उपाध्याय ज्ञानसागर आचार्य शांतिसागर (छाणी) परम्परा में दीक्षित यशस्वी श्रमण है। यशलिप्सा से कोसों दूर उपाध्याय ज्ञानसागरजी ने सुविधा एवं सामथ्र्य होने के बावजूद स्वयं साहित्य का सृजन नहीं किया अपितु श्रुताराधकों को प्रेरणा देने, संसाधन जुटाने उनकी र्आिथक एवं अकादमिक समस्याओं के निराकरण, ग्रंथों के वाचन, सम्पादन एवं संशोधन में सतत सचेष्ट रहना श्रेयस्कर माना। आज समाज में अकादमिक विषयों पर कम रुचि होने के बावजूद आप व्यक्तिगत रुचि लेकर एक नहीं अनेक विद्वत् सम्मेलन, शिक्षण—प्रशिक्षण शिविर आयोजित करा चुके हैं। प्रस्तुत आलेख में सराकोद्धार के अतिरिक्त इन्हीं प्रयासों का संक्षिप्त विवरण दिया है। वर्ष २००८ का वर्षायोग म. प्र. के इन्दौर नगर में आयोजित होना कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ सदृश शोध संस्थान के लिए विशेष आहलादकारी है। हमारे सौभाग्य से आज भारत में सहस्राधिक दि. जैन संत (मुनि/र्आियका/क्षुल्लक/क्षुल्लिका) सतत विचरण कर धर्म प्रभावना कर रहे हैं। जब हम उनकी गुरु परम्परा पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। दिगम्बर मुनि परम्परा लगभग लुप्त हो रही थी। गिरि कन्दराओं में जो मुनि निवास करते थे वे भी मूलाचार के अनुरूप पूर्ण चर्या नहीं कर पा रहे थे। चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज ने इस दिगम्बर मुनि परम्परा को सम्यक रूप में पुनर्जीवित किया। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी में पुन: यह क्रम वृद्धिगंत होने लगा। इस कार्य को गति देने में जिन तीन महापुरुषों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं वे निम्नलिखित हैं— १. चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज २. मुनिकुंजर श्री आदिसारग जी महाराज (अंकलीकर) ३. आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज (छाणी) राजस्थान की पुण्य भूमि में सतत विचरण कर आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज (छाणी) एवं उनकी परम्परा के पट्ट शिष्यों क्रमश: आचार्य श्री सूर्यसागर जी महाराज, आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज (भिण्ड), एवं तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज ने अनेक मुमुक्षुओं को मुनि दीक्षा प्रदान कर उन्हें आत्मोन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ाया। सराकोद्धारक संत, उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज, आचार्य श्री सुमतिसागर जी के प्रिय शिष्य रहे हैं। इस युवा शिष्य के प्रति आचार्य श्री सुमतिसागर जी का अनुकरण एवं विश्वास इस बात से ही स्पष्ट है कि १ मई १९५७ को मुरैना में श्री शांतिलाल अशर्फी देवी जैन के परिवार में जन्में उमेश को ३१ मार्च १९८८ को उपाध्याय पद से विभूषित किया। पंचपरमेष्ठी में आचार्य के बाद आने वाले इस दायित्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर दीक्षा गुरु ने आपको संघस्थ साधुओं के अध्यापन का गुरुतर दायित्व प्रदान किया। तब से आप सतत आगमोक्त चर्या का निर्वाह करने के साथ ही जिनवाणी के संरक्षण, अध्ययन, अध्यापन, अनुवाद एवं