—(१) योनिज (Sexual), तथा (२) अयोनिज (Asexual)। योनिज प्रजनन में नर तथा मादा मैथुन क्रिया करते हैं, तथा फिर नर के शुक्राणु (Sperm) मादा के अण्डाणु या डीब (Egg) को निषेचित कर देते हैं तो जीव की उत्पत्ति हो जाती है। आयोनिज प्रजनन में जीव अपने स्वयं के टुकड़े करता है, या फिर किसी अन्य द्वारा उसके टुकड़े करे जाते हैं, फिर ये टुकड़े बढ़कर पूर्णरूप धारण कर लेते हैं। जो प्रजाति आयोनिज प्रजनन करती है उसमें नर या मादा का भेद नहीं होता है। मनुष्य, सामान्यत: सभी उच्च श्रेणी के पशु तथा वनस्पतियों में आयोनिज प्रजनन ही होता है। योनिज प्रजनन एक क्लिष्ट प्रक्रिया है। जिन पशुओं तथा वनस्पतियों में योनिज प्रजनन होता है उनमें प्रजनन अंग होते हैं। ये प्रजनन अंग सैक्स सैल्स (Sex calls) उत्पन्न करते हैं जिन्हें गमेट्स (Gamets) कहते हैं। नर के गमेट्स को शुक्राणु तथा मादा के गमेट्स को डीब (Ovem) कहते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि शुक्राणु तथा डीब के मिलने से ही डीब निषेचित (फलित) हो जाता है तथा जीव उत्पन्न हो जाता है। शुक्राणु तथा डीब (अण्डाणु) के परस्पर मिलने की प्रक्रिया अलग—अलग पशुओं तथा वनस्पतियों में अलग—अलग होती है। जीवों के अंगों—पांगों की संरचना में क्रोमोसोम्स का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। जो पशु या वनस्पति आयोनिज प्रजनन से उत्पन्न होते हैं उनके प्रजनन अंगों का अभाव होता है। आयोनिज प्रजनन कई प्रकार का होता है, इसकी चर्चा बाद में करेंगे।
३.१ पशुओं में प्रजनन
पशुओं में योनिज तथा आयोनिज दोनों प्रकार से प्रजनन होता है। लेकिन उनकी प्रजनन प्रक्रिया कई प्रकार की होती है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि योनिज प्रजनन प्रक्रिया कई प्रकार की होती है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि योनिज प्रजनन में नर तथा मादा अपने विशेष अंगों से गमेट्स छोड़ते हैं। जीव के जन्म के लिये इन गमेट्स (शुक्राणु तथा अण्डाणु) कहाँ तथा किस प्रकार छोड़ते हैं तथा अण्डाणु कहाँ फर्टिलाइज तथा निषेचित (फलित) होता है। अधिकतर उच्च श्रेणी के पशुओं, जिनमें कुछ स्तनधारी, पक्षी, तथा सरीसर्प (रेंगने वाले) पशु सम्मिलित हैं, में नर अपना शुक्राणु मादा के उस खुले हिस्से में छोड़ता है जो प्रजनन अंगों से जुड़ा होता है। इस स्थिति में यदि फर्टिलाइजेशन (निषेचन की क्रिया) होती है तो वह मादा के प्रजनन अंग के अन्दर ही होती है। इस प्रजनन की क्रिया को आन्तरिक निषेचन कहते हैं। मनुष्य को वैज्ञानिक वर्गीकरण के तहत ‘स्तनधारी पशुओं’ की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन इनमें पशुओं तथा वनस्पतियों से कुछ भिन्न प्रजनन होता है, क्योंकि यह प्रजनन मात्र बायलाजिकल प्रोसेस ही नहीं है। मनुष्यों में मैथुन तथा प्रजनन की क्रिया में स्त्री तथा पुरुष में परस्पर प्रेम तथा गहरी भावनाओं का भी विशेष योगदान होता है, जबकि अधिकतर पशुओं तथा वनस्पतियों में इन भावनाओं का अभाव रहता है। अधिकतर समाज में स्त्री तथा पुरुष के शारीरिक सम्बन्ध नैतिक आदर्शों से नियन्त्रित होते हैं तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उन आदर्शों का पालन करना होता है। अधिकतर मत्स्य तथा उभचर प्राणियों (जो जमीन या पानी दोनों में रह सके) में नर तथा मादा अपने गमेट्स पानी में छोड़ते हैं। लाखों करोंड़ों की तादाद में ये अपने शुक्राणु तथा अण्डाणु छोड़ते हैं, लेकिन उनमें से बहुत कम ही आपस में मिल पाते हैं। इस प्रक्रिया को बाह्य निषेचन कहते हैं। सैमन मछली में भी बाह्य निषेचन द्वारा प्रजनन होता है। मादा सैमन जल के नीचे जमीन में खोदकर घोंसला बनाती है। नर तथा मादा एक एक करके उसके ऊपर से गुजरते हुये तैरते हैं तथा शुक्राणु और अण्डाणु को उस पर छोड़ते हैं। जो भी अण्डा निषेचित हो जाता है, वह बढ़ने लगता है। उनमें से जो जीवित रह पाते हैं, वे वयस्क सैमन बन जाते हैं। (चित्र—१) अधिकतर सरीसर्प तथा पक्षियों में आन्तरिक निषेचन ही होता है, लेकिन ये अण्डे पैदा करते हैं, बच्चे नहीं। इन अण्डों के अन्दर इतनी खाद्य सामग्री होती है, जो अण्डों से बचे निकलने तक के समय के लिये उन जीवों के लिये काफी होती है। कछुआ भी अण्डे देता है, लेकिन वह अपने अण्डे जमीन में गड्ढा खोदकर देता है। अण्डे देने के बाद उन अण्डों को मिट्टी से दबाकर स्वयं पानी में चला जाता है। आन्तरिक निषेचन में अण्डे के निषेचित होने की सम्भावना बाह्य निषेचन की तुलना में बहुत अधिक होती है। बाह्य निषेचन में अण्डाणुओं (गमेट्स) को मादा द्वारा बाहर निकाल दिये जाने के कारण वे अलग—अलग हो जाते हैं, उनमें से अनेकों या तो मर जाते हैं, या फिर अन्य प्राणियों द्वारा खा लिये जाते हैं। लेकिन आन्तरिक निषेचन में इस बात का डर नहीं रहता है। वे प्राणी जो बाह्य निषेचन करते हैं, आन्तरिक निषेचन करने वाले प्राणियों की तुलना में कहीं बहुत अधिक अण्डे देते हैं। उदाहरणार्थ—एक मादा गोरिल्ला एक मास में एक अण्डा छोड़ता है, जबकि एक मादा मेढ़क लाखों की तादाद में अण्डे छोड़ता है। जो प्राणी आन्तरिक निषेचन करते हैं, उन प्राणियों की अधिकतर प्रजातियों में उनके बच्चों की सुरक्षा मादा करती हैं तथा उन्हें भोजन देती हैं। जबकि बाह्य निषेचन करने वाले प्राणियों की सुरक्षा तथा भोजन की व्यवस्था में मादा कोई कार्य नहीं करती है। आन्तरिक निषेचन में स्नतधारी मादा प्राणी अपने पेट के अन्दर ही बच्चे को भोजन पहुँचाती है। लेकिन बहुत से मादा पक्षी तथा मादा सरीसर्प अण्डे बाहर निकाल कर बाद में उन्हें सेते हैं और अण्डों के अन्दर का द्रव ही उन बच्चों के अण्डें में से निकलने तक भोजन का कार्य करता है। कुछ प्राणी उभयिंलगी होते हैं, जैसे—केंचुआ तथा कुछ प्रकार के स्पोंज आदि। इस प्रकार की प्रजातियों में एक ही प्राणी नर भी होता है तथा मादा कार्य भी करता है। ये एक ही अंग में शुक्राणु भी छोड़ते हैं तथा अण्डाणु भी। इस प्रकार एक ही प्राणी के शरीर से निकला डीब या अण्डाणु अपने ही शरीर से निकले शुक्राणु द्वारा निषेचित हो जाता है। इस निषेचन को स्व निषेचन कहते हैं। कुछ उभयिंलगी एक समय नर होते हैं तो दूसरे समय मादा। अत: प्रजनन के लिये इन्हें दूसरे स्व—जाति के प्राणी से मिलना होता है। कुछ प्राणियों जैसे—एफाइडद्व मधुमक्खी तथा कीट आदि में नर के शुक्राणु द्वारा निषेचन के बिना ही अण्डों में से बच्चे पैदा हो जाते हैं। इस प्रकार के प्रजनन को ‘पार्थेनोजेनिसस’ कहते हैं। कुछ प्राणी जो पार्थेनोजेनेसिस द्वारा प्रजनन करते हैं, मैथुन क्रिया द्वारा भी प्रजनन करते हैं।
३.१.१ चींटी में प्रजनन
विश्वभर में दस लाख से अधिक प्राणियों (Animals) प्रजातियों की खोज की जा चुकी है। इनमें से सबसे ज्यादा प्रजातियां कीट—पतंगों की ही हैं। यह संख्या दस लाख से कुछ ही कम होंगी। प्रति वर्ष औसतन सात हजार नई प्रजातियाँ सामने आ रही हैं। अनुमानत: इन कीट—पतंगों की कुल प्रजातियाँ कम से कम अस्सी—नब्बे लाख हैं। चींटी भी कीट की श्रेणी में आती है। इसकी भी दस हजार से ज्यादा प्रजातियों को खोजा जा चुका है। सभी कीटों की प्रजनन प्रक्रिया लगभग एक सी है। यहाँ हम चींटी की प्रजनन प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। चींटी के शरीर के मुख्य तीन भाग होते हैं—(१) Head सिरा, (२) मध्य भाग Trunk, तथा (३) पिछला भाग Abdomen (चित्र—२) सिरे या अग्रभाग में एंटिना, मुख तथा नेत्र होते हैं। पिछले भाग या उदर में प्रजनन अंग होता है। चींटी तीन प्रकार की होती हैं—(१) नर, (२) मादा या रानी तथा (३) श्रमिक या सेवक (चित्र—३)। रानी चींटी का आकार सबसे बड़ा होता है तथा श्रमिक चींटी का सबसे