प्रचार—प्रसार में संलग्न हैं। ऐसे महान संत की बहुआयामी प्रवृत्तियों से शायद मैं अनभिज्ञ ही रह जाता यदि २५—२६ मई १९९५ को सहारनपुर में सम्पन्न राष्ट्रीय जैन विज्ञान संगोष्ठी में सम्मिलित नहीं होता। पूज्य उपाध्याय श्री के विद्वत् वात्सल्य की चर्चा तो यत्र—तत्र सर्वत्र थी किन्तु विद्वानों विशेषकर युवाओं के प्रति उनका सहज वात्सल्य तथा ज्ञान प्राप्ति की लालसा मुझे प्रथम बार देखने को मिली। इस अलौकिक, तेजोमयी व्यक्तित्व के प्रथम दर्शन कर मैं अभिभूत हो गया और उन अवसरों की खोज करने लगा जब पूज्य श्री के दर्शनों का लाभ प्राप्त हो। कुछ अन्तराल के बाद बडागाँव में आयोजित पत्रकार सम्मेलन तथा सराक सम्मेलन में एक बार फिर दर्शन किये और देखा इस अंचल के लोगों का पूज्य श्री के प्रति निर्विकल्प समर्पण और अनुकरणीय भक्ति। १९९८ में उपाध्याय श्री के तिजारा प्रवास में मुझे एक बार पुन: आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो महाराज जी ने कहा ‘अनुपम! तुम्हें अपनी शक्ति का उपयोग जिनवाणी के प्रचार और प्रसार में करना चाहिये। आज संस्थाओं को तुम्हारे जैसे सर्मिपत कार्यकर्ताओं की जरूरत है।’ पूज्य श्री की प्रेरणा से मैंने श्रुत संवद्र्धन संस्थान के अन्तर्गत संचालित ५ र्वािषक पुरस्कारों को संचालित करने की योजना का दायित्व संभाला और तब से उनकी प्रेरणा से चलने वाली बहुआयामी प्रवृत्तियों को निकट से जानने, समझने तथा उनमें यत् किंचित योगदान करने का अवसर प्राप्त हुआ। पूज्य उपाध्याय श्री की प्रेरणा से संचालित होने वाली प्रवृत्तियों में इतनी विविधता है कि यदि आज व्यवस्थित इतिहास नहीं लिखा गया तो कालान्तर में इतिहासज्ञ इन्हें किसी एक व्यक्ति की प्रेरणा से संचालित होने वाली गतिविधियों के रूप में मानने से ही इन्कार कर देगें। मैं आपकी प्रेरणा से संचालित गतिविधियों में से कुछ को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
१. सराकोद्धार—वात्सल्य, सम्यग्दर्शन का एक अभिन्न अंग है किन्तु हम लोग इतने सुविधाभोगी हो गये है कि करूणा, दया और वात्सल्य के प्रदर्शन में भी अपनी सुविधा का अधिक ध्यान रखते हैं, व्यक्ति की आवश्यकता का कम। बिहार प्रदेश के प्रवास में पूज्य उपाध्याय श्री जब आदिवासी जैन सराक बंधुओं के संपर्वâ में आये तो आपके अंतस की करुणा मुखरित हो उठी। गया एवं रांची चातुर्मास में आपके सराक बंधुओं के बारे में पढ़ा, जाना एवं समझा। स्वयं १९९२ में हजारीबाग में एक सराक सम्मेलन कराया जिसमें दिगम्बरत्व के संस्कारों को सदियों से अपने मन में समेटे इन बन्धुओं को अपनी मूल संस्कृति से परिचित कराने, साधर्मी बन्धुओं से मिलन,महान जैन तीर्थों के भ्रमण, काल के थपेड़ों से त्रस्त संकटमय जीवन जी रहे सराक बन्धुओं को शिक्षित, संस्कारित एवं स्वावलंबी जीवन जीने का पथ प्रशस्त किया गया। आपने केवल चर्चा ही नहीं की अपितु भौतिकता की चकाचौंध से दूर, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित, सराक बहुल, तड़ाई ग्राम में अपने चातुर्मास की स्थापना की। इन सुदूर अंचल के ग्रामों में चातुर्मास की स्थापना तो दूर सामान्यत: कोई साधु जाना भी नहीं चाहता, वहाँ चातुर्मास करना निश्चय ही चुनौतीपूर्ण था किन्तु संकल्पशक्ति के धनी पूज्य श्री के लिये यह कोई चुनौती नहीं। जिसने भी उनकी चर्या देखी है वे सभी उनकी साधना को जानते हैं। आपकी प्रेरणा से १९९४ में अ. भा. दि. जैन सराक बुलेटिन का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। बाद में यह बुलेटिन सराक ज्योति मासिक पत्रिका के रूप में परिवर्तित हुआ। जिसे आज सोसायटी फार सराक वेलफैयर एण्ड डेवलपमेंट के तत्वाधान में श्री हंसकुमार जैन, मेरठ के संपादकत्व में सराक सोपान के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। पूज्य उपाध्याय श्री के संघ की गतिविधियों, सराक सोसायटी, सराक ट्रस्ट, संस्कृति संरक्षण संस्थान, श्रुत संवद्र्धन संस्थान आदि दर्जनों संस्थाओं द्वारा सराक सोसायटी, सराक ट्रस्ट, संस्कृति संरक्षण संस्थान, श्रुत संवद्र्धन संस्थान आदि दर्जनों संस्थाओं द्वारा सराक क्षेत्र में संचालित की जा रही जन कल्याणकारी गतिविधियों को जानने, समझने का एक मात्र एवं प्रामाणिक माध्यम यह पत्रिका है। श्रेष्ठ साहित्यिक आलेखों के प्रकाशन के माध्यम से यह पत्रिका कितनी साहित्य सेवा कर रही है इसका मूल्यांकन कुछ दशकों के बाद ही हो सकेगा क्योंकि प्रारम्भिक वर्षों में हम इसके महत्व को सम्यक रूप में समझ नहीं पा रहे। छाणी परम्परा के योगदान के क्षेत्र में तो यह पत्रिका संग्रहणीय दस्तावेज बन गई है। इसके अतिरिक्त रु. २५०००.०० का सराक पुरस्कार भी श्रुत संवद्र्धन संस्थान, मेरठ द्वारा सराक कल्याण हेतु कार्य करने वाली संस्था/व्यक्ति को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाता है। साधर्मी बन्धुओं को मूल संस्कृति से सुपरिचित कराकर उन्हें मुख्य धारा में लाना श्रमण संस्कृति की महती सेवा है।
२. साहित्य प्रकाशन—पूज्य गुरुदेव की आगमिक साहित्य के अध्ययन में रुचि तो प्रारम्भ से ही थी एवं वे मूल ग्रंथों की अनुपलब्धता से व्यथित भी होते थे। अपने बुढ़ाना प्रवास में आचार्य श्री शांतिसागर (छाणी) ग्रंथमाला बुढ़ाना एवं गया प्रवास (१९९१) में स्थापित श्रुत संवद्र्धन संस्थान के साथ इन दोनों सहयोगी संस्थाओं को सहयोजित कर लिया गया। आज संस्थान द्वारा अपनी इन प्रकाशन संस्थाओं के माध्यम से शताधिक ग्रंथों का प्रकाशन किया जा चुका है जिनमें षट्खण्डागम, सिद्धांतसार संग्रह, आत्मानुशासन जैसे आगम ग्रंथ, आराधना कथा प्रबंध, मध्यकालीन जैन सट्टक नाटक जैसे प्राचीन ग्रंथ, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्दपरिशीलन एवं जैन शासन जैसे शोधपूर्ण ग्रंथ युग—युग में जैन धर्म, स्वतंत्रता संग्राम में जैन तथा जैन धर्म सदृश इतिहास विषयक कृतियाँ, आ. कुन्दकुन्द, आ. समन्तभद्र, आ. अकलंकदेव, तीर्थंकर पार्श्वनाथ, सराक जाति तथा पुस्तकालय विज्ञान पर आयोजित संगोष्ठियों की आख्यायें, अनेक अभिनंदन ग्रंथ, व्यक्तित्व और कृतित्व शीर्षक कृतियाँ, प्रवचन संग्रह कथा साहित्य, परिचायात्मक”