छोटा। रानी तथा नर चींटी के पंख होते हैं, लेकिन श्रमिक के पंख नहीं होते हैं। श्रमिक रानी चींटी के लिये भोजन जुटाने तथा उनके अण्डों की देखभाल करने का कार्य करते हैंं ये ही रानी तथा उसके अण्डों के लिये धरौंदा तैयार करते हैं। इस प्रकार श्रमिक चींटी का कार्य सदा रानी चींटी की सेवा करना ही है। रानी (मादा) तथा नर चींटी मैथुन क्रिया के लिये हवा में उड़ान लगाते हैं, इस उड़ान को मेिंटग फ्लाइट (Mating Flight) कहते हैं। इस मेिंटग में नर अपना वीर्य (शुक्राणुओं को) मादा के उदर भाग में प्रविष्ट करा देता है। मादा इस अपने उदर से सुरक्षित रख लेती है। इस मेिंटग के तुरन्त बाद नर चींटी मर जाती है। मादा एक बार या फिर कई नर चींटियों से कई बार मेंटिंग करती है तथा इनके वीर्य को अपने उदर में सुरक्षित रख लेती है तथा उसे तभी छोड़ती है जब वह अण्डे देती है। मेिंटग के बाद मादा यो तो अपनी पुरानी कालोनी में या फिर किसी नई कलोनी में चली जाती है तथा वहाँ अण्डे देने का उपयुक्त स्थान ढूंढती है। मादा जब अण्डा देना शुरू करती है तो हजारों की संख्या में एक साथ अण्डे देती है। कई बार वह अपने उदर में पूर्व संचित शुक्राणुओं को अण्डों के साथ छोड़ती है जिससे अण्डे निषेचित हो जाते हैं तथा कई बार बिना निषेचित किये अण्डे भी छोड़ती है। जो अण्डे निषेचित हो जाते हैं उनमें से मादा चींटी पैदा होती है, तथा जो अण्डे निषेचित बगैर रहते हैं उनसे नर तथा श्रमिक चींटी पैदा होती है, तथा जो अण्डे निषेचित बगैर रहते हैं उनसे नर तथा श्रमिक चींटी पैदा होती है, तथा जो अण्डे निषेचित बगैर रहते है उनसे नर तथा श्रमिक चींटी पैदा पैदा होती हैं। अण्डे देने के बाद उदर पूर्ति के लिये मादा अपने पंखों, मरे हुये कीटों तथा अण्डों को अपना भोजन बना लेती है। एक बार मेिंटग के बाद भी मादा कई बार अण्डे देती है। इन अण्डों से पांच छह सप्ताह में चींटी बाहर निकल आती हैं। (चित्र—४) इन चींटियों में सबसे कम आयु नर चींटी की तथा सबसे अधिक आयु मादा की होती है। मादा की आयु बीस वर्ष तक होती है जबकि नर मेंटिंग से पूर्व कुछ सप्ताह या महीने ही जीवित रहते हैं तथा मेिंटग के तुरन्त बाद मर जाते हैं।
३.१.२ कुछ विशेष किस्म के कीट
कुछ किस्म के क्रोंकरोंच, मक्खी तथा भ्रमर आदि में मादा के उदर के अन्दर ही जीव बड़े हो जाते हैं तथा पूर्ण विकसित व्यस्क के रूप में ही जन्म लेते हैं। कुछ अन्य किस्म के कीटों में कुछ विशेष मौसम में बहुत तेजी से प्रजनन होता है तथा उनके बच्चे भी बहुत ही जल्दी वयस्क हो जाते हैं। इससे कभी—कभी ऐसा भ्रम होने लगता है कि अमुक मौसम में ये कीट अपने आप ही पैदा होते हैं। वस्तुत: वे उपरोक्त प्रक्रिया द्वारा ही पैदा होते हैं।
३.१.३ प्राणियों में आयोनिज प्रजनन
कुछ प्राणियों में प्रजनन अंगों का अभाव होता है। अत: इन प्राणियों में जो प्रजनन होता है वह अयोनिज (Asexual) होता है। यह कई प्रकार से होता है—(१) द्विगुणन द्वारा (Binary Fission), (२) टुकड़े द्वारा (Fragmentation), (३) बिंडग द्वारा (Budding) तथा (४) स्पोर द्वारा (Spores)। द्विगुणन प्रक्रिया में एक कोशिय जीव दो बराबर टुकड़ों में बँट जाता है। फिर ये दोनों टुकड़ें अलग अलग पूर्णरूप को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार एक के स्थान पर दो जीव हो जाते हैं। अमीबा एक कोशिय प्राणी हे, वह इसी प्रक्रिया द्वारा प्रजनन करता है। (चित्र—५) कुछ एक कोशिय तथा अनेक कोशिय प्राणी अपने शरीर के कुछ हिस्से अलग कर देते हैं। फिर ये अलग हुये टुकड़े पूर्णरूप से विकसित होकर अपनी मूल प्रजाति के हिस्से बन जाते हैं। जिस प्राणी से ये टुकड़े अलग होते हैं, उस प्राणी के वे टुकडें पुन: विकसित हो जाते हैं। प्रजनन की इस प्रक्रिया को प्रैगमैन्टेशन (Fregmentation) कहते हैं। इस वर्ग के प्राणियों में फ्लैटवोर्म, लोबस्टर्स तथा स्टार फिश सम्मिलित हैं। कुछ प्राणी अपने शरीर के किसी हिस्से में गाँठ जैसा विकसित कर लेते हैं। यह गाँठ मूल प्राणी से अलग हो जाती है तथा कुछ समय बाद इससे ही पूर्ण विकसित प्राणी बन जाता है। प्रजनन की इस प्रक्रिया को बिंडग (Budding) कहते हैं। कुछ प्रकार के स्पोंज में यह एक सामान्य प्रक्रिया है। कुछ प्राणी अपने शरीर से एक कोशीय (Structure) छोड़ते हैं जिन्हें स्पोर (Spore) कहते हैं। इन स्पोरों में मूल प्राणी के सभी गुण होते हैं तथा ये विकसित होकर पूर्ण रूप धारण कर लेते हैं। मलेरिया पैरासाइट्स में इसी प्रकार प्रजनन होता है। स्पोर से प्रजनन की क्रिया को कुछ और विस्तार से आगे बतायेंगे।
३.२ वनस्पतियों में प्रजनन
प्राणियों की तरह वनस्पतियों में भी प्रजनन योनिज तथा अयोनिज दोनों प्रकार से होता है। वनस्पतियों में आयोनिज प्रजनन सामान्यत: प्राणियों के समान ही होता है। लेकिन योनिज प्रजनन की प्रक्रिया कुछ भिन्न है। योनिज प्रजनन से उत्पन्न होने वाली वन्सपतियों में उन दोनों मूल वनस्पतियों के जीन्स होते हैं जिनके स्पर्म तथा एग से वे उत्पन्न हुई हैं। जबकि अयोनिज प्रजनन से उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों में मात्र एकमूल वनस्पति के गुण ही होते हैं।
३.२.१ वनस्पतियों में योनिज प्रजनन
योनिज प्रजनन में पौधे या वनस्पति गमेट्स पैदा करते हैं। ये गमेट्स नर पौधे के पराग कण तथा मादा पौधे के गर्भकेसर कहलाते हैं। जब पराग—कण गर्भकेसर से मिलते हैं। तो गर्भकेसर को फलित या निषेचित कर देते हैं तथा इसी निषेचित गर्भकेसर से नया पौधा बनता है। इस क्रिया को परागण कहते हैं। कुछ वनस्पतियों में फूल लगते हैं जो कि स्पोर पैदा करते हैं। इन स्पोर में से कुछ शुक्राणु का कार्य करते हैं तथा कुछ अण्डाणु का। वनस्पतियों में परागण की क्रिया कई प्रकार से होती है। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जिनके गर्म केसर ( स्वयं द्वारा उत्पन्न पराग कणों से ही निषेचित हो जाते हैं। इस प्रकार के निषेचन द्वारा होने वाले प्रजनन की क्रिया को स्व—परागण कहते हैं । कुछ अन्य वनस्पतियों में एक वृक्ष (पौधा) नर का कार्य करता है तथा दूसरा मादा का । नर पौधा पराग कण पैदा करता है तथा मादा गर्म केसर। नर द्वारा पैदा किये पराग कण जब मादा के पौधे तक पहुँच जाते हैं तथा गर्म केसर से सम्पर्क में आते हैं तो गर्म केसर निषेचित हो जाती है। पराग कण के मादा पौधे तक पहुँचने का कार्य कई प्रकार से होता है, जैसे— (१) मक्खियों, भँवरों, चींटी, तितली आदि द्वारा, (२) हवा द्वारा, (३) बहते हुए पानी द्वारा, (४) चौपायों द्वारा, (५) मनुष्यों द्वारा, आदि आदि। इस परागण को मिश्र—परागण कहते हैं। कुछ वनस्पतियाँ ऐसी होती हैं जो अपने से स्पोर निकालती हैं। जमीन पर इनके गिरने से वहाँ की नमी के कारण से बड़े होने लगते हैं तथा अपने जैसे ही पराग कण तथा गर्म केसर निकलते हैं । ये दोनों मिलकर नये पौधे को जन्म देते हैं । शंकुधारी वृक्ष, काई, शैवाल आदि वनस्पतियों में प्रजन्न इसी प्रकार होता है।
३.२.२ वनस्पतियों में अयोनिज प्रजनन
कई वनस्पतियों में अयोनिज प्रजन्न भी होता है जिसे ‘वनस्पति विस्तरण’ कहते हैं। इस प्रक्रिया में पौधे तथा फूल कुछ भी हो सकता है। किसी—ाqकसी पौधे में उसकी एक ही कोशिका से पूरा नया पौधा तैयार हो जाता है। वनस्पति विस्तरण कई प्रकार से होता है ——(1) Runner,(2) Budding, (3)Cuttage, (4)Grafting, (5) Layering आदि। (चित्र—६) कुछ पौधों का तना मिट्टी के अन्दर जमीन के समानान्तर बढ़ने लगता है तथा मूल पौधे से कहीं दूर जमीन के ऊपर थोड़ा निकल आता है तथा नये पौधे को जन्म देता है। इस प्रकार के वनस्पति—विस्तरण को रनर (कहते हैं। वनस्पतियों में कुछ प्रजाति ऐसी भी होती हैं कि जिन्हें नष्ट करना आसान नहीं है। यदि उनका कोई एक हिस्सा भी बचा रह गया तो वह पुन: अपने नष्ट हुये शेष हिस्से की रचना कर लेते हैं । इस प्रक्रिया को बडिंग कहते हैं । Rल्हही की क्रिया पौधे स्वत: करते हैं, लेकिन ँल्््ग्हु प्राकृतिक तरीके से भी होता है, तथा मनुष्यों द्वारा भी की जाती है। कुछ वनस्पति विस्तरण की प्रक्रिया, जैसे— Cuttage, Grafting, तथा Layering मनुष्य अपने फायदे के लिये भी करता है ।Cuttage में पौधे का एक हिस्सा काट कर बो दिया जाता है। मुख्यत: यह हिस्सा तना होता है , अन्य हिस्सा भी हो सकता है। हवा, पानी और मिट्टी के सम्पर्वक में आकर यह बढ़ने लगता है तथा नये पौधे को जन्म देता है । Grafting (कलम) की प्रक्रिया में भी Cuttage की प्रक्रिया होती है, लेकिन इस प्रक्रिया में एक पौधे का तना काट कर दूसरे पौधे के तने से जोड़ दिया जाता है जो कि पहले वाले के लिये जड़ का कार्य करता है। इस प्रकार पौधे उगाने से फल अधिक लगते हैं।Layering में जडों से ही नया पौधा पैदा करते हैं । इसमें जड़ों की शाखाओं के हिस्से मिट्टी , पानी या हवा में छोड़ दिये जाते हैं । जड़ों के से हिस्से फिर एक नये पौधे को जन्म देते हैं। ==
३.३ स्पोरो ( Spores ) द्वारा प्रजन्न
स्पोर के बारे में ऊपर भी कुछ जिक्र हो चुका हैं। यहॉ हम उसके बारे में पुन: चर्चा करेंगे। स्पोर बहुत ही छोटा तथा विशिष्ट आकार वाला ढाँचा होता है, जिसमें अपने मूल जीव के सभी गुण होते हैं। लगभग सभी प्रकार की वनस्पतियाँ तथा कुछ प्रकार की आल्गी, बैक्टेरिया, फगी तथा प्रोटोजोआ स्पोर पैदा करते हैं। ये हवा या पानी द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा सकते हैं तथा अपनी प्रजाति को जीवित रखने में सहायता करते हैं । स्पोर आकार तथा शक्ल में कई प्रकार होते हैं, लेकिन अधिकतर एक कोशिय स्पोर ही होते हैं।(चित्र—७) कुछ फैगी जटिल संरचना वाले बहु—कोशिय स्पोर पैदा करती है । स्पोर में प्रोटोप्लाज्म (जीव तत्व) तथा भोजन होता है। कुछ स्पोर अपने ऊपर एक मोटा तथा मजबूत कवच बना लेते हैं जिसकी वजह से कई महीनों तक सुसुप्त अवस्था में जीवित रह पाते हैं। उनके ये गुण उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रखते हैं ।कुछ स्पोर पूँछधारी भी होते हैं जिसकी मदद से वे एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण कर सकते हैं। जब इन स्पोरों को अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, ये अपने मूल रूप में बढ़ने लगते हैं। स्पोर अलग—अलग वनस्पतियों में अलग—अलग तरीके से पैदा होते हैं। ये एक साथ बड़ी संख्या में पैदा होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही जीवित रह पाते हैं तथा अंकुरित हो पाते हैं। जिन परागणों का ऊपर जिक्र आये हैं उनका मूल भी ये स्पोर ही हैं।
(४) सम्मूच्र्छन जन्म पर पुनर्विचार
प्रजनन के उपर्युक्त वैज्ञानिक विवेचन से कई बातें सामने आती हैं—
(१) विज्ञान ने कीट—पतंगो की लगभग दस लाख प्रजातियों को खोज निकाला है। जैन दर्शन के अनुसार ये कीट पतंगे विकल—त्रय (द्वि, तीन तथा चार इन्द्रिय जीव) है, जिनकी कुल योनियाँ अठारह लाख हैं। वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार इन प्रजातियों की संख्या लगभग अस्सी—्नाब्बे लाख है जो कि अठारह लाख से कहीं बहुत अधिक है। अत: यह एक प्रश्न विचारणीय है कि क्या एक योनि से एक ही प्रजाति उत्तपन्न होती है या कई प्रजातियाँ उत्पन्न हो सकती हैं ? इसका उत्तर हम मनुष्यों की योनियों पर विचार करने पर पा सकते हैं । मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ बतलाई हैं । विदेह क्षेत्र में मनुष्य की अवगाहना भरत क्षेत्र के मनुष्यों की अवगाहना के मुकाबले बहुत अधिक है। यहाँ तक कि विदेह क्षेत्र का मनुष्य भरत क्षेत्र के मनुष्य को अपनी हथेली पर रख ले तो वह उसे इलायची जैसाा