३. विद्वत् सम्मान एवं संगोष्ठियाँ—प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन, अनुसंधान एवं नवीन पाण्डुलिपियों के प्रकाशन का यह क्रम विशृंखलित न हो इस भावना से ५ र्वािषक श्रुत संवद्र्धन पुरस्कारों की स्थापना की गई। जिसके अंतर्गत अब तक ५६ विद्वानों का सम्मान किया जा चुका है। इन पुरस्कारों के नाम निम्नवत् हैं—१. आ. श्री शांतिसागर (छाणी) स्मृति श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार
२. आ. श्री सूर्यासागर स्मृति श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार ३. आ. श्री विमलसागर (भिण्ड) स्मृति श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार ४. आ. श्री सुमतिसागर स्मृति श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार ५. मुनि श्री वर्धमानसागर स्मृति श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार इन र्वािषक पुरस्कारों के तहत प्रतिवर्ष विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने वाले ५ चयनित विद्वानों को ३१०००.०० रुपये की नगद राशि, प्रशस्ति, शाल एवं श्रीफल से सम्मानित किया जाता है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ निदेशक मंडल के पूर्व सदस्य स्व. पं. नाथूलाल जी शास्त्री तथा अर्हत् वचन सम्पादक मंडल के वर्तमान सदस्य श्री जयसेन जैन भी पूर्व में इन पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं। मात्र इतना ही नहीं कुछ वर्ष पूर्व संस्था ने उपाध्याय ज्ञानसागर श्रुत संवद्र्धन पुरस्कार की स्थापना की है। जिसके अंतर्गत जैन साहित्य/संस्कृति की सेवा करने वाले विशिष्ट समाजसेवी व्यक्ति/संस्था को १ लाख रुपये की सम्मान राशि, प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया जा चुका है। अब तक यह पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली), डॉ. डी. वीरेन्द्र हेगडे (धर्मस्थल), तथा वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं प्रशासक प्रो. लक्ष्मीमल सिंघवी (दिल्ली) को प्रदान किये जा चुका है। विद्वानों से पूज्य उपाध्याय श्री का अनन्य अनुराग है। यही कारण है कि वे अपने प्रत्येक प्रवास में विद्वत् संगोष्ठियाँ जरूर आयोजित कराते हैं। न्याय, दर्शन, इतिहास एवं विज्ञान विषयों पर लगभग तीन दर्जन संगोष्ठियाँ गत २० वर्षों में आयोजित की जा चुकी हैं और अब उनमें गुणात्मक परिवर्तन करते हुए श्रुत संवद्र्धन संस्थान, मेरठ के उदात्त सहयोग से जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर एवं पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के संयुक्त तत्वावधान में तथा पूज्य श्री के पावन सानिध्य में व्यापक अकादमिक मानदण्डों का पालन करते हुए आयोजित की जाती हैं जिसके तह संगोष्ठी के पूर्व सारांश पुस्तिका एवं बाद में विस्तृत आख्या (झदमा्ग्हुे) का प्रकाशन भी किया जाता है। संस्थान विगत अनेक वर्षों से महत्वपूर्ण विषयों पर शोध करने हेतु विद्वानों को शोधवृत्तियाँ (इात्त्देप्ग्ज) भी प्रदान करता है। सराकोद्धारक संत उपाध्यायरत्न पूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज साहित्यप्रेमी संत है। यह हम सबका कर्तव्य है कि उनके आगमनिष्ठ सर्मिपत जीवन से प्रेरणा लेकर जिनवाणी के संरक्षण, अध्ययन/अनुसंधान, प्रचार का संकल्प ले यही उनके श्री चरणों में सच्ची विनयांजलि होगी।