प्रतीत होगा। अत: मनुष्य जाति का एक होने पर भी विदेह क्षेत्र तथा भरत क्षेत्र के मनुष्यों की योनियाँ अलग—अलग हुर्इं। अवगाहाना की दृष्टि से दोनों जगहों के मनुष्यों की प्रजातियाँ अलग अलग हैं। अत: एक योनि में एक ही प्रजाति उत्पन्न होती है, यह बात सिद्ध होती है। पशुओं की तरह प्रत्येक वनस्पति की दस लाख योनियाँ बतलाई गई है। विज्ञान ने भी अब तक साढ़े तीन लाख प्रकार की वनस्पतियों को खोज निकाला है। खोज का यह कार्य जारी है। लेकिन बहुत सी वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियाँ जंगलों के नष्ट होने के साथ साथ नष्ट हो गई हैं या फिर लुप्त प्राय: है।
(२) जैन दर्शन के अनुसार वनस्पतियों के जो सात भेद बताये गये हैं, उनमें से पांच यानि कि मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज,कन्दबीज, तथा स्कन्ध बीज तो के ही अन्तर्गत आ जाते हैं। फुई, काई, आदि को सम्मूच्र्छन वनस्पति में रखा गया है। विज्ञान के अनुसार इनका स्पोर द्वारा अयोनिज प्रजन्न होता है। यहीं से एक बात यह और स्पष्ट होती है कि मूलबीज, अग्रबीज आदि के प्रजन्न में उस वनस्पति के किसी न किसी हिस्से को प्रयोग में लाया जाता है, चाहें वह गन्ने के पर्व के रूप में हो या फिर आलू की आँख के रूप में । फिर भी इन सबको सम्मूच्र्छन जन्म वाली श्रेणी में रखा गया है। अत: यहां से यह सिद्ध होता है कि ‘सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीवों के प्रजन्न में उन जीवों का कोई हिस्सा किसी न किसी रूप में प्रयोग में आ सकता है,’ ऐसा मानने में जैन दर्शन में कोई विरोध नहीं आता है। यहाँ पर एक प्रश्न यह और बनता है कि क्या गन्ने के पर्व या आलू की आँख को ही जीव माना जाय या नहीं? वस्तुत: पर्व तथा आँख स्वयं जीव नहीं है, बल्कि जीव उत्पत्ति स्थान या योनिभूत स्थान हैं। जब इनको मिट्टी, वायु तथा जल का अनुकूल संयोग मिल जाता है तो यहां नया जीव, नया पौधा पैदा हो जाता है।
(३) विज्ञान के अनुसार किसी भी प्रजाति के प्रजन्न में किसी न किसी रूप में उस प्रजाति का योगदान तो रहता ही है, चाहे वह प्रजन्न स्पोर द्वारा हो, या द्वि—गुणन द्वारा या फिर अण्डाणु द्वारा, प्रजाति ही अपनी प्रजाति की वंश वृद्धि करती है। अब प्रश्न यह है कि क्या सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीवों के प्रजन्न में भी प्रजातियों का कुछ योगदान रहता है या नहीं ? जैसा कि हम ऊपर कह आये हैं कि कई वनस्पतियों के उत्पन्न होने (प्रजन्न) में वनस्पति के किसी न किसी अंग (जैसे—पर्व, आंख, तना आदि) का योगदान रहता है, फिर भी जैन दर्शनानुसार उन्हें सम्मूच्र्छन माना गया है। अत: किसी जीव को सम्मूच्र्छन की श्रेणी से बाहर मात्र इस आधार पर नहीं रखा जा सकता है कि वह अपने प्रजन्न में अपना ही हिस्सा प्रयोग में लाता है। जो नियम वनस्पति के लिये लागू होता है, वही नियम पशुओं के लिये भी मान्य होना चाहिये। अब यह जानने के लिये कि किन—किन जीवों को सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीवों की श्रेणी में रखा जा सकता है, हमें विभिन्न प्रजन्न के तरीकों को पुन: निम्न प्रकार से वर्गीकृत करना होगा। (१) स्पोर तथा अयोनिज प्रजन्न। (२) वाह् निषेचन (जैसे मत्सय आदि में) द्वारा प्रजन्न। (३) कीट—पंतगों में प्रजन्न।
(४)आन्तरिक निषेचन द्वारा प्रजन्न। कोई वनस्पतियों तथा पशुओं में अयोनिज प्रजनन होता है। इस प्रकार के जीवों में नर तथा मादा भेद नहीं रहता है। कुछ वनस्पतियों तथा सूक्ष्म जीव स्पोर छोड़ते रहते हैं । ये स्पोर अनुकूल परिस्थिति पाकर बढ़ने लगते हैं। इस प्रकार जिन जीवों में अयोनिज तथा स्पोर द्वारा जो प्रजन्न होता है, उन्हें सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीव मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। कुछ वनस्पतियों में परागण की क्रिया होती है । हालांकि इन्हें योजिन प्रजन्न की श्रेणि में रखा गया है, लेकिन ये वस्तुत: एक प्रकार से वाह्य निषेचन द्वारा ही मानना चाहिये, क्योंकि परागकण एक पौधे द्वारा छोड़े जाते हैं तथा यहाँ पेड़ों के परस्पर नजदीक में रहना आवश्यक नहीं है। कुछ पशुओं जैसे मत्सय, मेंढ़क आदि में वाह्य निषेचन होता है।इनमें नर तथा मादा का भेद होने पर भी वे आपस में संभोग जैसी क्रिया नहीं करते हैं। नर तथा मादा क्रमश: जो वीर्य तथा अण्डाणु छोड़ते हैं, वे वस्तुत: एक प्रकार के रसायन है और जब ये रसायन आपस में सम्पर्क में आते हैं तो इनका सम्मिश्रण ही जीवों की उत्पत्ति का स्थान या यौनि स्थान होता है , मादा का उदर नहीं। जब रसायनों के जीवों की उत्पत्ति का स्थान या यौनि स्थान होता है, मादा का उदर नहीं । जब रसायनों के इस सम्मिश्रण को अनुकूल ताप तथा अन्य वातावरण मिल जाता है, तभी उसमें जीव आ जाता है या जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। चूंकि बाह्य निषेचित अण्डे ही योनि स्थान हैं, अत: इस प्रकार के जन्म को सम्मूच्र्छन जन्म मानना चाहिए। यहाँ दो प्रश्न बनते हैं — एक तो यह कि बाह्य निषेचन में नर तथा मादा क्रमश: वीर्य तथा डिंबाणु तो छोड़ते हैं ही, अत: इस प्रजनन में उनका सहयोग तो रहता ही है, अत: इन्हें सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीव की श्रेणी में कैसे रखा जायेगा ? दूसरा प्रश्न यह है कि जब नर तथा मादा का भेद देखा जाता है तो सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीव नपुंसक ही होते हैं, यह कथन गलत सिद्ध होता है। पहले प्रश्न का उत्तर है । जैसा की हम वनस्पतियों के बारे में बता आये हैं कि वनस्पतियों की उत्पत्ति में उनके ही किसी अंग का प्रयोग हो ही जाता है, चाहे वह गन्ने का पर्व हो या आलू की आँख या फिर अन्य कुछ। फिर भी जैन दर्शन में उसे सम्मूच्र्छन जन्म माना जाता है। इसी प्रकार बाह्य निषेचन में नर तथा मादा के उदर से निकले पदार्थ (रसायन) के सम्मिश्रण से मादा के उदर के बाहर यदि प्रजन्न होता है तो उसे भी सम्मूच्र्छन जन्म मानने में कोई बाधा नहीं आती है। दूसरे प्रश्न में जहाँ तक नर तथा मादा के भेद की बात है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि उनके शरीर की बनावट इस प्रकार की ही है , वस्तुत: उन्हें प्रजन्न अंग की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। वस्तुत: प्रजन्न अंगों की सार्थकता उससे बच्चे/ निषेचित अण्डे पैदा होने में ही है। जबकि बाह्य निषेचन में अण्डों का निषेचन मादा के उदर में न होकर उदर के बाहर होता है। कीट—पतंगों में नर तथा मादा मेटिंग के दौरान सम्पर्क में तो आते हैं , लेकिन मादा नर के शुक्राणुओं के द्वारा निषेचन के बिना भी अण्डे देती है। बिना निषेचित अण्डों से भी कीट उत्पन्न होते हैं। जैसा कि चींटी के बारे में हमने देखा कि इन बिना निषेचित अण्डों में नर तथा श्रमिक पैदा होते हैं जबकि निषेचित अण्डों से मादा। सबसे अधिक संख्या श्रमिक चींटियों की ही होती हैं। बिना निषेचित अण्डे एक प्रकार से राशायनिक पदार्थ ही हैं । इन अण्डों में जीव मादा के उदर में से इनके बाहर आने के बाद ही आता है। अत: चींटी छोडती है । अत: इस प्रकार के जन्म को भी सम्मूच्र्छन जन्म रूपी रसायन हैं जिन्हें चींटी छोड़ती है। अत: इस प्रकार के जन्म को भी सम्मूच्र्छन जन्म ही मानना चाहिए। यह तो हम ऊपर ही स्पष्ट कर आये हैं कि जिस प्रकार वनस्पति के किसी अंग से नई वनस्पति (उसी प्रजाति की) पैदा होती है तब भी उसे सम्मूच्र्छन माना जाता है। इसी प्रकार यदि किसी जीव के द्वारा क्षेपित मल या रसायश्न में जीव उत्पन्न हो तो उसे भी सम्मूच्र्छन मानना चाहिए। अब चींटी के उन अण्डों के बारे में भी विचार करें कि जो अण्डे मादा के उदर में संग्रहित नर के वीर्य द्वारा निषेचित किये जाते हैं । यहाँ पर भी एक बात यह ध्यान देने की है कि जब मादा अण्डे देती है तभी उनमें से कुछ अण्डों के ऊपर नर के वीर्य (शुक्राणुओं) को छोडती है। अब प्रश्न यह है कि निषेचन की क्रिया कहाँ होती है तथा उन अण्डों में जीवन कब आता है ? यदि नर के वीर्य तथा मादा के अण्डाणु रूपी रसायन का मिश्रण भले ही अण्डों के मादा के उदर से निकलने के दौरान हो, लेकिन इनमें जीवन उनके मादा के उदर से निकलने के बाद आये, तो योनि स्थान मादा का उदर न होकर , नर तथा मादा द्वारा क्षेपित रसायन (गमेट्स) का सम्मिश्रण माना जायेगा। क्योंकि इस प्रकार के सम्मिश्रण में से मादा चींटी का जन्म होता है। इस स्थिति में भी चींटियों का जन्म सम्मूच्र्छन ही माना जायेगा। उपर्युक्त चार प्रकार के प्रजन्नों में अंतिम आन्तरिक निषेचन द्वारा होता है। इस प्रकार के प्रजन्न में नर तथा मादा सम्पर्वâ में तो आते हैं ही, साथ ही नर के शुक्राणुओं द्वारा मादा के अण्डाणुआें का निषेचन मादा के उदर में ही हो जाता है तथा जीव उदर के अन्दर ही बढ़ता है। फिर यह जीव पूर्ण अवस्था, वयस्क या फिर निषेचित अण्डे के रूप में बाहर आता है ।इस प्रकार के प्रजन्न को गर्भ जन्म की श्रेणी में रखा जाना उचित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रजन्न के उपर्युक्त चार वर्गों में से प्रथम तीन प्रकार के प्रजन्न सम्मूच्र्छन जन्म से ही होते हैं । किस जीव का जन्म गर्भ से होता है तथा किस का सम्मूच्र्छन रीति से, इस बात को समझने के लिए जीव के जनम स्थान या योनि स्थान को समझना बहुत जरूरी है। जैसा कि हमने ऊपर देखा कि मत्सय, मेंढ़क तथा कीट—पतंगों आदि में जीव उत्पत्ति का स्थान या योनि मादा का उदर नहीं होता है।बल्कि नर तथा कीट—पतंगों आदि में जीव उत्पत्ति का स्थान या योनि मादा का उदर नहीं होता है। बल्कि नर तथा मादा द्वारा क्षेपित गमेट्स या वीर्य तथा अण्डाणु रूपी रसायनों का सम्मिश्रण होता है । जब इस सम्मिश्रण को उचित वातावरण मिल जाता है। तो जीवोत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार के प्रजन्न सम्मूच्र्छन रीति वाले ही हैं। इनके अतिरिक्त स्पोर द्वारा या द्विगुणन आदि से जो प्रजन्न होता है उसमें जीव के शरीर के किसी न किसी हिस्से का सहयोग होता है , फिर भी इसे सम्मूच्र्छन जन्म वाला मानने में कोई दोष नहीं आता है, ऐसा इसलिए कि हम वनस्पति की स्थिति में देख चुके हैं कि पर्व, आँख आदि वनस्पति के हिस्सों से ही नई वनस्पतियाँ पैदा होने पर भी जैन दर्शन में उन्हें सम्मूच्र्छन माना है। इस प्रकार जैन दर्शन में वर्णित सम्मूच्र्छन जन्म सम्बन्धी अवधारणा सही है, लेकिन उसे समझने के लिए जीवोत्पत्ति स्थान/योनि स्थान को समझना बहुत जरूरी है। सम्मूच्र्छन जन्म को समझने में विज्ञान से हमें बहुत सहायता मिलती है । इसके बावजूद भी कुछ बिन्दु स्पष्टीकरण चाहते हैं
(१) मत्सय, मेंढ़क तथा चींटी आदि में योनि स्थान (जो कि वीर्य तथा अण्डाणु रूपी रसायनों का सम्मिश्रण होता है) एक ही होने के बावजूद भी उनके शरीर की रचना में अन्तर क्यों पाया जाता है ? विज्ञान इस अन्तर को नर तथा मादा के भेद रूप मानता है। तथा चींटी के मामले में एक श्रमिक वर्ग भी मान लेता है, ऐसा क्यों ?
(२) कुछ कीट (जैसे—कुछ किस्म के भ्रमर (भौंरे) तथा क्रोकरोंच) में नर तथा मादा के सम्पर्क के बाद जो प्रजन्न होता है उसे मादा कीट वयस्क बच्चे भी पैदा करते हैं। ऐसी स्थिति में इन कीटों में सम्मूच्र्छन जन्म की अवधारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए।
(३)योनियों की संख्या विभिन्न प्रजातियों की संख्या से बहुत कम है, यह बात भी विचारणीय है।
संदर्भ
(१) तत्वार्थ राजवार्तिक, भट्ट अकलंक, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, अध्याय—२, सूत्र—३१